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गुरुवार, 9 अक्टूबर 2014

अवलोकन - 2014 (5)



यादों के हस्ताक्षर पर ही पूरी ज़िन्दगी टिकी होती है 
आज की पोटली में बीते कल का अनुभव होता है 
पुनर्निर्माण की प्रक्रिया यूँ ही चलती है 


कितने पास, कितने दूर !

गिरिजा कुलश्रेष्ठ http://yehmerajahaan.blogspot.in/
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"आप कहाँ से हैं ?"
परिचय के बिना पास बैठा व्यक्ति भी कितना दूर होता है ,पार्क में बैठी उस अधेड़ उम्र की महिला ने उस दिन यही महसूस किया जब पास ही बेंच पर बैठी युवती ने उसकी ओर एक बार भी नही देखा जबकि कस्बाई परिवेश से आई वह महिला युवती से परिचय के लिये काफी उत्सुक थी। एक तो उसके लिये यह शहर नया ही था । फिर साथ बैठे दो व्यक्ति एक दूसरे से बात न करें ,खासतौर पर जबकि वे महिलाएं हों , यह स्वीकार कर लेने वाली बात नही है ।
 लेकिन युवती का ध्यान सिर्फ अपने मोबाइल फोन पर था और आधुनिक शिष्टाचार की दृष्टि से  उस अपरिचित महिला का इस तरह बात करना अनावश्यक ही नही अशिष्ट भी कहा जासकता था । जींस-टाप पहने वह युवती जो 'वॉक' के बाद कुछ देर के लिये बेंच पर बैठ गई थी, काफी खूबसूरत थी। उतनी ही निरपेक्ष भी । लेकिन महिला का मन नही माना और पूछ ही लिया –
“आप यहीँ की हैं या फिर ...। वैसे कहाँ से हैं ?”
"यूपी से ।"--युवती ने संक्षिप्त उत्तर देते हुए कन्धों पर झूलते बालों को समेटकर जूड़ा बनाया और अगले ही पल उँगलियाँ मोबाइल पर सरकने लगीं । वह एक अनजान और पुराने विचारों की लगने वाली महिला से बात करने जरा भी उत्सुक नही थी । लेकिन उस सवाल का कारण जानने की इच्छावश पूछा----" क्यों ?"  
"नही ऐसे ही पूछा है ।--महिला एक पल के लिये झिझकी । यूपी भर कह देने से क्या पता चलता है । परिचय हो तो फिर इतना अधूरा सा क्यों हो?
"यूपी में कौनसी जगह...?"
"आगरा "---युवती ने बेमन ही झटके के साथ जबाब दिया जैसे वह उसका आखिरी संवाद हो। 
महिला को लगा जैसे यह सूचना कोई बहुत दूर से दे रहा हो लेकिन कुछ देर बाद जब युवती ने पलट कर पूछा--"और आप ?" तो महिला को वह आवाज पास आती हुई प्रतीत हुई । उत्साहित होकर बोली- 
"मैं शिवपुरी से यहाँ बेटी के पास आई हूँ।" और फिर विस्तार से बताने लगी--"बेटी इंजीनियर है । अभी तीन-चार महीने पहले ही नौकरी लगी है ।यही एक बेटी है । बडे शहर में पहली बार आई है । चिन्ता तो होती है न । आप भी सर्विस करती होंगी ?"
"नही मेरे हसबैंड । वे भी इंजीनियर हैं ।"
"हसबैंड ? यानी यह शादीशुदा है?"---महिला चकित हुई---"आजकल पहनावे और रंग-ढंग से पता ही नही चलता कि कोई महिला लड़की है या औरत । विवाहिता है या कुँवारी । न बिन्दी न चूड़ी । न बिछुआ । बहुत हुआ तो माथे के ऊपर बालों में लाल लकीर खींचली बस । सब समय का असर है ।"   
" कौनसी कम्पनी में हैं आपके मिस्टर ?"
"विप्रो में ।"
"अरे ,विप्रो में तो मेरी ममेरी बहिन का बेटा भी है।
"होगा..। यहाँ बाहर से ज्यादातर इंजीनियर ही आते हैं।"
"बहुत बड़ा शहर है ।"--महिला अपने आप से कहने लगी---"पता नही कहाँ रहता होगा । जीजी से पता ले आती तो उससे भी मिल लेती ।"
युवती ने बात को जैसे सुना ही नही । पर महिला ने बोलना जारी रखा।
"आप यहाँ कहाँ रहती हैं ?"
"आज़ाद नगर में ।"
"अरे मेरी बेटी भी तो आज़ाद नगर में ही है । आप यहीं रहतीं हैं तो आपने अल्पना अपार्टमेंट तो देखा होगा ।"
"हाँ  ?"--अब युवती कुछ जाग्रत हुई ।---"मैं भी वहीं रहती हूँ ?"
"अर्..रे वाह , फिर तो हम पडोसनें हुईं ।"--महिला एकदम चमत्कृत सी होगई--  
" पर आपको वहाँ कभी देखा नही ।"
"हाँ वो...एक तो दूसरी लिफ्ट से आना-जाना होता है फिर....।" युवती अब भी बातों में विशेष रुचि लेती नही लग रही थी ।
"फिर ! दरवाजे भी हमेशा बन्द रहते हैं। "--महिला ने हँसकर बात पूरी की। इसके बाद दोनों साथ-साथ आईं । युवती ने महिला को शिष्टाचारवश एक कप चाय पीने का निमन्त्रण दिया तो महिला बिना किसी औपचारिकता के सम्मोहित सी उसके पीछे चली गई । कालबेल दबाने के बाद दरवाजा खोलकर जो युवक सामने आया तो सचमुच एक चमत्कार सा हुआ । वह कुछ पहचानने की कोशिश करने के बाद चकित हुआ बोला--
"अरे ,मौसी आप यहाँ कैसे ?"
" ये लो ..बगल में छोरा ,नगर में ढिंढोरा ..।---उस महिला ने युवती की ओर आश्चर्य और खुशी के अतिरेक के साथ देखा और चहककर कहा---बेटी ,यही तो अभिषेक है। कुसमजीजी का बेटा ।"-- ।
अगले पल वह महिला के पैरों में झुक गया । युवती भी ।
"यहाँ रीतिका आगई है न । कुसमजीजी से तेरा पता और नम्बर लेना भूल गई बेटा । पर तू इतने पास होगा यह तो कमाल होगया । बडी आसानी से मुझे बहू भी मिल गई ।"


महिला खुशी से विह्वल होकर कहती रही---" लेकिन अगर पार्क में मैं बातचीत की कोशिश न करती तो इतने पास रहकर भी शायद तुम लोग दूर ही रहते । नही ?"

तेरे हाथों पे निसार जायें मेरे कातिल...

पूजा उपाध्याय http://laharein.blogspot.in/

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ख्वाब था।

सुबह धूप ठीक आँखों पर पड़ रही थी। मगर ख्वाब इतना खूबसूरत था कि हरगिज़ उठने का दिल नहीं किया। बहुत देर तक आंख बंद किये पड़ी रही। नीम नींद में आँखों में इन्द्रधनुष बनते रहे। आँखें मीचती और हल्के से खोलती। मौसम इतना सुहाना था कि तुम्हारी बांहों में मर जाने को जी चाहे। चाह ये भी थी कि बीमारी का बहाना बना के छुट्टी डाल दी जाये और गाड़ी लेकर कहीं लौंग ड्राइव पर निकल जायें।

बात बस इतनी सी थी कि तुम्हारा ख्वाब देखा था।

तुम और मैं किसी ट्रेन में मिल गये हैं अचानक से। जाने कौन सी ट्रेन है और हम एक डिब्बे में कैसे बैठे हैं जबकि हमें दो अलग अलग दिशाओं में जाना है। स्लीपर बौगी है। हम किसी पुल से गुजर रहे हैं। रेल का धड़धड़ाता शोर है। शाम का वक्त है। देर शाम का। गहरा नारंगी आसमान सिन्दूरी हुआ है। दूर एक मल्लाह विरह का गीत गा रहा है। उसे मालूम है, जिन्दगी के अगले किसी स्टेशन तुम और मैं दो अलग दिशाओं में जाने वाली तेज रफ्तार ट्रेनों में बैठ एक दूसरे से फिर कभी न मिलने वाले स्टेशन का टिकट कटा कर चले जायेंगे। तुम गुनगुना रहे हो। जैसे धूप जाड़े के दिनों में माथा सहलाती है वैसे। खुले हुये बाल हैं, थोड़े गीले, जैसे अभी अभी नहा के आयी हूं। हल्के आसमानी रंग का शॉल ओढ़ रखा है। खिड़की से सिर टिकाये बैठी हूं। ठंढ इतनी है कि गाल लाल हुये जाते हैं। हाथों मे दस्ताने हैं हमेशा की तरह।

कुछ मुसाफिरों ने दरख्वास्त की है कि मैं खिड़की बंद कर दूं। हवा पूरे कम्पार्टमेंट की गर्मी चुरा लिये जा रही है। उनके पास दान में मिले कुछ कंबल हैं बस। मैं खिड़की तो यूं कब का बंद कर देती, मगर तुम्हारी ओर नहीं देखने का कोइ सही बहाना चाहिये था। शीशे की खिड़की बंद होते ही आँखों के कमरे में तूफान आया है। तुमने एक खूबसूरत सा कंबल खोला है। धीरे धीरे कर के कुछ और लोग हमारी बौगी में आ गये हैं। मैंने दास्ताने उतार लिये हैं। मुझे ठीक याद नहीं, तुम्हारे कंबल को कब हौले से ओढ़ा था मैंने। हल्की झपकी आयी थी। आँख खुली तो तुम्हारा कंबल कांधे पर था। तुम भी कोई एक फुट की दूरी पर थे। तुम्हारी कलम मेरे पास गिर कर आ गयी थी शायद। तुमने कंबल में मेरा हाथ अपने हाथों में लिया था और कहा था 'तुम्हारे हाथ बहुत मुलायम हैं', तुमने मेरे हाथों को जो अपने हाथों में लिया था वो याद है मुझे...जैसे फर का कोइ खिलौना हो...नन्हा सा खरगोश जैसे, कितने कोमल थे तुम्हारे हाथ। तुमने कहा था कि तुम्हारी कलम उधर गिर गयी है, और मैं वो तुम्हें लौटा दूं। जाने किसने गिफ्ट किया था तुम्हें। हो सकता है न भी किया हो, बस लगा मुझे।

हाथ कोई फूल होता गुलाब का तो हम कौपी तले दबा के रख देते, हमेशा के लिये। मगर हाथ जीता जागता था। दिल की तरह। सुबह उठी तो दर्द मौर्फ कर गया था। दिन भर कैसी कैसी तो गज़लें सुनी सरहद पार की...मन लेकिन उसी नदी के पुल पर छूट गया था जिस पर तुमने मेरा हाथ पकड़ा था। सोचती हूं क्यूं। समझ नहीं आता। ख्वाब तो बहुत आते हैं, इक ख्वाब पर दूसरे रात की नींद कुर्बान कर देना मेरी फितरत नहीं, मगर सवाल सा अटक गया है कहीं। मालूम है  कि एकदम बेसिर पैर की बात है मगर दिल ही क्या जो समझ जाये। लगता है कि जैसे तुमने बड़ी शिद्दत से याद किया है। तुम हँस दो शायद, पर लगा ऐसा कि तुमने भी यही सपना देखा था कल रात। कि तुमने भी बस इतना ही ख्वाब देखा था। फिर किसी स्टेशन हम दोनों उतरे और तुम अपने घर वापस चल दिये, मैं अपने भटकाव की ओर।

दिन को ऐसी घबराहट हुयी, लगा कि सांस रुक जायेगी। जैसे तुमने अचानक मेरे शहर में कदम रखा हो। जाड़ों का ठिठुरता मौसम इतनी तेजी से गुजरा जैसे फिर कभी आयेगा ही नहीं। वसंत हड़बड़ में आया। मुझे अच्छी तरह याद है कि औफिस के रास्ते के सारे पेड़ों मे कलियां तक नहीं फूटी थीं। बाईक लेकर उड़ती हुयी जा रही थी कि अटक गयी। मौसम की बात रहने दो, बंगलोर मे अमलतास के पेड़ कभी नहीं थे। यहाँ की बोगनविलिया भी लजाये रंगो की होती थी। ये चटख रंग तो ऐसे आये हैं जैसे मन पर ईश्क रंग चढ़ता है। धूप छेड़ रही थी। तुम किसी हवाईजहाज में चढ़े थे क्या? कहां हो तुम...आखिर कभी तो याद कर लिया करो। तुम्हारे नाम क्या कोइ पौधा लगा रखा है...दिल कोई बाग तो नहीं है कि तुम्हारी जड़ें जमती जायें। उँगलियों से तुम्हारे आफ्टरशेव की खुशबू आती रही। दिन भर तुम्हें खत लिखती रही। जब सारी बातें खत्म हो गयीं तो तुम्हारे इस ख्वाब को कहीं ठिकाने लगाने की परेशानी शुरू हुयी। सीने में दर्द लिये जीने में दिक्कत होती है, चेहरा जर्द पड़ जाता है। हर ऐरा गैरा शख्स पूछने लगता है कि बात क्या है। किसको सुनायें रामकहानी। कवितायें लिखना भूल गयी हूं वरना इतनी तकलीफ नहीं थी। दो लाइन में इतना सारा दुख कात के रखा जा सकता था।

एक पूरा दिन बीत गया है...साल की कई कहानियों जैसा। धूप का गहरा साया छू कर गुज़रा है। आंखों में तुम्हारे हाथ बस गये हैं। दुआ करने को हाथ जुड़ते हैं तो बस तुम्हारा चेहरा उभरता है। ख्वाबों का पासवर्ड याद है तुम्हारी उँगलियों को भी। तुम्हारा कत्ल हो जाना है मेरे हाथों किसी रोज जानां। मत मिला करो यूं ख्बाबों में मुझसे। मेरे लिये जरा वो गाना प्ले कर दो प्लीज...आज जाने की जिद न करो...देर बहुत हुयी। कल का दिन बहुत हेक्टिक है। देखो, आज की रात छुट्टी लेते हैं...मेरे ख्वाबों मे मत आना प्लीज।

अगले इतवार का पक्का रहा। दुपहर। धूप में बाल सुखाते नींद आ जाती है। गोद में सर रख सुनाना मुझे गजलें। मिलना धूप के उस पुल पर जहां से किसी शहर की सरहद शुरू नहीं होती। मेरे लिये याद से लाना गहरे लाल रंग की बोगनविलिया और पीले अमलतास। जाते हुये रच जाना हथेलियों पर तुम्हारे नाम की मेंहदी। रंग आयेगा गहरा कथ्थई। उंगलियों की पोरों को चूमना...कहना, मेरे हाथ बेहद खूबसूरत हैं...फूलों की तरह नाजुक...मुलायम...मेरे लिये लाना खतों का पुलिंदा...कहानियों की कतरनें...हाशिये की कवितायें। चले जाना कमरे में फूलदान के बगल में रख कर ये सारा ही कुछ। देर दुपहर कहानियों से रिसेगी कार्बन मोनोक्साईड...मैं तुम्हारे प्यार में गहरी साँस लेते सो जाउंगी एक आखिरी मीठी नींद। तुम ख्वाबों में आना। तुम रहना। तुम कहना। तुम्हारे हाथ...


लकीरें

अंजु चौधरी अनु http://apnokasath.blogspot.in/

[Anju+Chaudhary.jpg]

इन आड़ी-तिरछी लकीरों से
खींचती है ज़िंदगी एक तस्वीर
एक सोच
एक द्वंद्ध
एक लड़ाई 
इस बेरहम जिंदगी से

एक सोच
उस खालीपन की कसक
कुछ तो करना है
जो अभी अधूरा है

एक जद्धोजहद
उस खालीपन की
जिसके इंतज़ार में
उम्र निकलती जा रही है

खाली से टेबल पर
खाली से वक़्त में
कागज़,पेंसिल से खेलने की कला
जो बेमतलब खींच देती है
किस्मत की लकीरों को
इन आड़ी-तिरछी रेखाओं की तरह ||


ये तन्हाई भी क्या चीज़ होती है, बेकार बना देती है इंसान को
क्या करेगा ये दिल यूं ही , पुराने पन्ने पलट-पलट कर ||

4 टिप्पणियाँ:

मुकेश कुमार सिन्हा ने कहा…

बेहतरीन संकलित रचनाएँ ........

vandana gupta ने कहा…

पूजा की लेखनी में जादू है सम्मोहित कर लेती है हर बार …………गिरिजा जी की कहनी और अंजू की कविता दोनो ही बहुत बढिया

सुशील कुमार जोशी ने कहा…

पारखी नजर से चुनी गई उत्कृष्ट रचनाऐं हमेशा की तरह ।

उम्मतें ने कहा…

फिलहाल सब्र से काम ले रहा हूँ !

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