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गुरुवार, 17 नवंबर 2016

2016 अवलोकन माह नए वर्ष के स्वागत में - 3




दिवाली में कुछ दीये होते हैं पूजा पर 
कुछ दहलीज़ पर 
कुछ खिड़कियों पर 
कुछ पानी में तेरा दिए जाते हैं 
रौशनी जो छनती है 
सबका रूप अलग होता है  ... 
होली में हर रंगों का सौन्दर्य भी अलग अलग  .... ! कुछ ऐसे ही होते हैं ब्लॉग्स, भिन्न कलम, भिन्न परिवेश, पर सबके अपने ख़ास अंदाज, ख़ास भाव 

कुछ ऐसा ही आज के अवलोकन में - 2016 ने सांकल खोला है 

ज़ीरो कट्टस का 

जब दिल ना लगे, तो कुछ देर यहाँ रूक सकते हैं, मन की गुफ्तगू पढ़ सकते हैं।  जिस खिड़की को खोलें, शीतल हवा छू जाएगी -



ब्रेक अप/खंड -9/ प्रेम गिलहरी दिल अखरोट - Baabusha Kohli



कहते हैं हर कथा का नायक वही होता है जिसने कथा लिखी
मेरे एकतरफ़ा बयानों को कोई न सुने
प्रेम तो आँखों में पट्टी बाँधे हुए था
इस लिहाज़ से प्रेम को न्यायप्रिय होना चाहिए
क्या दलील दूँ उसकी ओर से कि क़यामत के दिन उसे माफ़ किया जाए
ये तथ्य है कि मुकदमा उसके ख़िलाफ़ है
ये न्याय है कि उसकी वक़ालत मैं करूँ
उसने प्यार किया था
चाहे पल भर को ही सही
क़त्ल मेरा आख़िर उसका ही तो हक़ था
मी लॉर्ड ! मेरे हत्यारे को दोषमुक्त किया जाए
क्या इतना काफ़ी नहीं कि उसके पास भी तो एक दिल हुआ करता था
दिल, जिसे डॉक्टर मशीन से पढ़ता है
आड़ी -टेढ़ी लकीरों में पढ़ता है
मैं ठहरी अनपढ़-गँवार !
दिल से दिल पढ़ बैठी
मैं दिल को डूबती-तेज़ होती धड़कनों में पढ़ बैठी
मैं ग़लत पढ़ बैठी, मी लॉर्ड !
उसे दोषमुक्त किया जाए
हमारे हक़ में इतना तो हो कि इस मुकदमे को यहीं छोड़ दिया जाए
तीन बार तलाक़ के उच्चारण से कहीं ज़्यादा कट्टर है उसकी चुप्पी
इतना ही कट्टर प्रेम उसका
ऐसी ही कट्टर घृणा उसकी
इतना ही कट्टर चुम्बन
इतनी ही कट्टर विरक्ति
ऐसी ही कट्टर मुक्ति
सलीब पर टंगी है उसकी मुक्ति कीलों से बिंधी हुयी
सहते- सहते कब्र में ढह जाएगा मगर खुद के बचाव में कभी मुँह न खोलेगा
ये कमज़ोर लोग इतने कट्टर क्यों हो जाते हैं, मी लॉर्ड !
मैं इस मतलबी संसार में उसकी इकलौती वक़ील हूँ
उसका कोई बयान मैं आपको सुनवा नहीं सकती
उसकी चुप्पी उसके हक़ में सबसे बड़ी दलील है
उसकी बेबस चुप्पी सुनिए, मी लॉर्ड !
पूरी बातें बड़ी आसानी से पूरी हो जाती हैं
बिना किसी दाँव-पेंच के
बिना किसी बहस के
अधूरी बातों के मुकदमे चल जाते हैं
पक्के मकानों के भीतर ढहते कच्चे घरों पर मुकदमे चल जाते हैं
इस क़िस्से को आधा छोड़ दीजिए
हमें अधूरा छोड़ दीजिए
उसे मेरी हत्या के अपराध से दोषमुक्त कीजिए
और कुछ नहीं तो, हमें कोई और तारीख़ दे दीजिए, जनाब !




मैं सब कुछ बदल देना चाहती हूँ
समाज की बुराइयों को
युवाओं की भटकती सोच को
महिलाओं के साथ हो रही असमानता को
अपने हक़ के लिए लड़ते ग़रीबों की स्थिति को
लेकिन फिर सोचती हूँ क्या यह संभव है ?
जवाब भी मिलता है हां संभव है
बस एक बार तुम्हें खुद को बदलना होगा
वक़्त देना होगा हर बदलाव के लिए
बलिदान देना होगा अपनी आराम पसंद सोच को
फिर में थक हार कर रात घर वापिस आती हूँ
और सो जाती हूँ अपनी इसी सोच के साथ
और उठ नहीं पाती उसी बदलाव के विचार के साथ
में कुछ भी बदल नहीं पाती

क्योंकि में खुद को नहीं बदलती हूँ 


ज़ीरो कट्टस: एक इतवार          --------- अनु रॉय



"कितनी मशीनी हो गयी है न ज़िंदगी। रोज़ वही ऑफ़िस जाओ रोज़ वही ऑफ़िस से आओ। चाह कर भी हम कुछ अलग नही कर पाते। स्कूल-कॉलेज के दिनों में देश को बदल देंगे, समाज में क्रांति ले आएँगे और न जाने कितने हीं ख़्वाब पलकों में खेला करते थे। अब तो बस ऑफ़िस, प्रमोशन, इंक्रेमेंट इसी में ज़िंदगी उलझ गयी है।

हर इतवार के लिए सोचता हूँ आज कुछ नया करूँगा, मगर इतवार भी कपड़े धोने, हफ़्ते भर के सामान को जुटाने और सोने में निकल जाता है।जो थोड़ा-बहुत टाइम बचता है वो ये फ़ोन और फ़ेस्बुक ले लेता है। कभी सोचता हूँ तो लगता है, कितनी उलझ गयी ज़िंदगी या खो गयी है।"
डायरी लिख हीं रहा था कि कुछ आवाज़ सुनाई दी, खिड़की से झाँक कर देखा तो पीछे स्लम वाले बच्चे आपस में लड़ रहे थे किसी बात को लेकर। खिड़की बंद की और बिस्तर पर आ कर लेट गया।
सुबह मेड ने डोर-बेल बजाया तो नींद खुली। दरवाज़ा खोल कर फटाफट तैयार होने चला गया। मेड ने पूछा भी साहब आज तो इतवार है, फिर किस बात की जल्दी है। उसने कमरे में से हीं जवाब दिया,
"जल्दी है मौसी, जीने की जल्दी है ज़िंदगी को, ख़्वाबों को।
तुम बस पोहा और चाय बना दो। खाना बाहर खाऊँगा।"

मौसी बोली हँसते हुए बोली, "दीदी से लड़ाई हो गया फिर से। वो आप क्या कहते हो ब्रेक-अप।" वो भी मुस्कुराता हुआ तैयार हो कर बैग में कुछ-कुछ भर लिया।
नाश्ता करके चुप-चाप अपनी मेड के साथ घर से निकला और स्लम की तरफ़ बढ़ने लगा। मौसी बोली "इधर क्यूँ जा रहे हो भईया ?"
"कुछ खो गया है, उसी को ढूँढने।" कहते हुए वो स्लम में दाख़िल हो गया। इतवार था तो बच्चे झुंड बना कर इधर-उधर खेल रहे थे, भीमराव के मंदिर के आस-पास। वो भी वही जा कर बैग रखा, फिर एक-एक करके बच्चों को आवाज़ लगायी। कुछ बच्चें आए कुछ खेलने में ही मशगूल रहें।
फिर उसने बैग खोला और पेपर, पेंसिल और कुछ क्रेयोंस बॉक्स में डाल कर रखा। बच्चों को पहले देर तक कहानियाँ सुनाईं अपने बचपन की जो वो अपनी दादी से सुना था। बाद में उन कहानियों के पात्रों को बच्चों के साथ मिलकर पेपर पर आकार देने लगा। टेढ़े-मेढ़े, आरे-तीरछे हाथी-घोड़ा, परी-राक्षस और न जाने क्या-क्या मंदिर के चबूतरों पर उतर रहे थे। मन में अजीब शांति थी जो शायद हीं किसी इतवार को महसूस किया था पहले उसने।

और उस रात को डायरी में अपने ख़्वाबों को लिख कर क़ैद करने की ज़रूरत महसूस नही हुई, क्यूँकि उसने उन्हें जीने के लिए एक रास्ता जो चुन लिया था।


                                                                  

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