मैं एक नाविक , मेरा मन नाव , भावनाएं लहरें ..... और इस किनारे से उस किनारे तक यादें
Meri Katputliyaan: मैं और मन चाहना और मन की गति और समय ... कोई सामंजस्य नहीं -
" मेरे और मन के ख्याल मिलते नहीं
उलझते हैं अक्सर कौन है सही
मुझे तैरने का डर
इसे डूबने की आदत...
मुझे ठहरना पसन्द
उड़ना इसकी ताकत ...
मैं अहम को पहनाऊँ पोशाक
इसके नग्न जज़्बात...
मैं स्थिर समर्थ अस्तित्व
इसके क्षणभिंगुर हालात...
मैं समय के अनुसार
इसकी अलग बिसात...
इसके सब रास्ते नये
मैं नक्शे के साथ...
मुझे भूत से प्यार
यह भविष्य पर लगाये घात...
मुझे नींद से आराम
इसका सपनों से साथ...
माँ से शिकायत की थी
यह कैसी आफत
माँ कहती ....तेरा मन चंचल
सँभल जायेगा समय के साथ
...पर.....
मेरे और मन के ख्याल मिलते नहीं
उलझते हैं अक्सर कौन है सही!!
हर दिन हर पल...
बेचैन हलचल...
कभी यहाँ कभी वहाँ ठहल...
कभी पानी से कभी रेत से महल...
थकी मैं संभल संभल...
...................
हाँ तुम्हे भाया था यह मन!
इसका रंगबिरंगा दामन!
क्यूँ छोड़ा फिर मेरे आँगन?
लाया घर में सारा सावन...
बिखेरा हर कोने में जीवन...
तुमको भाता है ले जाओ...
भेदो, बाँधो या बँध जाओ ...
इसके संग जग जग के हारी...
मुझको थोड़ा सोने भी दो...
अध्ययन का समय व्यर्थ हुआ...
थोड़ा अब पढ़ लेने दो...
बहीखाता कबसे अधूरा....
आज हिसाब लिख लेने दो..."
सपने यादों की पांडुलिपियों को खोलते हैं , कभी घाटी में , कभी रुई से उड़ते बर्फ के फाहों में कभी .............. बन्द पलकों के बीच सोने नहीं देते !
" एक लंबा सफर,
इक छोटा सा सपना...
जादुई संकेतों की
अस्पष्ट अजनबी भाषा के नए शब्द गढ़ने के लिए
उसे कुशल कारीगर बनना है.
सोचूंगी यही..
अच्छा होता अगर वो चला आता.
रोकूंगी नहीं पर..
प्रेम नहीं रोकता,
सपने तलाशने से.
वो,
मुझसे और उन लोगों से...
बेहतर है,
जो जानते ही नहीं उन्हें तलाश किसकी है.
हम सब फैंकते रहते हैं पासे भविष्य जानने के लिए
और दे देते हैं अपने आज का आधा हिस्सा इसी में.
निराश नहीं होना उसे
वह जानता है ..
रात का सबसे अँधेरा पहर भोर से ठीक पहले आता है
उसे बस पांव के निशान छोड़ते जाना है.
हवाओं को सब मालूम होता है.
वह जब चूमेंगी उसके चेहरे को वो जान लेगा
.....मैं अभी जिंदा हूँ...
और उसका इंतज़ार कर रही हूँ.
दोष नहीं दूँगी..
उसके चले जाने पे.
वो मुझे तब भी प्यार करेगा और मैं उसे.
जबकि दुनिया का इतिहास बनाने में
उसकी भूमिका पहले से तय है .
मैं सपने देखना फिर भी नहीं छोड़ती. "
सुनहरी धूप - मेरी अभिव्यक्ति.......... बनावट का मुखौटा उतार के चलो थोड़े सहज हो जाएँ ...
" चलो अपने चेहरे से चेहरा हटा लें,
बाहर भी भीतर की दुनिया सजा लें।
सपनों की थोड़ी बातें करें, आज,
झूठ से, सच से दूरी बना लें।
कोई गीत लिखें या कविता कहें,
शब्दों को, भावों को गले लगा लें।
फूलों को छुएं, बच्चों से खेलें,
आँगन को फिर से अपना बना लें।
गुड्डू को, राजू को फिर से पुकारें,
रूठी हुई रानू को फिर से मना लें.
भैया से कह दें के बाबा बुलाते हैं,
फिर परदे में छुपकर उनको डरा दें,
गर्मी की दोपहर में चुपके से भागें,
गुल्लक के पैसों से पतंगें उड़ा लें.
कालेज में अब भी है, तिवारी जी की कैंटीन,
चलो शानू-मानू को समोसे दिला दें.
निन्नी को, निशु को, राशि को- आशी को,
पढ़ते ही रहने की अब न सज़ा दें।
सप्ताह भर की लेकर छुट्टी ऑफिस से,
घर में रहें और घर का मज़ा लें.
माना के आज अपने साथ नहीं माँ,
तो बच्चों को उनकी कहानी सुना दें.
समय जो बीता तो लौटता नहीं कभी,
इसके हर पल में ज़िन्दगी बिता दे. "
यादों को आज बना लें , बीते लम्हों को साथी बना लें - यकीनन सब खुश हो जायेंगे ...
8 टिप्पणियाँ:
बहुत उम्दा!
शेअर करने के लिए आभार!
सुंदर प्रस्तुति,,,,,आभार
thanx..:)
बहुत ही अच्छी प्रस्तुति ।
Thanks :-)
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सूचनार्थ
सैलानी की कलम से
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♥ पेसल वार्ता - सहरा को समंदर कहना ♥
♥रथयात्रा की शुभकामनाएं♥
ब्लॉ.ललित शर्मा
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सारे एक से बढ़ कर एक!!
यह यादों के झरोखे कभी बंद न हो ... बस यही दुआ है !
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