रात के समय एक दुकानदार अपनी दुकान बन्द ही कर रहा था कि एक कुत्ता दुकान में आया । उसके मुँह में एक थैली थी। जिसमें सामान की लिस्ट और पैसे थे। दुकानदार ने पैसे लेकर सामान उस थैली में भर दिया। कुत्ते ने थैली मुॅंह मे उठा ली और चला गया।
दुकानदार आश्चर्यचकित होके कुत्ते के पीछे पीछे गया ये देखने की इतने समझदार कुत्ते का मालिक कौन है।
कुत्ता बस स्टाॅप पर खडा रहा। थोडी देर बाद एक बस आई जिसमें चढ गया। कंडक्टर के पास आते ही अपनी गर्दन आगे कर दी। उस के गले के बेल्ट में पैसे और उसका पता भी था। कंडक्टर ने पैसे लेकर टिकट कुत्ते के गले के बेल्ट मे रख दिया। अपना स्टाॅप आते ही कुत्ता आगे के दरवाजे पे चला गया और पूॅंछ हिलाकर कंडक्टर को इशारा कर दिया। बस के रुकतेही उतरकर चल दिया।
दुकानदार भी पीछे पीछे चल रहा था।
कुत्ते ने घर का दरवाजा अपने पैरोंसे 2-3 बार खटखटाया।
अन्दर से उसका मालिक आया और लाठी से उसकी पिटाई कर दी।
दुकानदार ने मालिक से इसका कारण पूछा ।
मालिक बोला `साले ने मेरी नीन्द खराब कर दी। चाबी साथ लेके नहीं जा सकता था गधा।`
जीवन की भी यही सच्चाई है। लोगों की अपेक्षाओं का कोई अन्त नहीं है।
मेजर संदीप उन्नीकृष्णन (15 मार्च 1977 - 28 नवम्बर 2008) अशोक चक्र (मरणोपरांत)
संदीप उन्नीकृष्णन (15 मार्च 1977 -28 नवम्बर 2008) भारतीय
सेना में एक मेजर थे, जिन्होंने राष्ट्रीय सुरक्षा गार्ड्स (एनएसजी) के
कुलीन विशेष कार्य समूह में काम किया. वे नवम्बर 2008 में मुंबई के हमलों
में आतंकवादियों से लड़ते हुए शहीद हुए। उनकी बहादुरी के लिए उन्हें 26
जनवरी 2009 को भारत के सर्वोच्च शांति समय बहादुरी पुरस्कार, अशोक चक्र से
सम्मानित किया गया.
"उपर मत आना, मैं उन्हें संभाल लूंगा", ये
संभवतया उनके द्वारा अपने साथियों को कहे गए अंतिम शब्द थे, ऐसा कहते कहते
ही वे ऑपरेशन ब्लैक टोरनेडो के दौरान मुंबई के ताज होटल के अन्दर सशस्त्र
आतंकवादियों की गोलियों का शिकार हो गए.
बाद में, एनएसजी के सूत्रों
ने स्पष्ट किया कि जब ऑपरेशन के दौरान एक कमांडो घायल हो गया, मेजर
उन्नीकृष्णन ने उसे बाहर निकालने की व्यवस्था की और खुद ही आतंकवादियों से
निपटना शुरू कर दिया. आतंकवादी भाग कर होटल की किसी और मंजिल पर चले गए और
उनका सामना करते करते मेजर उन्नीकृष्णन गंभीर रूप से घायल हो गए और वीरगति
को प्राप्त हुए।
हरिवंश राय बच्चन ( जन्म: 27 नवंबर, 1907 - मृत्यु: 18 जनवरी, 2003) हिन्दी भाषा के प्रसिद्ध कवि और लेखक थे। इनकी प्रसिद्धि इनकी कृति 'मधुशाला' के लिये अधिक है। हरिवंश राय बच्चन के पुत्र अमिताभ बच्चन भारतीय सिनेमा जगत के प्रसिद्ध सितारे हैं।
27 नवंबर, 1907 को इलाहाबाद, उत्तर प्रदेश में जन्मे हरिवंश राय बच्चन हिन्दू कायस्थ परिवार से संबंध रखते हैं। यह 'प्रताप नारायण श्रीवास्तव' और 'सरस्वती देवी' के बड़े पुत्र थे। इनको बाल्यकाल में 'बच्चन' कहा जाता था जिसका शाब्दिक अर्थ 'बच्चा या संतान' होता है। बाद में हरिवंश राय बच्चन इसी नाम से मशहूर हुए। 1926 में 19 वर्ष की उम्र में उनका विवाह 'श्यामा बच्चन' से हुआ जो उस समय 14 वर्ष की थी। लेकिन 1936 में श्यामा की टी.बी के कारण मृत्यु हो गई। पाँच साल बाद 1941 में बच्चन ने पंजाब की तेजी सूरी से विवाह किया जो रंगमंच तथा गायन से जुड़ी हुई थीं। इसी समय उन्होंने 'नीड़ का पुनर्निर्माण' जैसे कविताओं की रचना की। तेजी बच्चन से अमिताभ तथा अजिताभ दो पुत्र हुए। अमिताभ बच्चन एक प्रसिद्ध अभिनेता हैं। तेजी बच्चन ने हरिवंश राय बच्चन द्वारा 'शेक्सपीयर' के अनुदित कई नाटकों में अभिनय किया है।
आज हरिवंश राय 'बच्चन' जी की 108वीं जयंती पर हिन्दी ब्लॉग जगत और हमारी ब्लॉग बुलेटिन टीम उन्हें स्मरण करते हुए भावभीनी श्रद्धांजलि अर्पित करते हैं।
२६ नवम्बर, आज काफी ऐतेहासिक दिन है। आइये इतिहास के पन्नों के साथ कुछ अपने यथार्थ को भी टटोलते हैं। वर्ष १९४९ में आज ही के दिन संविधान सभा ने बाबा साहब के द्वारा प्रस्तुत किये गए देश के संविधान को अपनाया था।
ब्रिटेन से आज़ाद होने के बाद संविधान सभा के सदस्य ही प्रथम संसद के सदस्य बने थे। जुलाई, 1945 में द्वितीय विश्वयुद्ध की समाप्ति के बाद ब्रिटेन में एक नयी सरकार का गठन हुआ। इस नयी सरकार ने भारत के संबन्ध में अपनी नई नीति की घोषणा की तथा एक संविधान निर्माण करने वाली समिति बनाने का निर्णय लिया। भारत की आज़ादी के प्रश्न का हल निकालने के लिए ब्रिटिश कैबिनेट के तीन मंत्री तत्कालीन समय में भारत भेजे गए। 'भारतीय इतिहास' में मंत्रियों के इस दल को 'कैबिनेट मिशन' के नाम से जाना जाता है। 15 अगस्त, 1947 को भारत के आज़ाद हो जाने के बाद संविधान सभा पूर्णत: प्रभुतासंपन्न हो गई। इस सभा ने अपना कार्य 9 दिसम्बर, 1947 से आरम्भ कर दिया था। संविधान सभा के सदस्य भारत के राज्यों की सभाओं के निर्वाचित सदस्यों के द्वारा चुने गए थे। जवाहरलाल नेहरू, डॉ. राजेन्द्र प्रसाद, सरदार वल्लभ भाई पटेल, श्यामा प्रसाद मुखर्जी, अबुल कलाम आज़ाद आदि इस सभा के प्रमुख सदस्य थे। अनुसूचित वर्गों से तीस से अधिक सदस्य इस सभा में शामिल थे। सच्चिदानन्द सिन्हा इस सभा के प्रथम सभापति नियुक्त किये गए थे। किन्तु उनकी मृत्यु हो जाने के बाद डॉ. राजेन्द्र प्रसाद को सभापति निर्वाचित किया गया। डॉ. भीमराव अम्बेडकर को संविधान निर्माण करने वाली समिति का अध्यक्ष चुना गया था। संविधान सभा ने 2 वर्ष, 11 माह, 18 दिन में कुल 166 दिन बैठक की।
१९२१: भारत में श्वेत क्रांति के जनक वर्गीस कुरियन साहब का भी जन्म दिवस है।
यह बात अपने आप में बहुत बड़े गर्व की बात है की इसी श्वेत क्रांति ने भारत को अमेरिका के ऊपर ला खड़ा किया और एक दूध अपूर्ण देश से पूरी तरह से आत्मनिर्भर और आयात के स्थान पर निर्यात करने जैसी स्थिति में ला दिया। उन्होंने लगभग ३० ऐसे संस्थाओं कि स्थापना की (AMUL, GCMMF, IRMA, NDDB) जो आज भी किसानों द्वारा प्रबंधित हैं और अपने क्षेत्र के सर्वश्रेष्ठ लोगों द्वारा नियंत्रित है। ऑपरेशन फल्ड या धवल क्रान्ति आज भी विश्व के सबसे विशालतम विकास कार्यक्रम के रुप मे प्रसिद्ध है। सन् १९७० मे राष्ट्रीय डेयरी विकास बोर्ड (एनडीडीबी) द्वारा शुरु की गई योजना ने भारत को विश्व मे दुध का सबसे बड़ा उत्पादक देश बना दिया। इस योजना की सफलता के तहत इसे 'श्वेत क्रन्ति' का पर्यायवाची दिया गया। सन् १९४९ मे डॉ कुरियन ने स्वेछापूर्वक अपनी सरकारी नौकरी को त्याग कर कैरा जिला सहकारी दुग्ध उत्पादक संघ (के डी सी एम पी ऊ एल जो बाद में अमूल के नाम से प्रसिद्ध हुआ), से जुड़ गए। तब ही से डॉ कुरियन ने इस सन्स्थान को देश का सबसे सफल संगठन बनाने मे सर्वश्रेष्ठ योगदान दिया है। अमूल की सफलता को देख कर उस समय के प्रधानमंत्री ने राष्ट्रीय डेयऱी विकास बोर्ड का निर्माण किया और उसके प्रतिरुप को देश भर मे परिपालित किया। डॉ कुरियन ने और भी कई कदम लिये जैसे दुध पाउडर बनाना, कई और प्रकार के डेयरी उत्पादों को निकालना, मवेशी के स्वास्थ्य पर ध्यान केंद्रित करना और टीके इत्यादि। कुरियन साहब पर हम सभी भारत वासियों को गर्व है।
आज २००८ के मुंबई हमले की बरसी भी है, हेमंत करकरे, अशोक कामटे, विजय साळसकर, संदीप उन्नीकृष्णन, तुकाराम ओंबले, प्रकाश मोरे, दुदगुड़े, विजय खांडेकर, जयवंत पाटिल, योगेश पाटिल, अंबादोस पवार, एम.सी. चौधरी के बलिदानों को याद करने का दिन है। वैसे इस तारिख ने मेरी ज़िन्दगी को पूरी तरह से बदल दिया था, मैं कभी फिर से वह नहीं बन पाया जो इस तारिख के पहले था, ज़िन्दगी बदलती गयी, लोग आगे बढ़ते गए, चेहरे आते गए, जाते गए लेकिन जो घाव रह गया वह कभी भरा ही नहीं। सीएसटी स्टेशन पर हमेशा की तरह की भीड़, रात का समय ट्रेन पकड़ने के लिए बैठे कई लोग, नीचे चादर बिछा के लेटे हुए लोग और उस फिर अचानक से आती हुई गोलियां, गिरते पड़ते हुए लोग। एक माँ, जिसके एक बच्चे को गोली मार दी गयी थी और वह खुद भी घायल होकर नीचे गिर पड़ी थी, उसकी दूसरी बच्ची उसे रोते हुए पुकार रही थी और अपने बच्चे को बचाने का उसने प्रयास किया लेकिन आतंकियों ने माँ और बच्चे दोनों को मार दिया। दूसरा दृश्य नरीमन हाउस, जहाँ आतंकियों को उनके पाकिस्तानी आकाओं ने यह समझाया गया की कैसे एक यहूदी को मारना सौ काफिरों को मारने जितना बड़ा पवित्र काम होता है सो घुस जाओ और सबकी जान ले लो, शहीद हुए तो जन्नत मिलेगी। होल्ट्ज़बर्ग और उनकी पांच महीने की गर्भवती पत्नी की जान यूँ ही ले ली गयी।
कितने लोग जानते हैं तुकाराम ओम्ब्ले साहब के बारे में? महाराष्ट्र पुलिस के असिस्टेंट सब इंस्पेक्टर तुकाराम रिटायर्ड सैन्यकर्मी थे, जिन्होंने पुलिस ज्वाइन की थी। जिस समय मुंबई में मौत बरस रही थी, उस समय तुकाराम साहब ने एक को मार गिराया, कसाब के पैर पर गोली मारी और उसे धर दबोचा। कसाब को पकड़ने के तुरंत बाद ओम्बले ने अपनी टीम को सूचना दी। जितनी देर में टीम के अन्य पुलिसकर्मी वहां तक पहुंचे, उतनी देर में कसाब ने तुकाराम के सीने को गोलियों से छलनी कर दिया। साठ घंटे तक चला मुंबई पर यह हमला, लगभग दो सौ लोग मारे गए और लगभग दो करोड़ लोगों की ज़िन्दगी बदल गयी। ज़कीउर्रहमान लकवी, लश्करे तोएबा का प्लान किया हुआ, पाकिस्तानी साज़िश, कोई प्लेन हाई-जैक नहीं हुआ, कोई भी बम प्लांट नहीं किया गया। दस मारो और मरो का प्रोग्राम फीड किये हुए लौंडे पूरी दुनिया को हिला गए। आखिर यह कैसे लोग थे? कैसे इनका ब्रेन वाश किया गया था, आखिर किस प्रकार के तंत्र की पैदाइश थे यह लोग जिनका दिमाग पूरी तरह से साफ़ करके यह सिखाया गया कि मजहब और दीन खतरे में है और जिहाद करके क़ुरबानी देने के साथ जन्नत मिलेगी। जन्नत में खूबसूरत हूरें, दूध और शहद की नदियां होंगी तो फिर उठाओ बन्दूक और मासूमों की जान ले लो। आखिर क्या बिगाड़ा था उन लोगों ने जिनकी जान ले ली गयी थी, आखिर यह किस किस्म का युद्ध था? आतंकी कह रहे थे की यह इस्लाम और इस्लाम को न मानने वालों के बीच का युद्ध है सो मारो और अधिक से अधिक लोगों की जान ले लो।
जब पूरे विश्व ने इस आतंकी कार्यवाही की निंदा की, हमारे देश के नेता इसके उलट अपने वोट बैंक को साधने में लग गए। हमले में शहीद फौजी की अंतिम यात्रा में गिनती के लोग जाते हैं और आतंकी की अंतिम यात्रा में न अगणित लोग पहुँच जाते हैं। आतंकी की फांसी की सजा ख़त्म कराने के लिए सुप्रीम कोर्ट रात में दो बजे खुलवा लिया जाता है, वाकई बड़ा दुःख होता है अपने देश की स्थिति देखकर।
आधुनिक तकनीक ने जहां एक ओर हमारे जीवन को आसान बना दिया है, वहीं दूसरी ओर इसकी वजह से कई तरह की स्वास्थ्य समस्याएं भी पैदा हो रही हैं। रात में आईपैड, लैपटॉप या ई-रीडर पर किताबें पढऩे से नींद की गुणवत्ता कम हो जाती है। इससे सोने के लिए तैयार होने में लगने वाले वक्त और नींद के कुल समय पर नकारात्मक असर पड़ता है। अमेरिका के पेनसिल्वेनिया स्टेट यूनिवर्सिटी के असिस्टेंट प्रोफेसर एना मारिया के मुताबिक इस शोध के लिए 12 लोगों पर दो हफ्ते तक नजऱ रखी गई। इसमें से छह लोगों को रात में सोने से पहले ई-बुक और छह लोगों को सामान्य किताब पढऩे को कहा गया। इसके बाद इन लोगों में नींद वाले हॉर्मोन मेलाटोनिन के स्तर, नींद की गहराई और अगली सुबह उनकी सजगता के स्तर की जांच की गई। शोध में यह पाया गया कि जो लोग रोज़ ई-बुक पढ़ते हैं, वे कई घंटे कम सोते हैं और उनमें रैपिड आई मोमेंट स्लीप का समय भी कम हो जाता है। नींद की इसी अवस्था में यादें संरक्षित होती हैं। इसलिए ज्य़ादा समय तक ई-बुक पढऩे से स्मरण-शक्ति कमज़ोर होती है और डिमेंशिया का भी खतरा बढ़ जाता है। इसलिए अगर आप पढऩे के शौकीन हैं तो ई-बुक के बजाय किताबों के साथ वक्त बिताएं। अगर किसी वजह से ई-बुक पढऩा ज़रूरी हो तो भी सोने से पहले ई-बुक पढऩे से बचें।
आज की बुलेटिन ११५०वें पड़ाव पर आ चुकी
है और इस विशेष अवसर को हमने समर्पित किया है अपने देश के उन जाँबाज़ सैनिकों को जो
हमारी स्वतंत्रता के लिए, हमारी सुरक्षा के लिए सदैव तत्पर रहते हैं; समर्पित किया
है उन बहादुर सैनिकों को जिन्होंने दुश्मनों को नेस्तनाबूत करने में कोई कसर नहीं
रखी; समर्पित किया है उन अमर शहीदों को जिन्होंने अपने जीवन को कुर्बान कर दिया
किन्तु देश की, देशवासियों की स्वतंत्रता, सुरक्षा पर तनिक भी आँच नहीं आने दी. देश
के सभी शहीद सैनिकों को, अपने कर्तव्य में निस्वार्थ भाव से निमग्न रहने वाले
समस्त सैनिकों को नमन.
.
अपने जीवन को कुर्बान कर देने वाले,
पल-प्रति-पल मौत के साये में बैठे रहने वाले, अपने घर-परिवार से दूर नितांत निर्जन
में कर्तव्य निर्वहन करने वाले जाँबाज़ सैनिकों के लिए बस चंद शब्द, चंद वाक्य, चंद
फूल, दो-चार मालाएँ, दो-चार दीप और फिर उनकी शहादत को विस्मृत कर देना, उन सैनिकों
को विस्मृत कर देना. बस! इतना सा ही तो दायित्व निभाते हैं हम. ये अपने आपमें
कितना आश्चर्यजनक है साथ ही विद्रूपता से भरा हुआ कि जिन सैनिकों के चलते हम
स्वतंत्रता का आनंद उठा रहे हैं उन्हीं सैनिकों को हमारा समाज न तो जीते-जी यथोचित
सम्मान देता है और न ही उनकी शहादत के बाद. समूचे परिदृश्य को राजनैतिक चश्मे से देखने
की आदत के चलते, वातावरण में तुष्टिकरण का रंग भरने की कुप्रवृत्ति के चलते, प्रत्येक
कार्य के पीछे स्वार्थ होने की मानसिकता के चलते समाज में सैनिकों के प्रति भी
सम्मान का भाव धीरे-धीरे तिरोहित होता जा रहा है. न केवल सरकारें वरन आम नागरिक भी
सैनिकों को देश पर जान न्यौछावर करने वाले के रूप में नहीं वरन सेना में नौकरी
करने वाले व्यक्ति के रूप में देखने लगे हैं; उनके कार्य को देश-प्रेम से नहीं बल्कि
जीवन-यापन से जोड़ने लगे हैं; उनकी शहादत को शहादत नहीं वरन नौकरी करने का अंजाम
बताने लगे हैं. ऐसा इसलिए सच दिखता है क्योंकि अब सैनिकों के काफिले शहर से ख़ामोशी से गुजर जाते हैं. उनके निकलने पर न कोई
बालक, न कोई युवा, न कोई बुजुर्ग जयहिन्द की मुद्रा में दिखता है, न ही भारत माता
की जय का घोष सुनाई देता है. समाज की ऐसी बेरुखी के चलते ही सरकारें भी सैनिकों के
प्रति अपने कर्तव्य-दायित्व से विमुख होती दिखने लगी हैं. यदि ऐसा न होता तो किसी
शहीद सैनिक के नाम पर कोई नेता अपशब्द बोलने की हिम्मत न करता; किसी सैनिक की
शहादत को तुष्टिकरण से न जोड़ा जाता; किसी सैन्य कार्यवाही को फर्जी न बताया जाता.
.
संभव है कि एक सैनिक के लिए अपनी
जीविका के लिए सेना में जाना मजबूरी रहती हो किन्तु किसी सैनिक की शहादत के बाद भी
उसकी संतानों के द्वारा उस पर गर्व करना, सैनिक बनकर देश की रक्षा करने का संकल्प
लेना, उस अमर शहीद के परिजनों द्वारा तिरंगे पर बलिदान होते रहने की कसम उठाना तो
मजबूरी नहीं हो सकती? बहरहाल, देर तो अभी भी नहीं हुई है. हम सभी को एकसाथ जागना
होगा, निरंतर जागे रहना होगा. न सही प्रतिदिन तो माह में किसी एक दिन समस्त सैनिकों
को पूरे सम्मान के साथ याद तो कर ही सकते हैं. न सही उनके लिए कोई भव्य आयोजन मगर
अपने बच्चों को अपने सैनिकों की वीरता के बारे में तो बता ही सकते हैं. न सही किसी
राजनीति का समर्थन किन्तु सैनिकों के अपमान में बोले जाने वाले वचनों का पुरजोर
विरोध तो कर ही सकते हैं.
.
समाज किसी भी दशा में जाए, राजनीति
अपनी करवट किसी भी तरफ ले, तुष्टिकरण की नीति क्या हो, ये अलग बात है मगर सच ये है
कि ये सैनिक हैं, इसलिए हम हैं; सच ये है कि सैनिकों की ऊँगली ट्रिगर पर होती है,
तभी हम खुली हवा में साँस ले रहे हैं; सच ये है कि वो हजारों फीट ऊपर ठण्ड में
अपनी हड्डियाँ गलाता है, तभी हम बुद्धिजीवी होने का दंभ पाल पाते हैं; सच ये है कि
वो सैनिक अपनी जान को दाँव पर लगाये बैठा होता है, तभी हम पूरी तरह जीवन का आनन्द
उठा पाते हैं; सच ये है कि एक सैनिक अपने परिवार से दूर तन्मयता से अपना कर्तव्य
निभाता है, तभी हम अपने परिवार के साथ खुशियाँ बाँट पाते हैं. देखा जाये तो अंतिम
सच यही है; कठोर सच यही है; आँसू लाने वाला सच यही है; तिरंगे पर मर मिटने वाला सच
यही है; परिवार में एक शहादत के बाद भी उनकी संतानों सैनिक बनाने वाला सच यही है.
कम से कम हम नागरिक तो इस सच को विस्मृत न होने दें; कम से कम हम नागरिक तो
सैनिकों के सम्मान को कम न होने दें; कम से कम हम नागरिक तो उनकी शहादत पर राजनीति
न होने दें; कम से कम हम नागरिक तो उन सैनिकों को गुमनामी में न खोने दें.
.
आइये संकल्पित हों, अपने देश के लिए,
अपने तिरंगे के लिए और उससे भी आगे आकर अपने जाँबाज़ सैनिकों के लिए. जय हिन्द, जय
हिन्द की सेना..!! अंत में पुनः एक नई सुबह की कामना के साथ, वीर सैनिकों को नमन
करते हुए आज की बुलेटिन, ११५०वीं बुलेटिन आपके सामने है.
निर्मला ठाकुर का जन्म 1942 ई. में उत्तरप्रदेश के ज़िला आजमगढ़ में 'महुई' नामक ग्राम में हुआ था। निर्मला जी प्रख्यात आलोचक मलयज की बहन थीं। बचपन से ही मलयज और शमशेरसिंह का इन्हें सान्निध्य प्राप्त हुआ था। इन्होंने 'इलाहाबादविश्वविद्यालय' से हिन्दी में एम. ए. की डिग्री प्राप्त की थी।
निर्मला ठाकुरभारत की प्रसिद्ध कवियित्री थीं। देश के प्रमुख पत्र-पत्रिकाओं में उनकी कविताएँ लगातार प्रकशित हुई थीं। इन्होंने प्रसिद्ध कहानीकार दूधनाथ सिंह से प्रेम विवाह किया था। वर्ष2005 में निर्मला ठाकुर का काव्य संग्रह 'कई रूप-कई रंग' और 2014 में 'हंसती हुई लड़की' 'राधाकृष्ण प्रकाशन' से प्रकाशित हुआ था।
अंतिम दिनों में निर्मला ठाकुर आर्थराइटिस की मरीज हो गई थीं। तमाम इलाज के बाद भी सुधार नहीं हुआ, बल्कि समय के साथ दूसरे अन्य रोगों ने उन्हें दबोच लिया। 20नवम्बर, 2014 को झूँसी ( इलाहाबाद ) स्थित उनके आवास पर निर्मला ठाकुर का निधन हुआ। निर्मला ठाकुर की जिंदादिली, मेहमाननवाजी और सहयोगी रवैये ने उन्हें साहित्य जगत में मशहूर कर दिया था।
आज कवियित्री निर्मला ठाकुर जी की प्रथम पुण्यतिथि पर हिन्दी ब्लॉग जगत और हमारी ब्लॉग बुलेटिन टीम उन्हें स्मरण करते हुए भावभीनी श्रद्धांजलि अर्पित करते हैं।
गुरुवार की बुलेटिन
एक बार फिर आपके सामने है. फिर वही विषय हैं, फिर वही चर्चाएँ हैं, फिर वही विमर्श
हैं, फिर वैसे ही कुतर्क हैं, फिर वैसी ही समस्याएँ हैं. क्या कभी कुछ बदलेगा?
क्या कभी कुछ सुधरेगा? क्या कभी देशवासी किसी संवेदनशील मुद्दे पर एकमत होंगे? क्या
कभी देशहित को राजनीति के चश्मे से देखना बंद किया जायेगा? बहुत-बहुत सवाल हैं जो
लगातार दिमाग में उमड़ते-घुमड़ते रहते हैं. इन सवालों के बीच बजाय सुधार के दूसरे
देशों के, विशेष रूप से पश्चिमी देशों के उदाहरण दिए जाने लगते हैं. पश्चिम के
किसी देश में हुई आतंकी घटना के बाद उस देश के द्वारा की गई जवाबी कार्यवाही की हम
सब प्रशंसा करने लगते हैं. हम सब उस देश की, उस देश के नागरिकों की, उस देश के
राजनीतिज्ञों की तारीफ करने में जुट जाते हैं. क्या कभी हमने आतंकी घटना का शिकार
बने ऐसे किसी देश की वास्तविकता को, वहाँ के नागरिकों की मानसिकता को, उधर की
मीडिया की नजर को जानने-समझने का प्रयास किया है?
.
यदि अभी हाल
ही में फ़्रांस में हुए आतंकी हमले को देखें तो वहाँ हमला होने के बाद नागरिकों ने
तो संयम का परिचय दिया है साथ ही वहाँ के राजनेताओं ने, राजनैतिक दलों ने भी
पर्याप्त सूझबूझ का परिचय दिया. किसी की भी तरफ से न तो विवादस्पद बयान आये और न
ही अपने राष्ट्राध्यक्ष का इस्तीफ़ा माँगा गया. ऐसी घटना के बाद देश में लागू की गई
इमरजेंसी का भी किसी तरह से विरोध नहीं किया गया. इसके साथ-साथ विशेष बात जो सामने
आई वो ये कि वहाँ की मीडिया ने किसी भी तरह से क्षत-विक्षत शवों की प्रदर्शनी सी
नहीं लगाई, किसी भी तरह की अफवाह को फैलने में सहायक नहीं बनी, किसी एक राजनैतिक
दल अथवा राजनेता के विरुद्ध अपना नजरिया नहीं रखा. यदि एक पल को हम अपने सन्दर्भ
में ऐसी घटनाओं का आकलन करें तो राजनैतिक दलों के, राजनेताओं के विवादस्पद बयान
किस तरह सम्पूर्ण माहौल को प्रभावित कर देते, कहने की जरूरत ही नहीं; नागरिक भी
अपने आपको तुरन्त अलग-अलग गुटों में बाँटकर बयानबाज़ी में सहायक सिद्ध होने लगते
हैं; मीडिया घटना की विभीषिका को और बढ़ा-चढ़ा कर आन्तरिक स्थिति को बिगाड़ने में सहायक
बनने लगती है.
.
अभी हाल ही
में मणिशंकर अय्यर द्वारा पाकिस्तान मीडिया में दिए गए बयान के बाद भी देश के
नागरिकों, राजनेताओं, राजनैतिक दलों की ख़ामोशी, विभेद ही ये स्पष्ट करने को
पर्याप्त है कि हम आतंकवाद के मुद्दे पर एकमत क्यों नहीं हो सकते. इसी के साथ ये
भी स्पष्ट है कि जब तक हम नागरिक देशहित के मुद्दे पर, सुरक्षा के मुद्दे पर,
आतंकवाद के मुद्दे पर एकमत नहीं होंगे तब तक जरा-जरा से आतंकी संगठन हमारे देश की
सुरक्षा, शांति में सेंध लगाते रहेंगे, हम नागरिकों को मारते रहेंगे.
.
बहरहाल,
इसका इलाज तो खोजना ही होगा पर कैसे, कब. मन में ऐसी ही उथल-पुथल के बीच आज की
बुलेटिन पर भी दृष्टि डालियेगा. शायद कोई हल समझ आये.
जम्मू-कश्मीर में आतंकियों के साथ एनकाउंटर में शहीद हुए कर्नल संतोष
महाडिक को बुधवार को सेना ने अंतिम विदाई दी। श्रीनगर में सेना के
जवानों, कर्नल संतोष के रेजिमेंट के अफसरों ने उन्हें श्रद्धांजलि दी। बता दें कि
एलओसी क्रॉस कर भारतीय सीमा में दाखिल हुए आतंकियों की तलाश में ऑपरेशन
चलाया जा रहा था, इस दौरान एनकाउंटर में जख्मी हुए कर्नल संतोष की मंगलवार
शाम को मौत हो गई थी।
पूरी ब्लॉग बुलेटिन टीम और हिन्दी ब्लॉग जगत की ओर से हम सब कर्नल संतोष को शत शत नमन करते हैं और अपनी विनम्र श्रद्धांजलि अर्पित करते हैं |
खबरें आपको कैसी पसंद है ... ताज़ा या पुरानी ... जाहिर है ताज़ा ही पसंद करते होंगे ...अगर ऐसा है तो सदस्य बने और ब्लॉग बुलेटिन के छपते ही पायें उसे अपनी मेज पर यानी डैशबोर्ड पर ...