ख्यालों का बवंडर उठता ही है
सत्य से परदे हटाने का आह्वान चलता ही है
कोई आग देखता है
कोई राख
किसी की नज़र में होता है
राख में दबी दहकती चिंगारी !
मेरे अवलोकन के आज के पृष्ठ पर हैं, पल्लवी त्रिवेदी
कुछ एहसास की लेखिका
ये देखती हैं बड़ी सहजता से पंछियों की सुगबुगाहट, उनकी चहचहाहट, उनका लुप्त होना। इनको पढ़ते हुए आप जीवन के हर एहसास से गुजर सकते हैं, ये तो एक बानगी है -
रो लो पुरुषो , जी भर के रो लो
बड़ा कमज़ोर होता है
बुक्का फाड़कर रोता हुआ आदमी
मज़बूत आदमी बड़ी ईर्ष्या रखते हैं इस कमज़ोर आदमी से
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सुनो लड़की
किसी पुरुष को बेहद चाहती हो ?
तो एक काम ज़रूर करना
उसे अपने सामने फूट फूट कर रो सकने की सहजता देना
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दुनिया वालो
दो लोगों को कभी मत टोकना
एक दुनिया के सामने दोहरी होकर हंसती हुई स्त्री को
दूसरा बिलख बिलख कर रोते हुए आदमी को
ये उस सहजता के दुर्लभ दृश्य हैं
जिसका दम घोंट दिया गया है
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ओ मेरे पुरुष मित्र
याद है जब जन्म के बाद नहीं रोये थे
तब नर्स ने जबरन रुलाया था यह कहते हुए कि
" रोना बहुत ज़रूरी है इसके जीने के लिए "
बड़े होकर ये बात भूल कैसे गए दोस्त ?
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रो लो पुरुषो , जी भर के रो लो
ताकि तुम जान सको कि
छाती पर से पत्थर का हटना क्या होता है
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ओ मेरे प्रेम
आखिर में अगर कुछ याद रह जाएगा तो
वह तुम्हारी बाहों में मचलती पेशियों की मछलियाँ नहीं होंगी
वो तुम्हारी आँख में छलछलाया एक कतरा समन्दर होगा
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ओ पुरुष
स्त्री जब बिखरे तो उसे फूलों सा सहेज लेना
ओ स्त्री
पुरूष को टूट कर बिखरने के लिए ज़मीन देना
3 टिप्पणियाँ:
बहुत उम्दा
बड़ा कमज़ोर होता है
बुक्का फाड़कर रोता हुआ आदमी
असहमत :)
सुन्दर बुलेटिन ।
आपके इस प्रयास को हमारा सलाम!!
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