ब्लॉग बुलेटिन का ख़ास संस्करण -
अवलोकन २०१३ ...
कई भागो में छपने वाली इस ख़ास बुलेटिन के अंतर्गत आपको सन २०१३ की कुछ चुनिन्दा पोस्टो को दोबारा पढने का मौका मिलेगा !
तो लीजिये पेश है अवलोकन २०१३ का २० वाँ भाग ...
हर आँख यहाँ यूँ तो बहुत रोती है
हर बूँद मगर अश्क़ नहीं होती है
पर देख के रो दे जो ज़माने का ग़म
उस आँख से आंसू जो गिरे मोती है ... नीरज की ये पंक्तियाँ दर्द से दर्द के रिश्ते की अहमियत बताते हैं,इसी अहमियत का अहम् हिस्सा है कलम और कलम से निःसृत प्रतिभायें ....
(प्रवीश दीक्षित "तल्ख़")
मन की ख़ामोशी , तन की ख़ामोशी. ख़ामोशी इच्छाओं की , अरमानो की ख़ामोशी , सच को जान कर उसे न कह पाने की ख़ामोशी , बिन वर्षा प्यासी धरती की ख़ामोशी , बिन जल धारा तडपती नदी की ख़ामोशी , लहरों की हलचल में समुन्दर की ख़ामोशी , अत्याचारी निजाम में घुट घुट जीती आवाम की ख़ामोशी कब टूटेगी चारों और पसरी अविश्वास की ख़ामोशी , कब तोड़ेंगे हम ये ख़ामोशी ..........?
एक वैचारिक अकाल सा मचा है,
इंसानी दिमाग में.
सोच की जमीं दरकने लगी है,
और खयाल मरने लगे हैं !
इंसानी दिमाग में.......
लफ्ज़ आकार बदलने लगे हैं
अब गालियों की शक्ल में
अपनों को कोसने लगे हैं
ये क्या चल रहा है
इंसानी दिमाग में .....
अदीब अब महज किताबी अदीब हैं
कातिब हर्फों से जंग करने लगे हैं
सफों के जंगे मैदान में
ये क्या बदल रहा है
इंसानी दिमाग में.....
लफ़्ज़ों के कीचड़ में सराबोर है,
आज हर आम ओ ख़ास ,
मासूम चिलमनों में लग रहे हैं
अब घिनोने दाग, ये क्या हो रहा है
इंसानी दिमाग में......
(पल्लवी त्रिवेदी)
कुछ लोग प्रेम रचते हैं ...प्रेम की कानी ऊँगली पकड़कर जीवन की नदी की मंझधार बीच चलते रहते हैं! वो एक ऐसी ही कवियित्री थी! लोग कहते थे , वो प्रेम पर कमाल लिखती थी! वो कहती थी प्रेम उससे कमाल लिखवा लेता है! उसके कैनवास पर प्रेम की विराट पेंटिंग सजी हुई थी! सामने ट्रे में न जाने कितने रंग सजे रहते ..मगर वो केवल प्रेम के रंग में कूची डुबोती और रंग देती सारा आकाश! जब कोई नज़्म उसके दिल से निकलकर कागज़ पे पनाह पाती तो पढने वाले की रूह प्रेम से मालामाल हो जाती!
समय सरकते सरकते उस मुहाने पे जा पहुंचा ,जिसके बाद सिर्फ युद्ध फैला पड़ा था दूर दूर तक! अंतहीन ..ओर छोर रहित युद्ध! लोगों ने नज्में दराजों में बंद कर दीं और नेजे ,भाले और तलवारें अपने कंधों पे सजा लिए! प्रेम का रंग छिटक कर न जाने कहाँ दूर जा गिरा था! क्रान्ति के शोर में मुहब्बत की बारीक सी मुरकी खामोश हो गयी! वीरों का हौसला बढाने कवियों ने क्रान्ति पर कलम चलानी शुरू कर दी! चारों और वीर रस की धार बह चली!
मगर वो अभी भी प्रेम रच रही थी! सिर्फ और सिर्फ प्रेम! अब उसकी नज्में कोई न पढता! मगर वो अपने पागलपन में डूबी कागजों पे मुहब्बत उलीचती जा रही थी! लोगों ने समझाया . " समय की मांग है कि अब तुम जोश भरी नज्में लिखो! " वो सर ऊपर उठाकर देखती और प्रेम की एक बूँद कागज़ पर गिरा देती! जब लोग उसे धिक्कार कर चले जाते तो वो अपनी ताज़ा लिखी नज़्म से कहती " वक्त के इस दौर को तुम्हारी सबसे ज्यादा ज़रूरत है "
न जाने कितने लोग मरे ...कितनों के घर काले विलाप से रंग गए! सैनिक दिन भर युद्ध करते और स्याह रातों में अपनी माशूकाओं के आये ख़त सीने पर रखकर सो जाते! उन रातों को वीर रस की नहीं सिर्फ प्रेम के रस की दरकार होती!
वक्त गवाह है .... उस कवियित्री की नज्मों ने सिर्फ जगह बदली थी! जो नज्में कभी उन सैनिकों ने अपनी माशूकाओं को अपने चुम्बनों में लपेटकर सौंपी थीं ,अब वे नज्में सैनिकों की माशूकाएं ख़त में लपेटकर पहुंचा रही थीं! प्रेम रुका नहीं था, मरा नहीं था और कहीं खोया भी नहीं था ...लगातार बह रहा था और सैनिकों के लहू से तपते जिस्मों पर ताज़ी ओस की बूंदों की तरह बरस रहा था!
सुन रहे हो ओ प्रेम ... " जब सबसे भयानक और सबसे बुरा दौर होता है तब तुम्हारी ज़रूरत भी सबसे ज्यादा होती है "
अब जो रचना मैं पेश कर रही हूँ वह 2013 का अवलोकन नहीं,क्योंकि 2011 तक ही यह ब्लॉग लिखा गया है .... पर इस प्रतिभा के आँगन से मैं लौट आऊँ - मुमकिन नहीं ....
आप खुद ही देख लें मुमकिन है क्या !
(प्रत्यक्षा)
किसी दिन
अभी सोचते किसी दिन
आयेगा कभी ?
जब सूरज लाल होगा
और आत्मा दीप्त
जब नदी बहेगी
शरीर होगा मीठा तरल
शब्द संगीत होगा
धूप होगी
रात भी
तीन तरह के रंग होंगे
किसी के चेहरे पर आयेगा
बेतरह प्यार
उसके जाने बिना
जानना होगा
कि अब भी
खिलता है एहसास
जबकि लगता था
इतनी हिंसा
इतनी बेईंसाफी
इतना घाव
इतने दंश
सोख कर
भूल जाती आत्मा
ओह ज़रूर भूल जाती होगी
आत्मा अपनी आत्मा
कहते हैं हाथी
स्मृति की छाप
ढोते हैं पीढ़ियों तक
और कबूतर उड़ते हैं
हज़ारों मील
चीटिंयाँ अपना बिल
सफेद बगुले अपने आसमान
कोई कछुआ तालाब
मैं बचपन की काटी पीटी किताब
माँ कहती हैं ऐसे शब्द
जिन्हें भूल गई थी मैं
जैसे भूल गई थी धूप में बैठकर
मूँगफली नहीं चिनिया बदाम खाना
जैसे भूल गई थी रिबन
और टॉर्टाय्ज़ शेल वाले चश्मे
जैसे ये भी कि पहली दफा कब सुना था
पंडित भीमसेन जोशी को
"कंचन सिंहासन"
और अब खोजने पर भी नहीं मिलता यू ट्यूब पर
जैसे लम्बे बाल कैसे बहन ने हँसते काट डाले थे
जान गई थी मेरे कहे बिना कि
मुझसे ऐसे झमेले सधते नहीं
जैसे जानती थी ये भी बिना
मेरे कहे कि चूड़ियाँ अच्छी लगती थीं
और पढ़ सकती थी रात भर
मैं किताब जाड़े के दिनों में
रज़ाई के भीतर टॉर्च जलाये
और रह सकती थी भूखी , पूरे दिन
माँ से नाराज़ होने पर
लड़ सकती थी किसी के लिये भी
महीनों साल दिन
कि गुस्सा सुलगता था मेरे भीतर आग
अब कहती है बहन , तुम्हें पहचानना मुश्किल
जब कहती हूँ मैं , मेरे भीतर सुकून
जब कहती हूँ मैं , शब्द मेरे भीतर जलते भाप के कुंड
जब कहती हूँ रिश्तेदारों के धोखे अब दिखते नहीं
जब कहती हूँ कोई पंछी चक्कर काटता उठता है
लगातार भीतर
जब पूरी नहीं होती कविता और
अधूरी छूटी रहती कहानी
लावारिस पड़ा रहता घर
और छूटते बिसूरते बच्चे होते
खुद में मगन
पढ़ा जाता प्रेम
और पकाई जाती नफरत
सीखा जाता अर्शिया से बँगाली कशीदाकारी
की महीन हर्फें
और हुआ जाता खुश
तुम्हारी हँसी के गुनगुने घूँट में
और समझाया जाता दोस्तों को
एक बार फिर
मोहब्बत में पड़ने को
और बोला जाता ज़ोर से
ऐसे शब्द जो होंठों और जीभ पर
छोड़ते भाप
गर्म गुलाब जामुन
तहज़ीबदार , तमीज़दार
हँसा जाता ठठाकर बेशउर
फिर रोकी जाती हँसी
कि बुरा ना माने कोई
कि मेरी खुशी दूसरों के
तकलीफ का सबब न बने
कि
किसी दिन
होगा सब
जैसे
होना
लिखा है
किसी दिन
किसी एक दिन
जैसे पृथ्वी
जैसे पक्षी
जैसे देव
और दानव
अच्छा और बुरा
जैसे प्राणी सिमटा
एक बिंदु
मृत्यु
फिर जीवन
और इसके बीच का
मोहक लम्बा अंतराल
अब और क्या कहूँ - अब तो जो कहेंगे पाठक कहेंगे :)
11 टिप्पणियाँ:
..सहेजने के लिए आभार दी, सचमुच बहुत ही सुन्दर रचनाये है ....
बहुत कुछ समेटे हुऐ सुंदर !
बहुत सुंदर !!!
और दावे से कहता हूँ कि पाठक कहेंगे ... वाह रश्मि दी वाह ... जय हो आपकी |
sundar sankalan..................
bahut sundar
- प्रवीश दीक्षित "तल्ख़" जी की रचना पढ़ कर बरबस ही आजकल संगीत के नाम पर परोसे जाते गीत और उन पर ठुमके लगाती बच्चों का ख्याल आ गया .....विडंबना ये है कि अभिभावक अपनी संतान को ये सब करते देख न केवल खुश होते हैं बल्कि परिचितों के सामने इसका प्रदर्शन भी गर्व के साथ करवाते हैं .........
- पल्लवी त्रिवेदी जी की रचना पढ़कर रोंगटे खड़े हो गए ........बहुत कोमलता से तपते भाल को जैसे कोई सहलाता हो ..कुछ ऐसे ऐहसास से भर दिया ....
- कुछ है इस रचना में जिसे समेट नहीं पा रही मैं .....शायद कई बार पढ़ने पर मुमकिन हो
रश्मि दी .....इतनी सुंदर पोस्ट के लिये सबसे प्यार धन्यवाद
बहुत सुन्दर - जय हो मंगलमय हो - जय बजरंगबली महाराज
धन्यवाद ....... लगा फिर से ज़िंदा हो उठा ..................
सभी रचनाएँ बहुत अच्छी लगी. आपके प्रयास से एक पुरानी प्रतिभा वापस आ जाये... बहुत शुभकामनाएँ.
उत्तम लिनक्स
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