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मंगलवार, 12 जून 2012

यादों की खुरचनें - 3



यादें यानि अतीत .... पर ये यादें हमेशा पीछे से नहीं आतीं , कभी साने हिलते परदे के पीछे होती हैं , कभी रसोई की खुशबू में , कभी बच्चों के खेल में .... मैं नहीं कह पाती कि जो बीत गई , सो बात गई - जाती ही नहीं , पूरी उम्र साथ चलती है . बस दिल को बहलाने के लिए ये कहना सही है !!!

Hathkadh । हथकढ़: धुंध में खोया हुआ ख्वाहिशों का घर - ख्वाहिशों का घर और बेवजह की बातें - कई बार धुंध से निकल ज़िन्दगी का पैगाम दे जाती हैं .

हमेशा नपे तुले शब्द , सलीके के कपड़े , सलीके से बैठने से परे बेवजह की बातों संग बेवजह खिलखिलाना बड़ा रुचिकर लगता है . धुंध में खोया ख्वाहिशों का घर स्पष्ट हो उठता है - क्षणांश
को सब अपने हाथ में लगता है - वरना सन्नाटों का क्या है , वे भी बेवजह यादों से सनाक से गुजर जाती हैं ,

" उन दिनों हरे दरख़्त थे
दोपहर की धूप थी, पेड़ों की गहरी छाँव थी
डूबती शामों के लम्बे साये थे
रास्ते थे, भीड़ थी, दफ्तर भी थे, केफे भी थे.

पलकों की कोर से इक रास्ता
जाता था ख्वाहिशों के घर
आँखों में रखे हुए तारे रात के, होठों पे लाली सुबह की.

मगर एक दिन अचानक
कुछ बुझी हुई हसरतों की आह से, कुछ नाकाम उम्मीदों के बोझ से
उसने हेंडिल ब्रेक लगाया, विंडो के शीशे को नीचे किया,
एक गहरी साँस ली, मगर जाने क्यों... वह उतर ना सकी कार से.

हालाँकि इसी रास्ते पर
उन दिनों भी सूनी बैंचें थी, पीले पत्तों का बिछावन था
और टूटे हुए कुछ पंख थे.

बातें बेवजह हैं और बहुत सी हैं..."

प्रेम अकेला कर देता है: कितनी भाषाओँ से कितनी बार - सबकी अपनी माँ जैसी एक भाषा होती है , उसका सम्मान माँ का सम्मान है ... क्यूँ माँ को रोकना .

यदि माँ डगमगाए तो हर बच्चे को हाथ बढ़ाना चाहिए , यही संस्कार उसे उन्नत बनाता है -

" कितनी भाषाओँ से कितनी बार
गुजरते हुए मैंने जाना है की
हर भाषा संजोये होती है
एक अलग इतिहास, संस्कृति और सभ्यता
की हर भाषा में उसके बोलने वालों की हर
ख़ुशी और गम का सारा हिसाब-किताब मौजूद होता है.

हर वो भाषा जो और भाषाओँ को मानती है बहन
और नही रखती उनकी प्रगति से कोई डाह-द्वेष
उनको आकर छलती है कोई साम्राज्यवादी भाषा
कहती है की अब इस भाषा में नए समय को
व्यक्त नही कर सकते, पर चिंता क्यूँ है, मैं हूँ ना!

और धीरे-धीरे इक भाषा दूसरी भाषा को
अपनी गुलामी करने को मजबूर करती है
उनको छोड़ देती है उन लोगों के लिए
जिनके मुख से अपना बोला जाना उसे नागवार है
आखिर मजदूरों, भिखारियों, आदिवासियों,
बेघरों, वेश्याओं, यतीमों, अनपढों या एक शब्द में कहे
तो हाशिये पर जीने वालों के लिए भी तो कोई
भाषा होनी चाहिए ना?

कितनी भाषाओँ से कितनी बार गुजरते हुए महसूसा है मैंने
कितनी ममता होती है हर एक भाषा में
कितनी आतुर स्नेहकुलता से अपनाती है
वो हर उस बच्चे को जो उसकी गोदी में
आ पहुंचा है बाहें पसारे, बच्चा-
जिसे अभी तक तुतलाना तक नही आता नयी भाषा में.

कितनी भाषाओँ से कितनी बार गुजरते हुए
मैंने महसूसा है की भाषा कभी भी
थोपकर नही सिखाई जा सकती,
जबतक अन्दर से प्रेम नही जागा हो,
भाषा जुबान पर भले चढ़े, दिल पर नही चढेगी.

कितनी भाषाओँ से कितनी बार गुजरते हुए
देखा है मैंने की सत्ता और बाजार ने
हर बार कोशिश की है, और अब भी कर रहे हैं
भाषा को अपना मोहरा बनाने की
पर भाषा है की हर बार आम आदमी के पक्ष में
खड़ी हो गयी इस बात की परवाह किये बिना
की कौन खडा है सामने.

कितनी भाषाओँ से कितनी बार गुजरते हुए
जाना है की संवाद चाहती है भाषाएँ
भाषाओँ को बोलनेवाले लोग
भाषाओँ में लिखने वाले साहित्यकार
एक-दुसरे से
पर भाषा की राजनीति करने वाले
नही चाहते ऐसा और खडा कर देते है
सगी बहन जैसी भाषाओँ को एक-दुसरे के विरूद्व
उनकी मर्जी के खिलाफ.

भाषाओँ के साथ दिक्कत यही है
की हर भाषा में चीखता हुआ इन्सान
सबसे दूर तक सुना जाता है
और अच्छे इंसानों की खामोशी बस उन्ही तक
सिमट कर रह जाती है.
भाषा को बचाए रखने के लिए
भाषा में अच्छे इंसानों की चीख अब बहुत जरुरी है."

दूसरी भाषा की रचनाओं के अनुवाद हैं ... इस ब्लॉग ने सही कहा है कि कविता पढ़ना नदी को पुल से पार करना है. अनुवाद करना कवि के साथ उस नदी में डूब जाना है… यदि हम डूबने से किनारा कर लें तो -- रायनर मरीया रिल्के की रचना को कैसे पढ़ पाते !

समुद्र पार के पाखी: प्रवेश रीनू तलवाड़ के इस अनुवादि प्रक्रिया के हम कायल हुए -


" जो कोई भी हो तुम,
इस शाम में बाहर निकल के देखो.
जहाँ सब जाना-पहचाना है
बाहर निकल के देखो उस कमरे से.
जो कोई भी हो तुम
तुम्हारा घर आखिरी घर है
उस दूरस्थ से पहले.
जो जाने-पहचाने से
खुद को छुड़ाते-छुड़ाते कुछ अधिक ही
थक गयी हैं, अपनी उन आँखों से,
हौले-से उठाते हो तुम एक काला पेड़
और रख देते हो उसे आकाश के सामने: छरहरा, अकेला.
और ऐसे ही तुमने बना ली है एक दुनिया.
वह बड़ी है
और एक शब्द की तरह, पक रही है अभी भी मौन में.
और भले ही तुम्हारा दिमाग गढ़ लेगा उसके मायने,
तुम्हारी आँखें जो भी देखती हैं
उसे कोमलता से
छोड़ देती हैं, जाने देती हैं." .......................

डूबकर ही पता चलता है रास्ते और भी हैं पाने के ...

8 टिप्पणियाँ:

shikha varshney ने कहा…

आज तो इस बुलेटिन ने मन बाग बाग कर दिया.

परमजीत सिहँ बाली ने कहा…

बहुत बेहतरीन प्रस्तुति। भीतर तक उतर गई...आभार।

प्रवीण पाण्डेय ने कहा…

आनन्ददायक, भाषा की कथा..

अनामिका की सदायें ...... ने कहा…

kisi ki kavita ko padhna nadi ko pul se paar karna nahi balki usme doob kar, bheeg kar fir paar karna hi kavita ko padhna hai anytha n padhna hi behtar hai.

ANULATA RAJ NAIR ने कहा…

बहुत सुन्दर .....
हथकढ का नशा तो सर चढ कर बोलता है....

सादर

Saras ने कहा…

रश्मिजी आपका हर बुलेटिन पहले पर भारी होता है ...यह तै करना मुश्किल हो जाता है ....की किसे बेहतर कहें ....बस मन तृप्त हो जाता है रचनायें पढ़कर ...बहुत उम्दा...बहुत खूब !

शिवम् मिश्रा ने कहा…

वाह दीदी वाह ... आपका अनूठा अंदाज़ और यह प्यारी प्यारी पोस्टें गज़ब का माहौल बन देती है बुलेटिन पर ... जय हो !

सदा ने कहा…

वाह ... बहुत ही बढिया।

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