बहुत अच्छा लगता है
जब आपके शब्दों की लोग तारीफ़ करते हैं. ख़ुद को बहुत अच्छा लगता है कि कभी सोचा न
था कि इतने सादगी भरे लफ़्ज़ों में इतनी गहराई छिपी होगी. लेकिन कभी-कभी ऐसा भी होता
है कि सारे लफ़्ज़ चुक जाते हैं, शब्द शेष हो जाते हैं, अभिव्यक्ति मौन हो जाती है
और आवाज़ें ख़ामोश हो जाती हैं. ये ख़ामोशी उस लाचारी की है जब दिल में बहुत कुछ कहने
की इच्छा होती है, लेकिन कहते हुये ज़ुबान पर ताले पड़ जाते हैं और डिक्शनरी के सारे
शब्द खोखले मालूम पड़ने लगते हैं.
सत्ताईस जुलाई को
मेरे पिताजी की पुण्यतिथि थी. उनकी याद में मैंने एक पोस्ट लिखी जिसपर एक कमेण्ट
आया:
”काश कि (मेरे) पापा भी इतनी इच्छा शक्ति दिखाएँ और सिगरेट छोड़ दें... आज सुबह
हॉस्पिटल के बेड पर मैंने ही जलाकर पिलाई... उनकी उँगलियों की ग्रिप में आजकल
सिगरेट नहीं आ रही है।“
हस्पताल, मरीज़,
पिता, पुत्र और सिगरेट... ये सारा कॉम्बिनेशन अजीब सा नहीं लगता? मुझे भी लगा था.
मैंने फ़ोन मिलाया और सारी बात जाननी चाही. मरीज़ की हालत इतनी संगीन होगी, सोचकर
कलेजा दहल गया.
अगले दिन ही एक एक
सन्देश मिला फेसबुक पर:
जानेतन्हा पे गुज़र जाए हज़ारों सदमे,
आँख से अश्क रवाँ हों ये ज़रूरी तो नहीं। (साहिर लुधियानवी)
आज पापा का 78वाँ जन्मदिन है... पर इस बार हमेशा की तरह हमलोग खुश नहीं हो पा
रहे हैं. पापा के साथ हम मिलकर लड़ रहे हैं... हमें भी चाहिये... परमवीरों को भी
दुआएँ चाहिए होती हैं.. आप सब की दुआएँ चाहिए।
दुआओं ने शायद
असर दिखाना शुरू कर दिया... 30 जुलाई को सन्देश मिला:
पापा की सेहत में आए सुधार को देखते हुये डॉक्टरों से घर
जाने की अनुमति मिल गई है. आप सभी की दुआएँ असर कर गई, ऐसे ही स्नेह बनाए रखिए।
वही दिन... अगला
मेसेज:
जब आपकी तेज़ रफ़्तार गाड़ी शहर की एक भीड़-भाड़ वाली सड़क पर
हूटर बजाती हुई बढ़ी जा रही हो और लोगबाग उस हूटर का सम्मान करते हुए दाएँ-बाएँ हो
गाड़ी को निकलने की जगह देते हों, यह दृश्य एक अलग अनुभूति को जन्म देता है.. पर वो
सुखद नहीं होती... जब वो गाड़ी एक ऐम्बुलेंस हो.
इन सारे मेसेज
में बिखराव, अस्थिरता और बेतरतीबी साफ़ दिखाई दे रही थी. मतलब, भले ही ऊपर से सारी
स्थिति नियंत्रण में हो, लेकिन माहौल तनावपूर्ण ही बना हुआ था.
अब होगा असली संघर्ष एक बार फिर से उठ खड़ा होने का अपने
आत्मबल के दम पर हमेशा की तरह... जीत आपकी ही होगी... और मुझे पूरा यकीन है... गेट
वेल सून पापा!
30 जुलाई के बाद
सन्देश नहीं दिखाई दिये. लगा सब ठीक ही चल रहा होगा.
5 अगस्त 2014... अपनी तमाम मसरूफियात के बीच अचानक रात में मैंने फ़ोन
मिलाया. उम्मीद थी ख़बर अच्छी ही होगी. लेकिन उधर से आवाज़ में वही थकान और मायूसी
एक उम्मीद में लिपटी हुई.
“अब कैसी है तबियत?”
”नहीं दादा! पार्शियल कोमा की हालत है!”
”खाना पीना?”
”लिक्विड दे रहे हैं वो भी पाइप से!”
”पहचानते हैं किसी को?”
”आँखें खोलते हैं बीच-बीच में...!”
”मुझे ख़बर करते रहना!”
”जी दादा प्रणाम!”
”खुश रहिये!”
मेरे अन्दर एक
अजीब सी बेचैनी घर कर रही थी!
06 अगस्त 2014:
ऑफिस के काम से कोर्ट
गया था. फ़ोन साइलेण्ट पर था. अचानक जेब में थरथराहट हुई और जब फ़ोन निकाला तो देखा,
मेसेज था. डरते-डरते मेसेज खोला.
“सब ख़तम!”
सनाक सा हो गया
मन. इतना ही उत्तर दे पाया “हे भगवान!!”
जब मोहलत मिली तो कई बार फ़ोन करने की इच्छा हुई. लेकिन मन कचोट
कर रह गया. आँखों के सामने घूम गयी वो सारी तस्वीरें!
आजतक उन्हें सिर्फ तस्वीरों में ही देखा. अपने पोते को
दुलारते. जन्मदिन पर, एनिवर्सरी के मौक़े पर, फ़ादर्स डे और न जाने कितने मौकों पर
कितनी तस्वीरों में उन्हें देखा किये. और आज जब वो हमें छोड़कर चले गये, तो एक बार
भी फ़ोन करने की हिम्मत नहीं हुई!
क्योंकि कभी-कभी ऐसा भी होता है कि सारे लफ़्ज़ चुक जाते हैं, शब्द शेष हो जाते हैं,
अभिव्यक्ति मौन हो जाती है और आवाज़ें ख़ामोश हो जाती हैं. ये ख़ामोशी उस लाचारी की
है जब दिल में बहुत कुछ कहने की इच्छा होती है, लेकिन कहते हुये ज़ुबान पर ताले पड़
जाते हैं और डिक्शनरी के सारे शब्द खोखले मालूम पड़ने लगते हैं.
परमात्मा बाउजी श्री
नन्दन मिश्र की आत्मा को शांति दे और भाई शिवम मिश्र तथा परिवार के सभी
सदस्यों को यह अपार दु:ख सहने की क्षमता प्रदान करे!
आज कोई लिंक नहीं... क्योंकि कुछ लिंक्स जब टूट जाते हैं तो बस उनकी चुभन बाक़ी रह जाती है और सम्य-समय पर बेचैन
करती रहती है!
ऊँ शांति, शांति शांति!!