संगीता स्वरुप यानि गीत.......मेरी अनुभूतियाँ ब्लॉग की स्वामिनी ... मानिनी , सौम्य , सत्य से उद्भाषित ! आइये उनको जानें उनके ही शब्दों में -
" कुछ विशेष नहीं है जो कुछ अपने बारे में बताऊँ... मन के भावों को कैसे सब तक पहुँचाऊँ कुछ लिखूं या फिर कुछ गाऊँ । चिंतन हो जब किसी बात पर और मन में मंथन चलता हो उन भावों को लिख कर मैं शब्दों में तिरोहित कर जाऊं । सोच - विचारों की शक्ति जब कुछ उथल -पुथल सा करती हो उन भावों को गढ़ कर मैं अपनी बात सुना जाऊँ - जो दिखता है आस - पास मन उससे उद्वेलित होता है , उन भावों को साक्ष्य रूप दे मैं कविता सी कह जाऊं."
संगीता जी के बारे में , उनकी रचनाओं के विषय में कुछ भी लिखने से पूर्व मैं 2010 , 31 जनवरी का उल्लेख करुँगी , जब हम ' शब्दों का रिश्ता ' ; अनमोल संचयन ' के विमोचन के लिए प्रगति मैदान में पुस्तक मेले में हिन्दयुग्म के मंच पर मिले ... संगीता जी की रचनाओं और उनके व्यक्तित्व में गजब की समानता मिली , वही जो मैंने आरम्भ में कहा - मानिनी , सौम्य , सत्य से उद्भाषित !
प्रकृति की मौजूदा स्थिति पर दृष्टि डालते हुए अगस्त 2008 से संगीता जी ने अपना ब्लॉग आरम्भ किया प्रदुषण रचना के साथ -
"जीवन के आधार वृक्ष हैं ,
जीवन के ये अमृत हैं
फिर भी मानव ने देखो,
इसमें विष बोया है.
स्वार्थ मनुष्य का हर पल
उसके आगे आया है
अपने हाथों ही उसने
अपना गला दबाया है
काट काट कर वृक्षों को
उसने अपना लाभ कमाया है"
2008 में ही अपनी दुविधा को असमंजस में कवयित्री ने जो शब्द भाव दिए , उन शब्दभावों ने बताया कि कविता आज भी जीवंत है अपनी पैनी पहचान के साथ , कबीर के काल से लेकर आज संगीता स्वरुप के साथ -
"द्रोण ,
जो आधुनिक युग के
गुरुओं के
पथ - प्रदर्शक थे
उन्होंने सिखाया कि
पहले लक्ष्य साधो
फिर शर चलाओ
अर्थात
पहले मंजिल को देखो
फिर मंजिल पाने के लिए
कर्म करो,
कृष्ण ने कहा कि -
कर्म करो ,
फल की इच्छा मत रखो
मैं , अकिंचन
क्या करुँ ?
एक ईश्वर और एक गुरु
कबीर ने कहा -----
गुरु की महिमा अपरम्पार
जिसने बताया ईश्वर का द्वार
गुरु की मानूं तो फल - भोगी
हरि को जानूं तो कर्म - योगी
क्या बनना है क्या करना है
निर्णय नही लिया जाता है
पर लक्ष्य बिना साधे तो
कर्म नही किया जाता है ."
2009 के संजोये पन्नों पर कवयित्री ने बड़ी बारीकी से डाले फंदे सोच के ज़िन्दगी को मुकम्मल गर्माहट देने के लिए ----
" वक्त की सलाइयों पर
सोचों के फंदे डाल
ज़िन्दगी को बुन दिया है
इसी उम्मीद पर कि
शायद
ज़िन्दगी मुकम्मल हो सके
जैसे कि एक स्वेटर
मुकम्मल हो जाता है
सलाइयों पर
ऊन के फंदे बुनते हुए ।
परन्तु-
ज़िन्दगी कोई स्वेटर तो नही
जो फंदे दर फंदे
बुनते - बुनते
मुकम्मल हो जाए."
2010 का घूँघट उठा तो देखा सुडोकू .....और ज़िंदगी
उसी वर्ष के आईने में पाया स्व अस्तित्व
और तपती रेत पर पढ़ा दर्द के बिखरे कणों को
"दर्द को पढ़ना अच्छा लगता है
दर्द को सोचना अच्छा लगता है
दर्द को मैं लिख नहीं पाती
दर्द को जीना अच्छा लगता है
सोचती है दुनिया कि -
जब तक अश्क ना बहें
तो दर्द नहीं होता है
तड़पने वाला सदा ही
अपने दर्द को रोता है
पर ये दुनिया
ये नहीं जानती कि
तपती रेत में
नमी नहीं होती
अंगारे बरसते हैं
पर छाँव नहीं होती
पानी की चाह में
भटक जाती हूँ दर - ब दर
पर लगता है जैसे मेरी
कभी प्यास नहीं बुझती "
आवारा से ख्वाब बंजारों की तरह होते हैं .... न घर न ठिकाना , पर फिर भी कुछ है जिसे जीना और पाना अच्छा लगता है ! तो एक सौगात आवारा से ख्वाब
आपके लिए , देखिये 2011 के भरे हुए दामन में भी कई सुगबुगाहटें हैं ...
"चाहती हूँ कि
कर लूँ बंद
हर दरवाज़ा
और न आने दूँ
ख़्वाबों को
लेकिन इनकी
आवारगी ऐसी है
कि बंद पलकों में भी
समा जाते हैं "
यात्रा अनंत निरंतर और एहसासों के झुरमुट , बादल , बारिश , पदचिन्ह ......
झरोखा ..
कतरने ख़्वाबों की
एक सिहरन उम्मीद की
उम्मीद है तो कारवां है , कारवां है तो पड़ाव , पड़ाव है तो उम्मीदों की शक्लें हैं .... 2012 के रास्ते तो अभी शुरू हुए हैं , पर शक्लों ने अपनी पहचान देनी शुरू कर दी है .... कृष्ण की व्यथा तार तार हुए दर्द के सांचे से निकल हमसे कहता है -
"नहीं कहा था मैंने कि गढ़ दो तुम मुझे मूर्तियों में नहीं चाहता था मैं पत्थर होना अलौकिक रहूँ यह भी नहीं रही चाहना मेरी ,
पर मानव तुम कितने छद्मवेशी हो एक ओर तो कर देते हो मंदिर में स्थापित और फिर लगाते हो आरोप और उठाते हो प्रश्न कि क्या सच ही "कृष्ण" भगवान था ? ".......................
और आखिर में , निःसंदेह इस चर्चा के आखिर में उन्मादी प्रेम यह रचना मनु भण्डारी जी के उपन्यास "एक कहानी यह भी में उनके विचारों पर आधारित है , उनके विचारों को कवयित्री ने अपने शब्द देने का प्रयास किया है ..."उफनते समुद्र की लहरों सा उन्मादी प्रेम चाहता है पूर्ण समर्पण और निष्ठा और जब नहीं होती फलित सम्पूर्ण इच्छा तो उपज आती है मन में कुंठा कुंठित मन बिखेर देता है सारे वजूद को ज़र्रा ज़र्रा बिखरा वजूद बन जाता है हास्यास्पद घट जाता है व्यक्ति का कद लोगों की नज़रों में निरीह सा बन जाता है अपनों से जैसे टूट जाता नाता है .
गर बचना है इस परिस्थिति से तो मुक्त करना होगा मन उन्माद छोड़ मोह को करना होगा भंग |मोह के भंग होते ही उन्माद का ज्वार उतर जाएगा मन का समंदर भी शांत लहरों से भर जायेगा .....
सिलसिला चलता है तो रुकता नहीं , कोई न कोई राग उठते ही हैं ... यह कल भी आरम्भ था , आज भी आरम्भ है ,कल भी यही होगा ....
कृष्ण की व्यथा तार तार हुए दर्द के सांचे से निकल हमसे कहता है -
"नहीं कहा था मैंने
कि
गढ़ दो तुम
मुझे मूर्तियों में
नहीं चाहता था मैं
पत्थर होना
अलौकिक रहूँ
यह भी नहीं रही
चाहना मेरी ,
पर मानव
तुम कितने
छद्मवेशी हो
एक ओर तो
कर देते हो
मंदिर में स्थापित
और फिर
लगाते हो आरोप
और उठाते हो प्रश्न
कि
क्या सच ही
"कृष्ण" भगवान था ? ".......................