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शनिवार, 30 जून 2012

यादों की खुरचनें - 11



हर बार कभी न कभी पहली बार होता है - पहला कदम , पहली पुकार , पहला त्योहार , पहली पूजा , पहला अनुभव - प्यार और दुःख का , पहली यात्रा ,
पहला गीत , पहली कविता -

Meri pahli kavita. 02/04/2002 at Srinagar Garhwal Uttarakhand

होती है अदभुत ख़ुशी , जब उसे हम बांटते हैं - यादों की खुरचन मैं सहेज लायी हूँ - यह पहली कविता . पहला अनुभव लेखन का कुछ

ऐसा ही ख़ास होता है ... (डायरी से [बी.एस सी प्रथम वर्ष ])

" मृत्यु की छाया निकट है
मोह की माया विकट है
मोह त्याग स्वीकार कर लो
मनुष्य जिसे कहता है मृत्यु ..

अथक चाल भरकर तुम
अडिग वेग लेकर तुम
ले चलो उस और
मनुष्य जिधर जाने से डरता..

आत्मा की चीत्कार सुन
स्वार्थ का ताना न बुन
तोड़ दे अवरोध सारे
बने है जो तुम्हें सोचकर...

निज तन, निज धन के लिए
निज ज्ञान,अपमान के लिए
न विलम्ब कर क्षण भर का
सोच कर उनका क्या होगा...

वे मुर्ख ऐसे न,जैसे तुम
वे ज्ञानी ऐसे,जैसे न तुम
करें सब कुछ समझ कर
जांचकर,और कुछ परखकर..

ये प्रण कर लो मन में
चल पड़े हम जिस ओर
न कोई बाधक बने
न जाने,न समझे...

वो ही है एक शांतिदायक
मनुष्य जिसे कहता है मृत्यु.....!!!!!

ज़िंदगी की क्विल्ट - प्रायः सबके पास होती है , बस रंगों की अपनी- अपनी पहचान है -


" मेरे हाथ में आस का धागा
तुम्हारे हाथ में दर्द की सुई
न तुम अपनी आन छोड़ना
न मै अपनी !
..
तुम ज़िंदगी की चादर में
दर्द के पलों से चुभते जाना
और मै तुम्हारे पीछे पीछे
सब कटा-फटा सीती जाउंगी
..
फ़िर एक दिन पलट कर
तुम देखना और हैरान होना
कि कैसे दर्द की तपिश में से
जब ख़ुशी की फुहार फूटती है…
तो पैबन्दों भरी जिदगी भी
सुंदर क्विल्ट नज़र आती है "

सुन्दर सी क्विल्ट के हाशिये पर एक कौर ममता का होता है और एक कौर बेबस उम्मीदों का ....

JHAROKHA: एक कौर


" माँ प्यार से बच्चे को

फुसला रही है

बस एक कौर और ये कह कर

खिला रही है.


पास ही हम उम्र बच्चा

झाडू लगाता जाता

मां बेटे के खेल को

अचम्भे से निहारता.


क्योंकि उसे तो याद नहीं आता

कभी उसकी मां ने भी उसे

खिलाया हो ऐसे खाना.


उसे तो याद रहता है हरदम

मां ने एक रोटी को

छः टुकडों में बांटा

और मांगने पर देती है एक चांटा.


और कहती है बस

पेट को ज्यादा न बढ़ा

लगी है पेट में इतनी ही आग

तो जा एक घर और काम पकड़..."


अब यही हाल मुकद्दर है तो शिकवा क्यूँ और किससे ... 

शुक्रवार, 29 जून 2012

यादों की खुरचनें - 10



वो आज भी यहीं है मेरे दिल की आस पास ... गुजरे लम्हों की निशानी लिए ...
इक फौजी के दिल के एहसास और उनकी ख्वाहिशें हमसे अलग नहीं होतीं , वह फौलादी दिल लिए मुस्कुराता तो है ,'रंग दे बसंती चोला ' गाता तो है ,
सरफरोशी की तमन्ना लिए सीमा पर खड़ा रहता तो है ..... पर बासंती हवाएँ उनको भी सहलाती हैं , सोहणी उनको भी बुलाती हैं ..... कुछ इस तरह ...

" एक गीतनुमा कविता।किसी हरे सूट की याद में....कश्मिर की एक ठंढ़ी बर्फिली शाम कहीं सुदूर किसी छोटे से पहाड़ी टीले पर

हरे रंग का सूट तेरा वो और हरे रंग की मेरी वर्दी
एक तो तेरी याद सताये उसपे मौसम की सर्दी
सोया पल है सोया है क्षण
सोयी हुई है पूरी पलटन
इस पहर का प्रहरी मैं
हर आहट पे चौंके मन
मिलने तुझसे आ नहीं पाऊँ,उफ!ये ड्युटी की बेदर्दी
एक तो तेरी याद सताये उसपे मौसम की सर्दी
क्षुब्ध ह्रिदय है आँखें विकल
तेरे वियोग में बीते पल
यूँ तो जीवन-संगिनी तू
संग अभी किन्तु राईफल
इस असह्य दूरी ने हाय क्या हालत मेरी है कर दी
एक तो तेरी याद सताये उसपे मौसम की सर्दी


.....बस शब्दों का जोड़-तोड़ है और हरी वर्दी वालों का एक छोटा सच!!! "

कितना बड़ा है ये दुनिया का मेला , पर सोच की एक एकात्मक धरती - कोई खुश , कोई उदास , कोई बेज़ार -
"बेवजह समय काटना,
कितना आसान और कितना मुश्किल,
सुबह से ऐसे बैठा हूँ जैसे काम का अंबार है मुझ पर,
सोचता हूँ ऐसे, जैसे सो ख़्याल हैं दिमाग़ में,
किसी को दिखा रहा हूँ,
कि व्यस्त हूँ इस अव्यवस्था में,
जीवेन की दौड़ में और रास्ते की खोज में,
परछाई का रंग लाल हो रहा है जैसे,
सूरज कहीं कहीं से फिर खो रहा है जैसे,
पकड़ सकता हूँ अपनी परछाई के रंग को मैं,
ऐसे ही मान जाओगे या कर के दिखाऊं मैं,
मेरा रंग जो भी हो
परछाई तो रंगीली हो,
अपने मन से जो सपने देखूं
थोड़े तो नशीले हों,
वैसे तो आप ही आप को खिलाते हैं रंगो का ये खाना,
ना जाने काला रंग किसको है निभाना,
रंगहीन सी जिंदगी और रंगीली ये परछाई,
सालों से तस्वीरों में दिखती ये तन्हाई,
निकल कर बाहर आज फिर लुट गयी है,
अव्यवस्थता की गहरी खाई मैं कहीं डूब गयी है,
मेरी तन्हाई दे दो मुझे कि
मैं नही चाहता रंगो में नहाना,
मैं बस बेवजह समय काटना चाहता हूँ......"

समय काटो न काटो , वह बढ़ता जाता है ...... कभी द्रुत , कभी मंद ! गुजरते वक़्त को देख ऐसे भी ख्याल उसके साथ साथ गुजरते हैं -
" इस गुजरते हुए वक्त को देख
और अपने कीमती जीवन को जाया होते हुए देख !
कोई निम्नतम-सी कसौटी को ही तू चुन,
और इस कसौटी पर खुद को ईमानदारी से परख !
जिस तरह यह वक्त गुजर जाएगा
उसी तरह पागल तू भी वापस नहीं आएगा....!!
पगले,अपनी असीम ताकत को पहचान
इस तरह बेचारगी को अपने भीतर मत पैदा कर
हालात किसी भी काल बहुत अनुकूल नहीं हुए कभी
कभी किसी के लिए भी नहीं..
सभी अपनी-अपनी लड़ाईयां इसी तरह लड़ा करते रहे हैं ओ पगले
फर्क बस इतना कि कोई अपने लिए,कोई सबके लिए !
तूने अपने जीवन को यह कैसा बना रखा है ओ मूर्ख...?
जीता तो है तू खुद के लिए,और बातें करता है बड़ी-बड़ी !
इस तरह की निंदा-आलोचना से क्या होगा....
सबसे पहले तुझे खुद को ही बदलना होगा
सबको उपदेश देने से पहले तू खुद के बारे में सोच...
सड़क पार आकर आम जनता के लिए जी....
तब यह धरती तेरी यह आकाश तेरा ही होगा...
अगर इस राह में मर भी गया तू
तो बच्चे-बच्चे की जुबान पर नाम तेरा ही होगा...!
मादरे-वतन की मिटटी से कभी गद्दारी मत कर-मत कर-मत कर
ज़िंदा अगर है तो आदमियत की मुखालिफत मत कर
सिर्फ कमा-खाकर अपने और अपने बच्चों के लिए जीना है फिर
अपनी खोल-भर में सिमटा रह ना,बड़ी-बड़ी बातें मत कर
तेरे वतन को तुझसे कभी कोई उम्मीद रत्ती भर भी नहीं रे मूर्ख !
तू अभी की अभी मर जा,नमक-हलाली की बातें मत कर...!!
(कोई इन शब्दों को खुद पर ना ले,इन शब्दों में जो गुजारिश है,वो सिर्फ खुद के लिए है,इतना पढ़-भर लेने के लिए धन्यवाद !!)"

कौन किस ग़म का मारा है , कौन जाने - वो अपनी कहते हैं , हम अपनी सुनते हैं - क्योंकि , सबको अपनी ही किसी बात पे रोना आया

अपने बच्चों के लिए थोडा और बलिदान करें....


          क्या आपको याद है थियेटर या सिनेमा हॉल में जब आपने पहली फिल्म देखी थी तब आपकी उम्र क्या थी...  खैर छोडिये अगर याद नहीं है तो...  अक्सर मैं देखता हूँ, कई लोग गोद में छोटे बच्चों को लेकर फिल्में देखने चले आते हैं.. क्या आपने भी कभी ऐसा किया है... अब आप पूछेंगे भला इसका इस बुलेटिन से क्या लेना देना है... जी आपने सही कहा इसका इस बुलेटिन से कोई लेना देना नहीं है लेकिन इस बात का बच्चों की सेहत से ज़रूर लेना देना है... इस तरह की लापरवाही भरी हरकत का बच्चों के शारीरिक और मानसिक विकास में गहरा प्रभाव पड़ सकता है...
           आपने फिल्मों के सर्टिफिकेट्स के बारे में तो ज़रूर सुना होगा... केन्द्रीय फिल्म प्रमाणन बोर्ड द्वारा फिल्मों को सामान्यतः तीन तरह के सर्टिफिकेट दिए जाते हैं... "U" "U/A" और "A"...
     "U" सर्टिफिकेट उन फिल्मों को दिया जाता है जो आप 4 साल से ज्यादा की उम्र के बच्चों के साथ देख सकते हैं, बहुत कम ही फिल्मों में आपने ये सर्टिफिकेट देखा होगा.. अभी की फिल्मों में फरारी की सवारी  ऐसी ही फिल्मों में से एक है... लेकिन इस तरह की भी फिल्में 4 साल से छोटे बच्चों के साथ देखने से बचना ही चाहिए...
          उसके बाद नंबर आता है "U/A" सर्टिफिकेट वाली फिल्मों का.. इस श्रेणी की फिल्मों के कुछ दृश्यों मे हिंसा, अश्लील भाषा या यौन संबंधित सामग्री हो सकती है, इस श्रेणी की फिल्में केवल 12 साल से बड़े बच्चे किसी अभिभावक की उपस्थिति मे ही देख सकते हैं... मतलब ये फिल्में भी आपको 12 साल से छोटे बच्चों को नहीं दिखानी चाहिए.. आज कल बनने वाली अधिकांशतः फिल्में इसी श्रेणी की होती हैं...
        तीसरी श्रेणी है "A" .. यह वह श्रेणी है जिसके लिए सिर्फ वयस्क यानि 18 साल या उससे अधिक उम्र वाले व्यक्ति ही पात्र हैं...
              चूंकि वो नन्हे बच्चे कुछ बोल नहीं सकते तो उनकी तरफ से मैं आपसे बस इतनी सी गुज़ारिश करना चाहूँगा, अपनी खुशियों का थोडा बलिदान और करें... और बच्चों के साथ फिल्में देखने न जाएँ और न ही घर पर ही उन्हें इस तरह की फिल्में देखने दें... अपने आस पास भी अन्य माता-पिता को इस सम्बन्ध में जागरूक करें... अब रूख करते हैं आज की बुलेटिन की तरफ....

            
संजय ग्रोवर जी अपनी लघु व्यंग्य कथा के माध्यम से कहते हैं इमेज बड़ी चीज़ है, मुंह ढंक के सोईए... और अमित जी बता रहे हैं सोने की मुद्राएं... दराल सर भी थोडा हलके फुल्के ढंग से अपनी नयी पोस्ट रखते हैं... मैं तो पानी पीता ही नही... अपने ब्लॉग क़स्बा पर रवीश कुमार जी बात कर रहे हैं वासेपुर की बंगालन की .... सतीश सक्सेना जी के गीतों की श्रृंखला में जुड़ रहा है गीता हरिदास....  और साथ साथ देखिये रुपये का दिनों दिन का हाल.... एक नयी शुरुआत पर भी नज़र डाल लीजियेगा...काफी दिनों बाद आई वंदना महतो कह रही हैं तुम अब भी... अरे हाँ जी हाँ... अभी भी... उधर अमृतसर की यात्रा वृतांत को आगे बढ़ा रहे हैं अभिषेक... गिरिजेश जी एक पोस्ट रिठेल कर रहे हैं मोलई माट्साब... रश्मि जी के ब्लॉग पर एक ज़ोरदार चर्चा चली हुयी है... आखिर क्यूँ इतना मुश्किल होता है ना कहना... संगीता स्वरुप जी के ब्लॉग पर बिखरी पड़ी हैं जिद्दी सिलवटें... आशा जी के ब्लॉग पर पढ़िए सुरूर.. अंजना जी सुना रही हैं अपनी हंसी... तृप्ति जी अपनी शादी की दसवीं सालगिरह कुछ इस तरह मना रही हैं... दिगंबर नासवा जी के ब्लॉग पर चारो तरफ स्वर्ग बिखरा पड़ा है... जाकर देख आईये... साथ ही देखिये कैसे आँखों से नींद बह रही है.... महेंद्र वर्मा जी को आगत की चिंता नहीं... सोनिया जी के ब्लॉग पर विचारों से मात.... शिवनाथ जी के ब्लॉग पर वो पूछ रहे हैं...क्या मैं 'जिंदा' हूँ... 
और जाते जाते अपना बचपन याद करते जाईयेगा...  क्यूंकि हर तस्वीर कुछ कहती है... 



गुरुवार, 28 जून 2012

कोई कम नहीं है ... ब्लॉग बुलेटिन



कल रात .....
नदी कहती रही अपनी बात
कलकल निनाद में बहुत कुछ बहाती गई
मैं सुनती गई
सोचा कहूँ नदी से -
एक तुम सी नदी मेरे भीतर है
जिसमें बहुत कुछ बहता है
पर कुछ है जो किनारे रह जाता है
करता है चीत्कार
लगाता है गुहार - यूँ हीं तो नहीं न !!!.................. कुछ गुहारें लेकर आई हूँ



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बुधवार, 27 जून 2012

जब से हम तबाह हो गए , तुम जहांपनाह हो गए.......ब्लॉग बुलेटिन





कल अचानक ही भाई शिवम मिश्रा जी ने एक पोस्ट सरकाई , हम आपस में पोस्ट ठेलाई और पढम पढाई करते रहते हैं , जी ठीक उसी तरह जैसे बचपन में पकडम पकडाई होता था  न , अब क्या करें  दोनों ही ठहरे खबरीलाल , पोस्टों पर  टहलते रहना हमारा प्रिय काम होता है । अब चूंकि बुलेटिन के रपोटर भी हैं दोनों इसलिए ये स्वाभाविक भी लगता है । और हम दोनों ही क्यों , बल्कि हम सब बहुत से साथी ब्लॉगर्स एक दूसरे को पोस्टों का संदर्भ , लिंक यदाकदा देते ही रहते हैं , मैं तो खूब सरकाता हूं एक से दो दो से चार तक यूं पहुंचने वाली पोस्टें । तो बात बुलेटिन की चल रही थी , हमें बडा आनंद आता है पोस्टों को पढने में । और अगर इस आनंद प्राप्ति का दूसरा लाभ ये हो कि अपने दोस्तों /मित्रों के लिए एक ही मंच पर कुछ खूबसूरत पोस्टों को एक साथ माला में पिरो कर दे दिया जाए तो हुआ  डबल मुनाफ़ा । और अगर कोई दोस्त फ़िर उस कोशिश की हौसलाअफ़ज़ाई कुछ यूं करे तो , समझिए कि कसम से पुरनकी सिलेमा की शरमाती सकुचाती नायिका समान लजा से जाने वाले फ़ोटो को चस्पा कर भावानों को व्यक्त करने का मन हो जाता है । देखिए कि योगेंद्र पाल जी क्या कहते हैं ,


yogendra's picture

ब्लॉग बुलेटिन - ब्लॉग जगत की बगिया के रोज के चुनिन्दा फूल


इसमें वो एक जगह पर  लिखते हैं ,ब्लॉग बुलेटिन की दूसरी विशेषता हैं, मेहमान रिपोर्टर जिनकी पोस्ट एक ठंडी हवा के झोंके की तरह होती है, जिसमें एक अलग ही खुशबू होती है तथा पाठकों को एक ताजगी दे कर जाती है| एक बार यह सौभाग्य मुझे भी प्राप्त हो चुका है| समय समय पर ब्लॉग बुलेटिन टीम ब्लॉग जगत की हस्तियों से उनके पसंद के ब्लॉग तथा किसी खास विषय पर उनके विचार के बारे में अपने ब्लॉग पर लिखती रहती है| जिससे पोस्टों में स्फूर्ति बनी रहती है, मेरे विचार में यह एक अच्छा तरीका है बिना लेखक संख्या बढाए अपने पाठकों को कई प्रकार के लेख देने की|
    ब्लॉग बुलेटिन पर लेखों की श्रंखला उसका एक बेहतर प्रयोग है, जिसमे से यह प्रमुख हैं
    • इस क्रम में सबसे पहली श्रंखला है "ब्लॉग की सैर" जो कि रश्मि जी के द्वारा निकाली गयी| अब तक इस श्रंखला में 8 लेख प्रकाशित हो चुके हैं, इस श्रंखला में रश्मि जी ने सिर्फ कविताओं को स्थान दिया, यदि आप कविताओं के शौक़ीन हैं तो आपको ब्लॉग बुलेटिन की इस श्रंखला को जरूर पढ़ना चाहिए|
    • "यादों की खुरचनें" यह दूसरी श्रंखला का नाम है और यह भी रश्मि प्रभा जी के द्वारा ही निकाली गयी है, इसमें सिर्फ उन कड़ियों को शामिल किया जाता है जिसमें लेखक अथवा कवि अपने बीते दिनों को याद करते हुए कुछ लिखता है| अभी तक इस श्रंखला में कुल 9 लेख लिखे जा चुके हैं, यदि आप भी अतीत में जाना चाहते हैं तो इस श्रंखला की सभी कड़ियों को जरूर पढ़ें|
    • सबसे बेहतरीन श्रंखला मुझे लगी और जिसका अब मैं बेसब्री से इंतज़ार भी कर रहा हूँ वह है "101 लिंक एक्सप्रेस"| यह ब्लॉग जगत में ब्लॉग बुलेटिन के द्वारा किया गया एक अनूठा प्रयोग है इसमें आपको मिलती है 101 अच्छे लिंकों की एक लंबी लिस्ट इस पोस्ट को पढ़ कर ऐसा लगता है कि मन तृप्त हो गया अब और कुछ नहीं चाहिए| इस श्रंखला में अभी तक 3 पोस्ट आयीं हैं और यह अजय कुमार झा जी के द्वारा निकाली गयी है|

क्या कहें , योगेंद्र भाई , आपकी सराहना , आपकी आलोचना सर माथे , उम्मीद करेंगे कि आपके सुझावों पर जल्दी ही काम किया जा सके । आपका आभार । और हां , भाई योगेंद्र पाल जी को हमारी टीम सहित पूरे ब्लॉग जगत की तरफ़ से हार्दिक बधाई और शुभकामनाएं , आप गृहस्थाश्रम में प्रवेश करने जा रहे हैं ,


चलिए बहुत हो लिए अपने मुंह मियां मिट्ठू , वर्न असलियत तो ये है कि अभी तो कायदे से पोस्ट पढनी भी नहीं आई है , लगे हैं चर्चाने । पोस्टों में प्रवीण पांडे जी की कोई पोस्ट जैसे ही हमारे मेल में आती है हम उस पर पहुंच जरूर जाते हैं , पढ भी जाते हैं सरसरी फ़रफ़री तौर पे , बातों को आ हमारे जैसे भुसकोल विद्यार्थियों के लिए तो जरूर ही कठिन बातों को कमाल की सरलता से कह जाते हैं , एकदम सिंपल सोबर ब्लॉग और वो पुराने जमाने की आर्ट सिनेमाई क्रेज़ लिए हुए पोस्टें , आज की पोस्ट में जनाब बचपन के सुभाषितों के बहाने जीवन में सहजता को सुंदर रूप में परिभाषित कर गए


"बस ऐसे ही विचार तब आये जब कबीर का यह दोहा पढ़ा,

सहज मिले सो दूध सम, मांगा मिले सो पानि

कह कबीर वह रक्त सम, जामें एंचातानि।


कोउ समझाये मन की भाषा
आशय स्पष्टतम है, जो सहजता से प्राप्त हो वह दूध जैसा है, जिसके लिये किसी से झुककर माँगना पड़े वह पानी के समान है और जिसके लिये इधर उधर की बुद्धि लगानी पड़े और दन्द-फन्द करना पड़े वह रक्त के समान है। किसी घर में संपत्ति संबंधी छोटी छोटी बातों पर जब झगड़ा होते देखता हूँ तो बस यही दोहा मन ही मन बुदबुदाने की इच्छा होती है। भाईयों का रक्त बहते तक देखा है, यदि न भी बहे तो भी संबंधों का रक्त तो निश्चय ही बह जाता है, संबंध सदा के लिये दुर्बल और रोगग्रस्त हो जाता है।

बहुत लोग ऐसे हैं, जिन्हें छोटी छोटी बातों के लिये झगड़ा करना तो दूर, किसी से कुछ माँगना भी नहीं सुहाता है। ऐसे दुग्धधवल व्यक्तित्वों से ही विश्व की सज्जनता अनुप्राणित है। ईश्वर करे उन्हें उनके कर्मों से सब सहज ही मिलता रहे। ईश्वर करे कि जो ऐसी आदर्श स्थिति में नहीं भी है, उन्हें भी कम से कम वह रक्त तो दिखायी पड़े जो हमारे छलकर्मों से छलक आता है।


मनन कीजिये, मन स्वीकार करे तो भजन कीजिये, कबीर के साथ, 'सहज मिले तो....'"




पोस्ट अच्छी हो तो टिप्पणियां भी अपने आप अच्छी और बहुत अच्छी करते हैं पाठक , इस पोस्ट पर कमाल की टिप्पणियां हैं , मेरे टिप्पणी चर्चा वाले ब्लॉग के लिए लेकिन एक टिप्पणी तो आप अभी पढिए , गोदियाल जी कहते हैं ,


"ऐसे दुग्धधवल व्यक्तित्वों से ही विश्व की सज्जनता अनुप्राणित है।"
और यह प्राणी अब लुप्तप्राय है, इस धरा से ! जो इक्के-दुक्के सज्जन वृन्द वाकई निष्काम भाव से अपने ज्ञान का खजाना लुटा भी रहे है उन्हें आज इन हरामखोर बाबा/स्वामियों ने ओवरटेक कर दिया !

आपने कहा " कई प्रश्न होते हैं जो उत्तरित होने में समय लेते हैं। धन के प्रति अधिक मोह न पिताजी में देखा और न ही कभी स्वयं को ही मोहिल पाया। ऐसा भी नहीं था कि धन के प्रति कोई वितृष्णा रही हो। अधिक धन के प्रति न कभी जीवन को खपा देने का विचार आया और न ही कभी वैराग्य ले हिमालय प्रस्थान की सोच। जितना है, जो है, सहज है। जहाँ धन की सर्वोच्चता स्वीकार नहीं रही है, वहीं कभी धन के महत्व को नकारा भी नहीं है।"

इस बाबत शायद मेरा कथन कुछ दकियानूसी सा लगेगा किन्तु चूंकि मुझे जान्ने के बाद रोचक लगा था इसलिए यहाँ कहना पसंद करूंगा कि यदि आप ब्राह्मण है ( ब्राह्मण से मेरा यह कतई तात्पर्य नहीं है कि किसी ने सिर्फ किसी ब्राह्मण परिवार में जन्म लिया हो, ब्रह्मण से तात्पर्य है विद्वान, विवेकशील और आचरणशील इंसान) तो शायद यह आप भी जानते होगे कि आप भले ही इच्छा भी रखते हों और लाख कोशिश भी कर ले तब भी आपको अपार दौलत नहीं मिलेगी, और न ही आपके समक्ष कभी भूखा रहने की समस्या खडी होगी बस यों समझिये कि ठीकठाक गाडी चलती रहेगी ! उसकी वजह मेरे एक कश्मीरी सीए मित्र यह बताते हैं कि चूँकि ब्राह्मण सरस्वती का उपाषक होता है ! और धन लक्ष्मी के हाथों का कमल ! जिसे लक्ष्मी अपने हाथों में उठाये रखती है उसे सरस्वती पैरों तले रखती है ! किम्वदंती है कि शायद यही इगो एक सरस्वती उपासक को धनवान नहीं बनने देता ! :)



आज जहां हम अपनी साइट पर , खुद को बडा फ़न्ने खां एग्रीगेटर घोषित करके चुपचाप निकल लिए हैं , चुपचाप इसलिए कि किसी के भी वहां पहुंच कर टीपने का खतरा नहीं है , कम से कम पिछली पोस्टों के हिसाब से तो जरूर ही , वहीं , डॉ दिव्या श्रीवास्तव उर्फ़ ज़ील जी ने ब्लॉगर्स की दो कटेगरियों का निर्धारण करने हेतु एक सूचना जारी की है, 

जहां पहुंच कर अपनी अपनी कैटगरी पर चिन्हासी मार देने में ही भलाई लग रही है मुझे तो । उधर दूसरी तरफ़ अनुराग जी ने आभासी सम्बन्धऔर ब्लॉगिंग       , को समझाते हुए कहा ,


"

मेरी नन्ही ट्विटर मित्र
आपके तथाकथित मित्र फेसबुक या गूगल प्लस पर आपकी ‘फ्रैंड रिक्वैस्ट’ ठुकरा कर, या अपने ब्लॉग पर आपकी टिप्पणियों को मॉडरेट करके या फिर इससे आगे जाकर आपके विरुद्ध पोस्ट पर पोस्ट लिखते हुए आपकी टिप्पणियाँ प्रकाशित न करके या फिर टिप्पणी का विकल्प ही पूर्णतया बन्द करके आपको चोट पहुँचाते जा रहे हैं तो आपको खराब लगना स्वाभाविक ही है। आपकी फेसबुक वाल या गूगल प्लस पर कोई आभासी साथी आकर अपना लिंक चिपका जाता है। आप क्लिक करते हैं तो पता लगता है कि पोस्ट तो केवल आमंत्रित पाठकों के लिये थी, लिंक तो आपको चिढाने के लिये भेजे जा रहे थे। किसी हास्यकवि ने विवाह के आमंत्रण पत्र पर अक्सर लिखे जाने वाले दोहे की पैरोडी करते हुए कहा था:

भेज रहे हैं येह निमंत्रण, प्रियवर तुम्हें दिखाने को
हे मानस के राजकंस तुम आ मत जाना खाने को
ताज़े अध्ययन का लब्बो-लुआब यह है कि आभासी जगत में होने वाला अपमान भी उतना ही दर्दनाक होता है जितना वास्तविक जीवन में होने वाला अपमान। "
और टिप्पणियों के तो कहने ही क्या , देखिए ,



Reply
वाह! खरी खरी खूब कही।

कमेंट का विकल्प कभी-कभी मैं भी बंद कर देता हूँ। इसके पीछे दो कारण हैं एक तो जब कभी दूसरे ब्लॉग को प्रमोट करना हो, वहां के कुछ अंश कट पेस्ट कर लगा देता हूँ। उस ब्लॉग का लिंक दे देता हूँ चाहता हूँ कि जिन्हें कमेंट करना है वहीं करें।

दूसरे तब जब समय का अत्यधिक अभाव रहता है। कमेंट का उत्तर देने की स्थिति में नहीं रहता। कोई एकाध चित्र लगाने का मूड किया, जानता हूँ लोग पसंद करना चाहेंगे तो टिक लगाकर अपनी पसंद जाहिर कर ही देंगे।

जहाँ तक ब्लॉग सुरक्षित करने की चिंता है तो वह नहीं है। एक विजेट के चक्कर में ब्लॉग सुरक्षित हो गया। विजेट तो दोस्तों की आपत्ति पर हटा दिया मगर ब्लॉग की सुरक्षा हटाना ही नहीं आया।:)

आपकी आपत्ति जायज है सो अपनी सफाई दे दी ताकि भ्रम हो तो टूट जाय। शेष तो कभी कभार मौज ले लेता हूँ, जो मुझे जानते हैं बुरा नहीं मानते। मेरा विश्वास है कि 4,5 वर्षों के आभाषी संबंध छोटी-मोटी बातों से टूटा नहीं करते।

विषय बढ़िया है, विमर्श का स्वागत है।




  1. बढ़िया कैटेगराईजेशन रहा।

    आमंत्रण आधारित जमात तो कुछ यूँ होती है कि जो घूम घूम कर दूसरों के यहां का जायजा लेती है और जायजे अनुसार पोस्टें लिखती है और जब उसके शीर्षक आदि पढ़कर ब्लॉग पर जाओ तो पता चले कि आमंत्रण वाला ब्लॉग है।

    इसी प्रवृत्ति को मराठी में कहा जाता है कि "स्वत:चा ठेवायचा झाकून आणि दुसर्यांचा बघायचा वाकून" ( खुद का तो ढक कर रखते हैं लेकिन दूसरों का झुक कर देखते हैं )

    ब्लॉगिंग के संदर्भ में मैं इस प्रवृत्ति को "शामियाना ब्लॉगिंग" कहूँगा। ऐसे घरघुमनी प्राणी यही सोचकर मगन रहते हैं कि हमने तो खूब ललचाया, हमने तो खूब छकाया। तीसरी कसम फिल्म का वो सीन याद आता है जिसमें नौटंकी का पास पाकर हीरामन दूसरों को चिहा चिहा कर दिखाता है कि मेरे पास तो पास है पास...वरना वो लाईन देखी :)

    बहुत संभव है आमंत्रितगण भी शायद खुद को हीरामन समझ रहे होंगे :)

    इस सारी कवायद का प्रारूप कुछ उस तरह का भी है जिसमें बच्चे अंगूठा दिखाकर लुलुआते हुए चिढ़ाते हैं .... तो कुछ वैसा ही सुख मिलता होगा आमंत्रणबाजी से। उपर से गर्व भी करते हैं कि ट्रेण्ड सेटर हैं। लेकिन ऐसे लोगों को यह नहीं मालूम कि लोग ब्लॉगिंग के शुरूवाती काल में ही प्राईवेट ब्लॉग अपने लिये बनाकर रखते थे, यार दोस्तों से कम्यूनिकेट करते थे। चार साल पहले जब मैं अपने ब्लॉग के लिये डोमेन ढ़ँढ रहा था तब कई आमंत्रित ब्लॉग दिखे थे। ऐसे ब्लॉगों का उद्देश्य यदि सब्जेक्ट वाईस हो या किसी समुदाय आधारित हो तो समझा जा सकता है कि खास समुदाय या वर्ग के लोग ही शरीक हो सकते हैं लेकिन जहां ब्लॉगिंग के मजमें में खुद तो शामिल होकर तमाशा देखा जाय और उन बातों को संदर्भित कर आमंत्रित ब्लॉग पर पोस्ट लिखी जाय तो इस प्रकार की "शामियाना ब्लॉगिंग" उन्हें ही मुबारक।

    बाकि पोस्ट तो चकाचक है :)
  1. पढ़ लिया
    समझ लिया की आप परेशान हैं
    और हिंदी ब्लॉग लेखन को सुधारना चाहते हैं , हम भी चाहते थे गलत थे , अपने को अलग कर लिया , गूगल की दियी हुई सुविधा से अब खुश हैं , क्युकी पाठक वो हैं जिनको मेरे लिखे में रूचि हैं , नाकि वो हैं जो केवल इस लिये मुझे पढते हैं की आगे जाकर मुझे नकारात्मक कह सके .
    गूगल प्लस पर लिंक देना , ये सुविधा गूगल से हैं . वही एक दूसरी सुविधा भी हैं की जिन से आप को परेशानी हो उनको आप ब्लाक कर दे , मत जुड़े उनसे . उसका उपयोग करे क़ोई लिंक आप को गूगल प्लस पर परेशां नहीं करेगा .
    ब्लॉगर कौन होता हैं इस विषय में भी कुछ पढना हो तो मुझ से संपर्क कर के लिंक ले ले . यहाँ नहीं दे रही वरना आप क़ोई नयी पोस्ट का मसला मिल सकता हैं :)
    सबसे जरुरी बात जब ब्लॉग पर क़ोई किसी के विरुद्ध लिखता हैं तो उसका पूरा नेट वर्क दूसरे से पूछे बिना उस के साथ खडा हो जाता हैं और अपशब्द , गाली , व्यक्तिगत कमेन्ट सब कुछ अप्रोवे हो जाता हैं मोदेराशन होते हुए भी ?
    ईमानदारी से कहे क्या आप के साथ कभी ऐसा हुआ की आप को कहीं कमेन्ट देने के बाद ऐसा लगा की नहीं ये ठीक नहीं था और अगर लगा तो क्या आप ने उस कमेन्ट को डिलीट करना उचित समझा .
    अगर क़ोई कमेन्ट मोडरेट करता हैं , डिलीट करता हैं , कहीं और सहेजता हैं , ये सब उसको मिले अधिकारों के तहत हैं .
    ब्लॉग की दुनिया में सम्बन्ध शब्दों से शब्दों के हो तो बेहतर होता हैं
     
     








कल वंदना जी की एक पोस्ट आई , नहीं कहना चाहिए कि एक कविता आई , जिसमें उन्होंने स्तन कैंसर को विषय बना कर अपनी बात कही थी , इस विचार पर प्रतिक्रिया स्वरूप रचना जी ने नारी ब्लॉग पर ये पोस्ट लगाई । कमाल की बात ये है कि दोनों ही पोस्टों पर दिग्गज ब्लॉगर्स के बीच विचार विमर्श और बहस का वो दौर चल रहा है जो विरले ही नसीब हो रहा है अब ब्लॉग पोस्टों को । प्रश्न बहुत ही गंभीर है इसलिए जाइए और दोनों पोस्टों पर अपनी राय रखिए । जरा टिप्पणियों की बानगी देखिए ,

वंदना जी की पोस्ट पर : -



ब्लॉगर आर. अनुराधा ने कहा…
वंदना, मैं नहीं जानती, आपने स्तन कैंसर को कितने करीब से देखा है। लेकिन निश्चित रूप से मैं रचना से सहमत हूं और आपनी कविता (स्त्री पक्ष से) महिलाओं के लिए डीमॉरलाइजिंग है, जबकि पुरुषो को महान बताती है। वास्तविकता निश्चय ही इसके उलट है (अपवाद होंगे शायद)। किसी स्त्री का एक स्तन चला जाए तो वह वात्सल्य, मातृत्व इत्यादि 'सुखों' से वंचित नहीं हो जाती। वह कीमो आदि के बाद भी मां बन सकती है और स्तनपान के लिए दूसरा स्तन होता ही है। वैसे भी कितनी ही स्त्रियां एक बार भी अपनी संतानों को स्तनपान नहीं करवा पातीं, तो क्या वे मां नहीं रहती।

दरअसल मुझे लगता है कि यह सारी समस्या महिमामंडन की, अतिरेक की है। मां का महिमामंडन, फिर इस बीमारी का और उससे होने वाले 'नुकसान' का। क्यों नहीं इसे भी एक बीमारी की तरह देखा जा सकता? इसका भी इलाज है, समस्याएं हैं और इसके साथ भी जीवन है। क्या दूसरी सैकड़ों बीमारियां इसी तरह अनिश्चित भविष्य वाली नहीं होती? क्या सिर्फ इसलिए कि पुरुषों को अपने खेल के 'खिलौने' में कुछ कमी हो गई लगती है, यह बीमारी इतनी बड़ी समस्या बन जाती है?

दरअसल समस्या है, तब, जबकि इस बीमारी की पहचान, जांच, निदान, इलाज से लोग एकदम नावाकिफ हैं, सुविधाएं एकदम कम हैं और इसका खर्च इतना ज्यादा है कि आम आदमी इसके बारे में नहीं सोचना चाहता। क्यों नहीं इन मुद्दों पर भी कोई रचनाकार सोचता और अपनी रचनात्मक अभिव्यक्ति से लोगों को इसके बारे में सचेत, जागरूक बनाता?





ब्लॉगर वन्दना ने कहा…
@ आर. अनुराधा जी ये एक आम बीमारी होती जा रही है आजकल महिलाओं के बीच और जहाँ तक इसकी भयावहता की बात है वो भी हम सब देखते हैं अपने आस पास ही और देखी भी है …………मैने वात्सल्य और नारीत्व दोनो को साथ लेकर लिखी है ना कि अकेले वात्सल्य पर ………मानती हूँ काम चल जाता है मगर एक अधूरापन जब नारी महसूसती है तो कैसा लगता है उसे मैने उस दृष्टिकोण से लिखा है ना की पुरुष को बडा दिखाने या नारी को नीचा दिखाने के लिये क्योंकि कोई भी नारी हो वो कम से कम अपनी निगाह मे पूर्ण रहना चाहती है इसिलिये नारी के दृष्टिकोण पर कहा भी है कि उसे नही होती परवाह ना समाज की ना पति की भावनाओं की अगर होती है तो अपनी अपूर्णता की जो उसे अन्दर ही अन्दर खोखला करती है फिर चाहे वक्ष हों या दूसरे अंग ………और किसी का भी कोई अंगभंग हो तो वो ऐसा ही महसूसेगा उस भावना को कहने की कोशिश की है ना कि किसी को भी महिमामंडित करने की ……………जहाँ तक आपकी आखिरी बात का सवाल है वो बीमारी के बारे मे है जबकि मैने एक बीमारी से उपजे साइड इफ़ेक्ट के बारे मे लिखा है बस यही फ़र्क है आपके और हमारे दृष्टिकोण मे ।उम्मीद है आप अन्यथा नही लेंगी आपने दूसरे नज़रिये से देखा और मैने दूसरे और दोनो ने अपने अपने पक्ष रख दिये जो कि जरूरी है ताकि कोई कन्फ़्यूज़न ना रहे ।

ब्लॉगर अदा ने कहा…
आपकी कविता से बिल्कुल सहमत नहीं हूँ, मातृत्व वक्ष पर टिका हुआ कोई भाव नहीं होता, वह तो हृदय में होता है, और वक्ष का मोहताज़ नहीं होता....वक्ष होते हुए हुए आज कितनी हैं जो वक्षपान करातीं हैं, और अपने मातृत्व को दुलरातीं हैं, कोई उनसे जाकर पूछे जो इस दौर से गुजरतीं हैं, उन्हें अपना वक्ष प्रिय था या प्राण..
एक से एक सुन्दर इन्सान उम्र के साथ बन्दर हो जाता है, वो वक्ष जो प्राण लेने पर उतारू हो उसका नहीं होना ही ठीक है, और अगर इस कमी की वजह से कोई किसी को असुंदर दिखती है, तो देखने वाले के दिमाग का ईलाज होना चाहिए, ख़ूबसूरती ३४-३२-३४ के इतर भी होती है...देखने वाली नज़र चाहिए...

इस विषय पर अगर किसी को कविता ही लिखनी है तो उस विजय पर कविता लिखे, उस साहस पर कविता लिखे, उस ख़ूबसूरती पर लिखे तो मौत हो हरा कर उन महिलाओं के चेहरे पर नज़र आती है, इसे बिद्रूप, अधूरा बना कर, पेश करने वाले अपने दिमाग़ी दिवालियेपन, और छिछलेपन के सिवा और कुछ नहीं दिखा रहे है...उन महिलाओं से खूबसूरत कोई नहीं, कोई विश्वसुन्दरी भी उनके सामने खड़ी नहीं हो सकती ...और मैं और आप तो उनके क़रीब भी जाने की नहीं सोच सकते..


इस बहस से आगे निकले तो देखा कि डॉ, अरविंद मिश्र एक ठो अपील दागे हैं आज अपना पोस्ट में

एक आर्त अपील-लिव एंड लेट लिव  ,   की , और कुछ यूं कहा कि ,

"
भ्रष्टाचार पर मैंने कभी नहीं लिखा .बेमन टिप्पणियाँ जरुर की हैं इस विषय पर ब्लॉग पोस्टों पर . जल में रहकर मगर से बैर या आ बैल मुझे मार सरीखी बात ही नहीं है यह एक सरकारी मुलाजिम के लिए बल्कि उससे भी बढ़कर कि उसे  इस लाईलाज महारोग का कोई हल नहीं दीखता ..यह मनुष्य के आचरण,उसके संस्कार अर्थात लालन पालन, घर परिवार और दृष्टि-विवेक से जुड़ा मसला है. केवल सरकारी मुलाजिम ही नहीं भारत में भ्रष्टाचार घर घर तक पहुँच कर हमारे समाज और राष्ट्र के लिए एक बड़ी समस्या बन चुका है. कभी कभी तो  लगता है यह जैसे कोई आनुवंशिक बीमारी सा है जो पीढी दर पीढी चलता जा रहा है मगर इसके दीगर भी उदाहरण अक्सर मिलते रहते हैं .दो सगे भाईयों में एक बड़ा ईमानदार और दूसरा महाभ्रष्ट .एक ही मां बाप परिवार, संस्कार मगर फिर भी बड़ा  अंतर . यहाँ कुदरत के विभिन्नता का सिद्धांत समझ आता है :)  .कई ज्ञानी इस महारोग का औचित्य तक सिद्ध करते दिखाई देते हैं .दाल में नमक भर तो चलता है भाई? पता नहीं नैतिकता की किस तराजू से भ्रष्टाचार का माशा तोला ऐसे लोग तौलते हैं .फिर एक जुमला  यह भी अक्सर सुनाने को मिल जाता है कि अरे मन से और मूलतः तो भ्रष्ट  सभी हैं -जिसे मौके नहीं मिलते वे खुद को हरिश्चन्द्र दिखाने पर तुल जाते हैं -जाहिर है यह एक भ्रष्टाचारी का उद्धत वक्तव्य है . "


टीप भी देखते ही चलिए न ,


संजय @ मो सम कौन ? ने कहा…
आपकी आजकी पोस्ट से हद दर्जे तक सहमत| कुछ बातें कहना चाहूँगा -
- भ्रष्टाचार को प्रायः लोग सरकारी विभागों तक सीमित मान लेते हैं, ये अपने आप में एक बहुत बड़ा मिथ है|
- सरकारी व्यवस्था में ईमानदार आदमी कांटे की तरह ही होता है|
- भ्रष्टाचार का प्रभाव इतना व्यापक है कि आप अपने स्तर पर ईमानदार बने भी हैं तो बहुत संभावना है कि आपके नाम पर दुसरे खा कमा रहे हैं|
- whistle blower concept पर ज्यादा नहीं कहूँगा लेकिन अपने देश में जिस बंदे के हाथ में थोड़ी ताकत आ जाती है, वही बहती गंगा में हाथ धोने लगता है| और स्पष्ट कर देता हूँ, अपने आस पास देखियेगा तो RTI का दुरूपयोग ज्यादा होता दिखेगा बजाय सदुपयोग के|
इन सब बातों का ये मतलब न निकाला जाए कि इस रौ में बहना स्वाभाविक है, मतलब ये है कि ईमानदार होने के लिए ज्यादा काम, ज्यादा गलती, ज्यादा सजा के लिए मानसिक रूप से तैयार रहना बहुत जरूरी है| आप तो बड़े अधिकारी हैं, आप का तरीका सोच अलग हो सकती है लेकिन मैं एक साधारण सा मुलाजिम हूँ और मैंने यह पहले दिन से तय कर रखा है कि मुझे घूस नहीं लेनी है, किसी से undue benefit नहीं लेना है और जब और जहां मौक़ा मिलता है अपने डीस्क्रीशन का अपनी समझ में जेनुईन जगह पर प्रयोग करता हूँ, उसके लिए नियमों को गीता-कुरआन नहीं मान लेता|ये वो बातें हैं जिन्हें मैं खुद पर लागू कर सकता हूँ और इस सबके लिए किसी अन्ना, केजरीवाल या किसी और मसीहा का इंतज़ार नहीं करता| सौ प्रतिशत ईमानदारी की गारंटी नहीं देता, सौ प्रतिशत प्रयास की गारंटी देता हूँ| घूस लेता नहीं हूँ लेकिन कई बार देनी जरूर पड जाती है:(
'सम्वेदना के स्वर' पर डा.पी.सी.चरक वाली कड़ियाँ आपने पढ़ी हैं? न पढ़ी हों तो पढ़ देखियेगा, जिस व्यवस्था के हम पुर्जे हैं उसका एक अलग ही नजरिये से अवलोकन है|
आपकी 'नारी देह नारी मन' विषय विशेषज्ञता से इतर यह पोस्ट पसंद आई|

और ,

musafir ने कहा…
मेरा विश्वास है, अभी भ्रष्टाचार खून में है सॉफ हो सकता है. आनुवांशिक होने पर हमे सॉफ कर देगा.
मूल कारण हमारे समाज मे देश और अपने कर्तव्यों के प्रति निष्ठा का न होना.
आज़ादी के बाद एक ऐसी स्वतंत्रता मिली जिसने स्वतंत्रता के मायने ख़त्म कर दिये.

यहाँ माँ, बाप अपने बच्चे को इंजिनियर, डॉक्टर या आइ. ए. एस. बनाना चाहते हैं, इस लिए कि वो पैसा कमा सके, कहते भी हैं कि मेरा बेटा बड़ा होकर बहुत अमीर बनेगा. अच्छा इंसान, अच्छा नागरिक बने न बने. तो बच्चा पैसा खूब कमाता है, नं. एक का कमाये या दो का क्या फ़र्क पड़ता है.

मुझे इसका एक उपाय तो समझ आता है पर उसके लिए बहुत अड़चने हैं, पहली अड़चन है हमारे नेता जो इसे लागू नही होने देंगे.
अगर इस देश में प्राथमिक शिक्षा के बाद सभी ह को ४-५ साल के लिए, एक कठिन परिश्रम के साथ काम करते हुए शिक्षा प्राप्त करने को निर्देशित किया जाए, जहाँ देश के प्रति ज़िम्मेदारी, अच्छे इंसान बनाने की ज़िम्मेदारी जैसे मूल्य रोपित किए
जाए,और सरकार प्रतिबध हो की इस शिक्षा के दौरान रहने और खाने की अच्छी व्यवस्था हो और बाद में उन्हें रूचि अनुसार इंजिनियरिंग मेडिकल विज्ञान कला खेल के क्षेत्र में पढ़ाई करने का पूरा मौका दिया जाए.

देश की नागरिकता सिर्फ़ उन्हें दी जाए जो इस शिक्षा से गुजरें तो अगले २० सालों मे स्थिति मे सुधार हो सकता है. फिर चाहे वो नेता का लड़का हो या अंबानी बिरला का सबको इस देश की नागरिकता के लिए इस शिक्षा पद्धति से होकर जाना होगा.
इसके लिए मजबूत इरादों और प्रतिबद्धता की ज़रूरत होगी.
ऐसा मुश्किल है पर नामुमकिन नहीं. 


और ,

डॉ टी एस दराल ने कहा…
आर्थिक भ्रष्टाचारियों की किस्में :
* एक वो जो जन्म से भ्रष्ट हैं . ऐसे लोग रिटायर होने से पहले जेल नहीं जाते .
* दूसरे वो जो लालायित रहते हैं और अवसर मिलते ही पैसे में खेलने लगते हैं .
* तीसरे प्रलोभन को ठुकरा नहीं पाते . लेकिन हमेशा डरते भी रहते हैं .
* चौथे इतने डरपोक होते हैं --कभी ले नहीं पाते . सारी जिंदगी डरते ही रहते हैं .
* पांचवें जन्म से बेबाक और निडर होते हैं . वे कभी लेते नहीं .

अब देखा जाए तो यह तो जींस में ही घुला है --आप किस केटेगरी में आते हैं . हालाँकि कभी कभी परिस्थितयां और संगत भी मनुष्य को प्रभावित कर सकती हैं .
इस विषय पर साहसी लेख .



प्रशांत प्रियदर्शी यानी हमारा पीडी , हमारे उन बारात के निमंत्रण पत्रों की सूची में लंबर वन  पर है , जिनके बियाह के बहाने , पटना जाने घूमने का मौका मिल सकेगा । पिछले दिनों गैंग्स ऑफ़ वासेपुरमय हो गया था , दीवार से चित्रहार तक सिर्फ़ वासेपुर ही वासेपुर । देख के आने के बाद फ़िल्म समीक्षा लिख मारा है , बकिए ऊ जो कहे , हम लोग तो समीक्षा ही कहेंगे , देखिए ,




"हाथ के बुने हुए हाफ स्वेटर पहन कर पहलवान दोनों हाथो में मुर्गा टांग कर गली से जाते हुए दिखाना, या फिर मीट की नली वाली हड्डी सूंss कि आवाज के साथ चूसना, या फिर गोल गले के लोटे से स्नान करते हुए दिखाना, या फिर आइसक्रीम के लिए बच्चों कि शैतानी, या फिर सरदार खान का गिरिडीह के बदले गिरडी..गिरडी..गिरडी..गिरडी की आवाज लगा कर सवारी बटोरना. रात का खाना चीनी मिट्टी के प्लेट में परोसना क्योंकि मुसलमान घर आया है.. जाने कितनी ही हत्या सरदार खान कर चुका हो मगर जवान बेटे को लगी छर्रे से लगभग पागल सा हो उठना. फ्रिज के आने के बाद सब बच्चों का उचक-उचक कर उसे देखना और गृहणी का यह देखना की उसमें कोई खाली बर्तन तो नहीं रखा हुआ है! 
इसे देखने से पहले मैं कोई भी रिव्यू नहीं पढ़ रहा था. किसी तरह का पूर्वाग्रह लेकर नहीं देखना चाहता था. और मुझे सबसे अधिक अचंभित "जियs हे बिहार के लाला" गीत ने किया. जिस गीत को मैं फ़िल्म के शुरुवात में देखने कि उम्मीद कर रहा था उसे जिंदगी कि खुशी में नहीं, मृत्यु के जश्न के तौर पर लाया गया!

हो सकता है कि अनुराग जी ने कई लोगों को निराश किया होगा इस सिनेमा में गाली-गोली दिखा कर, मगर हर चीज को इतनी बारीकी से उन्होंने फिल्माया है जिसको कोई भी सिने छात्र देखना-सीखना चाहेगा. थैंक्स अनुराग जी को, हमें ऐसी सिनेमा देने के लिए!! "


आप जर इन मनुहारी चित्रों को देखिए और देख कर बताइए कि क्या इन्हें देख कर कोई आत्मा बेचैन रह सकती है  भला ,









चलिए अब देखते हैं कि अजित वडनेकर भाई के डिक्शनरी में कोन सा लबका वर्ड आया है , अरिस्स ये कहा वे तो आज गुण्डे की नेता से रिशेतादारी के बारे में पूछ बता रहे हैं ,हमें लगता है कि ये इत्तेफ़ाक ही होगा कि इसी भी अबू हमजा नामका एक ठो खूनी गुंडा का किसी मंतरी जी के गेस्ट हाउस में रुकने की खबर आई ,

"
शब्दों का सफ़र में ऐसे अनेक उदारहरण मिल जाएँगे जैसे ऐहदी, नौकर, चाकर, पाखण्डी, गुरु आदि। तथाकथित नेता इस बात से नाराज़ रहते हैं कि उन्हें गुण्डा कहा जाने लगा है । अब उन्हें कौन समझाए कि नेता वह है जो किसी समूह को राह दिखाए, अगुवाई करे । नेता शब्द की अभिव्यक्ति वाले न जाने कितने शब्द हैं जैसे-नायक, प्रमुख, प्रधान, सरदार, आक़ा, साहिब, गुरु वगैरह वगैरह । अब गुण्डों का सरदार भी नायक ही होता है । अब अगर गुण्डा शब्द के मूल में ही प्रधान और नेता जैसे भाव हों तो उसमें बुरा मानने की क्या बात है ! और बुरा ही मानना है तो खुद को नेता कहलवाना भी बंद कर दें क्योंकि नेता की अर्थवत्ता ने भी नकारात्मक रूप अपना लिया है । जब कोई व्यक्ति ज्यादा दंद-फद दिखाता है उसे नेता  कहते हैं । नेतागीरी शब्द पूरी तरह से नकारात्मक है जिसका अर्थ है निजी स्वार्थ के लिए लोगों को बरगलाना । "








ई नय मानेंगे जब तक कि इनको संसद से विशेषाधिकार समिति का नोटिस न आ जाए , ओइसे गुंडा महासभा का भी नोटिस मिलने की पूरी संभावना है ।


जिन्हें कविताई में हाथ आजमाने का पूरा मन है उनके लिए एक खुशखबरी है , यहां संजीव सारथि जी  , शब्दों की चाक पर -04 



लेकर आए हैं , और बता रहे हैं कि ,

"


1. कार्यक्रम की क्रिएटिव हेड रश्मि प्रभा के संचालन में शब्दों का एक दिलचस्प खेल खेला जायेगा. इसमें कवियों को कोई एक थीम शब्द या चित्र दिया जायेगा जिस पर उन्हें कविता रचनी होगी...ये सिलसिला सोमवार सुबह से शुरू होगा और गुरूवार शाम तक चलेगा, जो भी कवि इसमें हिस्सा लेना चाहें वो रश्मि जी से संपर्क कर उनके फेसबुक ग्रुप में जुड सकते हैं, रश्मि जी का प्रोफाईल यहाँ है.


2. सोमवार से गुरूवार तक आई कविताओं को संकलित कर हमारे पोडकास्ट टीम के हेड पिट्सबर्ग से अनुराग शर्मा जी अपने साथी पोडकास्टरों के साथ इन कविताओं में अपनी आवाज़ भरेंगें. और अपने दिलचस्प अंदाज़ में इसे पेश करेगें.

3. हर मंगलवार सुबह ९ से १० के बीच हम इसे अपलोड करेंगें आपके इस प्रिय जाल स्थल पर. अब शुरू होता है कार्यक्रम का दूसरा चरण. मंगलवार को इस पोडकास्ट के प्रसारण के तुरंत बाद से हमारे प्रिय श्रोता सुनी हुई कविताओं में से अपनी पसंद की कविता को वोट दे सकेंगें. सिर्फ कवियों का नाम न लिखें बल्कि ये भी बताएं कि अमुख कविता आपको क्यों सबसे बेहतर लगी. आपके वोट और हमारी टीम का निर्णय मिलकर फैसला करेंगें इस बात का कि कौन है हमारे सप्ताह का सरताज कवि. "




चिट्ठाचर्चा हमेशा से ही पाठकों को आकर्षित करती रही है , इसका एक अपन अलग अंदाज़ रहा है । आज इसमें अनूप जी ने , भाई अजित वडनेकर जी की एक लाइव वीडियो दिखा कर बता दिया कि

"हुनर यहां और भी हैं दिखाने को , वो तो वो छुपाए बैठे  हैं ,
यहां सुनने को बेताब हैं गीत उनके , वहां वो शर्माए बैठे हैं "


इस महफ़िल में जो आखिरी शेर उन्होंने खुद का लिखा हुआ  गाया है ,



"
मुद्दतों से नींद न मिली, ख्वाब बेपनाह हो गए ,
जब से हम तबाह हो गए , तुम जहांपनाह हो गए ....."



चलिए अब कुछ पोस्टों का रैपिड फ़ायर राउंड हो जाए


शराबी खरगोश:        उफ़्फ़ , तो खरगोश भी बेवडे हो गए


आओ बारिश ...आओ न :     अब इत्ता तो तडपाओ न    


मुझे क्षमा करना :  आपकी भलमनसाहत है जी


धरती तो पूरी लूट खाई हरामखोरों , जाकर गगन देखो :    कोई टिरिंग भिरिंग नहीं , जाकर अभी फ़ौरन देखो 


घर-बाहर :आते जाते रहना चाहिए


आंखों से  नींद बहे रहे :   क्या उम्दा बात कहे रे      


हाल सेरोविट्ज़ : किताबें देना :    हमें भी देना , जब पढ लेना


श्रीनगर के बाग बगीचे -चश्मे शाही     : पोस्ट लूट रही वाहवाही


नोट कोई नहीं जला सकता :     अजी , जला , हम कहते हैं कोई नहीं दिला सकता


चन्द्रमा की हेयरपिन :   आयं , मिस चन्द्रमा भी सीरीयल देखने लगीं शायद , हेयरपिन ...उन्हें भी


जिंदा होने का प्रमाण :        बर्थ सर्टिफ़िकेट लाइए श्रीमान  


हर युग के प्रारब्ध में :     दम है हर शब्द में


इन दिनों रहता है डिहाड्रेशन का खतरा :       हमरी बॉडी में हाय कितना रे लफ़डा  


बेडनी नाचती है सारी रात :  वाह वात बात में क्या खूब कह दी बात


परायों के घर :      अपनों सा कहां लगता है


कविता में आज आपके लिए हम अपने फ़ेसबुक मित्र नवीन कुमार चौरसिया जी की एक कविता को सहेज़ कर लाए हैं देखिए ,

Profile Picture

उम्र का एक ऐसा पड़ाव जहाँ पहुंचकर इंसान एक बार पीछे मुड़कर देखता है और सारी ज़िन्दगी के जद्दोजहद पर नज़र दौड़ता है और पाता है की सब कुछ करने के बाद भी मै अपने आखरी पड़ाव में आज असुरक्षित हूँ...तब सोंचता है....

शेष समय की सीमा पर घबराता - पछताता।


शेष समय की सीमा पर घबराता - पछताता।
चाह है अब भी उड़ जाने की,
साँस नहीं पर भर पाता,
है जान नहीं अब पंखों में,
अभिमान नहीं क्यों मर पाता,
रुका नहीं कभी जीवन में,
झुका नहीं कभी जीवन में,
हाथ नहीं कभी फैलाया,
जब चाहा जिस मंजिल को ,
खुद ही मैंने जय लाया,
इस स्वाभिमान को कैसे समझाता।
शेष समय की सीमा पर घबराता - पछताता ।।
जीवन तो है चक्र समय का,
चलता चक्र बदलता जीवन,
कई रंगों में ढलता जीवन,
खुद को ढालूँ चक्र समय -संग,
या बन वक्र विरोधी राग विरह के,
मन ही मन में गाऊं ;
कोई ये दुविधा सुलझाता ।
शेष समय की सीमा पर घबराता - पछताता ।।
बचपन और जवानी घिस गई,
तिल-तिल जोड़ ख्वाईशें पिस गई,
सब को खुश कर खुशियाँ पाया,
हाथ थाम कर राह दिखाया,
न उम्मीद की कोई, न सपना देखा,
बस अपनों को अपना देखा,
आज हुआ है रूप ये कैसा ,
सारी उम्र न देखा ऐसा ,
राही मंजिल को छूते ही,
भूल गए उस अंगुली को,
थामकर जिसको पहुंचे मंजिल,
बोझ कहते हैं उस साहिल को ।
गिद्धों की सी आँख पड़ी है,
मरने के पहले ही सर पे,
क्यों इंसानों- सा दीखते हैं ये,
जो पाल लिया मैंने इसे घर पे।
कैसी बुद्धि की भ्रष्ट, व्यथा है,
इस उम्र की मेरी करुण कथा है,
क्यों रोऊँ , चिल्लाऊं मै,
कैसे हंसू और गाऊं मैं,
हर पल , छल कर 
छिल दिया है छाती,
क्यों विषाद ये मौन दबाऊं मैं।
गर मशाल न हो मेरे हांथों में,
कैसे होगी रक्षा हमारी,
जीवन की शाम ढलने को आयी,
इस जंगल में हम दो नर-नारी;
अब सोंचा था जीवन जीने को,
कर्तव्य मुक्त निःश्वासे पिने को,
ये आश भी रह गई अधूरी,
ले पलकों पे मोती की ढेरी,
ये दर्द किसे मै दिखलाता, कहो कहाँ इसे दफनाता ।
शेष समय की सीमा पर घबराता - पछताता ।।
ये शान संपत्ति विरासत तो ,
गर्व, गुमान और गद्दी - सा -
चल , चंचल और निष्ठुर है,
आज किसी की सेवा में ,
कल किसी और की हस्ती है,
क्या मै मोह से कट जाता,
छोड़ लगाम सारथि से हट जाता,
बैठ किनारे देके इशारे -
क्या कृष्ण-सा,कर्म -फल का जीवन सत्य बताता,
या रुपये की जगह इंसान कमाता,
जो रुपयों से कोसों ऊपर आता,
और गाँधी की तरह "हे राम " बोलकर,
हजारों हृदयों में छा (बस) जाता ।
शेष समय की सीमा पर घबराता - पछताता ।।
 
और एक कार्टून देखिए

राहुल गाँधी ने क्या सीख लिया !!

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अच्छा जी , तो अब मुझे आज्ञा दीजीए । मैं चलता हूं , अपना ख्याल रखिए और पढते लिखते रहिए ।

लेखागार