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मंगलवार, 25 अप्रैल 2017

दुर्गम रास्तों से होकर ही कुछ सीधे रास्ते मिलते हैं ...




काँटों में उलझ
लहूलुहान
गलत -सही बनकर
जब मैं आखिरी पायदान पर
संतुलित होकर खड़ी हो गई
तो अपनी गलतियाँ भी सार्थक लगी हैं !

कोई भी मंज़िल
बहारों से होकर नहीं गुजरती
कीचड़ अधिक मिलते हैं !
निःसंदेह,
कीचड़ शुक्रगुज़ार नहीं होते
पर,
मैं उनकी शुक्रगुज़ार हूँ
क्योंकि उनकी नियतों से वाकिफ होते हुए
मैंने बहुत कुछ जाना
कई विषम पड़ाव पार किये !

दुर्गम रास्तों से होकर ही
कुछ सीधे रास्ते मिलते हैं  ...
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यहाँ पढ़िए क्रमशः राकेश पाठक की रचनाएँ 

5 टिप्पणियाँ:

सुशील कुमार जोशी ने कहा…

सुन्दर।

Unknown ने कहा…

दुर्गम रास्तों से होकर ही
कुछ सीधे रास्ते मिलते हैं

सही कहा...अच्छी कविता..

कविता रावत ने कहा…

नए ढंग से प्रस्तुत बहुत अच्छी बुलेटिन प्रस्तुति हेतु आभार

Pradeep Chauhan ने कहा…

ये फोटो आपने मेरे ब्लॉग से लिया है, जिसका लिंक यहाँ से रहा हूँ ! कम से कम क्रेडिट तो दे देते मुझे !

http://www.omusafir.com/2015/08/mcleodganj-to-triund-trek.html

शिवम् मिश्रा ने कहा…

प्रदीप जी,
हम फ़ोटो गूगल से लेते हैं, बाक़ी रहा सवाल क्रेडिट देने का तो इस ब्लॉग की ख़ासियत ही यही है कि वो लोगों तक उनका 'क्रेडिट' पहुंचाए।

एक बार पूरे ब्लॉग को देखिएगा आप ख़ुद समझ जाएंगे।

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