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बुधवार, 15 अक्टूबर 2014

अवलोकन 2014 (10)



दृश्य प्रायः दो होते हैं 
एक शांत, एक अशांत 
हम चयन ही करते हैं अशांत दृश्यों का 
पूरी ज़िन्दगी का सार 
सिर्फ अशांति नहीं होती 
पर हम अक्सर उसीमें घिरे होते हैं 
उसी की चर्चा करते हैं 
सोचिये -
क्या समय ने सिर्फ यही दिया है ?
यदि आप गिरे हैं 
तो किसी ने मरहम लगाया है 
किसी ने मरहम नहीं लगाया 
तो वक़्त ने आपको सहना सिखाया है 
एक पहचान दी है 
… खाली हाथ आप कभी नहीं होते 



समांतर रेखाएँ

.........ऋता शेखर 'मधु' ऋता शेखर 'मधु' http://madhurgunjan.blogspot.in/

अन्तर बना कर चलने का भी
गणित में बहुत सार्थक वजूद है
सैद्धान्तिक रूप से 
दो समांतर रेखाएँ
आपस में 
नहीं मिलतीं
पर चलती हैं साथ साथ
बिना दो रेखाओं के 
समांतर शब्द का अर्थ नहीं

दो भिन्न स्वभाव के लोग
जब भी साथ चलते हैं
उनके बीच दूरी रहती है
पर यह न समझो
उन्हें दूसरे की परवाह नहीं
परवाह है तभी तो साथ हैं

और गणितज्ञ यह भी कहते हैं
समांतर रेखाएँ अनंत में मिलती हैं

तो हे प्रभु,
यही आशा और विश्वास
हमारे साकार और
तुम्हारे निराकार रूप को
अनंत में एकाकार करेंगे
और तब सिद्ध हो जाएगा
पूजा और आस्था का समांतर होना|





सन छियासठ में .......मृदुला प्रधान मेरा फोटोhttp://blogmridulaspoem.blogspot.in/
इसे छोड़ दूं तो वो आती हैं .……उसे छोड़ दूं तो ये आती हैं  ,ये यादें भी अजीब हैं.……. पीछा ही नहीं छोड़तीं....... 

सन छियासठ में 
'सिलीगुड़ी' में,कितने कम में 
घर चलाते थे,
एक रूपये का पाव 
मछली खाते थे.……. 
तब दिल्ली कितना 
खुशगवार था,
कलकत्ते में कितना 
प्यार था,
इंगलैंड की सुबह में 
कितना लावण्य था,
कन्याकुमारी की शाम में 
कितना सौन्दर्य था.……. 
कितना रोमैंटिक था 
नील नदी का किनारा 
रातों में,
मज़ा कितना रहता था 
इंडो-सूडान क्लब की 
बातों में.……. 
हाँ-हाँ.…
वो आसनसोल में.…
ऑफिस-कम-रेसीडेंस था,
ऑफिस और घर का 
अगल-बगल 
इन्ट्रेंस था.…….


उसका मन?

पारुल चंद्रा http://theparulsworld.blogspot.in/


बचपन से पिता की बात मानती
और बाद में पति का कहा सुनती
क्या खुद की कभी सुन पाई है..?

'ये मत करो..वो मत करो'
'शादी के बाद भी बचपना नहीं गया तुम्हारा'
क्या मन का कभी कर पाई है..?

'कैसी पसंद है तुम्हारी.. ये रंग मुझको जंचता नहीं'
'कुछ और पहन लो ये फबता नहीं'
क्या मन का कभी ओढ़ पाई है..?

'ज्यादा पढ़कर क्या करना है
चूल्हा चौका ही तो करना है'
'अब बच्चों को पढ़ाना है या खुद पढ़ना है'
क्या मन का कभी पढ़ पाई है..?

'अरे ये शौक-वौक सब बेकार की बातें'
कुछ घर के लिए करो'
'हमें क्यों बोर करती हो'
क्या सपना कोई सच कर पायी है..?

जो बात माने सबकी तो कितना प्यार पायी है
जो कर ली मन की तो बिगड़ी हुई बताई है
कर्तव्य निभाए सारे तो उसका धर्म है भाई
खुद पर जो दिया ध्यान तो बेशर्म कहलाई है

सपने संजोती थी बचपन से
उन्हें संभाले ससुराल आई है
बोझ से ज़्यादा क़ीमत नहीं है उनकी
अब तक जिन्हें ढ़ोती ही आई है..

3 टिप्पणियाँ:

vandana gupta ने कहा…

लाजवाब रचनायें संजोयी हैं दी …………सभी एक से बढकर एक ।

सुशील कुमार जोशी ने कहा…

एक से बढ़कर एक रचनाऐं वो भी साथ साथ वाह !

ऋता शेखर 'मधु' ने कहा…

बहुत आभार यहाँ पर स्थान देने के लिए...सभी एक से बढ़कर एक !!

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