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रविवार, 23 अप्रैल 2017

उम्मीद




रोज नई उम्मीदों के पानी से
खुद को मथती हूँ
आग जलाकर
 खुद को आकार देकर
तवे पर रखती हूँ
पलटती हूँ
जरा सा ध्यान भटका
जल जाती हूँ
झल्लाते हुए झाड़ती हूँ
...
भूख किसी तरह मिटाकर 
अगले दिन की बेहतरी की उम्मीद लिए 
सो जाती हूँ  ... 


मृग्‍ाया...... - रूप-अरूप - blogger


रोज मरते हैं रोशनी के लिए
अंधेरों की हमको फिक्र है कहाँ ?
फूलों की बात तो हर जुबाँ पर है
टहनी के उगे काँटों का जिक्र है कहाँ ?
पल-पल और घना हो रहा है सूनापन
खुश्क हवाओं के थपेड़ों से रीतापन.
मुर्दा जिस्मों की आवाज एक आहट है
बिना सुने कब से पहरा देता है मन.
सांस एक फन्दा है,जिंदगी का गला है
बीते पल मुजरिम हैं,कैसा अजीब फैसला है.
रात की इस कहानी में, हिज्र है कहाँ,
 रोज मरते हैं रोशनी के लिए
अंधेरों की हमको फिक्र है कहाँ ? 

4 टिप्पणियाँ:

yashoda Agrawal ने कहा…

बहुत सुन्दर प्रस्तुति
सादर

सुशील कुमार जोशी ने कहा…

बढ़िया बुलेटिन।

'एकलव्य' ने कहा…

सार्थक !संकलन ,आभार।

कविता रावत ने कहा…

बहुत बढ़िया बुलेटिन प्रस्तुति

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