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शनिवार, 9 जनवरी 2016

शंख, धर्म और विज्ञान - ब्लॉग बुलेटिन

पिछले दिनों भारतीय विज्ञान कांग्रेस में एक वैज्ञानिक के द्वारा शंख बजाये जाने पर देश में शंख पर एक बहस शुरू हुई। अब यह एक सार्थक बहस है या इसे भी धार्मिक चश्मे से साम्प्रदायिक घोषित कर दिया जाता है वह तो देखना होगा लेकिन आइये आज हम शंख के बारे में कुछ बातें जानते हैं कि आखिर यह है क्या और इसकी उपयोगिता क्या है। सबसे पहले तो यह जानते हैं कि इसे अंग्रेजी में कोंच शेल क्यों कहा गया। जब भारत में पुर्तगाली आये और उन्होंने ही पहली बार शंख देखा, भारतीय भाषा का ज्ञान न होना और भारतीय बोली को ठीक प्रकार से न समझ पाने के कारण उन्होंने शंख को सोंक कहना शुरू किया यही concha आगे चलकर अंग्रेजी के शब्द conch में बदल गया।  

पौराणिक मान्यता के अनुसार शंख, समुद्र मंथन से मिलने वाले चौदह रत्नों में से एक था।  

लक्ष्मीः कौस्तुभपारिजातकसुराधन्वन्तरिश्चन्द्रमाः।
गावः कामदुहा सुरेश्वरगजो रम्भादिदेवाङ्गनाः।
अश्वः सप्तमुखो विषं हरिधनुः शङ्खोमृतं चाम्बुधेः।
रत्नानीह चतुर्दश प्रतिदिनं कुर्यात्सदा मङ्गलम्। 

यह शंख, समुद्र से उत्पन्न होने के कारण इसे माता लक्ष्मी के समान ही पूज्यनीय माना गया और इसे स्वयं भगवान और माता लक्ष्मी ने धारण किया है और यह अपने आप में एक ब्रम्ह के समान है। इस शंख की ध्वनि जहां तक भी पहुंचती हैं वहां तक की वायु शुद्ध और उर्जावान हो जाती है। वास्तु विज्ञान के अनुसार सोयी हुई भूमि भी नियमित शंखनाद से जग जाती है। भूमि के जागृत होने से रोग और कष्ट में कमी आती है तथा घर में रहने वाले लोग उन्नति की ओर बढते रहते हैं। चलिए आजकल लोग धार्मिक तथ्यों को न मानकर वैज्ञानिक तर्क पर अधिक जोर देते हैं तो मित्रों, मनुष्य को सात्विकता, सरलता और सकारात्मक ऊर्जा देने वाला यह शंख, ब्रम्हांड के सभी अनुनादों को अपने भीतर धारण किये हुए रहता है। इसमें सदा ओम का स्वर गूंजता रहता है और यदि आप इसे अपने कान के पास लगाएं तो आप समुद्र की ध्वनि सुन सकेंगे। यह वायुमंडल की तरंगो के घर्षण और पृथ्वी की सुषुप्त कॉस्मिक एनर्जी का शंख के भीतर जाने के बाद के विस्तार से उत्पन्न होता है। इन तरंगों से पृथ्वी का वातावरण और उसकी शक्ति बढ़ती है।  शंखनाद से कई किस्म के बैक्टेरिया और विषाणुओं का नाश हो जाता है, और यह एक नई चेतना का संचार करता है। 

स्टैनफोर्ड विश्विद्यालय के एक शोध का वीडियो देखिये:   




शंख मुख्यतः तीन प्रकार के होते हैं -दक्षिणावर्ती, मध्यावर्ती और वामावर्ती। इनमें दक्षिणावर्ती शंख दाईं तरफ से खुलता है, मध्यावर्ती बीच से और वामावर्ती बाईं तरफ से खुलता है। मध्यावर्ती शंख बहुत ही कम मिलते हैं। शास्त्रों में इसे अति चमत्कारिक बताया गया है। इन तीन प्रकार के शंखों के अलावा और भी अनेक प्रकार के शंख पाए जाते हैं जैसे लक्ष्मी शंख, गरुड़ शंख, मणिपुष्पक शंख, गोमुखी शंख, देव शंख, राक्षस शंख, विष्णु शंख, चक्र शंख, पौंड्र शंख, सुघोष शंख, शनि शंख, राहु एवं केतु शंख। 

आशा है आप भी शंख बजायेंगे, चलिए अब आज के बुलेटिन की और चला जाये।
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रवींद्र कालिया नहीं रहे

Sumitra Singh Chaturvedi at अब छोड़ो भी
नई दिल्‍ली। वरिष्ठ साहित्यकार रवींद्र कालिया अब हमारे बीच नहीं रहे। उन्हें लीवर में शिकायत के बाद पिछले दिनों राजधानी दिल्ली के गंगाराम अस्पताल में भर्ती कराया गया था। पिछले बुधवार को उनकी हालत में सुधार के बाद उन्हें वेंटिलेटर से बाहर कर दिया गया था लेकिन आज सुबह एक बार फिर उनकी तबीयत बिगड़ गई। उनके निधन के समाचार से पूरे साहित्य जगत में शोक की लहर दौड़ गई है। उनकी पत्नी ममता कालिया भी एक प्रख्यात साहित्यकार हैं। उनकी बीमारी के दौरान उनके पुत्र मनु कालिया उनके साथ थे। हिंदी साहित्य में रवींद्र कालिया की ख्याति उपन्यासकार, कहानीकार और संस्मरण लेखक के अलावा एक ऐसे बेहतरीन संपादक के रू... more » 

हमसफर न हुए

ई. प्रदीप कुमार साहनी at काव्य संसार
चंद कदम भर साथ तुम रहे, संग चल कर हमसफर न हुए, पग पग वादा करते ही रहे, होकर भी एक डगर न हुए । तेरी बातें सुन हँसती हैं आँखें, खुशबू से तेरी महकती सांसे, दो होकर भी एक राह चले थे, संग चल कर हमसफर न हुए, एक ही गम पर झेल ये रहे, होकर भी एक हशर न हुए । फिर से तेरी याद है आई, पास में जब है इक तन्हाई, भ्रम में थे कि हम एक हो रहे, संग चल कर हमसफर न हुए, अच्छा हुआ जो भरम ये टूटा, होकर भी एक नजर न हुए । दिल में दर्द और नैन में पानी, अश्क कहते तेरी मेरी कहानी, यादें बन गये वो चंद लम्हें, संग चल कर हमसफर न हुए, धरा रहा हर आस दिलों का, होकर भी एक सफर न हुए । -प्रदीप कुमार साहनी 

जीवन के सरोकार

rajendra sharma at Srijan
प्यार में कोई शर्त नहीं होती आस्था और विश्वास में कोई संशय नहीं होता ममता करुणा और स्नेह की कोई सीमा नहीं होती क्षमताये जाग्रत हो जाए तो असीम है अहंकार के कई रूप है प्रकार है अहंकार में समाहित रहे समस्त विकार *है* अमर ,शाश्वत सनातन रहे विशुध्द विचार है वैचारिक विरासत सबसे उत्तम है भौतिक विरासत में पलते कई गम है संस्कारो की विरासत को जिसने पाया है जीवन *में* रही अक्षय ऊर्जा रही कीर्ति की छाया है 

शक्ति और शिक्षा पर विवेकानन्द का चिंतन

Kavita Rawat at KAVITA RAWAT
*शारीरिक दुर्बलता : * महान् उपनिषदों का ज्ञान होते हुए भी तथा अन्य जातियों की तुलना में हमारी गौरवपूर्व संत परम्पराओं का सबल होते हुए भी मेरे विचार में हम निर्बल हैं। सर्वप्रथम हमारी शारीरिक निर्बलता ही हमारी विपदाओं और कष्टों का विषम आधार है। हम आलसी हैं, हम कृतत्वहीन हैं, हम संगठित नहीं हो सकते, हम परस्पर स्नेह नहीं करते, हम अत्यधिक स्वार्थी हैं, हम सदियों से केवल इस बात पर आपस में लड़ रहे हैं कि मस्तक पर टीका लगाने का ढंग कैसा हो? और ऐसे तर्कहीन विषयों पर हमने अनेक ग्रन्थों की रचना कर डाली कि किसी के देखने मात्र से हमारा भोजन दूषित हो जाता है अथवा नहीं! यह नकारात्मक भूमिका हम विग... more » 

जैसे हिलती सी परछाई

राजीव कुमार झा at यूं ही कभी
*याद अभी भी है वह क्षण* *जब मेरे सम्मुख आई * *निश्चल,निर्मल रूप छटा सी * *जैसे हिलती सी परछाई * *गहन निराशा,घोर उदासी * *जीवन में जब कुहरा छाया * *मृदुल,मंद तेरा स्वर गूंजा * *मधुर रूप सपनों में आया * *कितने युग बीते,सपने टूटे * *हुए तिरोहित स्वप्न सुहाने * *किसी परी सा रूप तुम्हारा * *भूला वाणी,स्वर पहचाने * *पलक आत्मा ने फिर खोली * *फिर तुम मेरे सम्मुख आई * *निश्चल,निर्मल रूप छटा सी * *जैसे हिलती सी परछाई * 

तुम भी इस घर में आते हो....!!!

Sushma Verma at 'आहुति'
जब भी रात में दरवाज़े के हिलने की, आहट सी रहती है... यूँ ही लगता है कि.... जैसे हवा के झोंके के साथ... तुम भी इस घर में आते हो..... तुम्हे याद है घर का वो लॉन... जिसकी बगियाँ को, तुमने सींचा था, मुझे याद है कि... तुम अपनी क्यारी के फ़ूलो को, मेरे नाम से पुकारते थे... हवा के झोकों से जब वो झूलते है.. तो यूँ लगता है कि... तुम भी इस घर में आते हो.... तुम्हे याद है वो किचन, जिसमे कितनी ही बार तुमने, वो अदरक वाली चाय बनायीं थी, हवा में आज भी उस चाय की, खुसबू महसूस करती हूँ.. तो लगता है... तुम भी इस घर में आते हो... तुम्हे याद है वो दर्पन, जिसमे मैं जब सजती संवरती थी, वो तुम्हारा पीछे से, मुझे बा... more » 

वो औरत नहीं"

रजनी मल्होत्रा नैय्यर at चांदनी रात
स्त्रियों की अस्मत और अस्मिता से जुड़े सवाल पर मेरा आलेख ... "वो औरत नहीं" घना कोहरा सा दबा हुआ दर्द मासूम मजबूर का , आहिस्ता -आहिस्ता फैलता हुआ समेट लेता है संपूर्ण जीवन के हर कोण को | परिवर्तन और परावर्तन के नियम से कोसों दूर उसका संवेग और सोचने की क्षमता बस लांघना चाहती है उस उठते लपट को जिसने घेर कर बना रखी है शोषक और शोषित के बीच की एक मजबूत सी दीवार और कुछ रेखाएँ | यह कुदरत के नियम का कैसा मखौल है , सम शारीरिक संरचना को सिर्फ रंग भेद और कुछ सिक्कों की खनक कर देती है अलग जैसे कागों और बगुलों की अपनी-अपनी सभा | इस आदम भेड़िये के बीच की खाई देख सहसा कह उठता है मन ये क्या ? इस तकरा... more » 

प्रधानमंत्री मोदी के लिए परीक्षा का समय..

AK SHUKLA at AKSADITYA
प्रधानमंत्री मोदी के लिए परीक्षा का समय.. पठानकोट एयर बेस पर हुए फिदायीन हमले ने भारत-पाकिस्तान के संबंधों पर लगातार चलने वाली बहस को और गर्म तथा तेज कर दिया है| विशेषकर पाकिस्तान आर्मी से शह पाये आतंकवादी संगठनों द्वारा भारत में मचाये गए उत्पातों में शामिल लोगों और संगठनों के खिलाफ पाकिस्तान की नागरिक सरकार के द्वारा कोई कार्यावाही न कर पाने की असमर्थता के खिलाफ भारत में एक हार्डलाईनर समूह हमेशा सक्रिय रहा है, जो पाकिस्तान के साथ किसी भी प्रकार के राजनीतिक-सांस्कृतिक-सामाजिक तथा आर्थिक(व्यापारिक) संबंध रखने के खिलाफ रहा है| संसद भवन, अक्षरधाम,मुम्बई अथवा जम्मू-कश्मीर में आये दिन हो... more » 

बुद्धू काका और मनफेर ताऊ

हमारे गाँव में बहुत से लोग थे। एक थे रहमत अली। नाम के बिल्कुल उल्टे। चेहरे पर ऐसा ताव जैसे हर वक़्त लड़ने को तैयार बैठे हों, और एक थे संतोषी काका, सपने में भी निन्यानबे के फेर में पड़े रहते थे। बहादुर कक्का ऐसे कि चूहे से भी डर जाएँ और बलवीर चाचा के लिए लाठी टेके बिना दो क़दम चलना मुहाल। लेकिन दो लोग यथा नाम, तथा गुण थे--एक बुद्धू काका और दूसरे मनफेर ताऊ। बुद्धू काका सचमुच के बुद्धू थे। कोई मज़ाक़ में भी कुछ कह दे तो सच मान बैठते थे। हमारे अहाते के एक कोने में बनी कोठरी में रहते थे। जब ज़मींदारी थी तो उनके पिता हमारे यहाँ चौकीदारी और सेवा-टहल किया करते थे। पिता गुज़र गए तो ज़िम्मेदारी बुद्ध... more » 

दो चूहों की मौत

anamika singh at क्षण
अपनी जिंदगी में मैंने किसी भी इंसान को मरते हुए नहीं देखा, जब भी देखा मरने के बाद ही देखा। ठीक ऐसे ही मैंने किसी जानवर को भी मरते हुए नहीं देखा बल्कि मरने के बाद ही देखा। लेकिन मेरा ऐसा कोई अरमान कभी नहीं रहा कि मैं किसी को मरते हुए देखूं। जैसा कि चूहों से तंग आकर इनका बखान मैं पहले भी कर चुकी हूं सो इनके बारे में ज्यादा कुछ कहने की जरूरत नहीं। चूहों से तो सभी परेशान रहते हैं लेकिन ऐसा लगता है कि मुझे कोई विशेष श्राप मिला है जैसे राम को चौदह वर्ष का वनवास मिला था ठीक वैसे ही मुझे भी दो सालों तक चूहों द्वारा प्रताड़ित किए जाने का श्राप किसी ने दिया है शायद। more » 

बेटी की विदाई

ARUN SATHI at चौथाखंभा
आज एक नवजात कन्या का फेंक हुआ शव मिला और ह्रदय कारुणिक क्रंदन करने लगा..बेटी को कौन मार रहा है? क्या वह माँ-बाप और डॉक्टर मर रहे या दहेज़ लोभी हमारा समाज मार रहा है..हमें सोंचना होगा...? (अरुण साथी, रिपोर्टर, बरबीघा, बिहार) द्रवित होकर निकले चंद शब्द.. बेटी की विदाई *** बेटी तुम मत आना इस दुनिया में! यहाँ सिर्फ तुम्हरी मूर्ति की पूजा होती है.. क्या करोगी आ कर? दहेज़ के लिए मार दी जाओगी, या फिर निर्भया की तरह रौंद दिया जायेगा तुम्हारा अस्तित्व... यहाँ मैं ही हत्यारा हूँ और मैं ही हत्या का आलोचक भी.. मैं ही बताऊंगा एक बेटी को मारना महापाप है, ऐसे लोग समाज के अभिशाप है.. और मैं ही... more 
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फ़िर मिलेंगे अगले हफ्ते ...

8 टिप्पणियाँ:

Archana Chaoji ने कहा…

बहुत अच्छा लिखा शंख पर ।।।

Archana Chaoji ने कहा…

बहुत अच्छा लिखा शंख पर ।।।

सुशील कुमार जोशी ने कहा…

विनम्र श्रद्धांजलि रवींद्र कालिया जी के लिये ।

Unknown ने कहा…

शंख की अच्छी विवेचना । मेरी रचना को यहाँ स्थान देने के लिए हार्दिक आभार ।

Unknown ने कहा…

शंख की अच्छी विवेचना । मेरी रचना को यहाँ स्थान देने के लिए हार्दिक आभार ।

राजीव कुमार झा ने कहा…

बहुत सुंदर बुलेटिन.शंख पर अच्छी जानकारी.
मुझे भी शामिल करने के लिए आभार.

कविता रावत ने कहा…

बहुत अच्छी बुलेटिन प्रस्तुति में मुझे शामिल शामिल करने हेतु आभार!

शिवम् मिश्रा ने कहा…

जय हो देव बाबू, खूब शंख बजाए आप ... जय हो |

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