हिन्दी फ़िल्मों का
एक दौर वो भी रहा जब हीरो का मतलब हैण्डसम होना या स्मार्ट लगना ही हुआ करता था.
देव साहब का मूँछें न रखना ( ‘हम दोनों’ के अपवाद के अलावा) या दिलीप कुमार का
फ़िल्म “मेरी सूरत तेरी आँखें” में एक बदसूरत आदमी का रोल करने से मना कर देना इसी
का सबूत था. अपनी ख़ूबसूरत छवि के प्रति ये कलाकार इतने सचेत रहते थे कि सुचित्रा
सेन ने फ़िल्में छोड़ने के बाद बाहर निकलना छोड़ दिया और यहाँ तक कहा जाता रहा कि वो
बाहर निकलतीं भी तो बुर्क़ा पहनकर निकलती थी. देव साहब ने मरने के बाद अपनी
अंत्येष्टि विदेश में करने को कहा ताकि उनके देश के लोग उनकी बीमार/ मृत छवि न देख
सकें.
पर्दे पर और उसके
बाहर की चमक “सितारों” की आँखों को चकाचौंध कर देती है, जबकि ओम पुरी, नसीर, नवाज़
और इरफ़ान जैसे कलाकारों को न तो अपने रंग की फ़िक्र होती है, न चेहरे के बनावट की
और न चेहरे के दाग़ों की और न इस बात से कोई अंतर पड़ता है कि वो कौन सा किरदार निभा
रहे हैं.
ऐसे ही एक कलाकार ने
हिन्दी फ़िल्म जगत में अपनी एक जगह बनाई, उसे ख़ाली किया, दुबारा वो जगह हासिल की और
अब एक स्थायी ख़ालीपन छोड़कर चला गया. वो शख्स इतना हैण्डसम था कि उसे ग्रीक गॉड
वाला व्यक्तित्व कह सकते हैं. उसका काम फिल्मों में नायक, खलनायक या प्रतिनायक या
सहायक कलाकार किसी भी रोल में हमेशा याद किया जाता रहेगा. हिन्दी फ़िल्मों का वो
सितारा जो 27 अप्रैल 2017 को अस्त हो गया उसका नाम था विनोद खन्ना.
अभी कुछ दिन पहले जब
वो बीमार होकर हस्पताल में भर्ती हुये थे तो मेरे छोटे भाई ने मेरी अम्मा से पूछा –
मम्मी! आप पहचानती हैं विनोद खन्ना को?
मम्मी ने कहा – हाँ!
भाई ने दुबारा पूछ लिया – इनकी कोई फ़िल्म याद है? और मम्मी के जवाब ने सबको अवाक्
कर दिया... उनका जवाब था “अचानक"!
लगभग १४५ फिल्मों
में काम करने के बाद मेरी माता जी के द्वारा उनकी इस एक फ़िल्म का याद रखा जाना,
वास्तव में उस कलाकार की गंभीर अभिनय प्रतिभा का परिचय था.
विनोद खन्ना जी के
बारे में बचपन की जो बातें याद आती हैं उनमें बहुत सी फ़िल्में ऐसी हैं जिनमें उन्होंने
अमित जी के साथ काम किया. मैं फिल्मों के नाम नहीं ले रहा, उन फिल्मों में दोनों
के अभिनय की तुलना की जाती रही और लगभग बराबर-बराबर लोग यह मानने वाले थे कि एक ने
दूसरे को पछाड़ दिया है. विनोद खन्ना की एंग्री यंगमैन वाली छवि कहीं से भी कम न
थी. और उसी समय कई फ़िल्मी पत्रिकाओं में यह भी छापा जाता रहा कि विनोद जी ने यह
कहा कि अमित जी ने फिल्मों में उनके रोल कटवा दिए, उनके रोल बदल दिए या उनका
चरित्र थोड़ा हल्का करवा दिया.
यह वो दौर था जब
विनोद खन्ना एक अजीब से गुस्से की गिरफ्त में आ गए. उन्होंने अपने एक टीवी
इंटरव्यू में यह कहा कि उन्हें लगता था कि वो कुछ कर बैठेंगे. ऐसे में उन्होंने
अपना शिखर तक का सफर छोडकर ओशो की शरण में जाने का फैसला किया. लोग यह भी कहते रहे
कि वहाँ उन्होंने माली का काम किया, जबकि ओशो के आश्रम में उन्हें फूलों की सेवा
कहा जाता है और कोई भी काम छोटा बड़ा नहीं.
पाँच साल बाद जब उनका
दुबारा प्रवेश हुआ तो उन्होंने धीर गंभीर व्यक्तित्व के साथ कुछ बेहतरीन फ़िल्में
कीं. साथ ही एक सफल राजनैतिक दायित्व भी निभाया. अंतिम समय तक वे सांसद रहे.
एक ओर जहाँ उन्हें
हेरा फेरी, खून पसीना, मुक़द्दर का सिकन्दर, अमर अकबर एंथनी के लिये याद किया
जाएगा वहीं कुरबानी, दयावान और चाँदनी के लिये भी. उन फिल्मों को कोई नहीं भूल
नहीं सकता जिन्हें हम कला फिल्मों की श्रेणी में रख सकते हैं जैसे अचानक, मेरे
अपने, लेकिन...!
पिछले दिनों जब
उन्हें बीमार हालत में दिखाया गया तो बहुत अंदर तक कचोट गया वो मंज़र दिल को. फिर
उनकी मौत की अफवाह उड़ी. कहते हैं कि मरने की अफवाह उड़े तो उम्र बढ़ जाती है. लेकिन
झूठी है यह कहावत – पहले मेहदी हसन साहब, फिर जगजीत सिंह साहब और अब विनोद खन्ना
इन अफवाहों के बावजूद हमें छोड़ गए.
आपकी फिल्मों से बचपन
जुड़ा है हमारा. तुमको न भूल पाएंगे... अभिनेता विनोद खन्ना! स्वामी विनोद भारती!!! सांसद विनोद खन्ना!!
- सलिल वर्मा
आज की मेरी इस बुलेटिन में कोई लिंक नहीं प्रस्तुत कर रहा हूँ. केवल श्रद्धांजलि!