ब्लॉग बुलेटिन का ख़ास संस्करण -
अवलोकन २०१३ ...
कई भागो में छपने वाली इस ख़ास बुलेटिन के अंतर्गत आपको सन २०१३ की कुछ चुनिन्दा पोस्टो को दोबारा पढने का मौका मिलेगा !
तो लीजिये पेश है अवलोकन २०१३ का सातवाँ भाग ...
एक उम्र के मुकाम पर मोहबंध दोनों तरफ से टूटते हैं पर बुद्ध नहीं होता मन !!!
सांस लेने को जीना नहीं कहते
साँसें मर्ज़ी से कब चलती हैं !
सच कितना भी जान लो,समझ लो
मुक्त नहीं होता मन …
मृत्यु है -
इसे जानकर क्या उसकी वेदना से उबरता है आदमी !
अलग बात है
कि अपने अपने घेरे हैं
अलग अलग जुड़ाव हैं …
मान लेना और मना लेना मन को
दो अलग स्थिति है …
ऐसी ही स्थितियों से कई प्रतिभाएँ गुजरती हैं और मन को कलम में भरकर लिखती जाती हैं
writer & journalist
(देवयानी भारद्वाज )
पेट की भूख का रिश्ता रोटी से था
यूं रोटी का और मेरा एक रिश्ता था
जे बचपन से चला आता था
रोटी की गंध में
मां की गंध थी
रोटी के स्वाद में
बचपन की तकरारों का स्वाद
इसी तरह आपस में घुले-मिले
रोटी से मां, भाई और बहन के रिश्तों का
मेरा अभ्यास था
पिता
वहां एक परोक्ष सत्ता थे
जिनसे नहीं था सीधा किसी गंध और स्वाद का रिश्ता
बचपन के उन दिनों
रोटी बेलने में रचना का सुख था
तब आड़ी-तिरछी
नक्शों से भी अनगढ़
रोटी बनने की एक लय थी
जो अभ्यास में ढलती गई
अब
रोटी की गंध मे
मेरे हाथों की गंध थी
रोटी के स्वाद में
रचना और प्रक्रिया पर बहसों का स्वाद
रोटी बेलना अब रचना का सुख नहीं
बचपन का अभ्यास था।
(शरद कोकास)
कितना आसान है
किसी ऐसे शहर के बारे में सोचना
जो दफन हो गया हो
पूरा का पूरा ज़मीन के भीतर
पुराणों के शेषनाग के हिलने से सही
या डूब गया हो गले तक
बाढ़ के पानी में
इन्द्र के प्रकोप से ही सही
या भाग रहा हो आधी रात को
साँस लेने के लिये
चिमनी से निकलने वाले
दंतकथाओं के दैत्य से डरकर ही सही
ढूँढ लो किसी जर्जर पोथी में
लिखा हुआ मिल जायेगा
पृथ्वि जल वायु और आकाश
समस्त प्राणियों की सामूहिक सम्पत्ति है
जिससे हम
अपना हिस्सा चुराकर
अपने शहर में स्टीरियो पर
पर्यावरण के गीत सुनते
आँखें मून्दे पड़े हैं
वहीं कहीं प्रदूषित महासागरों का नमक
चुपचाप प्रवेश कर रहा है हमारे रक्त में
आधुनिकता की अन्धी कुल्हाड़ी से
बेआवाज़ कट रहा है
हमारे शरीर का एक एक भाग
सूखा बाढ़ उमस और घुटन
चमकदार कागज़ों में लपेटकर देने चले हैं हम
आनेवाली पीढ़ी को
हवा में गूंज रही हैं
चेतावनी की सीटियाँ
दूरदर्शन के पर्दे से बाहर आ रहे हैं
उन शहरों के वीभत्स दृश्य
हमारे खोखले आशावाद की जडॆं काटता हुआ
हमे डरा रहा है एक विचार
कल ऐसा ही कुछ
हमारे शहर के साथ भी हो सकता है
यह भय व्यर्थ नहीं है ।
न दैन्यं न पलायनम्: जलकर ढहना कहाँ रुका है
(प्रवीण पाण्डेय)
आशा नहीं पिरोना आता, धैर्य नहीं तब खोना आता,
नहीं कहीं कुछ पीड़ा होती, यदि घर जाकर सोना आता,
मन को कितना ही समझाया, प्रचलित हर सिद्धान्त बताया,
सागर में डूबे उतराते, मूढ़ों का दृष्टान्त दिखाया,
औरों का अपनापन देखा, अपनों का आश्वासन देखा,
घर समाज के चक्कर नित ही, कोल्हू पिरते जीवन देखा,
अधिकारों की होड़ मची थी, जी लेने की दौड़ लगी थी,
भाँग चढ़ाये नाच रहे सब, ढोलक परदे फोड़ बजी थी,
आँखें भूखी, धन का सपना, चमचम सिक्कों की संरचना,
सुख पाने थे कितने, फिर भी, अनुपातों से पहले थकना,
सबके अपने महल बड़े हैं, चौड़ा सीना तान खड़े हैं,
सुनो सभी की, सबकी मानो, मुकुटों में भगवान मढ़े हैं,
जिनको कल तक अंधा देखा, जिनको कल तक नंगा देखा,
आज उन्हीं की स्तुति गा लो, उनके हाथों झण्डा देखा,
सत्य वही जो कोलाहल है, शक्तियुक्त अब संचालक है,
जिसने धन के तोते पाले, वह भविष्य है, वह पालक है,
आँसू बहते, खून बह रहा, समय बड़ा गतिपूर्ण बह रहा,
आज शान्ति के शब्द न बोलो, आज समय का शून्य बह रहा,
आज नहीं यदि कह पायेगा, मन स्थिर न रह पायेगा,
जीवन बहुत झुलस जायेंगे, यदि लावा न बह पायेगा,
मन का कहना कहाँ रुका है, मदमत बहना कहाँ रुका है,
हम हैं मोम, पिघल जायेंगे, जलकर ढहना कहाँ रुका है?
विराम शरीर का होता है - मन चलता जाता है ... लाख घूरो, हिदायतें दो,सीख दो
मन विराम नहीं लेता ..... मृत्यु भी उसकी गति नहीं हर पाती
फिर कैसा विराम ?
मन विराम नहीं लेता ..... मृत्यु भी उसकी गति नहीं हर पाती
फिर कैसा विराम ?
10 टिप्पणियाँ:
umda sharing ...........ek se badh ek post
बहुत गहरा जाने पर
भी मन भटक जाता है
अपनी अपनी समझ
के हिसाब से ही कुछ
समझ में आ पाता है
पता नहीं कोई
मरता भी है कहीं
लगता नहीं
शरीर को विराम
देकर कहीं शायद
चला जाता है
लौट के ना आ जाये
फिर से कहीं वापस
इसीलिये क्या मिट्टी तो
नहीं बना दिया जाता है !
बहुत सुंदर विषय और सुंदर सोच का लेखन !
bahut sundar prastutikaran rashmi ji , hardik badhai , sabhi rachnaye acchi lagi , sadar
बहुत सुन्दर रचनाएं.....
काश के ये कड़ी कभी ख़त्म न हो...
आभार आपका दी.
अनु
sabhi rachnayein shandar man ko chooti huyi
एक उम्र के मुकाम पर मोहबंध दोनों तरफ से टूटते हैं पर बुद्ध नहीं होता मन !!!
सांस लेने को जीना नहीं कहते
साँसें मर्ज़ी से कब चलती हैं !
सच कितना भी जान लो,समझ लो
मुक्त नहीं होता मन …
....गहन सत्य...सभी रचनाएँ बहुत सुन्दर...
सभी रचनायें सशक्त एवँ अर्थपूर्ण ! आपके इस आयोजन की जितनी सराहना की जाये कम है रश्मिप्रभा जी ! बहुत-बहुत आभार आपका !
हम कितना भी थम जाएँ , मन का घोड़ा बेलगाम ही दौड़ता है !
सुन्दर चयन !
बहुत बहुत दीदी ... :)
Dr Rama Dwivedi..
बहुत सुन्दर संकलन … बहुत-बहुत बधाई...
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