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मंगलवार, 9 मई 2017

मेरी रूहानी यात्रा और दीपिका




शब्दों को एक घर तभी मिलता है, जब एहसासों की छत होती है।  इस छत का निर्माण कलम से होता है और आँगन पाठकों से 
तो आइये आँगन वाले घर में लौटें, कोशिश तो हो -


दीपिका रानी

दार्जीलिंग जिले में हिमालय की तराई में स्थित एक अनजानी सी जगह पैनी कुमारी जोत में जन्म। पैनी या पाइनी नेपाली शब्द है जिसका अर्थ होता है, जल का छोटा स्रोत जो यहां पहले बहुतायत में थे और अब काफी विलुप्त हो चुके हैं। हरे भरे चाय बागानों से घिरी यह जगह एक छोटा सा स्वर्ग है। यहीं पर सुकना के केंद्रीय विद्यालय से बारहवीं, मुजफ्फरपुर (बिहार) से स्नातक और आईआईएमसी, नई दिल्ली से पत्रकारिता में डिप्लोमा की शिक्षा प्राप्त। तीन साल तक प्रिंट मीडिया में काम करने के बाद अब भारत सरकार में अनुवादक के पद पर। वी.एस.नायपॉल, ए पी जे अब्दुल कलाम, रोहिणी नीलेकनी, पवन के वर्मा सहित कई लेखकों की पुस्तकों का हिंदी अनुवाद किया है।

हीरे की तलाश यूँ ही नहीं होती, शब्दों के तीर्थ पर निकलना होता है 


नाजों से खेली हो
पहाड़ों की गोद में।
लाड़ से पाला है हिमालय ने तुम्हें,
ऊंचे चीड़ों ने
छुपा कर रखा है,
सूरज की बुरी नज़र से।
पर कहां बंधन मानती हैं
तुम्हारी लहरें।
ठहर कर सोचना
तो तुम्हें आता ही नहीं।
शोखी का दूसरा नाम हो तुम।

जब उतरती हो पहाड़ों से,
कूदती, इठलाती, बलखाती।
किनारों को छूकर
यूं सर्र से निकल जाती।
मुझे पकड़ो तो जानें
कहकर शायद जीभ चिढ़ाती।
कदमों में पड़ी हर शै को ठुकराती।
तुम्हारा गुरूर सर आंखों पर।

कितनी हसरत से देखता है तुम्हें
वह दीवाना पुल
रोजाना गुजरते हुए।
न वह झुकता है,
न तुम हाथ बढ़ाती हो।
उसकी तरसती निगाहों के नीचे से
चुपचाप निकल जाती हो।
तुम जानती हो अपनी हदें।
तुम्हारी हर बात बेमिसाल है।

रंगित के साथ
लौट आता है तुम्हारा बचपन
सहेलियों सी गले मिलती, खिलखिलाती
बढ़ती जाती हो आगे
रुकना तुम्हारी आदत कहां।
कभी मुग्ध, कभी स्तब्ध करता है
तुम्हारा उफनता यौवन।
बुरुंश के सुर्ख श्रृंगार से
तुम्हारी हरी काया
और भी खिल उठती है।
तुम जानती हो
कहीं कोई इंतज़ार में है तुम्हारे।

तुम्हारी दीवानगी
नहीं जानती सीमाएं।
पहाड़ों की, मैदानों की, मज़हबों की, देशों की।
बस एक धुन है,
एक ही मुस्तकबिल।
जब तुम्हारी आहट पाकर
वह बेताब हो उठता है,
तुम्हें समेटने को।
और तुम अधीर सी
समा जाती हो,
अपने ब्रह्मपुत्र की बाहों में
तो यह ख्याल आता है
कि तुम तीस्ता हो,
या खामोश इश्क की एक दास्तान!

(तीस्ता नदी भारत के सिक्किम की लाइफलाइन कही जाती है, यह खूबसूरत नदी इस छोटे से राज्य को एक अद्वितीय आकर्षण देती है। वह सिक्किम का पूरा सफर तय करके नीचे उतरते हुए पश्चिम बंगाल की सीमा से बाहर निकलकर बंगलादेश में ब्रह्मपुत्र में मिल जाती है। रंगित उसकी एक मुख्य उप नदी है।)




झोंपड़ी के टूटे टाट से
धूप की एक नन्ही किरण
तपाक से कूदी है
कच्ची अंधेरी कोठरी में
हो गई है रमिया की सुबह
दुधमुंहा बच्चा कुनमुनाया है
रमिया ने फिर उसे
थपकी देकर सुलाया है।
सूख चुका है पतीले और सीने का दूध।
रात को भरपेट नमक भात खाकर तृप्त सोए हैं
मंगलू और रज्जी।

कोने में फटे बोरे पर
कोई आदमी नुमा सोया है।
जिसके खर्राटों में भी दारू की बू है
मगर इस बार उसने
बड़ी किफ़ायत से पी है।
हफ्ते पुरानी बोतल में
नशे की आखिरी कुछ घूंट
अब भी बची है।

आज मंगलवार है,
हफ्ते भर रमिया की उंगलियों और
चाय की पत्तियों की जुगलबंदी
आज उसके आंचल में कुछ सितारे भरेगी।
जिनसे रमिया की दुनिया में
एक और हफ्ते रोशनी होगी
एक और हफ्ते बच्चों को मिलेगा
दो वक्त पेट भर खाना
एक और हफ्ते ख़ुमार में रह पाएगा
रमिया का पति

और रमिया का क्या?
एक और पैबंद की मांग करने लगी है
उसकी सात पैबंदों वाली साड़ी
अब तो सुई-धागे ने भी विद्रोह कर दिया है।
आज रमिया ने ठान ही लिया है
शाम को वह जाएगी हाट
और खरीदेगी पैंसठ वाली फूलदार साड़ी
दस के बुंदे
और एक आईना।
नदी के पानी में शक्ल देखकर
बाल संवारती रमिया
अपनी पुरानी शक्ल भूल गई है।

इतराती रमिया ने आंगन लीप डाला है
आज वह गुनगुना रही है गीत।
उसके पपड़ियाए होंठ
अचानक मुस्कुराने लगे हैं।
साबुन का एक घिसा टुकड़ा
उसने ढूंढ निकाला है।
फटी एड़ियों को रगड़ने की कोशिश में
खून निकल आया है।
लेकिन रमिया मुस्कुरा रही है।
बागान की ओर बढ़ते उसके पांवों में
जैसे पंख लगे हैं।
आज सूरज कुछ मद्धम सा है
तभी तो जेठ की धूप भी
चांदनी सी ठंडी है।

पसीने से गंधाते मजदूरों के बीच
अपनी बारी के इंतज़ार में रमिया
आज किसी और दुनिया में है।
उसकी सपनाई पलकों में चमक रहे हैं,
पीली जमीन पर नीले गुलाबी फूल
बुंदों की गुलाबी लटकन।
पैसे थामते उसके हाथ
खुशी से सिहर से गए हैं।
और वह चल पड़ी है
अपने फीके सपनों में
कुछ चटख रंग भरने।

उसके उमगते पांव
हाट में रंगबिरंगे सपनों की दुकान पर रुके हैं।
उसकी पसंदीदा साड़ी
दूसरी कतार में टंगी है।
उसने छूकर देखा है उसे, फिर सूंघकर।
नए कपड़े की महक कितनी सौंधी होती है न?
रोमांच से मुंद गई है उसकी पलकें
कितना मखमली है यह एहसास
जैसे उसके दो महीने के बेटे के गुदगुदे तलवे
और तभी उसकी आंखों के आगे अनायास उभरी हैं
घर की देहरी पर टंगी चार जोड़ी आंखें।

रमिया के लौटते कदमों में फिर पंख लगे हैं
उसे नज़र आ रहे हैं दिन भर के भूखे बच्चे
मंगलू की फटी नेकर
गुड़ियों के बदले दो महीने के बाबू को चिपकाए
सात साल की रज्जी
शराबी पति की गिड़गिड़ाती आंखें
उसने हाट से खरीदा है हफ्ते भर का राशन
थोड़ा दूध, और दारू की एक बोतल।
मगर अबकी उसका इरादा पक्का है,
अगले मंगलवार जरूर खरीदेगी रमिया
छपे फूलों वाली साड़ी और कान के बुंदे।

 

4 टिप्पणियाँ:

Archana Chaoji ने कहा…

बहुत ही अच्छा ब्लॉग और संकलन

चला बिहारी ब्लॉगर बनने ने कहा…

दीपिका को मैं काफी समय से जानता रहा हूँ उनके ब्लॉग के माध्यम से और उनकी रचनाओं के माध्यम से! एक संवेदनशील कवयित्री हैं और उनका घटनाओं और परिस्थितियों को देखने का नज़रिया अलग है! इनकी कविताओं में पहाड़ों की पवित्रता है और महानगर की व्यथा...!
बहुत अच्छा लगा उनका परिचय यहाँ पाकर!

कविता रावत ने कहा…

बहुत अच्छी प्रस्तुति

सुशील कुमार जोशी ने कहा…

वाह एक और नगीना ।

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