युग समाप्त होते हैं , पत्ते शाखों से गिरते हैं , नई कोपलें नए जीवन का प्रतीक होती हैं , जर्जर शरीर , युवा विचार ...... परिवर्तन के कण -कण में यादों की
एक लुप्त सरस्वती होती है बहती हुई .... प्रत्यक्ष अप्रत्यक्ष के मध्य बहुत कुछ होता है , जो अलग अलग समयों में अपनी छवि बनाता है ---
॥ भारत-भारती वैभवं ॥: आदर्श गुरु की सीख से जो त्याग के अर्थ ले , दूसरे के मार्ग को अकंटित बनाने के लिए खुद को शत्रु सा बना ले -
असली कुम्हार वही होता है . वह ईर्ष्या को भी गढ़ देता है ...
" आचार्य प्लुष ने शास्त्री की परीक्षा के पश्चात अपने दो मेधावी शिष्यों से उनके जीवनादर्शों के विषय में पूछा.
एक ने कहा — "गुरु ही हमें स्थूल से सूक्ष्म की ओर ले जाता है, मोक्ष का मार्ग दिखाता है और ईश्वर का दर्शन करवाता है, अतः गुरु की महत्ता सर्वमान्य है. मेरे आदर्श आप हैं."
दूसरे ने अपनी वाणी में पहली बार उच्छृंखलता लाते हुए कहा — "समयानुकूल उचितानुचित कार्य करने की निर्णायक बुद्धि आपने ही हमें प्रदान की है गुरुदेव. इसलिये आप में भी छिद्रान्वेषण करना मेरा प्रथम कर्तव्य है. मैं अपना आदर्श स्वयं को मानता हूँ."
गुरुदेव इस गर्वोक्ति को सुन कुपित हुए. उन्होंने दूसरे शिष्य को यह कहते हुए गुरुकुल से निकाल दिया — "जो गुरुओं में दोष ढूँढता है वह जीवन के किसी क्षेत्र में उन्नति नहीं कर सकता."
जाते हुए शिष्यों का उसके प्रिय मित्रों तक ने अपमान किया.
पाँच वर्ष बीत गये. हर वर्ष की भाँति इस वर्ष भी गुरुदेव अपने शिष्य कुञ्जदेव के साथ समस्त गुरुकुलों द्वारा आयोजित 'संस्कृत साहित्य सम्मेलन' में पधारे. कुञ्जदेव के पांडित्य ने सभी विद्वान् जनों का मन मोह लिया किन्तु महादेव के पांडित्य को देखकर गुरुदेव के हर्षातिरेक से आँसू बह निकले. उन्हें कुछ आत्मग्लानि हुई. महादेव ने आकर जब गुरुदेव के चरण-स्पर्श किये तो वे गदगद कंठ से पूछ बैठे — "तुम्हारी उस कथनी और इस कथनी में अंतर पा रहा हूँ."
महादेव ने संतुष्टि के भाव से कहा — "गुरुदेव! आप द्वारा दी गयी शिक्षा से ही 'शत्रुता लेकर भी परहित साधने का भाव' मेरा स्वभाव बन गया है. शास्त्री से पूर्व ही कुञ्जदेव के मन में मेरे प्रति ईर्ष्या थी, जो एक प्रतिभावान छात्र की उन्नति में अवरोध बँटी. इसलिये मैंने गुरु के ह्रदय और गुरुकुल दोनों से निकल जाना ही उचित समझा."
गुरुदेव की आँखें मुस्कुराहट के साथ चमक उठीं. मानो उनकी खोजी दृष्टि ने कुछ अनमोल वस्तु ढूँढ निकाली हो.
आचार्य प्लुष ने गुरुकुल में आकर अपने समस्त शिष्यों के समक्ष पुनः आदर्श को परिभाषित किया — "जीवन के वे मूल्य या सिद्धांत जो हमें हमेशा ऊर्ध्वगामी दिशा दें, पतन अर्थात नीचे गिरने से बचावें या कभी-कभी विषम परिस्थितियों में भी जिन्हें पकड़कर हम अघ के महागर्त में गिरने से बच जाया करते हैं, आदर्श कहते हैं."
किसी व्यक्ति को इस कसौटी पर रखकर ही अपना आदर्श बनाना चाहिए. समय के साथ आदर्श भी यदि विचलित होवें तो उन्हें भी बदल देना श्रेयस्कर है. "
अनुभूति रस !: संकल्प का विकल्प ...?? बाह्य हो या आंतरिक - यदि हम सही मायनों में परिवर्तन चाहते हैं तो संकल्प के कई विकल्प सहायक होते हैं !
शब्द दुहराना और उस संकल्प को आत्मशक्ति का स्पर्श देना - दोनों में फर्क होता है !
" कहा तो यही जाता है कि इंसान अगर संकल्प साध ले तो कुछ भी कर सकता है। पर दिक्कत यह है कि संकल्प साधना इतना आसान नहीं होता। खासकर जब मामला सिगरेट जैसी किसी लत को छोड़ने का हो।
हमारे एक दोस्त सिगरेट छोड़ने के मामले में खुद को काफी अनुभवी मानते है, क्योंकि वे सिगरेट पीना कई बार छोड़ देने का अनुभव प्राप्त कर चुके है। आपको अपने आस पास ऐसे अनुभवी लोग काफी तादाद में मिल जाएंगे। पर ऐसे लोग काफी कम मिलेंगे जिन्होंने सिगरेट पीने की आदत सचमुच में हमेशा के लिए छोड़ दी। हालाँकि आज ही पेपर में पढ़ा की ओबामा ने सिगरेट पीना छोड़ दिया है , और उनके कुछ सलाहकार भी इस राह पर है। ओबामा ने एक साल पहले सिगरेट छोड़ने का संकल्प लिया था, और अब वे कामयाब है। खैर जो संकल्प नहीं साध पाते अब उनके लिए भी एक अच्छी खबर है कि वे टीका लगवाएं और साल भर के लिए नशे से मुक्त हो जाएं।
लेकिन इस टीके को क्या माना जाए? विज्ञान की उपलब्धि या संकल्प का विकल्प? यह ठीक है कि इससे हम कैंसर के खिलाफ जंग में एक बड़ी जीत हासिल कर सकते हैं। इसकी खबरों में आंकड़े भी दिए गए हैं कि हर साल कितने लाख लोग कैंसर की वजह से जान से हाथ धो बैठते हैं। इस लिहाज से यह मानवता की एक बड़ी कामयाबी भी है, जो दरअसल करोड़ों लोगों की निजी नाकामी को ढंकने का काम भी करेगी।वैसे यह मामला सिर्फ सिगरेट या तंबाकू की लत का नहीं है। ओवरवेट हो गए लोगों का संकल्प भी जब चुक जाता है तो वे ऐसी दवाएं तलाशते दिखाई देते हैं जो बिना कसरत और खान पान की आदतें बदले हीं उन्हें हल्का बना दें। हो सकता है कि कल को ऐसी दवा बन भी जाए।
ऐसा हुआ तो विज्ञान एक बार फिर जीत जाएगा, पर संकल्प एक बार फिर हार जाएगा।
वैसे अभी हम यह नहीं जानते कि संकल्प के इस तरह बार बार हार जाने का नतीजा आखिर में बुरा ही होगा या उसमें भी अच्छाई के कुछ रास्ते निकलेंगे।"
कितना मुश्किल है...............केवल राम - चलते हम वसुधैव कुटुम्बकम की बात तो करते हैं , पर हित सिर्फ अपना चाहते हैं . औरों की भलाई को सोचने में
हमारी सोच संकुचित हो जाती है . यदि इसमें हो विस्तार तो हो जाते हर सपना साकार -
" खुशी अपने लिए सोचते हैं सब
करते हैं कोशिश
दुसरे की भावनाओं को
ठेस लगाकर , खुद खुश होने की
पर....
किसी की भावनाओं को समझकर
खुद खुश होना ,कितना मुश्किल है
राह चलते , दिख जाते हैं, कई दृश्य ह्रदय विदारक
हर दृश्य पर सोच कर , कुछ करने की तमन्ना
और उस निस्वार्थ तमन्ना को
सोचकर ....
मूर्त रूप देना , कितना मुश्किल है
मुझे समझ ले अपना कोई
ह्रदय में बसाकर दे प्यार और सत्कार
किसी को अपना बनाने की सब सोचते हैं
पर .....
सहज भाव से किसी का हो जाना , कितना मुश्किल है
दुखी दुसरे को देखकर
उसके आंसू पोंछना , आसान है
लेकिन....
किसी के दुःख पर खुद रोना , कितना मुश्किल है ."
कुछ देर ठहर कर किसी की यादों में खुद को भी देख लो , तो सब अपना लगता है ---- है न
8 टिप्पणियाँ:
यह श्रंखला प्रभावित कर रही है..स्तरीय संकलन..
अभुत अच्छी और क्रांतिकारी लगी आदर्श की परिभाषा।
हिज्जे गलत हो गये, अभुत को बहुत पढा जाय्
सुन्दर अभिव्यक्ति...
सुन्दर श्रृंखला ...
वाह उत्कृष्ट सुंदर श्रृंखला ...दी..
यादों की खुरचनें, एक सुंदर श्रृंखला,
बहुत खूब रश्मि दी ... आपको 'खामोश खामोशी और हम' के सफल विमोचन पर हार्दिक बधाइयाँ और शुभकामनायें !
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