शब्दों की जमीन
शब्दों की मिटटी
शब्दों का हल
शब्दों के बीज
शब्दों की नमी …
अभिव्यक्तियों के अलग अलग भावों से
हमने अपनी बात कही …
शब्दों के काले मेघ विरोध में गरजे
शब्दों के व्यंग्य वाण चुभे
पर,
भावनाओं के शाश्वत शब्दों का रोपण होता रहा …
सच पूछो तो
शब्दों की पांडुलिपियों से मेरा घर बना है
यत्र तत्र मिटटी,बीज,हल,खाद रखे हुए हैं
तभी तो हर सुबह मैं शब्दों की खेती करती हूँ
कुछ काट-छाँट
कुछ सिंचन
थोड़ी कीटनाशक दवा
……
शब्दों को जीने का
एक ख़ास अनुभव होता है
महज़ अपनी आजादी को जीते , करते हैं परिवारों की बाते !
वाणी गीत http://teremeregeet. blogspot.in/
मेरे घर में नहीं है
सिर्फ मेरी किताबों से भरी
बड़ी आलमारियां !
मेरी आलमारी भरी है
मेरी कुछ ही किताबोँ से
कुछ में सजी है
पति और बच्चों की क़िताबें भीं !
कुछ आलमारियों मे
गृहस्थी के जरुरी सामान
राशन बर्तन भांडे कपड़े लत्ते
कैंची सुई धागा मशीन भी !!
अतिथियों के स्वागत सत्कार के साथ
रखती हूँ दाना पानी
चिड़िया, गाय तो कभी कुत्ते के लिये भी !!
कभी किसी भूखे नंगे की गुहार सुन
खाना- कपड़ा देती हूँ कुछ उपदेशों के साथ भी !
कभी पैसा- अनाज ले जाते हैं ढोल पिटते
आशीषें बांटते लोग भी .... !!
अपने बच्चों की किलकारियां -झगडे भी
द्वार पर अनाथ बच्चों की खिलखिलाहट
रिरियाने की मजबूरी भी !
पढ़ने से कुछ अधिक ही
जीती हूँ रिश्तों को !
लड़ना , कुढ़ना , हँसना , प्रेम
नफरत , उपेक्षा , चिढ़ना
भी जिया है साथ ही .... !!
जो जीती हूँ ,
जीते देखती हूँ
वही लिखती भी हूँ !!
कभी इसके सिवा भी
जो जीते देखना चाहती हूँ …… !!!
कभी कुछ लिखती हूँ जो जीती नहीं
कभी कुछ जीती हूँ जो लिखती नहीं !!!
क्रांति की मोटी पुस्तकों से सजी
आलमारियों वाले घरों मे
क्रांति के बड़े किस्से पढ़नें वाले
गढ़ते है झूठे किस्से !
एसी में बैठे ज़ाम ढालते
मुर्ग मुसल्लम , पकवानों की दावत उड़ाते
लिखते हैं शोषित , गरीब , भूखों की बाते!
महज़ अपनी आजादी को जीते
करते हैं परिवारों की बाते !
अक्सर लिखते हैं , जो जीते नहीं
अक्सर जो जीते हैं , लिखते नहीं !!
निर्धारित शब्द ...
दिगम्बर नासवा http://swapnmere.blogspot. in/
अनगिनत शब्द जो आँखों से बोले जाते हैं, तैरते रहते हैं कायनात में ... अर्जुन की कमान से निकले तीर की तरह, तलाश रहती है इन लक्ष्य-प्रेरित शब्दों को निर्धारित चिड़िया की आँख की ... बदलते मौसम के बीच मेरे शब्द भी तो बेताब हैं तुझसे मिलने को ...
ठंडी हवा से गर्म लू के थपेडों तक
खुली रहती है मेरी खिड़की
कि बिखरे हुए सफ़ेद कोहरे के ताने बाने में
तो कभी उडती रेत के बदलते कैनवस पे
समुन्दर कि इठलाती लहरों में
तो कभी रात के गहरे आँचल में चमकते सितारों में
दिखाई दे वो चेहरा कभी
जिसके गुलाबी होठ के ठीक ऊपर
मुस्कुराता रहता है काला तिल
कोई समझे न समझे
जब मिलोगी इन शब्दों से तो समझ जाओगी
मैं अब भी खड़ा हूँ खुली खिडके के मुहाने
आँखों से बुनते अनगिनत शब्द ...
देवियाँ बोला नहीं करती --
--दिव्या शुक्ला http://divya-shukla. blogspot.in/
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जब भी स्त्री जीवन की
काली अँधेरी राहों से
बाहर आना चाहती है
नई राह खोजती है
रोशनी की नन्ही किरण के लिये
बस --हंगामा हो जाता है
देवी को महिमामंडित
सिंहासन से उतार फेंकते हैं
पवित्र ---अपवित्र ---दो शब्द
बेध कर रख देते ---
स्त्री के हर्दय को
यही दो शब्द थे ---जिसने
अहिल्या को पत्थर बनाया
क्यूं नहीं समझते ----
--हमारी मर्यादा हमारा सम्मान
हमारे अपने लिये है -------
--विवाह स्वर्ग में बना जन्मो का बंधन नहीं
मन का बंधन हैं ---प्रेम का बंधन हैं ---
नहीं स्वीकार है वस्तु बनाना -----
- -धुर्वस्वामिनी धन्य है
कायर पति द्वारा शकराज को उपहार में
दिये जाने का प्रतिकार --------
प्रतिकूल परस्तिथियों में सहनशक्ति की पराकाष्ठा
अंत मे एक चीत्कार -----एक प्रश्न -----
--आखिर ये निर्णय होना ही चाहिये -----
मै कौन हूं --क्या एक वस्तु ?? ----
--कायर पति का परित्याग --
--विवाहित जीवन की मर्यादा का कठोरतम पालन
स्वतंत्र होने के पश्चात चन्द्रगुप्त का वरण ---
क्या प्रसाद की धुर्वस्वामिनी आदर्श नारी नहीं
अगर है तो उसका उदाहरण क्यूं नहीं ?
काश कि हर धुर्वस्वामिनी को चंद्रगुप्त मिले -----
माना की मौन सर्वश्रेष्ठ अभिव्यक्ति हो सकता है
पर वह स्वतंत्र सक्षम मौन ---
----लाचार असमर्थ दयनीय मौन नहीं ----
तुम्हें पता नहीं ऐसा मौन जब टूटता है
संबंध दरक जाते है ---नीवें हिल जाती है
इसीलिए तो कहा न ---हमें सुनो समझो
हमारा मन तो पढ़ो ----खुल कर जीने दो
हमारी इच्छा अनिच्छा का भी मतलब समझो
जिसे प्रेम करते है उसे जी भर याद तो कर सके
काल्पनिक जगत में विचरने में भी पाबंदी
कलम चली अगर हमारी ---तो कितनी भृकुटियां टेड़ी
आखिर क्यूं ---मत करो ऐसा --समझो सोचो --
अभी तो अस्तित्व को बचाने को जूझ रही है नारी
ये समय है कोख में समाप्त होता अस्तित्व बचाने का
आने वाला समय व्यक्तित्व का ---
अस्तित्व --व्यक्तित्व ---और हम --
आने वाला समय हमारा ही होगा
4 टिप्पणियाँ:
कई रंग एक स्थान पर समेटने में आपका कोई सानी नहीं।
आभार !
अक्सर लिखते हैं , जो जीते नहीं
अक्सर जो जीते हैं , लिखते नहीं !!
सत्य यही है ।
पर कुछ लोग जी लेते हैं अपने लिखे को भी कभी कभी जिसे बाकी लोग समझते नहीं ।
शब्दों को सही अर्थ में जी लें तो जीवन स्वर्ग है :)
अनकहे मगर ... जिये जाते शब्द और शब्दों में टिका इंतज़ार
एक से बढ़कर एक मोती
आपके अथक प्रयास साहित्य को समर्पित रहते हैं हमेशा ...
आपका आभार ...
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