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रविवार, 17 नवंबर 2013

प्रतिभाओं की कमी नहीं 2013 (9)

ब्लॉग बुलेटिन का ख़ास संस्करण -



अवलोकन २०१३ ...

कई भागो में छपने वाली इस ख़ास बुलेटिन के अंतर्गत आपको सन २०१३ की कुछ चुनिन्दा पोस्टो को दोबारा पढने का मौका मिलेगा !

तो लीजिये पेश है अवलोकन २०१३ का नौ वाँ भाग ...


वर्षों से निकाल रही हूँ अपमान की कीलें 
और वर्षों से चुभ रही हैं नई कीलें 
मैं हतप्रभ हूँ अपनी खुद्दारी पर !

किसी ने नहीं सोचा उस खुद्दारी को 
अपमान की अवधि को 
किये बस कुछ सवाल निहायत बेवकूफ़ाना !

जब तक मैं देती जाती हूँ जवाब 
लोग बुद्धिजीवी की तरह सुनते जाते हैं 
पर मेरी ख़ामोशी में वे कतरा कर निकल जाते हैं !

यूँ ही लोग बड़ी बड़ी बातें करते हैं 
छोटी सी चोरी पर शोर मचाते हैं 
पर जिस घर में धमाका होता है 
वहाँ से चुपचाप हट जाते हैं !!

कर दो कभी सवाल उनसे धमाकों को लेकर 
तो मासूमियत से कहते हैं -
"हमें क्या पता 
या हमें क्या लेना-देना"  .... 
वाकई,
लोग बड़े खतरनाक होते हैं !!!

सच तो यह है कि अब मैंने हर हाल में जीना सीख लिया है क्योंकि जीवन है तो कुछ हासिल भी है
वरना मृत्यु का तो अर्थ ही सब कुछ यहीं छूट जाना है !
(साधना वैद)


हालात की पेचीदगियों ने
वक्त की पेशानी पर
हर रोज़ जो नयी सिलवटें डालीं हैं
उन ज़िद्दी सिलवटों को  
मिटाते-मिटाते
पूरी एक उम्र मैंने
यूँ ही नहीं गुज़ार दी है
हर लम्हा हर पल
खुद को भी मिटाया है ! 

ज़िंदगी की स्लेट पर
तुमने जो मुश्किल सवाल
मेरे हल करने को
लिख दिये थे
उन्हें हल करते-करते
पूरी एक उम्र मैंने
यूँ ही नहीं गुज़ार दी है
हर लम्हा हर पल
खुद भी एक अनसुलझी पहेली
बन कर रह गयी हूँ ! 

यह जानते हुए भी कि
मुझे तैरना नहीं आता
जिस आग के दरिया में
मुझे धकेल कर सब
घर को लौट गये थे
उस आग के सैलाब में
जलते झुलसते
डूबते उतराते
तैरना सीखने में
पूरी एक उम्र मैंने
यूँ ही नहीं गुज़ार दी है
हर लम्हा हर पल
उस आँच में तप कर
कुंदन की तरह
निखरना भी मैंने
सीख लिया है !

गुब्बारे में कैद सपनें

अब तक निम्नलिखित कृतियां प्रकाशित : फुनगियों पर लटका एहसास, अंधेरे के ख़िलाफ (कविता संग्रह),समय के गहरे पानी में (कविता संग्रह ),दूसरी मात (कहानी संग्रह), कथा दर्पण (संपादित कहानी संकलन), सतरंगे गीत , चूहे का संकट (बाल-गीत संग्रह), नटखट टीपू (बाल कहानी संग्रह). लगभग सभी राष्ट्रीय पत्र-पत्रिकाओं में रचनाएं प्रकाशित. 'साहित्य दिशा' साहित्य द्वैमासिक पत्रिका में मानद सलाहकार सम्पादक और 'न्यूज ब्यूरो ऑफ इण्डिया' मे मानद साहित्य सम्पादक के रूप में कार्य किया . सम्मान - राष्ट्रीय हिंदी सहस्त्राब्दी सेवी सम्मान 2001, हिंदी सेवी सम्मान 2005 ( जैमिनी अकादमी (हरियाणा ), आचार्य प्रफुल चन्द्र राय स्मारक सम्मान २०१० (कोलकता), ट्वंटी टेन राष्ट्रिय अकेडमी एवार्ड (हिंदी साहित्य ) २०१० (कोलकत्ता )
(अशोक आंद्रे)

कोने में बैठी उस
लड़की को हमेशा
ख़ामोशी के
गुब्बारे फुलाते हुये देखा है
उस गुब्बारे में
उसके सपने क्यूँ कैद रहते हैं
यह हर प्राणी की समझ से परे
सिवाए ख़ामोशी के खामोश ही रहते हैं
लोग गुब्बारे में कैद
उसके सपनों में 
एक बिंदिया चिपका कर
उसे हसाने की असफल चेष्टा करते हैं
लड़की फिर भी खामोश रहती है
कैदी सपने
उसकी आँखों में छिपे दृश्यों को
उकेर नहीं पाते
उसके अन्दर आग की चिंगारी
निरंतर बडवानल की तरह सुलगती रहती है
जबकि वह कई बार
अपने सपनो से बाहर आने की कोशिश करती है
लड़की सामने पेड़ के ऊपर
हिलते पत्तों को देखती है चुपचाप
सोचती है कि इन पत्तों की तरह
उसके सपनों पर लहराते दृश्य
क्यूँ नहीं कोई हरकत कर पाते ?
आखिर उसके विशवास क्यूँ डगमगाते हैं
तभी हवा परदे हिलाती
उसके कानों में कुछ
गीत गाती चली जाती है
तभी महसूस करती है कि
उसके सपनें कमल की तरह
समय की लहरों पर
कुछ शब्द उकेरने लगते हैं
गुब्बारा उसकी खामोशी के सूखे पत्तों का
एक नया वितान बना
प्लेटोनिक प्यार के पन्नों को चलायमान करता है
आखिर सूखे पत्तों पर तो ही
शब्दों का जाल रच कर 
कोई लड़की
संगीत की सत्ता तैयार करती है   
 जानती है कि
उसकी सोच के सारे रास्ते
इसी सत्ता के माध्यम से
जिन्दगी के बंद दरवाजों को
खोलने में सक्षम होंगे
जहां से
अपनी मंजिल तय करनी है
तभी वह
गुब्बारे में कैद
अपने सपनों को
कोई दिशा दे पायेगी.

हर लम्हा कैद है ज़िंदगी...: स्वयं

जो मेरी-तेरी रात के, सितारे ज़ख्म ज़ख्म हैं जो मेरी-तेरी सुबह के, गुलाब चाक चाक हैं ये ज़ख्म सारे बे-दवा

, ये चाक सारे बे-रफू किसी पे राख चाँद की, 

किसी पे ओस का लहू -फैज़-
(फ्रेंकलिन निगम)

सबसे मुश्किल था
अपने आप को
अपने से बांध कर रखना..
खुद को खुद से
छुपाके रखना..
और
आज जब मिला हूं,
जिंदगी के चौराहे पे
अपनी ही परछाई से..
कुछ बदला-सा
दिखने लगा है
चेहरा अपना..

घुमावदार रास्तों के निशाँ जीवन बदलते हैं, अपना आप अपने आप बदल जाता है और चेहरा खुद से बेगाना  … यही है ज़िन्दगी और खुद से अनजान हम :)

14 टिप्पणियाँ:

Saras ने कहा…

हमेशा कि तरह खूबसूरत रचनायें......आभार उन्हें हम तक पहुँचाने के लिए ...!!!

Unknown ने कहा…

- समाजिकता भी अपनी सुविधा से निभाता है समाज ....विचारोत्तेजक रचना
- अंतिम अन्तरे में जैसे रचना और विचारों का सारांश समेट लिया हो . अब मैं हर चुनौती के लिए प्रस्तुत हूँ .....स्वाभिमान के साथ ...जीतने के लिए
- खामोशी दुःख का ही पर्याय नहीं है ....मानस-शक्ति की पोषक भी है .वही ...जीमे सपनों को सच में बदल पाने की हिम्म्त और ताकत होती है ...मुझे प्रेरणादायी रचना प्रतीत होती है .
- समय और परिस्थितियाँ हमें कितना बदल देती हैं ...हम खुद भी कहाँ जान पाते हैं . खुद से अजनबी हो जाना बहुत दुखदायी है ...बहुत मार्मिक
.........रश्मि जी ...बहुत-बहुत आभार इन रचनाओं के लिए

Kailash Sharma ने कहा…

बहुत सुन्दर रचनाएँ!

मुकेश पाण्डेय चन्दन ने कहा…

shandar prastuti....

Asha Lata Saxena ने कहा…

बढ़िया चयन कविताओं का |रश्मी जी आपको अपने सफल प्रयत्न के किये मेरी हार्दिक बधाई |
आशा

निवेदिता श्रीवास्तव ने कहा…

रचनाओं का उत्कृष्ट चयन .......

Sadhana Vaid ने कहा…

रश्मिप्रभा जी मैं आपकी आभारी भी हूँ और मुदित एवँ विस्मित भी हूँ अपनी रचना को यहाँ देख कर ! आपका हृदय से धन्यवाद ! सभी रचनायें बहुत सुंदर हैं !

सुशील कुमार जोशी ने कहा…

सच में वहाँ भी होते हैं और यहाँ भी होते हैं
लोग तो लोग होते है बड़े खतरनाक होते हैं !
वाह ! :)

Dr. sandhya tiwari ने कहा…

sundar rachnaye mili padhne ko aabhar..............

अरुण चन्द्र रॉय ने कहा…

खूबसूरत रचनायें!

शिवम् मिश्रा ने कहा…

खूबसूरत रचनायें और उतनी ही उम्दा प्रस्तुति ... आभार दीदी !

मुकेश कुमार सिन्हा ने कहा…

बेहतरीन

सदा ने कहा…

वाकई,
लोग बड़े खतरनाक होते हैं !!!
घुमावदार रास्तों के निशाँ जीवन बदलते हैं, अपना आप अपने आप बदल जाता है .... बिल्‍कुल सच
बेमिसाल रचनाओं का चयन .... आपका श्रम निश्चित रूप से नमन करने योग्‍य है
सादर

Rama ने कहा…

Dr Rama Dwivedi..

बहुत सुन्दर संकलन … बहुत-बहुत बधाई...

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