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बुधवार, 31 मई 2017

विश्व तम्बाकू निषेध दिवस और ब्लॉग बुलेटिन

सभी ब्लॉगर मित्रों को मेरा सादर नमस्कार। 

विश्व तम्बाकू निषेध दिवस के लिए चित्र परिणाम
पूरे विश्व के लोगों को तंबाकू मुक्त और स्वस्थ बनाने के लिये तथा सभी स्वास्थ्य खतरों से बचाने के लिये तंबाकू चबाने या धुम्रपान के द्वारा होने वाले सभी परेशानियों और स्वास्थ्य जटिलताओं से लोगों को आसानी से जागरुक बनाने के लिये पूरे विश्व भर में एक मान्यता-प्राप्त कार्यक्रम के रुप में मनाने के लिये विश्व स्वास्थ्य संगठन द्वारा पहली बार विश्व तंबाकू निषेध दिवस को आरम्भ किया गया।

रोग और इसकी समस्याओं से पूरी दुनिया को मुक्त बनाने के लिये डबल्यूएचओ द्वारा विभिन्न दूसरे स्वास्थ्य संबंधी कार्यक्रम भी आयोजित किये जाते हैं जैसे एड्स दिवस, मानसिक स्वास्थ्य दिवस, रक्त दान दिवस, कैंसर दिवस आदि। बहुत ही महत्वपूर्ण ढंग से पूरी दुनिया में सभी कार्यक्रम आयोजित और मनाये जाते हैं। इसे पहली बार 7 अप्रैल 1988 को डबल्यूएचओ की वर्षगाँठ पर मनाया गया और बाद में हर वर्ष 31 मई को तंबाकू निषेध दिवस के रुप में मनाने की घोषणा की गयी। डबल्यूएचओ के सदस्य राज्यों के द्वारा वर्ष 1987 में विश्व तंबाकू निषेध दिवस के रुप में इसका सृजन किया गया था।

बढ़ती माँग के अनुसार 7 अप्रैल 1988 में विश्व तंबाकू निषेध दिवस कहे जाने वाले एक वार्षिक कार्यक्रम को मनाने के लिये 15 मई 1987 को डबल्यूएचओ द्वारा एक प्रस्ताव पास हुआ था, “तंबाकू के इस्तेमाल पर रोक” जो बाद में 31 मई 1989 को विश्व तंबाकू निषेध दिवस के रुप में मनाने के लिये 17 मई 1989 को आगे दूसरे प्रस्ताव के अनुसार बदला गया था।

तंबाकू के सेवन से हर वर्ष 10 में कम से कम एक व्यक्ति की मौत जरुर हो जाती है जबकि पूरे विश्व भर में 1.3 बिलियन लोग तंबाकू का इस्तेमाल करते हैं। 2020 तक 20-25% तंबाकू के इस्तेमाल को घटाने के द्वारा हम लगभग 100 मिलीयन लोगों की असामयिक मृत्यु को नियंत्रित कर सकते हैं। जो कि सभी धुम्रपान विरोधी प्रयासों और कदमों को लागू करने के द्वारा मुमकिन है जैसे तंबाकू के लिये टीवी या रेडियो विज्ञापन पर बैन लगाया जाये, खतरों को दिखाते नये और प्रभावकारी लोक जागरुकता अभियान की शुरुआत और सार्वजनिक जगहों में धुम्रपान को रोकने की जरुरत है। आँकड़ों के अनुसार, ये ध्यान देने योग्य है कि 1995 में लगभग 37.6% धुम्रपान करने वाले लोगों की संख्या में कमी आयी है जबकि 2006 में ये 20.8% है।

ये ध्यान दिया गया कि चीन में 50% पुरुष धुम्रपान करते हैं। हरेक देश की सरकार को इस बुरी स्थिति के प्रभाव को कम करने के लिये राष्ट्रीय और क्षेत्रीय स्तर पर कुछ महत्वपूर्ण कदम उठाने की जरुरत है। धुम्रपान विरोधी नीतियों के द्वारा ये हो सकता है जैसे तंबाकू पर टैक्स लगाना, बिक्रि, खरीद, विज्ञापन, तंबाकू और इसके उत्पादों के प्रचार और प्रायोजक को सीमित करना, धुम्रपान के खतरों का आँकलन करने के लिये सार्वजनिक स्वास्थ्य कैंप आयोजित करना आदि।



~ आज की बुलेटिन कड़ियाँ ~ 

















आज की बुलेटिन में बस इतना ही कल फिर मिलेंगे तब तक के लिए शुभरात्रि। सादर.... अभिनन्दन। 

मंगलवार, 30 मई 2017

मेरी रूहानी यात्रा पवन कुमार के ब्लॉग पर


निकले एहसासों के सफर में 
तो जाना 
कलम जब मूर्तिकार बने 
कैनवस पर कोई चित्र उकेरे 
तो उस कलम की बात ही कुछ और हो जाती है 
यायावर की शक्ल लिए 
कई मील के पत्थर बटोर लाता है  ... 

मेरा फोटो
"जो भी जीता हूँ वही लिखता हूँ . हर एक लम्हा जीने की ख्वाहिश ........ उसे भोगने की चाहत है. जिंदगी को नए मायने देने की किसी कोशिश-मशक्कत में हूं . इसी कवायद के बीच में आप सबसे मुखातिब होता रहता हूं अपने एहसासों को लेकर - अपने भोगे हुए सच के साथ"


आमद कुबूल करें......


इधर काफी दिनों तक गायब रहा. सच कहूँ तो वक्त नही मिला कुछ लिख पाने का ...मन लगातार करता रहा कि कुछ लिखूं. व्यस्तता ने जैसे व्यक्तिगत जिंदगी के सारे लम्हे छीन लिए बहरहाल अब ब्लॉग पर आमद कर चुका हूँ...
इधर बीते पन्द्रह दिनों में जो दो महत्त्वपूर्ण बातें रहीं ,वे थीं निजामी बंधुओं के कव्वाली प्रोग्राम और अमिताभ दास गुप्ता का नाटक " नयन भरी तलैया" देखने का अवसर मिला.
पहले निजामी बंधुओं पर चर्चा. निजामी बंधुओं की कव्वाली देखने में बड़ा मज़ा आया .भारत की गंगा जमुनी संस्कृति के उस्ताद शायर आमिर खुसरो,बाबा बुल्ले शाह से लेकर समकालीन शायरों जैसे राहत इन्दौरी और बशीर बद्र के शेरों को चुनकर उन्हें कव्वाली में पिरोकर इस खूबसूरती के साथ सुनाया कि हम लगातार वाह वाह करते रहे. मेरे प्रिय शायर आमिर खुसरो साहेब की आल टाइम लीजेंड "मोसे नैना लड़ाए के" तो सुनकर मज़ा आ गया. " मेरे मौला जिसपे तेरा करम हो गया, वो सत्यम शिवम् सुन्दरम हो गया" से आगाज़ करने वाले निजामी भाइयों ने महफ़िल लूट ली.ये गायक निजामी भाइयों के नाम से जाने जाते हैं. ये गायक बंधु सिकंदर घराने से ताल्लुक रखते हैं. यह घराना बीते 700 सालों से कव्वाली गायकी में लगा हुआ है.यह घराना हज़रात निजामुद्दीन और खुसरो साहेब के दरबारी गायकी से सम्बन्ध रखता है सूफी कव्वाली को "कौर तराने " से शुरुआत करते हैं . यह तकनीकी बात मुझे इसी कार्यक्रम में जाकर मिली . हमारे दोस्तों कि मांग पर उन्होंने महान गायक नुसरत फतह अली खान की गई कव्वाली "अल्लाह हूँ, अल्लाह हूँ" तथा ऐ आर रहमान की कम्पोज़ "मौला मेरे मौला" भी सुनाई. अब जबकि लगातार पुराणी संस्कृति से कलाकार दूर हिते जा रहे हैं ऐसे में विगत ७०० सालों की शानदार परम्परा को निभा रहे निजामी बंधुओं की गायकी और उनके हौसले को देखकर अपनी गंगा जमुनी संस्कृति पर हमें गर्व होना स्वाभाविक है.
अमिताभ दास गुप्ता का नाटक " नयन भरी तलैया" देखने का अवसर मिला. यह नाटक सत्ता और आम आदमी के बीच कि दूरी और उनकी प्राथमिकताओं को दर्शाता था. कहानी कुछ इस तरह थी कि एक राज्य में सूखा पड़ा हुआ है तालाब-नदी -पोखर सभी सूख चुके हैं. राजा- रानी इस सबसे बेखबर हैं. अपनी शानो-शौकत की जिंदगी बसर कर रहे हैं. उधर एक गाँव में सुखनी नाम की एक एक लड़की गाँव में एक कुआँ खोदने वाले एक आदमी से प्यार करती है. इसी बीच राजा के दरबार में एक साधू आता है और बताता है कि सूखा से तभी निपटा जा सकता है कि जबकि राज परिवार का कोई सदस्य कुएं में कूद कर अपनी जान दे दे...तब जोर से पानी बरसेगा.....राज परिवार में कोई भी अपनी जान देने को तय्यार नही होता है....रानी तब अपनी कुटिल बुद्धि से राजा को एक उपाय सुझाती है कि क्यों न अपने सबसे छोटे तीसरे पुत्र कि शादी किसी गाँव की लड़की से कर दें और उसको कुएं में कुदा दें इससे राज परिवार भी बच जायेगा और सूखे कि समस्या से भी निपटा जा सकेगा. राजा को यह विचार पसंद आ जाता है और लड़की खोजी जाती है अंतत लड़की सुखनी ही मिलती है.........उससे राजकुमार की शादी की जाती है,और उसे कुएं में धकेला जाता है.....एक दर्द भरा एंड इस नाटक का होता है जो यह सोचने पर विवश करता है कि सत्ता अपने स्वार्थ के लिए किस कदर अंधी हो जाती है... नाटक के सभी पात्र काफी गुंथे हुए थे. लगभग डेढ़ घंटे का यह नाटक शिखर और धरातल के बीच की खाई को स्पष्ट समझा गया.

और फिर गायब हैं, ऐसा नहीं होना चाहिए 

सोमवार, 29 मई 2017

कन्हैयालाल मिश्र 'प्रभाकर' और ब्लॉग बुलेटिन

सभी ब्लॉगर मित्रों को मेरा सादर नमस्कार।
कन्हैयालाल मिश्र 'प्रभाकर'
कन्हैयालाल मिश्र 'प्रभाकर' (अंग्रेज़ी: Kanhaiyalal Mishra Prabhakar, जन्म: 29 मई, 1906 - मृत्यु: 9 मई 1995) हिन्दी के जाने-माने निबंधकार हैं जिन्होंने राजनीतिक और सामाजिक जीवन से संबंध रखने वाले अनेक निबंध लिखे हैं। 'ज्ञानोदय' पत्रिका का सम्पादन भी कन्हैयालाल कर चुके हैं। आपने अपने लेखन के अतिरिक्त अपने नये लेखकों को प्रेरित और प्रोत्साहित किया है।

प्रभाकर हिन्दी के श्रेष्ठ रेखाचित्रों, संस्मरण एवं ललित निबन्ध लेखकों में हैं। यह दृष्टव्य है कि उनकी इन रचनाओं में कलागत आत्मपरकता होते हुए भी एक ऐसी तटस्थता बनी रहती है कि उनमें चित्रणीय या संस्मरणीय ही प्रमुख हुआ है- स्वयं लेखक ने उन लोगों के माध्यम से अपने व्यक्ति को स्फीत नहीं करना चाहा है। उनकी शैली की आत्मीयता एवं सहजता पाठक के लिए प्रीतिकर एवं हृदयग्राहिणी होती है। कन्हैयालाल मिश्र प्रभाकर की सृजनशीलता ने भी हिन्दी साहित्य को व्यापक आभा प्रदान की। राष्ट्रकवि रामधारी सिंह 'दिनकर' ने उन्हें 'शैलियों का शैलीकार' कहा था। कन्हैयालाल जी ने हिन्दी साहित्य के साथ पत्रकारिता को भी व्यापक रूप से समृद्ध किया।




आज कन्हैयालाल मिश्र 'प्रभाकर' जी के 111वें जन्मदिवस पर समस्त हिन्दी ब्लॉग जगत और हमारी ब्लॉग बुलेटिन टीम उन्हें याद करते हुए शत शत नमन करती है। सादर।। 


~ आज की बुलेटिन कड़ियाँ ~














आज की बुलेटिन में बस इतना ही कल फिर मिलेंगे तब तक के लिए शुभरात्रि। सादर ... अभिनन्दन।।

रविवार, 28 मई 2017

मेरी रूहानी यात्रा में सुशील कुमार जोशी




नदी किनारे कांटे में मछली फंस ही जाये, ज़रूरी नहीं  .. फिर भी जीवन यापन के लिए मछुआरा अपने कार्य से मुँह नहीं मोड़ता 
वह नियम से नदी के किनारे जाता है, 
मछली फंसेगी, इस उम्मीद में काँटा डालता है 
उसकी यही हार नहीं मानने की प्रक्रिया 
उसे एक दिन सफलता देती है  ... 

........ 
ठीक इस मछुआरे की तरह भावनाओं का यात्री अपनी कलम से लिखता जाता है समाज, देश, जीवन, दर्द  ... दूसरे के लिखे को उतनी ही तन्मयता से पढता भी है, अपने विचारों से उसे अवगत भी कराता है, बिना किसी उम्मीद के ! वह शुक्रगुजार है हर हाल में , ऐसी विशेषता के साथ हैं सुशील कुमार जोशी, जिनका ब्लॉग है 

उलूक टाइम्स



दो सप्ताह से व्यस्त 
नजर आ रहे थे 
प्रोफेसर साहब 
मूल्याँकन केन्द्र पर 
बहुत दूर से आया हूँ 
सबको बता रहे थे 
कर्मचारी उनके बहुत ही 
कायल होते जा रहे थे 
कापियों के बंडल के बंडल 
मिनटों में निपटा रहे थे 
जाने के दिन जब 
अपना पारिश्रमिक बिल 
बनाने जा ही रहे थे 
पचास हजार की 
जाँच चुके हैं अब तक 
सोच सोच कर खुश 
हुऎ जा रहे थे 
पर कुछ कुछ परेशान 
सा भी नजर आ रहे थे 
पूछने पर बता रहे थे 
कि देख ही नहीं पा रहे थे 
एक देखने वाले चश्में की 
जरूरत है बता रहे थे 
मूल्याँकन केन्द्र के प्रभारी 
अपना सिर खुजला रहे थे 
प्रोफेसर साहब को अपनी राय 
फालतू में दिये जा रहे थे 
अपना चश्मा वो गेस्ट हाउस 
जाकर क्यों नहीं ले आ रहे थे 
भोली सी सूरत बना के 
प्रोफेसर साहब बता रहे थे 
अपना चश्मा वो तो पहले ही
अपने घर पर ही भूल कर 
यहाँ पर आ रहे थे 
मूल्याँकन केन्द्र प्रभारी 
अपने चपरासी से 
एक गिलास पानी ले आ 
कह कर रोने जैसा मुँह 
पता नहीं क्यों बना रहे थे !


वैसे कुत्ते 
के पास 
मूँछ है 
पर 
ध्यान में 
ज्यादा रहती 
उसकी 
टेढ़ी पूँछ है 

उसको 
टेढ़ा रखना 
अगर 
उसको 
भाता है 
हर कोई 
क्यों उसको 
फिर 
सीधा करना 
चाहता है 

उसकी 
पूँछ तक 
रहे बात 
तब भी 
समझ 
में आती है 
पर 
जब कभी 
किसी को 
अपने सामने 
वाले की 
कोई बात 
पागल 
बनाती है 
ना जाने 
तुरंत उसे 
कुत्ते की 
टेढ़ी पूँछ ही 
क्यों याद 
आ जाती है 

हर किसी 
की 
कम से कम 
एक पूँछ 
तो होती है 

किसी की 
जागी होती है 
किसी की 
सोई होती है 

पीछे होती है 
इसलिये 
खुद को दिख 
नहीं पाती है 
पर फितरत 
देखिये जनाब 
सामने वाले 
की पूँछ पर 
तुरंत नजर 
चली जाती है 

अपनी पूँछ 
उस समय 
आदमी भूल 
जाता है 
अगले की 
पूँछ पर 
कुछ भी 
कहने से बाज 
लेकिन नहीं 
आता है 

अच्छा किया 
हमने अपनी 
श्रीमती की 
सलाह पर 
तुरंत 
कार्यवाही 
कर डाली 

अपनी पूँछ 
कटवा कर 
बैंक लाकर 
में रख डाली 

अब कटी 
पूँछ पर कोई 
कुछ नहीं 
कह पाता है 

पूँछ हम 
हिला लेते हैं 
किसी के 
सामने 
जरूरत 
पड़ने पर 
कभी तो 
किसी को 
नजर भी 
नहीं आता है 

इसलिये 
अगले की 
पूँछ पर 
अगर कोई 
कुछ कहना 
चाहता है 
तो पहले 
अपनी पूँछ 
क्यों नहीं 
कटवाता है ।

शनिवार, 27 मई 2017

अरे दीवानों - मुझे पहचानो : १७०० वीं ब्लॉग बुलेटिन

नाम में का रखा है; गुलाब को कोनो दोसरा नाम से भी बोलाईयेगा त उसका सुंदरता अऊर खुसबू ओही रहेगा. लेकिन अभी दू-चार साल में हमको अजीब इस्थिति का सामना करना पड़ा. तब जाकर समझ में आया कि ई नाम का महिमा अपरम्पार है. आज से अगर सिब जी का नाम बदलकर बिस्नू भगवान कर दिया जाए, त हमरे दिमाग में बिस्नू भगवान का नाम सुनकर भी उनके गला में सांप का तस्वीर नहीं बनेगा.

अब हमरा हाल सुनिए. हमारे नाम में से का मालूम कैसे ऑफिस के रेकॉर्ड में से “वर्मा” गायब हो गया साल २००५ के बाद से. अब २००५ के पहले का सब लोग हमको एस.पी. वर्मा के नाम से जानता है, जबकि ऑफिस के दस्तावेज में हमरा नाम रह गया है सलिल प्रिय अंगरेजी में Salil Priya, जिसको लोग बुद्धा, अशोका, कृष्णा के तर्ज पर सलिल प्रिया कहने लगे.

२०१२ में जब हमरा ट्रांसफर भावनगर हुआ तब हम अमदावाद में अपने ऑफिस में पहुंचे जहाँ से हमको भावनगर जाना था. ओहाँ जाकर जब सबसे परिचय हुआ त हम बताए कि हमको भावनगर ज्वाइन करना है. सब लोग आस्चर्ज से हमरा मुँह ताकने लगा. बाद में हिम्मत करके एगो भाई साहब बोले – लेकिन भावनगर में तो किसी महिला की पोस्टिंग हुई है. हम घबरा गए कि कहीं हमरा पोस्टिंग बदल त नहीं गया. तबतक ऊ बोले कि कोई मैडम हैं सलिल प्रिया, तब हमको हँसी आ गया. हम बोले भाई ऊ हम ही हैं. मगर आप तो एस.पी. वर्मा हैं! तब जाकर उनको समझाए.

ओही हाल तब हुआ जब हम दिल्ली ट्रांसफर होकर आए. हमको पता नहीं था कि हम कऊन साखा में ज्वाइन करेंगे. हमारे पुराने दोस्त का फोन आया – वर्मा जी आप कन्फर्म हैं कि आपको दिल्ली अंचल ट्रांसफर किया गया है? हम बोले कि हाँ, हमारे पास ऑर्डर है. तब हमरे मित्र जी फरमाए कि आपका नाम नहीं है लिस्ट में. अहमदाबाद से सिर्फ एक महिला सलिल प्रिया को दिल्ली ट्रांसफर किया गया है. तब जाकर भेद समझ में आया.

हद तो तब हो गया जब सप्ताह भर पहिले हम जब इंटरव्यू देने गए अऊर अपना नाम पुकारे जाने पर जब बोर्ड रूम में गए तो हमको ई कहकर लौटा दिया गया कि आपको नहीं बुलाया है. तब हम बताए कि मेरा नाम सलिल प्रिय वर्मा है, चाहिए त हमरे फ़ाइल पर देख लीजिए. बोर्ड का सदस्य लोग फ़ाइल देखा, फ़ोटो देखा, हमको देखा तब बैठने के लिये बोला. इसके बाद त पाँच मिनट तक हमरे नाम पर बहस चलता रहा.

ऊ बोर्ड में दू लोग दक्छिन भारत से थे, कहने लगे कि हमारे इहाँ प्रिया लड़की का नाम होता है. हम बोले कि सर आप जब “प्रिय” कहियेगा त लड़का का नाम होगा अऊर “प्रिया” कहियेगा त लड़की का नाम होगा. लेकिन ऊ लोग नहीं माने, तीसरा सदस्य लखनऊ से थे ऊ बेचारे प्रिय अऊर प्रिया का भेद समझाए.

अब हम सेक्सपियेर साहब को याद करके एही कहते रहे कि भाई साहब पास होने वाला लोग का लिस्ट में हमरा नाम होने पर भी वर्मा नहीं देखकर कोई हमको बधाई नहीं देता है, बल्कि सांत्वना देने लगता है कि बेटर लक नेक्स्ट टाइम. आपलोग को कोनो कन्फ्यूजन नहीं होना चाहिए.

अब तीन-साढे तीन साल नाम का चक्कर झेलना है. आप लोग के लिये एही से हम प्रिय का झमेला खतम कर दिए अऊर खाली सलिल वर्मा बन गए, काहे कि हमको पता है कि हम लिखें चाहे नहीं लिखें आप लोगों के प्रिय त रहबे करेंगे.

आपलोग आनन्द लीजिए आज के १७००वाँ बुलेटिन का आपके दोस्त सलिल प्रिय वर्मा द्वारा प्रस्तुत.

                               -  सलिल वर्मा

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रिंद की ज़िंदगी...

बिना शीर्षक ----व्यंग्य की जुगलबंदी ३५

दिखाई दिया यूँ....कि बेसुध किया :D

मित्रता के आधार

तीन वर्ष के मोदी

मोबाइल पर अंगुलियां चलने लगी है

इतिहास में आज: 27 मई..ताना-बाना

तेजस

वेद रहस्य

जंगलराज

२६२. भगवान से

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शुक्रवार, 26 मई 2017

नहीं रहे सुपरकॉप केपीएस गिल और ब्लॉग बुलेटिन

सभी मित्रों को मेरा सादर नमस्कार।
पंजाब के पूर्व पुलिस महानिदेशक (डीजीपी) के.पी.एस.गिल का शुक्रवार (26 मई) को दिल्ली के एक अस्पताल में निधन हो गया. वह 82 वर्ष के थे. गिल किडनी की अत्यंत गंभीर बीमारी के साथ-साथ दिल की बीमारियों से ग्रसित थे. दो बार पंजाब के डीजीपी रहे गिल ने प्रदेश में उग्रवाद को नियंत्रित करने में अहम भूमिका निभाई थी.

सर गंगाराम अस्पताल ने एक बयान में कहा, "उनके पेरिटोनियम में संक्रमण था, जो धीरे-धीरे ठीक हो रहा था. अचानक दिल का दौरा पड़ने से उनकी मौत हो गई." अस्पताल के मुताबिक, उनका निधन अपराह्न 2.55 बजे हुआ. उन्हें 18 मई को अस्पताल में भर्ती कराया गया था.

गिल सन् 1988-1990 तथा दूसरी बार 1991-1995 के बीच पंजाब के डीजीपी रहे. वह सन् 1995 में सेवानिवृत्त हो गए थे. गिल इंस्टिट्यूट फॉर कॉन्फ्लिक्ट मैनेजमेंट तथा इंडियन हॉकी फेडरेशन (आईएचएफ) के अध्यक्ष भी रहे. नागरिक सेवा कार्यों के लिए उन्हें सन् 1989 में पद्मश्री से सम्मानित किया गया.

पंजाब में खालिस्तानी आतंक की कमर तोड़ी

केपीएस गिल को पंजाब में चरमपंथ को खत्म करने का श्रेय मिला वहीं मानवाधिकार संगठनों ने पुलिस के तौर-तरीकों पर गंभीर सवाल भी उठाए थे और फर्जी मुठभेड़ों के अनेक मामले न्यायालय में भी पहुंचे थे.केपीएस गिल पंजाब में खालिस्तानी आंदोलन से सख़्ती से निपटे थे. मई, 1988 में उन्होंने खालिस्तानी चरमपंथियों के ख़िलाफ़ ऑपरेशन ब्लैक थंडर की कमान संभाली थी. यह ऑपरेशन काफी कामयाब रहा था. बाद में वो इंडियन डॉकी फेडरेशन के अध्यक्ष भी बने. केपीएस गिल का पूरा नाम कुंवर पाल सिंह गिल था. वो दो बार पंजाब के डीजीपी रहें. वो साल 1995 में पुलिस सेवा से सेवानिवृत हुए. उन्हें 1989 में पदम श्री का अवार्ड मिला था.


(साभार : zeenews.india.com)


आज सुपरकॉप केपीएस गिल जी के आकस्मिक निधन पर हम सब शोक व्यक्त करते हैं तथा उनके साहसिक योगदान को स्मरण करते हुए उन्हें विनम्र श्रद्धांजलि अर्पित करते हैं। सादर।।

~ आज की बुलेटिन कड़ियाँ ~













आज की बुलेटिन में बस इतना ही कल फिर मिलेंगे तब तक के लिए शुभरात्रि। सादर...अभिनन्दन।।

गुरुवार, 25 मई 2017

युवाओं के जज्बे को नमन : ब्लॉग बुलेटिन

नमस्कार साथियो,
आज लगभग हर हाथ में मोबाइल है और लगभग हर मोबाइल में इंटरनेट सुविधा. मोबाइल में इंटरनेट सुविधा के होने ने इसके सदुपयोग और दुरुपयोग के समान अवसर पैदा किये हैं. बहुत से लोग जहाँ इस सुविधा को महज मौज-मस्ती के लिए लेते हैं वहीं बहुत से लोग ऐसे हैं जो इसके माध्यम से उद्देश्यपूर्ण कार्यों को करने में लगे हैं. इन्हीं में से एक हैं इंदौर में नार्मदेय समाज के युवा, जो व्हाट्सएप पर एक ग्रुप समस्या क्या है चलाते हैं. इस ग्रुप के द्वारा ये युवा साथी सामाजिक कार्यों को अंजाम दे रहे हैं. इंदौर जैसे शहर में वृद्ध, बेसहारा, पीड़ित व्यक्ति की परेशानी को दूर करने का पुनीत कार्य कर रहे हैं. 


अभी पिछले दिनों इस ग्रुप के यश पाराशर को अमित सिकरवार के माध्यम से सूचना मिली कि एक 80 वर्ष की बुजुर्ग महिला को उनके बच्चों ने घर से निकाल दिया है. वह बुजुर्ग महिला रेलवे स्टेशन पर रहकर, मंदिर से भीख मांगकर अपना गुजारा कर रही है. जानकारी मिलते ही यश पाराशर अपने मित्र रोहित त्रिवेदी के सहयोग से बुजुर्ग महिला को अपनी स्कूटी से लेने गए. वे शांति बाई नामक उस महिला को आपने साथ ले गए और नार्मदीय ब्राह्मणों द्वारा संचालित श्रीराम निराश्रित वृद्धाश्रम में रहने की व्यवस्था की. यश पाराशर बताते हैं कि यदि इंदौर में कहीं भी कोई परेशान, बेसहारा व्यक्ति मिले तो उनके/श्रीराम निराश्रित वृद्धाश्रम के हैल्पलाइन नंबर 9755550555 पर खबर देने मात्र से किसी बेसहारा को सहारा मिल सकता है. आज के समय में यश पाराशर सहित ऐसे सभी युवाओं का कायल हो जाना स्वाभाविक है जो लोक कल्याण का काम बिना किसी स्वार्थ के करते हैं.

ऐसे युवाओं के जज्बे को नमन करते हुए प्रस्तुत है, आज की बुलेटिन.

++++++++++













बुधवार, 24 मई 2017

मेरी रूहानी यात्रा और ललितमोहन त्रिवेदी



ललितमोहन त्रिवेदी

लेखन के बीज तो कच्ची उम्र में ही पड़ गए थे! द्वंद इतना कि पढ़ा विज्ञान ( M.Sc. Physics ) और मन रमा साहित्य में ! रामलीला के काव्यमय संवादों से शुरू हुई यात्रा कालेज तक आते आते मंच की ओर मुड गई !मंच से गहरा लगाव रहा सो गीतनाट्य लिखे, कम्पोज किए और सफलतापूर्वक मंचित भी किए !छंदबद्ध लेखन से जुडाव रहा सो गीत ,ग़ज़ल कविता सभी विधाओं में लिखा साथ ही आलेख और ललित निवंध भी लिखे ! आज लगभग सभी रचनाएं प्रकाशित एवं प्रसारित हैं , परन्तु अपने घोर आलसी और टालमटोल स्वभावके कारण लेखन की मात्रा अल्प ही रही और रही गुणवत्ता ? सो सुधी पाठक जानें क्योंकि मेरा ऐसा परम विश्वाश है कि पाठक ही लेखक का अन्तिम सत्य होता है !और अंततः ...... मेरा सबकुछ है .कुछ ना होने में ! तुम मुझे पड़ा रहने दो कोने में !!

संभव है क्या कि रहने दें एक कोने में ? ... शायद रहने देते यदि आप कुछ लिखते रहते, पर 

अनुरक्ति को देखकर ऐसा नहीं कर सकते !

आपको ही याद दिला रहे आपकी ग़ज़ल  =

ढोते ढोते उजले चेहरे .....( ग़ज़ल )
ग़ज़ल ..........( भूली बिसरी .....)


ढोते ढोते उजले चेहरे, हमने काटी बहुत उमर !
अब तो एक गुनाह करेंगे ,पछता लेंगे जीवन भर !!

वो रेशम से पश्मों वाला, था तो सचमुच जादूगर !
मोर पंख से काट ले गया , वो मेरे लोहे के पर !!

उसको अगर देखना हो तो , आंखों से कुछ दूर रखो !
कुछ भी नहीं दिखाई देगा , आंखों में पड़ गया अगर !!

प्यास तुम्हारी तो पोखर के , पानी से ही बुझ जाती !
किसने कहा तुम्हें चलने को ,ये पनघट की कठिन डगर !!

ज्ञान कमाया जो रट रट कर , पुण्य कमाए जो डरकर !
उसकी एक हँसी के आगे ,वे सबके सब न्यौछावर !!

सिर्फ़ बहाने खोज रहा है , पर्वत से टकराने के !
बादल भरा हुआ बैठा है , हो जाने को झर झर झर !!

और भटकने दो मरुथल में , और चटखने दो तालू !
गहरी तृप्ति तभी तो होगी , गहरी होगी प्यास अगर !!

मंगलवार, 23 मई 2017

मेरी रूहानी यात्रा और दिव्या शुक्ला



कथादेश , जनसत्ता , चौथी दुनिया ,निकट 
और कई पत्र पत्रिकाओं में कवितायेँ 
और कहानियां प्रकाशित हुई


यहाँ रहती है कल्पनाओं और यथार्थ के ताने बाने से बुनी कुछ हंसती , सिसकती कहानियां



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गिद्ध
------------
नवम्बर का आखिरी हफ्ता चल रहा था और हवा में हल्की सी खुनकी तैरने लगी थी।
अभी ठंड आई तो नहीं थी पर मौसम बहुत खूबसूरत था। खूबसूरत फूलों का मौसम।
मेरा लान भी फूलों से भरा था ।
जान बसती है मेरी इन पौधों में । इनसे बातें करना, इन्हें देखना, हौले से छूना मुझे नई उर्जा से भर देता है । उन दिनों स्वीट पी की बेलें अपने शबाब पर थीं । उस दिन बैगनी सफेद फूल अपनी मादक खुशबू से दिलोदिमाग पर रोमांस की खुमारी भर रहे थे। पी लेना चाहती थी इनकी महक। मैं अपने अंदर सब समो लेना चाहती थी। मैने एक गहरी सांस भर कर आँख मूंद ली थी कि अचानक
मोबाइल बजा। संगीता की काल थी। सेल आन करते ही शुरू हो गई “सुन शाम सात बजे आ जा बस.......। कुछ लोग है ,…….तुझे अच्छा लगेगा ,…..ना नहीं सूनुगी । अरे हाँ , डीके भी आ रहा है। कुछ दिन पहले मिला था क्लब में। मुझसे पूछ रहा था तेरे बारे में। ......अच्छा शाम को मिलते है। ...... तेरी ही वज़ह से सात बजे का टाइम रखा है। दस-ग्यारह तक खतम हो जाएगा सब। कुछ लोग मिलेंगे,,,,तुझे अच्छा लगेगा।‘’
‘’ओके। .....मै आउंगी।‘’ ,फोन कट गया।
मैं सोचने लगी, रिश्तेदारों की अपेक्षा दोस्त कितने करीब होते है कि मन के उस कोने को झाँक लेते है, जहाँ कभी कभी करीबी नाते भी नहीं पहुँच पाते। जिंदगी की तरफ खींच लाते है अच्छे दोस्त। जैसे संगीता मुझे मुझसे भी ज्यादा जानती है। सब कुछ तो शेयर किया है इससे । मेरी शादी पर खूब धमाल मचाया था इसने और फिर उसी शिद्दत से बिखरते दाम्पत्य से घायल और टूटते हुए मेरे वजूद को भी बटोरने की कोशिश की। सच है, जिंदगी में एक दोस्त जरुरी होता है।
पापा ने मेरी शादी के लिए अजीत को चुना। ........अजीत कुमार भारतीय प्रशासनिक सेवा का अधिकारी। छोटे कसबे का पढ़ाकू लड़का। बहुत अंतर था दोनों परिवारों में। मम्मी ने दबे स्वर में कहा भी पर आईएएस दामाद के सिवा कुछ नहीं दिखा पापा को। दो साल हवा में पर लगा कर गुजर गये। एक अच्छी बीवी बनने की भरसक कोशिशें करती रही थी मैं। समय बीतते-बीतते अजीत बहुत बदल गया। मै तो वैसी ही थी। उसका ख्याल रखती। प्यार भी करती थी, पर उसके इस बदले हुए व्यवहार को न समझ पा रही थी। मेरी दोस्तों के सर्कल में भी खुसफुसाहट होने लगी थी। कोई बात छुपती कहाँ है! अजीत की रंगीन मिजाजी के किस्से आम होने लगे ,पर मुझे ही खबर देर से हुई। फ़ाइल डिसकस करने के बहाने कोई न कोई औरत उसके साथ रहती। सेमिनार में और होटलों में भी। पावर और पैसों ने दूसरे सारे ऐब भी भर दिए। बहुत रोई पर सोचा कोई कमी रह गई मेरे प्यार में जो इस भटकन की वज़ह है। भरोसा था कि संभाल लुंगी। पर …….
संगीता का कन्धा मेरे लिए बहुत बड़ा सहारा था उनदिनों। उस पर सर रख कर रो आती थी मै, पर एक दिन वह हुआ जिसकी कल्पना भी मैने नहीं की थी। सोच कर आज भी घृणा से सर्वांग सुलग जाता है।
काम वाली बाई पार्वती की दस साल की बेटी पिंकी, जिसे मै बहुत प्यार करती थी, अचानक कई दिनों से नहीं दिखी मुझे । पार्वती से पूछा तो वह बोली ‘’पता नहीं भाभी पहले तो लपक के तैयार हो जात रही आपके पास आने को .....पर अब बहुत कहने पर भी कौनो कीमत पर नहीं आती। जबरदस्ती करी तो रोवय लागत है।‘’
‘’अच्छा तुम अभी घर जाओ और उसे दोपहर में ले आना। ‘’
बहुत समझा बुझा कर पार्वती पिंकी को मेरे पास लाई। डरी-सहमी पिंकी को देख कर मुझे समझ में नहीं आया इसे क्या हुआ! बहुत प्यार से उसे मैने अपने पास बुलाया। उसे बिस्किट दिया। बातें करती रही। धीरे धीरे वो सामान्य हुई। मैने पार्वती से कहा, ‘’तुम बाकी घर के काम निपटा कर इसे साथ ले जाना। मेरे पास रहने दो तब तक, पर पिंकी ने माँ का आंचल पकड लिया कि हम जायेंगे ....नहीं रुकना हमें। बड़ी मुश्किल से तैयार हुई रुकने को। बड़ा आश्चर्य लगा उसके इस व्यवहार से। उसे लेकर टी वी रूम में आई पास बिठा कर कहा, ‘’पिंकी, क्या आंटी से गुस्सा हो ?......क्यों नहीं आती तुम अब ? तुमको मै पढ़ाती थी उसका भी नुक्सान हो रहा है न।‘’
वह एकदम चुप हो गई। आँखों में एक अजीब सा डर ......सहमापन था। बहुत पूछने पर,…. बड़ी मुश्किल से उसने जो बताया, उससे एक पल को स्तब्धहो गई मैं। आसमान गिर पड़ा मुझ पर। अटक-अटक कर बच्ची बोली, ‘आंटी अंकल से न बताइयेगा वरना बहुत मारेंगे हमको भी और आपको भी। वो बहुत गंदे अंकल है।‘’
‘’क्या? हुआ क्या? मुझे बताओ तो बेटा....’’
और एक नन्ही बच्ची के मुंह से जो सुना वो एक पुरुष की वीभत्स मानसिकता या बीमार सोच थी। पशुता पर उतर आए पुरुष को वह नन्ही बच्ची अपनी बेटी नहीं औरत लगी। बदलाव की चाह या यौन कुंठा से ग्रसित मनुष्य। उसे पति कहना रिश्ते का अपमान होगा। यही से शुरू हुई दाम्पत्य में दरकन। आफिस से आते ही सीधा सवाल दाग दिया। जवाब में बेशर्म हंसी और जवाब था, ‘’पागल हो गई हो इन कूड़ा-कचरा लोगों की बात पर विश्वास करती हो।‘’
‘’तुम नराधम हो अजीत। क्या तुम्हे मुझसे प्यार नहीं? आखिर क्या कमी है मुझमे जो ऐसी नीच हरकते करते हो? आज से मेरा तुम्हारा कोई रिश्ता नहीं।‘’
एक बिस्तर पर दो अजनबी सोते रहे। कमरा अलग करना मतलब अर्दली के जरिये बात बाहर जाना, सो कमरा एक ही रहा। और फिर एक रात मेरी गर्दन के नीचे हाथ सरका मै जाग रही थी। झटक दिया घृणा से उसे। क्रोध और अपमान से बिलबिला उठा उसके अंदर का पुरुष। चीख़ा वह, ‘’ये मेरा हक़ है। इसे कैसे रोक सकती हो तुम...... हासिल कर ही लूँगा.......’’
बलात्कार! उफ़! वह भी पति द्वारा। बलत्कृत नारी।....... उसका दर्द और अपमान और दर्द की पराकाष्ठा, वह ही जानती है। उस रात पहली और आखिरी बार चीख कर अजीत को कहा, ‘’अब मुझे छूना भी मत मुझे। तुमसे घिन आती है। ...... बिना प्रेम के यह वेश्यावृति नहीं कर सकती। तुम्हारे शरीर से औरतों की दुर्गन्ध आती है मुझे ...’’
.....और रात भर रोती रही। मेरा तन ही नहीं मन भी घायल था। सुबह होते ही संगीता को फोन किया। मेरी आवाज़ काँप रही थी। संगीता ने कहा ‘’अपने को संभाल..... मै दस मिनट में पहुँच रही हूँ।‘’
वह आकर मुझे ले गई। उसके घर आकर बहुत रोई। शाम को पापा और माँ मुझे लेने आ गये। उन्हें अजीत ने ही फोन कर के मेरे घर छोड़ जाने की बात बता दी थी। उन दोनों ने सोचा मियां बीबी का झगड़ा है। सुलझ जाएगा। पर अब मै किसी कीमत पर नहीं रहना चाहती थी उसके साथ। अजीत का यह घिनौना रूप कैसे माँ बाप को बताऊँ! बड़ी उहापोह थी। मम्मी चाहती थी एक मौका और देना चाहिए हालाँकि, दामाद के कारनामे जानती थी। शोहरत तो पहुँच ही जाती है। पर ओहदा और पैसा ऐब पर पर्दा भी डाल देता है। ....,,मैने फैसला कर लिया। फिर चंद महीनो की फार्मेल्टी के बाद आपसी सहमती से बड़ी आसानी से तलाक हो गया। पापा ने मुझे यह घर शादी में गिफ्ट किया था, जिसे मै संवारती रहती। बहुत कहने पर भी मै नहीं गई उनके साथ रहने। वक्त गुजरता गया। कई बरस गुजर गये । वक्त अपने हिसाब से तल्खियाँ कम कर देता है। मै भी नार्मल होने लगी। आँखे मूंद कर अपने अतीत के गलियारे में फिर आज घूम आई थी मै। एक टीस सी उठी फिर झटक दिया। जो बीत गया सो गया। अब जब कभी एक साथी की चाह भी उठती, एक नाउम्मीदी फैल जाती। मैंने अपना एक पैमाना बनाया था। उसमें कोई फिट बैठे तब न! सोच कर मै मुस्करा दी। आज भी जाना है। शाम की चाय का वक्त हो गया। सोच ही रही थी काशी ने पूछा --
‘’दीदी चाय यही लाऊं या अंदर लगा दूँ?’’
‘’यही ले आओ.’’ काशी से कह कर मैने फिर आँखे मूंद ली।
काशी चाय अच्छी बनाता है। अभी नया ही आया है। करीब दो माह ही हुए लेकिन उसने मेरी चाय का ख़ास टेस्ट पकड लिया है। हालाँकि, यह बहुत कठिन नहीं, पर जरा मुश्किल तो है।....यही ...मेरी चाय। मुझे वो मुलाजिम बिलकुल नहीं पसंद जो मेरा काम ध्यान से न करे। मेरे घर पर काम करने वाले नौकर घर के सदस्य ही होते हैं।
धीमे धीमे सिप करके चाय पीने का अपना ही मज़ा है और मै ये लुफ़्त लेने के पूरे मूड में थी। मेरी फ्रेंड्स अक्सर मुझे उकसाती, ‘’कभी स्काच भी इसी तरह पी कर के देख। ...... जिंदगी का असली मज़ा तब समझ में आएगा। .....तू कहाँ अभी उसी घुंघट वाली सोच में उलझी पड़ी है।‘’
सबके बहुत कहने पर भी मैने क्लब की मेम्बरशिप नहीं ली। पर हां, कभी कभी संगीता की गेस्ट बन कर जरुर गई हूँ। दोपहर को क्लब के लान में चेयर लगवा कर बेसन की रोटी और पूरी बियर की बोटल भी खतम की है, पर मेरी आदत नहीं बनी। सिर्फ एक बार आजमाई। बहुत कडवी थी। जिंदगी की तरह ही कडवी कसैली। नहीं पसंद आई मुझे। पर पी इसलिए क्योंकि मुझे खुद को आजमाना था। फूलों, गीतों, किताबों और अपने ख्याली इश्क के नशे में मदहोश रहने वालों पर बियर कितना चढ़ती है! चाय का आखिरी सिप ले कर और कप रख कर अंदर जाने को मुड़ी ही थी की गेट खटका। कोई अंदर आ रहा था। मैने पलट कर नहीं देखा। पलट कर देखना मुझे कभी पसंद नहीं। अभी किसी से मिलने का न वक्त था न मन। सलीम भाई से गाडी लगाने को बोल कर अंदर तैयार होने चल दी। एक अजीब सी उलझन में घिरी थी। कहीं जाना मुझे अच्छा नहीं लगता। पार्टी और हंगामे ,…..शायाद मै इन सबके लिए नहीं बनी थी..... या यूँ कहें मेरा मूड कब क्या करेगा मुझे भी नहीं पता। आज डिनर था संगीता के घर। मै मना नहीं कर सकती थी । वहां खुराना भी जरुर आएगा। उसे झेलना मेरे लिए टॉर्चर था। कर्नल खुराना उनका का पारिवारिक मित्र था। अभी तक कुंवारा था। अक्सर जब भी हम संयोग से एक जगह मिलते...... संयोग नहीं यह सब संगीता की कारस्तानी होती कि वह हमेशा ही ऐसा कुछ करती की मुझे उस से टकराना ही पड़ता और वह लगातार मुझे ताकता रहता। न जाने क्या था उसकी आँखों में, पर मुझे बहुत चिढ होती। एक्सरे की तरह मेरे बदन के आर पार होती उसकी तीर सी निगाहें। गलती उसकी भी नहीं थी। यह सब तो मेरी अपनी ही फ्रेंड का किया धरा है। उसने कर्नल से भी मेरा प्रपोजल दिया। वह दोनों मियां बीबी चाहते है की मै खुराना से शादी कर लूँ। हालाँकि, पंजाबी खुराना खूबसूरत मर्द है। उसमे वो सारी खूबियाँ है, जो एक पुरुष में होनी चाहिए। पढ़ा लिखा। वेळ बिहेव्ड। कुत्तों से तो बेहद प्यार करता था वह। करीब चार अलग अलग नस्लों के कुत्ते भी पाल रखे थे। उसके बंगले का लान बहुत खुबसूरत था - लश ग्रीन। मेरी सबसे अहम पसंद भी उसके बंगले पर मौजूद थी ......चुनिदा किताबों की लाइब्रेरी। सब तरह की किताबें मौजूद थी। एंटिक लैम्प और काली आबनूसी लकड़ी की मेज़ कुर्सी कोने में रखी उसके नफीस टेस्ट को दर्शा रही थी। एक दिन संगीता ही मुझे उसके घर भी ले गई थी। शायद उसने ही कहा होगा। काफी ना-नुकुर के बाद मै गई। वे दोनों बरामदे में बैठ कर बात कर रहे थे। मै कम्पाउंड में घूम घूम कर पेड़ पौधे देख रही थी। सोच रही थी सब कुछ तो है इस आदमी में फिर मुझे क्यों नहीं समझ में आता! पर आज मूड लाईट था। मौसम का असर मुझ पर भी था। ख्याले इश्क भी, पर आशिक नदारद था। न जाने कौन होगा जो मेरे लिए बना होगा! बडबडा रही थी और तैयार भी हो रही थी। साड़ी बाँध कर अपने आप को शीशे में देखा। कुछ ज्यादा ही हसीन लग रही थी रायल ब्लू फ्रेंच शिफान में। विदाउट स्लीव डीप नेक ब्लाउज ,गले में बड़े बड़े बीड्स की स्वरोस्की की सिंगल लाइन नेक पीस ......कानो में कंधे से जरा ऊँचे तारों की तरह झिलमिलाते इयररिंग्स। आज खुद पर ही प्यार आ गया। अब भला बेचारे खुराना या किसी और का क्या दोष! किसी का भी दिल फिसल जाए। इसी साल अपना चौतीसवा जन्मदिन मनाया था, पर चौबीस से ज्यादा की नहीं दिखती थी। चौबीस इंच की भी नहीं, मात्र बाईस की कमर थी। इसे कहते हैं खुद्पसंदी। सोच कर मुस्कराई और ओठों को गोल कर के सीटी मार दी मैने और अपना फेवरिट परफ्यूम स्प्रे करने लगी। वाईट डाईमंड की सुगंध से मुझे जानने वाले मेरे आने की आहट पा जाते। आजकल तो कर्नल दूर से ही सूंघ लेता था। पुयर चैप! नहीं जानता था कि मै उससे शादी तो कभी नहीं करुँगी। वो मेरे लायक़ नहीं है, पर आज उसके बारे में बार बार क्यों सोच रही हूँ? सर झटक दिया मैंने, जैसे सारे ख्याल झटक कर बाहर फेंक दिए। घड़ी देखी। “ओह! सात बज गये!”
बस क्लच उठा कर बाहर निकल ही रही थी कि काशी ने आकर कहा ‘’दीदी गाडी लग गई है। रात को क्या बनाऊ? या आप बाहर खायेंगी?”
“मुझे नहीं खाना। तुम लोग अपने लिए जो चाहो बना लो। ......संगीता मेमसाब के यहाँ चलिए सलीम भाई।“ कह कर मै गाडी में बैठ गई।
बहुत दिनों बाद किसी डिनर में जा रही थी। दोस्तों की झाड़ खाने के बाद अपने ही बनाये खोल से बाहर आने की एक कोशिश थी आज।
“आप अभी आ रही है?”
किसी ने पीछे से मेरे कंधे पर हाथ रखा। चौंक कर पलटी तो देखा सदाबहार कैसेनोवा डीके मुस्करा रहे थे। इतनी बेबाकी से हाथ रखना मेरे माथे पर सिकुडन डाल गया। फिर एक मुस्कान चिपका ली। जरा देर हो गई, पर अभी सात ही तो बजे है। पार्टी में बहुत करीबी लोग ही थे। लगता था मेरी प्रिय दोस्त और मेरे फेवरेट कपल ने यह पार्टी भी किसी को मेरे करीब लाने के लिए ही प्लान की है। संगीता मेरे गले लग गई। बोली, “बहुत खूबसूरत लग रही है तू .....पर किस काम की? तू तो भाव ही नहीं देती। अरे पागल! जिंदगी अकेले नहीं कटती। क्यों नहीं समझती कि कितने लोग दिल हथेली पर लिए तेरे पीछे फिरते है और तू है की नोटिस ही नहीं करती। अच्छा, सच बता .....ईमानदारी से कहना, क्या तुझे किसी की जरूरत नहीं महसूस होती?”
“कैसी जरूरत? मेरा काम करने को है तो मुलाजिम?” जान कर भी अनजान बन गई मैं।
....पर आज तो संगीता ठाने बैठी थी और भरी महफ़िल में पूछ ही लिया उसने “तुझे फिजिकल नीड्स नहीं ?”
अचकचा गई एकदम से। फिर बोल पड़ी, “अगर हो भी तो क्या जूठन खा लूँ? या दुसरे की थाली खींच लूँ?”
सन्नाटा सा छा गया एक पल को। फिर बात पलट दी उसने “”अरे मै तो टीज़ कर रही थी तुझे।“
ड्रिंक सर्व हो रही थी। सब जानते थे कि मै पीती नहीं पर ड्रिंक्स पहचानती हूँ। नानवेज भी नहीं खाती। कर्नल मेरे लिए ग्लास लाये मेरे मना करने पर कहा, “ये अल्कोहल नहीं है लाइम सोडा विथ आइस है।“
मैने ग्लास थाम लिया और सिप करने लगी। कुछ ज्यादा ही अच्छा टेस्ट था। ड्रिंक खतम होते ही एक और आ गई और मैने इस बार खुद ले लिया। मुझे नहीं पता था कर्नल ने उसमे वोडका मिक्स कर दी है जिसका सुरूर मेरी आँखों में झलकने लगा है। मुयुजिक शुरू हो गया। धीमा मादक संगीत। कई जोड़े पाँव थिरकने लगे। एक हाथ मेरे सामने बढ़ा। “कैन वी डांस?”
ना में सर हिला दिया मैने और बोली, “मुझे नहीं डांस करना,”
“ओके! कोई बात नहीं। हम बातें करते हैं।“
हमदोनों कार्नर में पड़े सोफे पर बैठ गए। कर्नल खुराना मेरा हाथ देखने लगे। हाथ दिखाना अपनी रेखाएं पढवाना मेरा हमेशा से प्रिय शगल रहा है। वो बोलते रहे और मै खिलखिलाती रही। तभी अपना हाथ मेरी जाँघ पर रख दिया। मैने धीमे से हटा दिया और अपना हाथ खीच लिया, पर कर्नल तो आज न जाने किस मूड में था। मेरी कमर में हाथ डाल कर खीच लिया और बोला, “कितनी खूबसूरत हो तुम ....शादी नहीं करनी तो न सही .......एक डेट ही मेरे साथ कर लो।“
एक झटके से उसे धक्का दे कर दूर किया। उसने कहा, “मै बहुत प्यार करता हूँ तुमसे।“
“प्यार और तुम .......नहीं कर्नल खुराना ......तुम प्यार नहीं जानते। तुम्हारी आँखों में जब भी प्यार तलाशा मैने। वो कहीं नहीं नजर आया। बस एक आदिम भूख दिखी। कर्नल, .... जब भी किसी पुरुष की नज़रें मेरे चेहरे से फिसल कर गर्दन के नीचे टिकती है उसी पल उसकी नियत उजागर हो जाती है। वासना का मोहताज़ नहीं होता प्रेम और मै प्रेम तलाश रही हूँ। ....आज ही मैने तुम्हारे बारे में सोचना शुरू ही किया था की आज ही तुम बेनकाब हो गये।“
बिना होस्ट को बताये पार्टी छोड़ आई। घर पहुंची ही थी तो देखा अशोक मेरा इंतजार कर रहा है। अशोक मुंहलगा था। अभी बाईस चौबीस साल का ही होगा। उसकी नौकरी भी मैंने ही लगवाई थी। दीदी दीदी कह कर जब-तब सर खाता रहता। मेरे पर्सनल काम वो ही करता था, पर आज उसकी बकबक सुनने का बिलकुल मूड नहीं था मेरा। मैने उससे कहा “कल आना।“
“अरे नाही दीदी कल तक तो गजब हो जाएगा।“
“क्या हुआ कि गजब हो जाएगा? अच्छा बोलो…..?”
“दीदी, स्टेशन जाने वाली सडक पर .....पुल के पहले पुलिस की पिकेट लगी है।“
“वो तो वहां साल भर से लगी है। तो मै क्या करूँ?”
“बात तो सूनो आप पहले। ..... उन लोगों ने एक लड़की को बैठा रखा है। ....आप चलें और उसे अपने साथ ले आयें।
“तुम पागल हो क्या? हम कैसे जा सकते? अब टाइम भी तो देखो नौ बज रहे है और उस लड़की को कैसे ला सकते है अपने साथ? अगर उसने कह दिया वो मुझे नहीं जानती तो ? कमीने पुलिस वाले कुछ भी बक देंगे।“
“दीदी, अगर आप ने उसे नहीं छुड्वाया तो आज उस लड़की का क्या हाल होगा आप नहीं जानती।“
“क्या बकवास कर रहे हो ....साफ़ बताओ।“
अशोक ने जो बताया उससे मेरी रूह काँप गई। अशोक बता रहा था, “वो लड़की तेरह चौदह साल की ही होगी किसी अच्छे घर की और शहर के नामी स्कूल में आठवी क्लास में पढ़ती है।.... नम्बर कम होंगे या टीचर ने डांटा होगा तो बैग लटका कर चली जा रही थी क्न्फ्युज सी। उन पुलिस वालों ने उसे बिठा लिया टेंट की ओट में। मैने अपनी आँखों से देखा उससे पूछने के बहाने एक पुलिस वाला उसके गाल सहलाता है तो दूसरा बगल बैठा हुआ उसकी जांघो पर हाथ फेरता है। वो लोग देर रात का इंतजार कर रहे हैं। कोई कमरा ढूंढ रहे है। मुझसे भी कहा अपने कमरे की चाभी दे दो,…. सुबह दे देंगे। हम यह कह कर चले आये चाभी दोस्त के पास है।“
“तुमसे चाभी क्यों मांगी? तुमको कैसे जानते है वो?”
“उनमे से एक मेरे गाँव का रहने वाला है। उसी ने सब को बताया कि अकेले रहते है हम। नदी के इस पार पुल शुरू होते ही पुलिस पिकेट और उस पार ढलान वाली कालोनी में मेरा कमरा है। अक्सर सडक सूनी रहती है। चाभी के लिए बड़ी घुड़की दी पर जान छुड़ा कर भाग आये हम।....दीदी उस बच्ची को बचा लो नहीं तो उसकी लाश कल नदी में तैरते मिलेगी।“ उसकी आँख में आंसू भर आये।
सारा दृश्य मेरी आँखों से गुजर गया। चिड़िया को घेरे हुए पांच छह गिद्ध। जांघों पर हाथ फेरता सिपाही। पिंकी को निगलता अजीत और कर्नल खुराना ......सारी सूरतें गडमड होने लगी। घृणा का एक सैलाब उमड आया और हलक में अटक गया। .....चारों ओर गिद्ध ही गिद्ध। जिंदा मुर्दा मांस को नोचते गीदड़ नजर आ रहे थे। सूखे हलक में एक घूंट पानी उडेला और सोचने लगी क्या करू ! अरे! मै तो भूल ही गई। ईशान भी तो यही पोस्टेड हैं। उनका ही मुहकमा है यह। वो ही तो आजकल S.S.P है। मोबाइल उठा कर फोन लगाया । स्विच आफ मिला। बार बार ट्राई करती रही। न जाने कितनी बार मिलाया पर स्विच आप ही था। लैंड लाइन पर ट्राई किया तो उनके पर्सनल नम्बर पर कोई रिस्पांस नहीं। तभी मुझे ख्याल आया और फोन अटेंडेंट को फोन किया तो पता चला साहब सो रहे है। उसने कहा “बुखार है। कोई भी फोन लेने से मना किया है।“
“जगा दो और मेरा नाम बता दो जल्दी बात कराओ अर्जेंट है।“
“नहीं मैम, नौकरी चली जायेगी।“
“तुम बात तो कराओ। नौकरी नहीं जायेगी। हम कह रहे है।“
ईशान को जैसे पता चला मेरा फोन है, तुरंत फोन पर आये। हेलो बोलते ही उधर से आवाज़ आई, “अरे आपने याद तो किया। आपका फोन आया, जहे नसीब। ...... हुकुम करें।“
“मजाक छोड़िये ईशान ......और बात सुनिए। अगर जरुरी न होता तो कल फोन करते।“ पूरी बात और जगह बताई।
वो बोले “उस एरिया के थाने पर भेजवा दूँ ?”
“नहीं....!” चीख पड़ी, “सुनिए, आप उसे वहां नहीं भेजेंगे। आप उसे गीदड़ों के बीच से निकाल कर भेड़ियों की माँद में फेंक देंगे। आप से बेहतर कौन जानता है थाने की हकीकत। ईशान उस लड़की को आप अपने बंगले पर बुलाइए और पता पूछ कर उसके घर भेज दीजिये। ...... और हाँ उसके बाद मुझे फोन करिए कितनी भी रात हो मै इंतजार कर रही हूँ।“
“करता हूँ मै....”
फोन रख कर मै सोचने लगी कर्नल हो या सिपाही या दरोगा ……,चौदह साल की हो या चौतीस साल की......। सब इनके लिए बस गर्म गोश्त है। यह आदिम भूख है। ये गिद्ध है। बस मौका मिलना चाहिए । आधे घंटे भी नहीं हुए थे ईशान का फोन आ गया, “अरे यार तुम्हे थैंक्स। तुम न बताती तो कल तक हडकम्प मच जाता। वह कमिश्नर की बेटी है। बच्ची को घर भेज दिया। खुद माँ बाप ले गए। बहुत परेशान थे। चलो ये अच्छा हुआ आज तुमने एक नेक काम किया।“
“ईशान तुम मेरे बहुत अच्छे दोस्त हो..... शुक्रिया।“
“हूँ!” –लगा उधर एक मुस्कान तिर गई है। जानती हूँ बरसों से एक नरम कोना है ईशान के दिल में अपनी इस दोस्त के लिए जिसे उसने कभी ज़ाहिर नहीं किया और शायाद कभी करेगा भी नहीं। अगली सुबह के अख़बार में एक खबर छपी थी – “पुलिस का गुड वर्क.... पुलिस पेट्रोलिंग टीम ने उच्च अधिकारी की नाबालिक लड़की को नदी में कूदने से बचाया .......डिपार्टमेंट की तरफ से पुरस्कार की घोषणा।“
“ये कैसा गुड वर्क है ईशान ?” मैंने फोन पर ही पूछा था।
“तुम तो जानती हो मुझे .....उन सालों को तो आज ही सस्पेंड कर दिया मैने। अब सच तो नहीं कह सकता न यार। लड़की के पिता का भी दबाव था। फिर नौकरी का सवाल। अपने ही महकमे की बदनामी कैसे करता ......गुड वर्क ही तो था।
मै उस रात सो नहीं पाई थी। अब एक चाय पी कर सो लूँ यह सोच ही रही थी कि सेल बज उठा। संगीता थी। पूछ रही थी, “क्या हुआ? तुम बिना मिले क्यूँ चली गई? कोई बात हुई क्या?”
“नहीं। कुछ ख़ास नहीं। तू तो जानती ही है कि अब मुझ पर ज्यादा देर तक असर नहीं होता। झटक देती हूँ मै इन हादसों को। ये मर्द जात भी बड़ी कुत्ती चीज़ है। हर अकेली औरत इन्हें चाकलेट लगती है, जो इनका हाथ लगते ही पिघल जायेगी। खुराना भी उसी प्रजाति का प्राणी है। ,,,,, उसका चैप्टर बंद कर दे ,,,मै जिंदगी की जिस सडक पर अकेले चल रही हूँ, उस सडक का न आदि है न ही अंत। अगर सुकून भरी चहलकदमी है, तो कभी भागदौड़ भी। कोई सहयात्री नहीं। जरूरत है भी या नहीं ......पता नहीं! सोचती हूँ क्यूँ न इसे वक्त पर छोड़ ही दिया जाय..........!”

सोमवार, 22 मई 2017

राजा राममोहन राय जी और ब्लॉग बुलेटिन

सभी ब्लॉगर मित्रों को मेरा सादर नमस्कार। 
संबंधित चित्र
राजा राममोहन राय (अंग्रेज़ी: Raja Ram Mohan Roy, जन्म: 22 मई, 1772 - मृत्यु: 27 सितम्बर, 1833) को 'आधुनिक भारतीय समाज' का जन्मदाता कहा जाता है। वे ब्रह्म समाज के संस्थापक, भारतीय भाषायी प्रेस के प्रवर्तक, जनजागरण और सामाजिक सुधार आंदोलन के प्रणेता तथा बंगाल में नव-जागरण युग के पितामह थे। धार्मिक और सामाजिक विकास के क्षेत्र में राजा राममोहन राय का नाम सबसे अग्रणी है। राजा राम मोहन राय ने तत्कालीन भारतीय समाज की कट्टरता, रूढ़िवादिता एवं अंध विश्वासों को दूर करके उसे आधुनिक बनाने का प्रयास किया।



आज आधुनिक भारत के महान समाज सुधारक श्री राजा राममोहन राय जी के 145वें जन्मदिवस पर पूरा देश उनको याद करते हुए श्रद्धापूर्वक नमन करता है। सादर।।
   

~ आज की बुलेटिन कड़ियाँ ~ 














आज की बुलेटिन में बस इतना ही कल फिर मिलेंगे तब तक के लिए शुभरात्रि। सादर ... अभिनन्दन।। 

रविवार, 21 मई 2017

मेरी रूहानी यात्रा और अनुराग यायावर


गोधूलि की बेला 
घर जाने के लिए तत्पर पूरा जीवन 
रसोई से उठता धुआँ 
और यायावर मन का परिचय  - जीवन के हर छोर को छूता हुआ कहता है,


मैं यायावर!
पथ का गमन,
विश्राम मेरा|

मैं मिला था,
कब किससे?
क्यूँ मिला था?
वो तो थे,
पथ के मेरे,
विराम अपने|
शेष समर की धुल,
चाटनी मुझे अब|
फांकना है गर्द का,
गुबार सारा|
शूल से सने मेरे,
आहार दे दो|
रख लो तुम,
व्योम का श्रृंगार सारा|
मैं अकिंचन!
है भ्रमण संधान मेरा|
मैं यायावर!
पथ का गमन,
विश्राम मेरा|

मैं चला हूँ,
अन्तः में संकल्प लेकर|
कहाँ तक?
शुन्य का विस्तार होगा|
इसकी परिभाषा,
जीते जी नहीं मिली तो|
ढूंढ़ लूंगा मैं,
मृत्यु के उस पार होगा|
सारी तड़प, सारी तपिश,
मुझे सौंप दो तुम|
यूँ ही जलना-बुझना,
है अभिमान मेरा|
मैं यायावर!
पथ का गमन,
विश्राम मेरा|

मेरी अस्थि, मेरा रोम,
तुम्हें समर्पित|
कर लो सृजन,
कुछ कर सको,
मेरे अंतिम क्षण का|
फिर तो मैं,
निर्बाध होकर चल पडूंगा|
निर्वात की काया में,
अपना सर्वस्व देने|
मैं ठहरता हूँ नहीं,
पाषण बनकर|
विधि यही,
है यही विधान मेरा|
मैं यायावर!
पथ का गमन,
विश्राम मेरा|

ऐसी परिभाषा मिलती कहाँ?
जो मनुज तन को परिधि दे!
अगर मांगना है तो मांगो,
हे!… ईश्वर!
सम्पूर्ण विश्व को समृद्धि दे!

“मन जितना विचरा घट-घट में, समझो उतने तीरथ कर धाये!
क्या मंदिर? मस्जिद, क्या गिरजा? यह सब तुमने व्यर्थ बनाये!”

जीवन का सारतत्व,
यायावर-सा स्थाई|
निमित-मात्र में सांसों की,
कोसों-कोसों तक गहराई|
यक्ष प्रश्न अस्तित्व पटल पर,
अब आंखें मेरी पथराई|
मैं यायावर ढूंढ़ रहा,
है कहाँ पृथ्वी की परछाई?

वात्सल्य की परिभाषा के,
प्रारंभ से अनंत की तलाश में,
भटकता एक “यायावर!”
समय लाँघ उम्र खिसकती गई,
बचपन वहीं खडा है अभी तक,
जहाँ से तुमने शून्य को अपनाया|
संबंधों की धक्का-मुक्की में,
भ्रम के कुहासे को चीरता,
जीवन का संदर्भ,
ढूंढता है माँ को!


जाने कितने बांधों को तोड़ता, तटों से जूझता, अपना वजूद बनाता है यायावर  ... यायावर यानि अनुराग रंजन सिंह 

yaayaawar


यायावर अनवरत चलता है, तलाश करता है अनगिनत अर्थ - शायद तभी बता पाता है अपनी कलम से 

मृत्यु! आत्मा का अज्ञातवास!


दंभ निमित में मृगतृष्णा के,
गहन-सघन स्वांस अभ्यास|
पुनः व्यंजित वृत्त-पथ पर,
आत्मा का पुनरुक्ति प्रवास|
कल्प-कामना के अनंत में,
लिपिबद्ध अपूर्ण उच्छास|
है, मृत्यु!
आत्मा का अज्ञातवास,
क्षणिक मात्र है, जीवनवास|
अवतरण का,
सत्य, मिथक क्या?
यह भ्रम, मन का,
पूर्वाग्रह है|
ज्ञात यही,
अवसर-प्रतिउत्तर|
जिस काया में,
बसता मन है|
पूर्वजन्म की स्मृति शेष,
ज्यौं पुनः न करती देह-अवशेष|
किंचित यह भी ज्ञात नहीं,
तब क्या था?
क्यूँ जीवन पाने का धर्म है?
पूर्व जन्म का दंड मिला,
या
यह अगले जन्म का दंड-कर्म है|
सत्य का संधान न पाकर,
निर्वात उकेरता एकांतवास|
है, मृत्यु!
आत्मा का अज्ञातवास,
क्षणिक मात्र है, जीवनवास|

लिप्त कर्म में,
दीप्त कर्म में,
संचित धर्म,
निर्लिप्त आयाम|
कैसा दर्पण श्लेष दृष्टि का?
भूत-भविष्य का कैसा विन्यास?
क्यूँ भ्रम को स्थापित करते?
खंडित कर दो सारे न्यास|
है, मृत्यु!
आत्मा का अज्ञातवास,
क्षणिक मात्र है जीवनवास|

जो निश्चय था,
तुम्हारे मन का|
पूर्ण से पहले,
वह अविचल है|
जो लिया यहीं से,
देकर जाओ|
यही कर्म है,
यहीं पर फल है|
त्याग-प्राप्ति संकल्प तुम्हारा,
है, तर्कविहीन तुष्टि का सन्यास|
है, मृत्यु!
आत्मा का अज्ञातवास,
क्षणिक मात्र है जीवनवास|

शनिवार, 20 मई 2017

मेरी रूहानी यात्रा - P. C. Rampuria (ताऊ) के संग




ब्लॉग के जमाने से इनको पढ़ा, लेकिन एक सच्ची बात कि फेसबुक पर इनसे टिप्पणी के जरिये बात हुई - बात होने से निःसंदेह पढ़ने की उत्कंठा तीव्र होती है।  इसलिए मैं मानती हूँ कि ब्लॉग एक किताब है, सहेजी गई डायरी और फेसबुक एक रंगमंच 


ताऊ रामपुरिया (को नहीं जानत है ब्लॉग जगत में  ... ) 
कहते हैं, 
अब अपने बारे में क्या कहूँ ? मूल रुप से हरियाणा का रहने वाला हूँ ! लेखन मेरा पेशा नही है ! थोडा बहुत गाँव की भाषा में सोच लेता हूँ , कुछ पुरानी और वर्तमान घटनाओं को अपने आतंरिक सोच की भाषा हरयाणवी में लिखने की कोशीश करता हूँ ! वैसे जिंदगी को हल्के फुल्के अंदाज मे लेने वालों से अच्छी पटती है | गम तो यो ही बहुत हैं | हंसो और हंसाओं , यही अपना ध्येय वाक्य है | हमारे यहाँ एक पान की दूकान पर तख्ती टंगी है , जिसे हम रोज देखते हैं ! उस पर लिखा है : कृपया यहाँ ज्ञान ना बांटे , यहाँ सभी ज्ञानी हैं ! बस इसे पढ़ कर हमें अपनी औकात याद आ जाती है ! और हम अपने पायजामे में ही रहते हैं ! एवं किसी को भी हमारा अमूल्य ज्ञान प्रदान नही करते हैं ! ब्लागिंग का मेरा उद्देश्य चंद उन जिंदा दिल लोगों से संवाद का एक तरीका है जिनकी याद मात्र से रोम रोम खुशी से भर जाता है ! और ऐसे लोगो की उपस्थिति मुझे ऐसी लगती है जैसे ईश्वर ही मेरे पास चल कर आ गया हो ! आप यहाँ आए , मेरे बारे में जानकारी ली ! इसके लिए मैं आपका आभारी हूँ !

26 मई 2013 के इस समाचार को अवश्य पढ़िए, फिर आगे बढिये -

चलिए, उनके कलम घर की सैर करें,

"मेरा हमसाया"


आंगन रेस्टोरेंट मे
एक शेर और खरगोश 
एक साथ दाखिल हुये 
उनको देखते ही वेटरों के
होश उडे , पांव थर्राए 
जहां खडे थे वहीं जड हो गये
आखिर मैनेजर हिम्मत करके आया
पूछा, क्या सेवा कर सकता हूं ???

खरगोश ने की फरमाइश
चार अंडे का आमलेट, काफ़ी 
और थोडा ये और वो ले आओ 
अब मेनेजर कुछ सकपकाया 
शेर की तरफ चेहरा घुमाया फ़िर पूछा 
आपके मित्र के लिये?
इस पर खरगोश ने फ़रमाया
तुम भी क्या आदमी हो यार?
अगर मित्र होता भूख से हकलाया.. 
तो मैं यहां बैठा होता क्या ऐसे मस्ताया
या तो मित्र के पेट मे होता
या होता कहीं ख़ुद को जा  छुपाया 



मित्र का पेट भरा है....
इसीलिये दो दिन है मेरा हमसाया.....

(इस रचना के दुरूस्तीकरण के लिये सुश्री सीमा गुप्ता का हार्दिक आभार!)


सबको पता है कि यहाँ जो भी है, एक से बढ़कर एक है 


ताऊ की तरफ़ तैं  आज सबेरे की  रामराम. भाई ताऊ का एक घणा पक्का दोस्त था गोटू सुनार. इन दोनुआं म्ह पक्की दांत काटी दोस्ती थी. और दोनू के दोनूं ही शातिर ठग थे. ताऊ के कारनामें तो आप जानते ही हो. पर गोटू सुनार उससे भी दो हाथ आगे था.
इन दोनो की एक विशेषता और थी कि दोस्ती के बावजूद भी एक दुसरे को  ठगने का कोई भी मौका नही छोडते थे. इसके बावजूद भी उनकी दोस्ती मे कोई दरार कभी नही आई.
अब एक दिन गोटू सुनार के छोरे का ब्याह था. सुनार ने ताऊ को उसके यहां आने का न्योता दिया. ताऊ शादी मे पहुंचा. सब कार्यक्रमों मे शामिल हुआ .  दहेज मे सभी सामान आया जो कि सभी शादियों मे आता है. पर एक सोने का बडा सा थाल भी दहेज मे आया था और उस पर ताऊ की नियत खराब हो गई थी. पर ताऊ को कोई मौका हाथ नही लगा इसको पार करने का.
कुछ दिन बाद लगता है गोटू की किस्मत खराब होगी जो उसने ताऊ को फ़िर बुलावा भेजा और ताऊ आ धमका. ताऊ के आते ही दोनों दोस्त हुक्का गुडगुडाते हुये गप्पें मारने लगे. रात को सुनार ने ताऊ को उसी सोने के थाल मे खाना खिलाया. बस ताऊ के दिमाग मे तो स्कीम दौडने लगी.
उधर गोटू सुनार भी समझ गया कि ताऊ की नियत खराब हो गई है और किसी भी तरह थाल को बचाना है. पर ताऊ जैसे ठग से वो भी घबराता था. खैर उसने अपना इन्तजाम कर लिया. और दोनो की खटिया बिल्कुल पास पास लगा दी और दोनो सो गये,
थोडी देर मे ताऊ नकली खर्राटे लेने लगा. ये देख कर गोटू सुनार भी सो गया.
ताऊ ने देखा कि सुनार खर्राटे ले रहा है तो उसने सुनार की खटिया के उपर एक छींका बंधा देखा और उसमे वही सोने का थाल रखा था और पानी से पूरा लबालब भरा हुआ. ताऊ समझ गया कि सुनार की चालाकी है ये.

खैर ताऊ भी ताऊ था.  ताऊ चुपचाप ऊठा, और हुक्के की नलकी निकाल लाया. उस नलकी को धीरे से उस सोने के थाल के पानी मे डाला और चुपचाप सारा पानी खींच कर पी गया. फ़िर उस थाल को ऊठाया और सीधे गांव के बाहर तालाब मे कमर तक पानी मे घुस गया और वहां सोने के थाल को  गाड कर वापस आकर चुपचाप अपनी खाट पर सो गया.
अब रात के दुसरे प्रहर मे गोटू सुनार की आंख खुली और उसकी नजर छींके पर गई तो उसके होश ऊड गये. ताऊ बगल की चारपाई पर सो रहा है और थाल गायब है.
धीरे २ उसने पूरे कमरे को छान मारा. और ताऊ की चतुराई पर दंग रह गया कि आखिर इसने बिना पानी गिराये थाळ को पार कैसे किया ? पर उसकी अक्ल मे ये गुथ्थी नही सुलझी. आखिर वो भी ताऊ के सामने हार मान गया.
पर सुनार दिमाग लडाता रहा कि ये सब कैसे हुआ ? अचानक उसका हाथ ताऊ के शरीर से लग गया. उसने टटोल कर देखा तो ताऊ का शरीर कमर के नीचे ठंडा था और कमर के उपर गर्म.
सुनार सारा माजरा समझ गया और चुपके से ऊठकर उस तालाब तक गया और सोने का  थाल उसमे से निकाल लाया. वापस आकर चुप चाप सो गया.
सुबह हुई, सुनार ऊठ कर हुक्का भर लाया, इतनी देर मे ताऊ भी ऊठ गया. 
सुनार - ताऊ राम राम ! कहो रात कैसी गुजरी ? नींद तो ठीक से आई ? 
ताऊ - अरे यार गोटू, जैसा मेरा घर वैसा तेरा घर ! भाई घणी बधकी ( बढिया) नींद आई.मैं तो रात को सोया तो अब नींद खुली है,
हुका पीके ताऊ बोला - भाई गोटू इब मैं जाऊंगा मेरे गांव,   घर और खेतां का घणा काम पडया सै. 
सुनार बोला - ताऊ इब थोडी देर डटज्या ! खाना वाना खाकै चले जाणा. मैं थारी भाभी तैं बोलकै जल्दी खाणा बनवाता हूं. मुस्कराते हुये सुनार बोला.
दोनों तालाब पर जाकर फ़्रेश हौ   कै नहा धौकै आगये तब तक खाना तैयार था. सुनार ने अब फ़िर से ताऊ को सोने उसी थाल मे खाना परोसा. ताऊ परेशान ! जैसे तैसे खाना खाया और आखिर पूछ ही बैठा कि गोटू भाई तुम्हारे पास ऐसे कितने सोने के थाल हैं ?
सुनार बोला - बस एक ही है  ताऊ. 
ताऊ आश्चर्य से बोला - पर वो तो मैं.......! और ताऊ विस्मय से बोला - ये कैसे हो सकता है ?

सुनार बोला - ताऊ पहले तू बता फ़िर मैं बताता हूं . अब मैं कोई रामदयाल कुम्हार तो हूं नही . मैं हूं गोटू सुनार . और तेरे से कमजोर इन कामों मे नही पडूंगा. फ़िर दोनो ने अपनी अपनी कारस्तानी सुनाई. और दोनो एक दुसरे की बडाई करने लगे.
अचानक ताऊ के दिमाग मे एक आईडिया आगया और वो सुनार से बोला कि - यार हम दोनो ही मंजे  हुये ठग हैं. अगर हम दोनो मिल जाये तो कोई लम्बा हाथ मार सकते हैं . और मेरी निगाह मे एक शिकार भी है.
सुनार भी कडका और पका शातिर  था सो बोला - ताऊ जल्दी बता शिकार का पता , बस समझ  ले अपना joint venture शुरु.
और ताऊ ने उसको बताया कि सेठ के पास बहुत तगडा माल है, सो एक हाथ मार देते हैं. मेरा पुराना हिसाब किताब भी चुकता हो जायेगा.
और इस प्रकार इन दो शातिरों का joint venture शुरु हो गया 
इब खूंटे पै पढो :- 

ताऊ घणा परेशान था.  ताऊ ने राज भाटिया जी को फ़ोन लगा कर कुछ मदद करने 
को कहा. पहले तो भाटिया जी ने मना कर दिया. 

पर आप जानते ही हो कि ताऊ भी नम्बर एक का स्कीमबाज है सो उसने भाटिया 
जी को ऐसी स्कीम समझाई कि भाटिया जी ने तुरंत ५ लाख रुपये ताऊ को ट्रांसफ़र करवा दिये. 

अब ताऊ ने जो स्कीम भाटिया जी को बताई थी उसका हिसाब उनसे लग नही रहा 
था. ताऊ की बताई स्कीम आज तक किसी को समझ नही आई तो भाटिया जी को 
क्या समझ आने वाली थी? 

ताऊ ने यह कह कर रुपये ट्रांसफ़र करवाये थे कि ५ रुपया सैकडा प्रतिमाह का ब्याज 
और मुनाफ़े का चालीस टका और नुक्सान मेरा. पर हिसाब बारह महिने बाद करूंगा. 

अब भाटिया जी हिसाब लगा रहे थे कि ५ रुपये सैकडे से २५ हजार महिना का तो ब्याज का मिलेगा, फ़िर मुनाफ़ा अलग. जब पूरा नही जोड पाये तो उन्होने समीरलाल जी 
को फ़ोन लगा पूछा.  

भाटिया जी :- अजी समीर जी रामराम. कैसे हैं? 
समीर जी :- रामराम जी भाटिया साहब, सब ईश्वर की कृपा है. आप सुनाईये, आज 
कैसे याद कर लिया? 
भाटिया जी :- अजी एक हिसाब जुडवाना था. थोडा बडा हिसाब है, अगर आपको समय 
हो तो यह बताईये कि मैने ५ लाख रुपया ५ रुपये सैकडे प्रतिमाह से ताऊ को बारह महिने के लिये उधार दिये है तो मुझे कुल वापस कितने रुपये मिलेंगे? 

समीर जी :- अजी भाटिया जी ! आपको कुछ भी नही मिलेगा. 
भाटिया जी :- क्यों ? आप क्या गणित का हिसाब नही जानते? मैने तो सुना है आप 
बहुत पहुंचे हुये CA  हैं? 

समीर जी : अजी भाटिया साहब मैं तो गणित जानता हूं पर लगता है आप ताऊ को 
नही जानते? इतनी बडी रकम देने के पहले हिसाब पूछना चाहिये था ना ?  


ब्लॉग के बीते दिनों की ओर लौटिए, आज भी वहाँ वक़्त गुलज़ार है - बस आपका इंतज़ार है :)

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