नमस्कार साथियो,
क्या लिखा जाये,
क्या नहीं; किस बात पर चिंतन किया जाये और किस बात पर चिंता; किस मुद्दे का
सामाजीकरण किया जाये और किसका राजनीतिकरण समझ से परे है. इस असमंजस के बीच
स्व-लिखित बुन्देली कविता के साथ आज की बुलेटिन.
आनंद लेने का प्रयास कीजिये और
समाज में नित नए तरीके से पैदा होते/किये जाते विवादों के समाधान खोजने का भी
प्रयास करियेगा.
शेष अगली बुलेटिन
में....
++
अब है कछु करबे की बिरिया,
आँखन से दूर निकर गई निंदिया।
उनके लानै नईंयाँ आफत,
मौज मजे को जीबन काटत,
पीकै घी तीनऊ बिरिया।
अब है कछु करबे की बिरिया॥
अपनई मन की उनको करनै,
सच्ची बात पै कान न धरनै,
फुँफकारत जैसें नाग होए करिया।
अब है कछु करबे की बिरिया॥
हाथी घोड़ा पाले बैठे,
बिना काम कै ठाले बैठे,
इतै पालबो मुश्किल छिरिया।
अब है कछु करबे की बिरिया॥
कर लेयौ लाला अपयें मन कौ,
इक दिना तो मिलहै हमऊ कौ,
तारे गिनहौ तब भरी दुफरिया,
अब है कछु करबे की बिरिया॥
++
5 टिप्पणियाँ:
अत्यन्त विचारणीय सूत्र...
राजा कुमारेन्द्र सिंह जी इस हेतु आपका धन्यवाद। बहुत सुंदर प्रयास आपके द्वारा एक बार पुनः धन्यवाद।
जय हो राजा साहब ... जय हो !
बहुत बढ़िया बुलेटिन प्रस्तुति
आभार!
बहुत सुन्दर प्रयास हैै यह। मैइसमे सम्मिलित की गई अच्छा लगा।
एक टिप्पणी भेजें
बुलेटिन में हम ब्लॉग जगत की तमाम गतिविधियों ,लिखा पढी , कहा सुनी , कही अनकही , बहस -विमर्श , सब लेकर आए हैं , ये एक सूत्र भर है उन पोस्टों तक आपको पहुंचाने का जो बुलेटिन लगाने वाले की नज़र में आए , यदि ये आपको कमाल की पोस्टों तक ले जाता है तो हमारा श्रम सफ़ल हुआ । आने का शुक्रिया ... एक और बात आजकल गूगल पर कुछ समस्या के चलते आप की टिप्पणीयां कभी कभी तुरंत न छप कर स्पैम मे जा रही है ... तो चिंतित न हो थोड़ी देर से सही पर आप की टिप्पणी छपेगी जरूर!