नमस्कार मित्रो,
रविवार की इस बुलेटिन में आपका स्वागत है. काम की भागदौड़ के
बीच कभी रविवार आता था सुकून लेकर, अपनों के बीच मस्ती करने को लेकर, सारा दिन
बच्चों की तरह से खेलने-कूदने को लेकर किन्तु अब रविवार भी ऐसा नहीं रह गया.
इंसानों की तरह से इसने भी अपने आपको बदल लिया है. रोज की तरह ये आ जाता है चंद
अच्छी खबरों के बीच थोक के भाव से बुरी खबरों को लेकर. दंगे हत्याएं, महिला-हिंसा,
शोषण, अराजकता आदि की दिल को व्यथित करने वाली खबरों को लेकर. बच्चों सी उछल-कूद
भी अब इस दिन नहीं होती; घड़ी-घड़ी चाय की माँग अब नहीं उठती; दिन-दिन भर धूप में
बाहर धमाचौकड़ी करती मण्डली अब नहीं दिखती. न शैतान बचपन समझ आता है न अल्लहड़ किशोरावस्था
नजर आती है; न उत्साही युवा दिखते हैं और न ही मार्गदर्शक वृद्ध दिखते हैं.
ऐसा
लगता है जैसे समय ने सब कुछ लील लिया हो. हर तरफ एक तरह की अफरातफरी सी मची दिखती
है. हर तरफ एक अविश्वास सा दिखता है. सबके मन में अनेक सवाल हैं साथ ही सभी निरुत्तर
भी हैं. कुछ भी हो जवाब हमें ही तलाशने होंगे, अपना खोया सुकून हमें ही वापस लाना
होगा, जीवन में व्याप्त होती जा रही नैराश्यता को हमें ही दूर करना होगा. अब ये सब
कैसे होगा.. कब होगा... विचार करिए. अकेले न रहिये, साथ चलिए, शायद कोई सुखद हल
प्राप्त हो जाए.
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इसी आशा विश्वास के साथ कि जल्द ही उमंग भरने वाली जीवनशैली
वापस आएगी, जल्द ही सुकून देने वाला रविवार आएगा.
अगली बुलेटिन तक के लिए विदा....
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आज के बने-बनाये खांचों में
फिट नहीं बैठती है ये ‘फ़ास्ट फॉरवर्ड
पीढी’
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‘क्या बच्चों पर
पारिवारिक संस्कारों का असर होता है?’ ये हमें जानना-समझना
ही पड़ेगा.
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‘एक वो भी
जमाना था.....’ मानने वालों की संख्या अभी भी कम नहीं है.
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रिश्तों को जोड़ने का काम भी इंसान
करता है, तोड़ने का काम भी पर आज के तकनीकी युग में ‘ध्वनी तरंगें अब
रिश्ते जोड़ती और घटाती हैं’
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इसी कारण से अच्छा है कि ‘गाँठ जीवन से जितनी
जल्दी निकले उतना अच्छा’ वो चाहे रिश्तों में हो, मन में हो या फिर देह में.
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समाज में हम सबके बीच पाए
जाते हैं बहुत से ‘नकली चेहरे’
इनको समझने-जानने की जरूरत है.
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इंसान के लिए ‘संघर्ष का
कथानक : जीवन का उद्देश्य’ उसकी परीक्षा की कसौटी बनता है.
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इन सबके बीच ‘अजीब उलझन
में फंसा मन.....’ खुशियों की कामना करता है, सुकून की चाहना रखता है.
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इसी जीवन-संघर्ष में उत्साह
छा जाता है जबकि ‘कल आई थी बूँदे...’
चंद खुशियों की.
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और फिर ‘अक्सर ऐसा
होता क्यूँ जब कविता लिखने को मन हो आये’ यही तो मन है.
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अंत में सचेत करती जानकारी ये
कि ‘एकदम
खालिस कैफ़ीन भी बिकती है इंटरनेट पर’ सचेत आप भी रहें, औरों को भी करें.
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चित्र गूगल छवियों से साभार
6 टिप्पणियाँ:
अच्छे सूत्र। आभार।
एक वो भी जमाना था...
कविता को ब्लाग में स्थान देने के लिए मित्र आपका बहुत बहुत धन्यवाद।
सेंगर जी,ब्लॉग बुलेटिन मे मेरी
पोस्ट शामिल करने के लिए
बहुत-बहुत धन्यवाद.
महोदय कृपया यह बताने का कष्टकरें क्या आप जगम्नपुर सैर परिवारके सदस्यहैं।
The screen time should be reduced . At least one day a week should be screen free day. Be it TV or computer or mobile.
कोमल भावो की और अभिवयक्ति .....
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