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रविवार, 28 मई 2017

मेरी रूहानी यात्रा में सुशील कुमार जोशी




नदी किनारे कांटे में मछली फंस ही जाये, ज़रूरी नहीं  .. फिर भी जीवन यापन के लिए मछुआरा अपने कार्य से मुँह नहीं मोड़ता 
वह नियम से नदी के किनारे जाता है, 
मछली फंसेगी, इस उम्मीद में काँटा डालता है 
उसकी यही हार नहीं मानने की प्रक्रिया 
उसे एक दिन सफलता देती है  ... 

........ 
ठीक इस मछुआरे की तरह भावनाओं का यात्री अपनी कलम से लिखता जाता है समाज, देश, जीवन, दर्द  ... दूसरे के लिखे को उतनी ही तन्मयता से पढता भी है, अपने विचारों से उसे अवगत भी कराता है, बिना किसी उम्मीद के ! वह शुक्रगुजार है हर हाल में , ऐसी विशेषता के साथ हैं सुशील कुमार जोशी, जिनका ब्लॉग है 

उलूक टाइम्स



दो सप्ताह से व्यस्त 
नजर आ रहे थे 
प्रोफेसर साहब 
मूल्याँकन केन्द्र पर 
बहुत दूर से आया हूँ 
सबको बता रहे थे 
कर्मचारी उनके बहुत ही 
कायल होते जा रहे थे 
कापियों के बंडल के बंडल 
मिनटों में निपटा रहे थे 
जाने के दिन जब 
अपना पारिश्रमिक बिल 
बनाने जा ही रहे थे 
पचास हजार की 
जाँच चुके हैं अब तक 
सोच सोच कर खुश 
हुऎ जा रहे थे 
पर कुछ कुछ परेशान 
सा भी नजर आ रहे थे 
पूछने पर बता रहे थे 
कि देख ही नहीं पा रहे थे 
एक देखने वाले चश्में की 
जरूरत है बता रहे थे 
मूल्याँकन केन्द्र के प्रभारी 
अपना सिर खुजला रहे थे 
प्रोफेसर साहब को अपनी राय 
फालतू में दिये जा रहे थे 
अपना चश्मा वो गेस्ट हाउस 
जाकर क्यों नहीं ले आ रहे थे 
भोली सी सूरत बना के 
प्रोफेसर साहब बता रहे थे 
अपना चश्मा वो तो पहले ही
अपने घर पर ही भूल कर 
यहाँ पर आ रहे थे 
मूल्याँकन केन्द्र प्रभारी 
अपने चपरासी से 
एक गिलास पानी ले आ 
कह कर रोने जैसा मुँह 
पता नहीं क्यों बना रहे थे !


वैसे कुत्ते 
के पास 
मूँछ है 
पर 
ध्यान में 
ज्यादा रहती 
उसकी 
टेढ़ी पूँछ है 

उसको 
टेढ़ा रखना 
अगर 
उसको 
भाता है 
हर कोई 
क्यों उसको 
फिर 
सीधा करना 
चाहता है 

उसकी 
पूँछ तक 
रहे बात 
तब भी 
समझ 
में आती है 
पर 
जब कभी 
किसी को 
अपने सामने 
वाले की 
कोई बात 
पागल 
बनाती है 
ना जाने 
तुरंत उसे 
कुत्ते की 
टेढ़ी पूँछ ही 
क्यों याद 
आ जाती है 

हर किसी 
की 
कम से कम 
एक पूँछ 
तो होती है 

किसी की 
जागी होती है 
किसी की 
सोई होती है 

पीछे होती है 
इसलिये 
खुद को दिख 
नहीं पाती है 
पर फितरत 
देखिये जनाब 
सामने वाले 
की पूँछ पर 
तुरंत नजर 
चली जाती है 

अपनी पूँछ 
उस समय 
आदमी भूल 
जाता है 
अगले की 
पूँछ पर 
कुछ भी 
कहने से बाज 
लेकिन नहीं 
आता है 

अच्छा किया 
हमने अपनी 
श्रीमती की 
सलाह पर 
तुरंत 
कार्यवाही 
कर डाली 

अपनी पूँछ 
कटवा कर 
बैंक लाकर 
में रख डाली 

अब कटी 
पूँछ पर कोई 
कुछ नहीं 
कह पाता है 

पूँछ हम 
हिला लेते हैं 
किसी के 
सामने 
जरूरत 
पड़ने पर 
कभी तो 
किसी को 
नजर भी 
नहीं आता है 

इसलिये 
अगले की 
पूँछ पर 
अगर कोई 
कुछ कहना 
चाहता है 
तो पहले 
अपनी पूँछ 
क्यों नहीं 
कटवाता है ।

3 टिप्पणियाँ:

सुशील कुमार जोशी ने कहा…

अरे वाह आदरणीय रश्मि जी आपको कैसे पता चल गया कि आजकल हमारे विश्वविध्यालय में मूल्याँकन चल रहा है। उसी व्यस्तता के कारण आजकल समय नहीं मिल पा रहा है ब्लागों की अद्भुत दिनियाँ में विचरण करने का। 'उलूक' की बकवास चलती रहेगी। समय मिलेगा फिर उसकी रेल दोड़ेगी। समाज के समानान्तर अपना आईना खुद हाथ में लेकर मौसम का हाल सुनाया जायेगा। अभी नहीं तो फिर कभी समय उस लिखे में से थोड़ा कुछ तो समझा ही ले जायेगा। दिल से आभार है आपके दिये इस सम्मान के लिये। कटोरा छलकता हुआ हाथ में आ जाये तो समझ में नहीं आता है कैसे खाया जाये :) पुन: आभार।

चला बिहारी ब्लॉगर बनने ने कहा…

जोशी सर का अनवरत लेखन एक ऐसा भगीरथ प्रयास रहा है जिससे समसामयिक विषयों पर नवीन विचारों की सुरसरि प्रवाहित होती रही है! मेरे सामने इनके अतिरिक्त कोई अन्य नहीं दिखाई देता जो अपनी समस्त व्यस्तताओं के बाद भी इतना लगातार लिख पाता हो!
सर, आप हम सब के लिए प्रेरणा स्रोत हैं! परमात्मा आपकी कलम का तेज बनाए रखे!!

कविता रावत ने कहा…


यात्रा के पड़ाव में जोशी जी की रचना पढ़वाने हेतु धन्यवाद!

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