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रविवार, 21 मई 2017

मेरी रूहानी यात्रा और अनुराग यायावर


गोधूलि की बेला 
घर जाने के लिए तत्पर पूरा जीवन 
रसोई से उठता धुआँ 
और यायावर मन का परिचय  - जीवन के हर छोर को छूता हुआ कहता है,


मैं यायावर!
पथ का गमन,
विश्राम मेरा|

मैं मिला था,
कब किससे?
क्यूँ मिला था?
वो तो थे,
पथ के मेरे,
विराम अपने|
शेष समर की धुल,
चाटनी मुझे अब|
फांकना है गर्द का,
गुबार सारा|
शूल से सने मेरे,
आहार दे दो|
रख लो तुम,
व्योम का श्रृंगार सारा|
मैं अकिंचन!
है भ्रमण संधान मेरा|
मैं यायावर!
पथ का गमन,
विश्राम मेरा|

मैं चला हूँ,
अन्तः में संकल्प लेकर|
कहाँ तक?
शुन्य का विस्तार होगा|
इसकी परिभाषा,
जीते जी नहीं मिली तो|
ढूंढ़ लूंगा मैं,
मृत्यु के उस पार होगा|
सारी तड़प, सारी तपिश,
मुझे सौंप दो तुम|
यूँ ही जलना-बुझना,
है अभिमान मेरा|
मैं यायावर!
पथ का गमन,
विश्राम मेरा|

मेरी अस्थि, मेरा रोम,
तुम्हें समर्पित|
कर लो सृजन,
कुछ कर सको,
मेरे अंतिम क्षण का|
फिर तो मैं,
निर्बाध होकर चल पडूंगा|
निर्वात की काया में,
अपना सर्वस्व देने|
मैं ठहरता हूँ नहीं,
पाषण बनकर|
विधि यही,
है यही विधान मेरा|
मैं यायावर!
पथ का गमन,
विश्राम मेरा|

ऐसी परिभाषा मिलती कहाँ?
जो मनुज तन को परिधि दे!
अगर मांगना है तो मांगो,
हे!… ईश्वर!
सम्पूर्ण विश्व को समृद्धि दे!

“मन जितना विचरा घट-घट में, समझो उतने तीरथ कर धाये!
क्या मंदिर? मस्जिद, क्या गिरजा? यह सब तुमने व्यर्थ बनाये!”

जीवन का सारतत्व,
यायावर-सा स्थाई|
निमित-मात्र में सांसों की,
कोसों-कोसों तक गहराई|
यक्ष प्रश्न अस्तित्व पटल पर,
अब आंखें मेरी पथराई|
मैं यायावर ढूंढ़ रहा,
है कहाँ पृथ्वी की परछाई?

वात्सल्य की परिभाषा के,
प्रारंभ से अनंत की तलाश में,
भटकता एक “यायावर!”
समय लाँघ उम्र खिसकती गई,
बचपन वहीं खडा है अभी तक,
जहाँ से तुमने शून्य को अपनाया|
संबंधों की धक्का-मुक्की में,
भ्रम के कुहासे को चीरता,
जीवन का संदर्भ,
ढूंढता है माँ को!


जाने कितने बांधों को तोड़ता, तटों से जूझता, अपना वजूद बनाता है यायावर  ... यायावर यानि अनुराग रंजन सिंह 

yaayaawar


यायावर अनवरत चलता है, तलाश करता है अनगिनत अर्थ - शायद तभी बता पाता है अपनी कलम से 

मृत्यु! आत्मा का अज्ञातवास!


दंभ निमित में मृगतृष्णा के,
गहन-सघन स्वांस अभ्यास|
पुनः व्यंजित वृत्त-पथ पर,
आत्मा का पुनरुक्ति प्रवास|
कल्प-कामना के अनंत में,
लिपिबद्ध अपूर्ण उच्छास|
है, मृत्यु!
आत्मा का अज्ञातवास,
क्षणिक मात्र है, जीवनवास|
अवतरण का,
सत्य, मिथक क्या?
यह भ्रम, मन का,
पूर्वाग्रह है|
ज्ञात यही,
अवसर-प्रतिउत्तर|
जिस काया में,
बसता मन है|
पूर्वजन्म की स्मृति शेष,
ज्यौं पुनः न करती देह-अवशेष|
किंचित यह भी ज्ञात नहीं,
तब क्या था?
क्यूँ जीवन पाने का धर्म है?
पूर्व जन्म का दंड मिला,
या
यह अगले जन्म का दंड-कर्म है|
सत्य का संधान न पाकर,
निर्वात उकेरता एकांतवास|
है, मृत्यु!
आत्मा का अज्ञातवास,
क्षणिक मात्र है, जीवनवास|

लिप्त कर्म में,
दीप्त कर्म में,
संचित धर्म,
निर्लिप्त आयाम|
कैसा दर्पण श्लेष दृष्टि का?
भूत-भविष्य का कैसा विन्यास?
क्यूँ भ्रम को स्थापित करते?
खंडित कर दो सारे न्यास|
है, मृत्यु!
आत्मा का अज्ञातवास,
क्षणिक मात्र है जीवनवास|

जो निश्चय था,
तुम्हारे मन का|
पूर्ण से पहले,
वह अविचल है|
जो लिया यहीं से,
देकर जाओ|
यही कर्म है,
यहीं पर फल है|
त्याग-प्राप्ति संकल्प तुम्हारा,
है, तर्कविहीन तुष्टि का सन्यास|
है, मृत्यु!
आत्मा का अज्ञातवास,
क्षणिक मात्र है जीवनवास|

3 टिप्पणियाँ:

सुशील कुमार जोशी ने कहा…

वाह बहुत सुन्दर।

Kavita Rawat ने कहा…

बहुत सुन्दर प्रस्तुति !

Sudha Devrani ने कहा…

मृत्यु, आत्मा का अज्ञातवास !
बहुत सुन्दर...

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