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शनिवार, 31 दिसंबर 2011

बटोहिया बुलेटिन , बुलाए नया साल रे ....पोस्ट झांकियां





बात बात में भी भाई शिवम मिश्रा जी ने इस ब्लॉग बुलेटिन की रूप रेखा तैयार कर दी । उनके श्रम और कटिबद्धता से समृद्ध होता ये धीरे धीरे पाठकों के बीच पैठ बना ही रहा था कि इसे सरस्वती पुत्री आदरणीय रश्मि प्रभा जी ने २१ भागों की अपनी एक सहेजनीय  श्रंखला के स्नेह से आशीष दिया । पिछले इक्कीस दिनों में साल भर की चुनिंदा पोस्टों को अपने शब्दों के जादू में पिरो कर रश्मि प्रभा जी इस बुलेटिन को पाठकों के असीम स्नेह का पात्र बना दिया । आज वर्ष की आखिरी और वर्ष की पहली रात है । तो आइए देखते हैं आज के बुलेटिन में पोस्टों की झलकियां । कल बात करेंगे ब्लॉग बुलेटिन के कल की बात



दिनांक १-१-२०१२


नए वर्ष की नयी सुबह ..नया सूरज नयी रौशनी ..
यों तो आज भी रोज़ की तरह ही एक सुबह है ,पर नजरिया बदल गया है ...बायीं और लिखी जाने वाली दिनांक आज नए वर्ष का इशारा कर रही है..आज स्वागत  कर रही है उन ३६५ दिनों के नए साल का ..
चलिए नए सूरज से नयी ऊर्जा ले और एक दुसरे को विनम्रता से बोलें..
सुप्रभात .....नव वर्ष मंगलमय हो ..




चुप रहिये वे कुछ बोलने जा रहे हैं …..

image
चुप रहिए
वे कुछ बोलने जा रहे हैं
उपलब्धियों को वे
तौलने जा रहे हैं
भाइयों और बहनों
हमारा देश स्मूथली 'रन' कर रहा है
देखते नहीं कितनी आसानी से अपना काम
'गन' कर रहा है




हमें आप पर गर्व है, कि आप हमेशा 'गुरु' बने रह पाए!

मेरे 'गुरु' श्री त्रिलोकी नाथ द्विवे
आज की पोस्ट हमारे 'गुरु' श्री त्रिलोकी नाथ जी द्विवेदी पर है, जो पूर्व में एक सहायता प्राप्त विद्यालय में अध्यापक रहें हैं। बाद में नायब तहसीलदार में चयन के बाद प्रोन्नति उपरान्त आज अपने प्रशासनिक पद से सेवा-निवृत्ति प्राप्त कर रहे हैं। राजस्व प्रशासनिक जैसे महत्वपूर्ण पदों पर रहते हुए भी अपने स्वभाव, मूल्यों और सिद्धांतों से परे कभी नहीं हटे। जाहिर है जैसा पराभव का काल आज है, उसमे इन पदों में रह कर स्वयं की 'गुरुता' बचाए रखना भी बहुत बड़ा कार्य है। इस अवसर पर जल्दबाजी में ही सही यह समर्पण पोस्ट आप सब के समक्ष प्रस्तुत है। जीवन के उनके साथ बिठाये उन पलों को याद करना बहुत आसान है, क्योंकि बहुत कुछ कहे बगैर आचरण से भी सीखा जा सकता है और मेरे गुरु का आचरण और चरित्र ही मेरा असल 'गुरु' कहा जा सकता है।


 क्या कार्टूनिस्ट नहीं कर सकता भ्रष्टाचार का विरोध ??


कार्टूनिस्ट असीम के कार्टूनों की गूंज गुरूवार को राज्यसभा में भी सुनाई दी और सांसद Ram Kripal Yadav ने आपत्ति जताई कि संसद को ट्वाइलेट बताकर कार्टूनिस्ट Aseem ने देश की कथित सर्वोच्च संस्था पर निशाना साधा है. मजेदार बात तो यह है कि उसी सदन में आरजेडी के सांसद राजनीति प्रसाद ने अपनी राजनीति को चमकाने के लिये लोकपाल बिल की कापी फाड़कर फेक दी और हंगामा मचा दिया. मैं पूछता हूं कि क्या इसे देश के सवोच्च सदन का अपमान नहीं कहा जाएगा?


Ashish Tiwari


मिल कर करें अभिनन्‍दन ...2012 का














मैं भविष्‍य से वर्तमान बन,
तुम्‍हारी दहलीज़ पे
आ गया हूं
मेरी कांधे पे एक झोली है
विश्‍वास की
उसमें 365 दिन हैं
उसका पहला दिन
जब निकलेगा
तब मेरा नाम लेकर
सूर्य की किरणें
तुम्‍हारा अभिनन्‍दन करेंगी
तारीखें बदलेंगी
दिन नये आते जाएंगे


 छोटा सा यह एक झरोखा , पेश है साल का लेखा-जोखा

जनता के अन्नाने का साल, कांग्रेस के भन्नाने का साल |

टीम अन्ना का का जन लोकपाल, हर कीमत पर रोकपाल | 


भ्रष्टाचार के खिलाफ जिसने ताना टेंट, संघ का कहलाए एजेंट |

यू पी के चार टुकड़े, बहिनजी ने रोए दुखड़े |

बहुजन हिताय, करोड़ों का पार्क बनवाए |

सर्वजन सुखाय, खुद की मूरत पर माला चढ़ाए |

मेरी मेहमान खाने की अलमारी में

मेरी मेहमान खाने की
अलमारी में
कई किताबें करीने से
सजी हैं
कुछ तन्मयता से 
पढी गयी
जान पहचान वालों के बीच
उनकी चर्चा की गयी
कुछ के कुछ प्रष्ठ ही  
कई ऐसी भी हैं
जिन्हें खोल कर 
देखा भी नहीं
कुछ सालों से
कुछ महीनों से 
अलमारी की
शोभा बढ़ा रही हैं

ये दुनिया तो सिर्फ मुहब्बत

आने वाले कल का स्वागत, बीते कल से सीख लिया
नहीं किसी से कोई अदावत, बीते कल से सीख लिया

भेद यहाँ पर ऊँच नीच का, और आपस में झगड़े हैं
ये दुनिया तो सिर्फ मुहब्बत,
बीते कल से सीख लिया

हंगामे होते, होने दो, इन्सां तो सच बोलेंगे
सच कहने की करो इनायत,
बीते कल से सीख लिया


कविता के पन्नों मे नया साल: जेनिफ़र स्वीनी


अभी जब एक साल से दूसरे साल तक सत्ता-हस्तांतरण का वक्त नजदीक आता जा रहा है।ऐसे मे गुनगुनी धूप मे बैठ कर चाय की चुस्कियों के संग गुजर गये साल पर आत्मचिंतन करना सबसे स्वाभाविक और आरामदायक काम होता है। खैर, नया कैलेंडर टांगने से पहले पुराने हो गये इस कैलेंडर पर लगी तमाम उम्मीदों, खुशी, भरोसे, डर, आशंकाओं, कसमों की चिप्पियाँ साल के कुल जमा-हासिल की एक बानगी होती हैं। गुजरते साल के ऐसे ही हासिलों और आने वाले साल से बावस्ता उम्मीदों की इबारत को कविता के चश्मे से परखने की कोशिश हम भी करते हैं। सो आइये अगले कुछ दिनों मे देखते हैं कि कोई कवि वक्त के इस मुकाम को कितनी अलहदा नजरों से परख पाता है। इस सिलसिले मे सबसे पहले पेश है जेनिफ़र स्वीनी की एक अंग्रेजी कविता का हिंदी मे तर्जुमा। अमेरिका की इस युवा कवियत्री को कम उम्र मे ही कई अवार्ड्स से नवाजा जा चुका है। उनके कविता संकलन ’हाउ टु लीव ऑन ब्रेड एंड म्यूजिक’ (पेरुगिया प्रेस) की इस कविता मे जिंदगी की कुल गणित के टुकड़े बिखरे से नजर आते हैं।



बीत गये साल के लिये चंद कतरनें

मैने पाया है कि
औसतन विषम संख्या वाले साल
ज्यादा बेहतर रहे हैं मेरे लिये

मै उस दौर मे हूँ जहाँ मुझे हर मिलने वाला
लगता है उस जैसा
जिसे मै पहले से जानती हूँ



नए साल की शुभकामनाएँ और फैंसी ड्रेस

आजकल भोपाल में हूँ, एक्जाम्स हो गए है, और छुट्टियाँ चल रही है. 7th Jan’12 को मेरा रिजल्ट आने वाला है.
पिछले दिनों हमारे स्कूल में फैंसी ड्रेस कॉम्पिटिशन था. जिसका थीम “फ्रूट एंड वेजिटेबल” था.
और पता है मैं क्या बन कर गयी थी ? आप खुद ही देखिये :D
 Laviza
मैंगो…. मेरा फेवरिट फ्रूट :) 




चंद रोज़ और मेरी जान...



जा रहा है बचपन आ रहा पचपन ....

सुबह सुबह अच्छी खासी नींद लगी थी की बच्चों का शोरगुल सुना तो नींद खुल गई . कमरे से बाहर निकल कर देखा की परिवार के बच्चे कह रहे थे आज इकतीस दिसंबर है और कल एक जनवरी है अच्छी खासी पार्टी का जुगाड़ होगा . केक तो कटवा के रहेंगें चाहे कुछ भी हो अपने दादा (परिवार के बच्चे अब मुझे दादा संबोधित करते हैं) अब पचपन की और जा रहे हैं . पचपन की बात सुनकर मेरे तो कान खड़े हो गए और मुझसे रहा न गया .

मुस्कुराकर मैंने बच्चों से पूछा - क्या बात है क्या पार्टी सार्टी का जुगाड़ हो रहा है . एक छोटा सी बालिका जिससे रहा न गया तड से बोली - ताऊ कल आपकी जेब काटने की तैयारी चल रही है कल आपका एक जनवरी जन्मदिन जो है . कल एक जनवरी को मेरा जन्मदिन है . ५४ वर्ष की आयु पूर्ण कर मैं पचपनवे वर्ष में प्रवेश कर रहा हूँ . जितना उल्लास और उमंगें बचपन में जन्मदिन को लेकर रहता था अब वैसा उत्साह जन्मदिन मनाने के लिए नहीं रहता हैं .



गरीबी रेखा से ही तय होगा भोजन के अधिकार का फैसला

इस कानून से देश में खाद्य असुरक्षा बढ़ेगी

दूसरी और आखिरी किस्त


यह विधेयक खाद्य सुरक्षा के दायरे को बढ़ाने के बजाय कई मामलों में और सीमित कर देता है. इसमें खाद्य सुरक्षा के लाभार्थियों को ‘प्राथमिकता’ और ‘सामान्य’ के दो खांचों में बांटा गया है जो वास्तव में पहले से मौजूद बी.पी.एल और ए.पी.एल श्रेणियों के ही नए नाम हैं.

विधेयक में प्राथमिकता श्रेणी में शामिल लाभार्थियों में प्रत्येक व्यक्ति को सस्ते दर (दो रूपये किलो गेहूं और तीन रूपये किलो चावल) पर सात किलो अनाज मिलेगा जबकि सामान्य श्रेणी में शामिल प्रत्येक लाभार्थी को अनाज के न्यूनतम समर्थन मूल्य की आधी कीमत (मौजूदा कीमतों के आधार पर ६.५० रूपये किलो गेहूं और ५.५० रूपये किलो चावल) पर तीन किलो अनाज मिलेगा.

गुज़रे हैं लाख बार इसी कहकशां से हम

ये बेरहम साल भी गुज़र गया आख़िर। मनीष पिछले दस दिनों से कहते रहे, हाथी निकल गया है, दुम भी निकल जाएगी। वाकई हाथी जैसा ही था ये साल - मंथर चाल, मदमस्त जिसपर किसी का वश ना हो। वश यूं भी लम्हों, दिनों, सालों पर किसका होता है? जाने ये चित्रगुप्त महाराज किस देश में बैठते हैं और मालूम नहीं कैसी कलम हाथों में है उनके कि नियति की लिखाई हर रोज़ हैरान कर देनेवाली होती है। मिलेंगे कभी तो पूछुंगी, थकते नहीं? ज़रूरी है शख्स-शख्स की सांस-सांस के लिए कुछ नया लिख दिया जाए?

2011 में चित्रगुप्त का काम थोड़ा आसान कर दिया, अपने करम की कुछ लिखाई अपने हाथों से भी हुई। अब जब जायज़ा लेने बैठी हूं तो कटे-फटे, उलझे हर्फों में हिज्जों की एक हज़ार अशुद्धियां दिखाई देने लगी हैं। कोई अक्षर सही नहीं लगता, कोई वाक्य सीधा नहीं पड़ता। लेकिन मैं एक ज़िद्दी, अड़ियल और घमंडी किस्म की लड़की हूं। महाराज चित्रगुप्त से माफ़ी मांगते हुए अपनी लिखाई और उसकी गलतियों से ली गई सीख यहां दुहरा रही हूं, प्वाइंट बाई प्वाइंट। 




अलविदा ब्लाग तीसरा खंबा ...

स माह के प्रारंभ में भारतीय न्याय प्रणाली के क्षेत्र में एक अधिवक्ता के रूप में अपनी सेवाएँ प्रदान करते हुए मुझे 33 वर्ष पूर्ण हो चुके हैं। जब मैं ने इस क्षेत्र में कदम रखा था तो सोचा था कि अपने आस पास हो रहे अन्याय को कुछ तो कम करने में मेरा योगदान होगा। इस तरह मैं ने एक ऐसी आजीविका का चुनाव किया था जिस में मुझे लोगों को न्याय प्राप्त करने में सहयोग करना था। बहुत बाद में मैं समझ पाया लोगों को न्याय प्राप्त करने में मदद करना तो समाज का दायित्व होना चाहिए उसे भी इस व्यवस्था पेशा बना दिया है। बिना दाम के अपने हिस्से का न्याय प्राप्त करना दुष्कर ही नही असंभव है। निश्चित ही इस व्यवस्था को न्यापूर्ण नहीं कहा जा सकता। 



मेरे बाप पहले आप( लक्ष्य का बाल हट )


काम बाद में, पहले मैं  सुनूंगा गाने (लक्ष्य का हट)
प्रातः जब मैं लेप पर मेल वगैरह चैक कर रहा था तो मेरा 1वर्ष 9 माह का बच्चा लक्ष्य भी उठ खड़ा हुआ और लगा अपनी जिद दिखाने कभी लेपटॉप पर कोई की दबाता कभी कोई की  कभी हैड फोन को लेकर भागता कभी कुछ करता मैने म्यूजिक चलाया  और लक्ष्य के कानो पर हैडफोन रख दिया बस फिर क्या था झुमने लगा मैने फिर से मेरा काम शुरू कर दिया अब तो लेप का मालीक लक्ष्य बन बैठा आरे मेरा हाथ लेप टॉप पर से हटाने लगा कि अब आप दुर हटो उँह उँह करके इशारा करने लगा कि अब आप परे हट जाओ मुझे ही गाने सुनने दो सिफ अब तो मैं ही काम में लूंगा इस लेपटॉप को तो, काम बाद में पहले गाने और जमा लिया अपना पूरा अधिकार इस लेप पर में क्या करता




यों है ज़रुरी, ग़ज़ल हो पूरी !


पड़े रहते हैं कई शेर कि कभी सुधारेंगे, कि कभी करेंगे ग़ज़ल पूरी। कभी हो जातीं हैं तो कभी रह जातीं हैं, होने को। फिर कभी लगता है कि एक-एक अकेला ही दमदार है तो उतार क्यों नहीं देते मैदान में! संकोच भी होता है इस तरह सोचते मगर क्या करें कि जो सोचा उसे कैसे झुठला दें, क्यों सेंसर कर दें!? तो लीजिए फिर....



हथेली पर कोई गर जान रक्खे
तो मुमकिन है कभी ईमान रक्खे 13-11-2010
*
पहले रस्ता रोकेंगे फिर राह बनाना सिखलाएंगे
जीते-जी मारेंगे तुझको और फिर जीना सिखलाएंगे 24-11-2010
*
सारी दुनिया में नहीं है सच से भी सच्ची जगह
मैं यहीं पर ठीक हूं हां, जाओ तुम अच्छी जगह 16-07-2010




फलसफा

लबों पर इलज़ाम लगे हैं, खामोश रह जाने के लिए
मुजरिम अल्फ़ाज भी हैं, साथ न निभाने के लिए
है कहाँ मुमकिन बयान-ए-बेकरारी
ये फलसफा तो है बस समझ जाने के लिए

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सुशील कुमार
26 दिसम्बर, 2011
दिल्ली     

ठूंठ


अकेला खड़ा है वह,
दूर से ही दिखता है, 
एक ठूंठ की तरह, 
आसमान को ताकता,
एक ठूंठ की तरह,
कभी आबाद था,
लोग कहते हैं,
कभी मुस्कुराया करता था,

लोग कहते हैं,
प्यार के सपने देखे थे |

नैनों की भाषा



कभी किसी की याद में पलकें मेरी भीग जाती हैं
तो कभी ख़ुशी के मारे ये बिना वजह भर आती हैं
ना जाने ये आँखें क्या कहना चाहती हैं...

जो देख ले कोई प्यारभरी  नज़र से
शर्म से ये झुक जाती हैं
जागती आँखों से ही कितने, ख्वाब ये देख जाती हैं
ना जाने ये आँखें क्या कहना चाहती हैं...
 

 

एक्स्पोज़्ड:प्रशांत एंड स्तुति









  • भगवान कभी कभी बड़ा अन्याय करते हैं.पता ही नहीं चलता की किस गलती की सजा दे रहे हैं वो..अब देखिये न..इसे आप गलती ही कहियेगा न की भगवान ने जिंदगी में कुछ दो चार ऐसे लोगों से मिलाया जो हमेशा मेरे पीछे हाथ-पैर धो के पड़े रहते हैं..हमेशा मुझे सताते रहते है..कभी कभी तो बड़ा दिल करता है की ऐसे लोगों की किसी को सुपारी देकर इनका हाथ-पावं तुड़वा दिया जाए जिससे की कुछ अक्ल आये इन्हें.कुल मिलाकर देखूं तो ऐसे मेरे पांच दोस्त हैं जो हर एंगल से नालायक हैं.लेकिन जिन दो खास महानुभाव ने मुझे ये पोस्ट लिखने को मजबूर किया वो हैं...श्री श्री प्रशांत प्रियदर्शी जी और श्रीमती स्तुति पाण्डेय जी.

    मैंने जिंदगी में अब तक जितनी बड़ी बड़ी गलतियाँ की हैं उनमे इन दोनों से दोस्ती करने की गलती भी शामिल है...लेकिन मुझे लगता है की इनसे दोस्ती करने में मेरी कुछ खास ज्यादा गलती नहीं थी..दोस्ती करने के वक्त ये बड़े मासूम और भोले से थे..तभी तो इनसे मैंने दोस्ती की..लेकिन जैसे जैसे दिन बीतते गए, इन दोनों के मासूम चेहरे के पीछे छिपे शैतान के दर्शन भी होने लगे.कभी कभी तो मुझे ये शक होता है की शायद ये दोनों ने अपने शैतानी चेहरे को छिपा कर एक शरीफ चेहरे का मुखौटा लगा लिया था.
     
    हमारी ओर से और पूरी ब्लॉग बुलेटिन टीम की ओर से आप सब को नव वर्ष २०१२ की बहुत बहुत हार्दिक बधाइयाँ और शुभकामनाएं !



    शुक्रवार, 30 दिसंबर 2011

    प्रतिभाओं की कमी नहीं - अवलोकन २०११ (आखिरी कड़ी) - ब्लॉग बुलेटिन



    कई भागो में छपने वाली इस ख़ास बुलेटिन के अंतर्गत आपको सन २०११ की कुछ चुनिन्दा पोस्टो को दोबारा पढने का मौका मिला ! ऐसे वार्षिक अवलोकन आपको आगे भी पढने को मिलते रहेंगे !

    तो लीजिये पेश है अवलोकन २०११ की २१ वी और आखिरी कड़ी ...
     

    सुबह दोपहर , शाम, रात - पुकारा मैंने - कलम के , एहसासों के सहचरों को ,... किसी ने सुना , कुछ को एहसासों के समंदर से गोते लगा मैं ढूंढ लायी ... जो मेरा सामर्थ्य था , वह सामने है , पर इससे परे प्रतिभाएं और हैं . यह शुरुआत है , जब तक हूँ - वार्षिक अवलोकन करुँगी और अनगिनत प्रतिभाओं की ऊँगली थामकर मैं भी आपसबों से मिलती रहूंगी .
    लम्बी उड़ान भरूँ
    सपने सजाऊं
    तिनके चुन चुन
    घर मैं बनाऊं .... ब्लॉग जगत में इतने सशक्त लोग हैं कि यह साहित्यिक घर विस्तार ही पाता जायेगा ... आँगन, दीवारें, छत , दालान बचपन, यौवन , अनुभवी उम्र - सब है यहाँ .

    घर की क्या अहमियत है , जानिए डॉ टी एस दराल से http://tsdaral.blogspot.com/2011/01/blog-post_10.html
    "क्या आपने कभी किसी कुम्हार को चाक पर मिट्टी के बर्तन बनाते देखा है ? देखिये किस तरह वह मिट्टी को गूंधकर चाक पर घुमाकर मन चाही आकृति प्रदान कर मिट्टी के बर्तन बना देता है । पसंद न आने पर तोड़कर फिर एक नया बर्तन बना देता है ।फिर वह उसे अंगारों में दबाकर पका देता है । और बर्तन हो गए तैयार इस्तेमाल के लिए ।लेकिन अब यदि वह चाहे भी तो उन्हें तोड़कर दोबारा नए बर्तन नहीं बना सकता । " ऐसा ही होता है बच्चों के साथ ... उन्हें ऊँगली पकड़ चलना सिखाते हैं , संस्कारों के रंग देते हैं .... पर चूक गए तो फिर बदरंग रंग बदले नहीं जा सकते !!!

    अपने अपने में गुम , बदलते चक्र में , सीख के अभाव में वह बहुत कुछ खो हो गया है , जिसकी अहमियत हर छोटे - बड़े घरों में थी ...

    "याद है, एक शब्द हमारी भाषा में बहुत प्रचलित था " मनुहार " ! अक्सर हम इस शब्द का उपयोग अपने बड़ों को या उन्हें, जिन्हें देख हमारे चेहरे खिल जाते थे, को मनाने में उपयोग करते थे ! मान सम्मान के साथ, जब भी मनुहार की जाती थी, उस समय कठोर वज्र समान दिल को भी, पिघलते देर नहीं लगती थी !" पर अब अपने झूठे अहम् में रिश्तों की चिन्दियाँ उड़ रही हैं . प्राइवेट कम्पनी ने इतने पैसे दिए कि पैसे की होड़ में प्यार मर गया और पैसा रिश्ते नहीं बनाता , स्पर्धा बढ़ाता है ...

    हर शाख गिरवी , परिंदे परकटे से .......... किस दोस्त , किस मेहरबां की बात हो इस आलम में !

    चन्द्र भूषण मिश्र ‘ग़ाफ़िल’ http://cbmghafil.blogspot.com/2011/09/blog-post_25.html
    "वो तअन्नुद आपका हमसे हमेशा बेवजह,
    याद आता है बहुत तुझको गंवा जाने के बाद।" जब सबकुछ पास होता है, हम उसकी अहमियत से दूर होते हैं , खो जाने के बाद याद करते हैं !

    जीवन की सच्चाइयों के रंग अपने अपने होते हैं .... किसी को सागर की तलाश होती है , किसी को ख़ामोशी की -

    पल्लवी सक्सेना http://aapki-pasand.blogspot.com/2011/12/blog-post_05.html
    "कहते हैं हर दुख आने वाले सुख कि चिट्ठी होती है ,
    जैसे हर रात की सुबह होती है," दुःख सुख का संदेशवाहक होता है , उसकी भाषा में उलझकर मन डूबने लगता है, तभी सुख दस्तक देता है .

    अन्दर ही अन्दर जो पी लेते हैं गरल , उनके बिना बोले जो उन्हें समझ ले - प्यार की पराकाष्ठा उसे ही कहते हैं , आत्मा-परमात्मा का एकसार होना वहीँ दिखाई देता है ...

    "एक बात बताओ ,उद्धव !
    जब कृष्ण ने तुम्हे भेजा था 'हमें' समझाने के लिए,
    ख़ास मुझ बावरी को ही समझाने के लिए
    आने से पहले क्या तुमने देखी थी कान्हा की आँखें ?
    जिव्हा से तो कुछ भी कह दिया होगा निर्मोही ने " प्रेम के इस रंग में उद्धव ने वह ज्ञान पाया , जो किताबी नहीं थे . ऊपर से कुछ कहना सच नहीं होता , पर इसकी समझ उसे ही होती है, जो उस मन से ही जुड़ा होता है .

    समय कब रुकता है ... उसकी गति के आगे हमें विदा लेना होता है - चाहो न चाहो ... उत्तरदायित्व और भी हैं , जीवन के रंग और भी हैं . तो आइये हम एक साथ २०११ को विदा करें . गौर से देखिये उसके चेहरे पर प्रतिभाओं की गहरी चमक है और विश्वास कि आनेवाला साल भी इस चमक से परिपूर्ण होगा .

    सबकी ओर से इस मंच से मेरी रचना नए वर्ष के स्वागत में -

    "कई पुराने साल
    मन में
    प्रकृति की रगों में
    इतिहास के पन्नों में
    जीवंत मूल्यों के साथ जज़्ब अपनी गरिमा लिए -
    घोंसले से झांकती मीठी लाल चोंच
    डाली पर झूमती एक कोमल पत्ती
    और घड़ी की सूई के संग
    २०१२ के चेहरे से २०११ का घूँघट उठाते
    नए संकल्प का आह्वान करते हैं ...
    अपने प्रयासों का हिसाब
    नए हाथों में रखते हुए
    आशीर्वचनों के साथ
    दुआ करते हैं -
    " जो हम न कर सके वो तुम करना
    ईश्वर की हर रचना का मान रखना
    दुध्मुहें सपनों को ठोस जमीन देना
    जिनकी उम्मीदें डांवाडोल हैं
    उनका हौसला बनना ---
    तुम्हारे कदम २०१३ के लिए अनुकरणीय रहें
    ऐसे कुछ निशां ज़रूर बनाना ....
    पूरी दुनिया की आँखें ख्वाब संजोये है
    पलकें उठाओ
    हमारे साथ ओ २०१२
    तुम भी कहो
    - नया वर्ष तुम्हारा हो , तुम्हारा हो ...."

    रश्मि प्रभा

    गुरुवार, 29 दिसंबर 2011

    प्रतिभाओं की कमी नहीं - अवलोकन २०११ (20) - ब्लॉग बुलेटिन



    कई भागो में छपने वाली इस ख़ास बुलेटिन के अंतर्गत आपको सन २०११ की कुछ चुनिन्दा पोस्टो को दोबारा पढने का मौका मिलेगा !

    तो लीजिये पेश है अवलोकन २०११ का २० वां भाग ...
     

    एक तरफ प्यार
    दूसरी तरफ नफरत और भय ...
    ज़रूरत
    और खुद्दारी - अपनी पहचान की
    दुविधा कैसी ?
    प्यार से बढ़कर कोई खुद्दारी नहीं ! ......प्यार कहते ही सबकुछ ठीक हो जाता है , अस्त - व्यस्त घर भी व्यवस्थित हो जाता है - क्योंकि मन व्यवस्थित होता है . खुद्दारी के शर विषैले नहीं होते , स्थिर , अविचलित भाव से जीवन की ठोकरों में भी सार पाते हैं - सार , जो कभी गीत, कभी ग़ज़ल, कभी कहानी , कभी कविता बन बहते हैं ....

    अविनाश चन्द्र http://penavinash.blogspot.com/2011/01/blog-post_27.html
    "कविताएँ बुनी जा सकती हैं,
    प्रशांत महासागर के,
    सबसे गहरे तलौंछ पर,
    जो सटकाए बैठा है,
    भुवन जितने ही रहस्य।
    आकाशगंगाओं , राहुओं, केतुओं,
    राशियों-नक्षत्र दलों पर।
    अगणित विधुर उत्कोच दबाये,
    काल के प्रहरों पर।" बैठ शिला की शीतल छाँव ... मनु ने भी सृष्टि को जल प्लावित देख ऐसा सोचा होगा . सत्य की तलाश में भटकते एथेंस के सत्यार्थी ने भी कुछ ऐसा ही सोचा होगा , ..... रहस्यों की गुफा से सोच की कई किरणें निकलती हैं , हर किरण जीवन देती है . मृत्यु का वरन भी एक जीवन का आरम्भ है ...

    कहते तो हैं कि ' सत्यम ब्रूयात .. न ब्रूयात सत्यम अप्रियम ' पर सत्य अधिकतर कड़वा ही होता है और यदि तुमने कड़वे को नहीं पचाया तो रक्त शुद्धि संभव नहीं !

    श्याम कोरी उदय http://kaduvasach.blogspot.com/2011/12/blog-post_508.html
    "संकट के समय
    सभी जानवर एक हो जाते हैं
    किन्तु ऐंसा नजारा
    इंसानों में नजर नहीं आता !" इन्सान संकट में मज़े लेने लगता है , बड़ी तत्परता से पाप के फल गिनाने लगता है - अहमतुष्टि , स्वार्थ , उदासीनता का कटु जामा जब पहनता है तो सत्य तो कटु होगा ही . आह ! जानवर भी श्रेष्ठ ...

    दोषारोपण , अपनी कचहरी , अपनी दलील , अपना फैसला - व्यक्ति की नियत यही तो नियति डगमगायेगी ही . गिरे को उठाना आसान नहीं , भार लेना ही होता है ... पर देखकर कतराके निकलना या एक पत्थर अपनी ओर से भी मारना आसान है -

    "सहज है ना
    थूक देना किसी पर
    आक्षेप लगाना
    अकर्मण्य होने पर
    कहना तू व्यर्थ है
    जीवन बोझ है तेरा
    क्षणभर में
    धूसरित करना
    किसी का अस्तित्व " अस्तित्व को जो नाकारा सिद्ध करते हैं , वे नहीं देखते कि सभ्यता का लिबास उनके शरीर से किस तरह अलग होता जाता है . चंद मिनटों में पूरी ज़िन्दगी का हिसाब किताब संभव नहीं होता .

    जीवन तो संघर्ष है, बिना संघर्ष जीवन नहीं -' पेड़ के नीचे लेटा मुरख आम आम चिल्लाये , लेकिन डाल तलक जो पहुँचे आम उसीने खाए '

    "अनुकूल मौसम में तो हर कोई नाव चला सकते हैं
    पर तूफां में कश्ती पार लगाने वाले विरले ही होते हैं
    कठिन राह को जो आसाँ बना मंजिल तक पहुँचते हैं
    वही धुन के पक्के इन्सां एक दिन चैंपियन बनते हैं " सौ टके की बात है - लहरों के साथ तो कोई भी तैर लेता है, असली इन्सान वही है जो लहरों को चीरकर आगे बढे ...

    लहरों के साथ बहते बहते ज़रूरतें बदल गईं - रोटी ,कपड़ा और मकान के बदले टी.वी , मोबाइल और लैपटॉप की ज़रूरतें ऊपर हो गयीं -

    "दो वक्त की रोटी भी जिसे नहीं मिलती,
    उसकी संख्या सत्तर प्रतिशत के लगभग है,
    पर अमूल वाले अपने विज्ञापन में समझाते हैं कि,
    असली मक्खन के स्वाद पे सभी का हक है।" हैरां तो सब हैं, पर हैरानी में माँग यही है ,... बिना इसके कोई लाइफ स्टाइल नहीं है !

    ज़िन्दगी को कई बार परिभाषित किया गया है, पर प्रश्न आज भी ज्वलंत है कि ज़िन्दगी क्या है ,

    पी .सी. गोदियाल http://gurugodiyal.blogspot.com/2011/01/blog-post_27.html
    "जिन्दगी आइसक्रीम है,
    उसे तो वक्त के सांचे में
    हर हाल में ढलना है,
    तुम खाओ या न खाओ,
    उसे तो पिघलना है।" सोचके देखो, गंभीरता के साथ तो ज़िन्दगी आइसक्रीम से अधिक कुछ नहीं ... इसलिए बेहतर है समय रहते अपनी पसंद के फ्लेवर में इसे खा लो ... पसंद की फ्लेवर ना हो तो इमैजिन कर लो ... उधेड़बुन में दिमागी करघे पर धागा चलाते रहे तो कब पिघल जाए, पता भी नहीं चलेगा .
    मिट्टी अलग अलग किस्म की होती है - कुछ कुम्हार की ज़रूरत , कुछ मूर्तिकार , कुछ घर बनाने में , कुछ फूलों के लिए .... और कभी यूँ ही ,

    "हर संभव चीज़ को इतना असंभव किये हुए हैं हम अपने लिए कि,
    असंभव भी 'बस' संभव के समतुल्य ही असंभव है हमारे लिए." हमने कुर्सी को माथे पर रख लिया है , खुद ज़मीन पर - कुछ ऐसी ही स्थिति है सामान्य से असामान्य होने में , खोने से पाने और पाने से खोने में ....

    अमां भागदौड़ इतनी है , इतनी समस्याएं , इतनी ज़रूरतें कि दिमाग सन्नाटे में है .... सन्नाटे से बाहर निकलो और खुश होने की वजहें पाओ -

    "शुक्र मनाओ
    सड़क पर पीछे से किसी 4 व्हीलर ने नहीं ठोका।
    गड्ढो से सकुशल निकल गये।
    किसी गड्ढे में नहीं गिरे,
    गिरे भी तो
    नहीं गिरा, तुम्हारे ही ऊपर, तुम्हारा टूव्हीलर
    और तुम्हारा टूव्हीलर तुम्हारे ही ऊपर गिर भी पड़ा तो
    पीछे से आती बस तुम्हें,
    तुम्हारे टूव्हीलर सहित रौंदती नहीं चली गई।" जो रफ़्तार है ज़िन्दगी की कि रात में सही सलामत घर आना सुकून है , घर से निकलते समय भय साथ निकलता है , घर लौटकर आराम से दिल कहता है - शुक्र है, अच्छे भले घर लौटे ....

    तो शुक्र मनाइए कि जैसे तैसे यह साल निकल चला , नया साल आने को है .... सुख है तो दुःख है , अँधेरा है तो उजाला है - है न ?

    डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री मयंक http://uchcharan.blogspot.com/2011/12/blog-post_04.html
    "जिसने मन पर कर लिया, स्वामी बन अधिकार।
    मानवता का मिल गया, उसको ही उपहार।।" मन की चंचलता यदि वश में है तो जीने का मार्ग सरल है और यही प्राप्य है .

    जाते साल ने हमें बहुत कुछ दिया है .... खोने को भूलकर पाने को याद करें तभी उल्लसित हो आगत का स्वागत कर पाएंगे . तैयारी शुरू कीजिये , मैं भी लेकर आती हूँ एक आखिरी तोहफा लेकर , जिसे पाकर आपकी उम्मीदें , आपकी कोशिशें २०१२ में और बढ़ जाएँ ...

    रश्मि प्रभा

    बुधवार, 28 दिसंबर 2011

    प्रतिभाओं की कमी नहीं - अवलोकन २०११ (19) - ब्लॉग बुलेटिन



    कई भागो में छपने वाली इस ख़ास बुलेटिन के अंतर्गत आपको सन २०११ की कुछ चुनिन्दा पोस्टो को दोबारा पढने का मौका मिलेगा !

    तो लीजिये पेश है अवलोकन २०११ का १९ वां भाग ...



    मैं ख्यालों की एक बूंद
    सूरज की बाहों में कैद
    आकाश तक जाती हूँ
    बादलों के सीने में छुपकर
    धरती की रगों तक बहती हूँ
    कभी फूल, कभी वृक्ष में सौन्दर्य
    कभी गेहूं - कभी धान में समाकर
    गरीबों की थाली में सुकून बन
    ईश्वर का मंत्र बन जाती हूँ ......... मैं ख्यालों की एक बूंद हूँ !

    पुरानी संदूक में मैं तह दर तह होती हूँ , कभी खोलो तो धूप दिखानी ही होती है . बूंद बूंद नमी होती है संदूक में , जो कभी आँखों में छुप जाती है , कभी एहसासों में तैरती पन्नों पर उतर आती है -

    "पर सुनो तो
    मैंने फिर से उस संदुकची में
    लगा दिया एक नया ताला
    क्योंकि उन सहेजे यादों
    को फिर से नहीं चाहता
    अपने सामने देखना
    क्योंकि मैंने और उसने
    सीख लिया है
    नए जीवन में सांस लेना ..." एक दर्द का सैलाब फिर से बहा ले जाए , तो होना क्या है ! अतीत से यादों के सिवा कुछ बाहर भी तो नहीं आता . डॉ ढूंढता रहे मर्ज़ की दवा , उससे पहले संदुकची में ताला लगा दो . आवाज़े दूर तक पीछा करेंगी , लेकिन अनसुना करना होगा आगे बढ़ने के लिए !

    आगे बढ़ते हुए , पीछे के निशां अनुकरणीय ना बने तो जीने का कोई अर्थ नहीं ...

    त्रिलोक सिंह ठकुरेला http://triloksinghthakurela3.blogspot.com/2011/11/blog-post_8230.html
    "पक्षपात, अन्याय को देख रहे जो मौन।
    ‘ठकुरेला’ संसार मे उसे मान दे कौन।।" अन्याय सहना , अन्याय होते देखना व्यक्ति को दर्शाता है . सहते हुए अन्याय को बढ़ावा देना , देखकर आगे बढ़ जाना - दोनों सही नहीं है . तो इस बात का अर्थ समझिये और आगत को एक अर्थ दीजिये .
    राजेंद्र तेला जी ने इसी को मायने दिए हैं http://www.nirantarajmer.com/2011/10/blog-post_168.html
    "बुरे को बुरा ना कहूं
    अच्छे को अच्छा
    ना कहूं
    ये मुमकिन ही नहीं
    मेरी फितरत मुझे
    झूंठ बोलने देती नहीं
    आदत से मजबूर हूँ" सच बोलना चाहिए , ... अप्रिय हो तो भी , हाँ स्थान , वक़्त और लहजे का ख्याल रखना ही चाहिए .

    गुजरे कल और आज के बीच यादों का , संघर्ष का , खोने और पाने का एक कारवां सा होता है -

    मुहम्मद शाहिद मंसूरी 'अजनबी" http://naiqalam.blogspot.com/2011/06/blog-post.html
    "तंगहाली की वो आइसक्रीम
    चन्द रुपयों के वो तरबूज
    किसी गली के नुक्कड़ की वो चाट
    सुबह- सुबह
    पूड़ी और जलेबी की तेरी फरमाइश
    मुझे आज भी याद है
    कैसे भूल जाऊं" इसे लिखते हुए देवदास की पारो के स्वर मुखर हो उठे - ' देवा ओ देवाआआआ..." कैसे कोई भूल जाए उन पलों को , जहाँ से ज़िन्दगी को पंख लगे या जहाँ ज़िन्दगी ने दूसरे को पंख दिए या जहाँ पंख टूट गए . यादों की सुनामी में कभी डूब जाता है मन , कभी नई ज़िन्दगी पा लेता है .

    मन कभी स्थिर नहीं होता , एक जगह शरीर को रख संसार की परिक्रमा करता है - बिना टिकट , बिना मशक्कत , किसी को पता भी नहीं चलता ...

    "तिमिर के उस पार
    जाना चाहती हूँ
    एक नया गीत
    लिखना चाहती हूँ
    मैं और मेरे गीत
    खुद को पढूं और
    खुद को लिखूं
    मेरे बाद इसे
    पढना हैं किसने
    कागज़ और कलम
    के ज़रिये ...
    मैं और मेरे गीत " मन की उड़ान , मन की चाह - भला देर किस बात की . अपने सुकून को पाना है , खुद से खुद को जानना है !

    कई बार खुद से परे वह नज़र आता है, जिससे कोई रिश्ता न होकर भी एक रिश्ता बन ही जाता है . कोई नाम नहीं , पहचान नहीं , पर अपरिचित भी नहीं !

    राजेश उत्साही http://gullakapni.blogspot.com/2011_01_01_archive.html
    "बैग में किताबें नहीं होतीं
    पर असली ज्ञान होता है जीविका ..." इसे कहते हैं अपना अपना नज़रिया . कोई ऊपर ऊपर ही सबकुछ जीता है , कोई रद्दी की टोकरी में भी बहुत कुछ ढूंढ लेता है .

    चलिए चर्चित गज़लकार प्राण शर्मा जी की पसंद की ग़ज़ल से मुखातिब होते हैं -
    "सीने में ऐसा भी कोई अरमान होता है
    जैसे कि बाँध तोड़ता तूफ़ान होता है
    पलड़ा हमेशा उसका ही भारी है दोस्तो
    यारों के बीच शख्स जो धनवान होता है
    हर ठोर रौनकें हों ज़रूरी तो ये नहीं
    फूलों भरा बगीचा भी सुनसान होता है
    मौक़ा मिले तो आप कभी जाके देखिए
    घर में फ़क़ीर के सभी का मान होता है
    उड़ते हैं इक क़तार में वे किस कमाल से
    दिल सारसों को देख के हैरान होता है
    अपनी ही कहने वाला ये माने न माने पर
    सच तो यही है वो बड़ा नादान होता है
    ए `प्राण` नेक बन्दों की जग में कमी नहीं
    इन्सान में भी देव या भगवान होता है".... इन्सान में इंसानियत हो तो देवता नज़र आता है , हैवानियत की चर्चा क्या !

    अगली चर्चा के साथ मिलती हूँ .... तब तक के लिए आज्ञा दीजिये...

    रश्मि प्रभा

    मंगलवार, 27 दिसंबर 2011

    प्रतिभाओं की कमी नहीं - अवलोकन २०११ (18) - ब्लॉग बुलेटिन



    कई भागो में छपने वाली इस ख़ास बुलेटिन के अंतर्गत आपको सन २०११ की कुछ चुनिन्दा पोस्टो को दोबारा पढने का मौका मिलेगा !

    तो लीजिये पेश है अवलोकन २०११ का १८ वां भाग ...
     

    बादलों की गर्जना में , रिमझिम बारिश में , सिहरती हवाओं में ढेर सारे शब्द होते हैं , चुम्बक बना मन उनको लेता है और पिरो देता है .....बारिश से भीगी मिट्टी की सोंधी गंध सोधे सोंधे शब्द दे जाती है , सोंधे शब्द तपते मन को राहत देते हैं , पर जाने क्यूँ कभी कभी ऐसा भी होता है-
    अमित श्रीवास्तव http://amit-nivedit.blogspot.com/2011/04/blog-post_20.html
    "मै शाहखर्च नहीं,
    शब्दों को खर्चने में,
    पर क्या रिश्तों की भी,
    नीलामी होती है,
    जो ज्यादा शब्दों की,
    बोली लगाएगा,
    वही जीतेगा |" शब्दों में जीत क्या हार क्या ... नाप तौलकर बोले गए शब्दों से कुछ नहीं मिलता . यह तो स्वतः बनता है और कभी बिगड़ भी जाता है . परीक्षक की दृष्टि हो तो सारे शब्दों पर स्याही गिर जाती है , ऐसा भी होता है !

    पर तर्क को कुतर्क बनाकर जीतने में क्या मिलेगा ? मन से भाग लोगे क्या ?

    निधि टंडन http://zindaginaamaa.blogspot.com/2011/04/blog-post_19.html में कुछ ऐसे ही सवालों के साथ हैं ,
    "एक बात पूछूँ ,तुमसे..........
    कि
    तुम यह कैसे कर पाते हो कि ..
    जब तुमसे गलती हो जाती है
    तब इतनी ढिठाई से .....
    तर्क पे तर्क करते रहते हो
    बिना शर्मसार हुए .
    तुम तब तक यह सब करते हो
    जब तक मुझे एहसास नहीं करा देते
    कि
    जो गलती तुमने करी
    उसका कारण भी मैं ही हूँ ." कुछ लोगों को इसीमें सुकून मिलता है , खुद को बेदाग़ दिखाने में वे अपनी शान समझते हैं ! उनसे प्रश्न भी व्यर्थ है - क्योंकि अपने सवालों के चक्रव्यूह में वे खुद चिडचिडे बने रहते हैं !

    भिन्न भिन्न सांचे , भिन्न भिन्न खोज -
    प्रकृति भी तो बदल गई , नीरज गोस्वामी आज में पहले की खुशबू ढूंढ रहे हैं , http://ngoswami.blogspot.com/2011/07/blog-post_25.html
    "कोयल की कूक मोर का नर्तन कहाँ गया
    पत्थर कहॉं से आये हैं गुलशन कहॉं गया
    दड़बों में कैद हो गये,शहरों के आदमी
    दहलीज़ खो गयी कहॉं , ऑंगन कहॉं गया।" जाने कहाँ ! पहले तो कोयल अपनी कूक से परेशान कर देती थी , अब इमारतों के बीच कूक खो गई है ... कभी मिले तो कोई इत्तला करना हमें भी .

    तब तक बढ़ते हैं अमर प्रेम के जलते दीपक के निकट ...
    "तू भावों की थाली सजा
    आस दीप में
    कम्पायमान अरमानों की
    लौ को प्रखर कर
    जिन्दगी को उजास देती है." ... अँधेरा कैसा भी हो , यह विश्वास ही प्रोज्ज्वलित होता है और प्रेरणा बनता है .
    वरना एक गुमसुम ख़ामोशी के अँधेरे में कुछ नहीं दिखता -

    "इस गुमसुम खामोशी में
    ख्यालों की आंधियां लाते
    अनसुलझे सवालों में
    धूपिल छाँव तलाशते
    कैसे हैं ये जज्बात !" किनारे की तलाश , आत्मिक सुकून की चाह से भरे होते हैं जज़्बात ... तूफानों को चीरकर निकलते हैं

    जज़्बात के तारों पर उंगलियाँ रखिये , एक धुन तलाशिये ..... मैं जाकर आती हूँ...

    रश्मि प्रभा

    सोमवार, 26 दिसंबर 2011

    प्रतिभाओं की कमी नहीं - अवलोकन २०११ (17) - ब्लॉग बुलेटिन



    कई भागो में छपने वाली इस ख़ास बुलेटिन के अंतर्गत आपको सन २०११ की कुछ चुनिन्दा पोस्टो को दोबारा पढने का मौका मिलेगा !

    तो लीजिये पेश है अवलोकन २०११ का १७ वां भाग ...
     

    आँखों में एक नशा होता है , नशा ख्यालों का , नशा उसे जीने का .... कतरा कतरा उतरता जाता है सीने में , सुलगता जाता है ! यह आग ही ऐसी होती है कि इसकी तपिश से हर कोई गुजरना चाहता है ....... सर चढ़कर बोलता है ये नशा
    "उठा है वो गुबार कि अपने वजूद के पांव उखड़ जाएं, चढ़ा है वो बुखार कि तेरे ही जिस्म को पिघला कर फिर अशर्फी में ढ़ल जाए। ऐ मलिका-ए-नील... खोल अपने आंचल कि प्यास का मारा मैं तेरी रूह तक पहुँच जां दे सकूं। हटा वो परदा कि मेरे अंदर का सन्नाटा तेरे रानाईयों में जज्ब हो जाए। " इश्क का बुखार चढ़ता है तो चढ़ता ही जाता है ...

    कहीं इश्क कहीं ज़िन्दगी के दाव पेंच - शतरंज की बिसात और स्थिति !

    "थक गया मैं पूरी ज़िन्दगी शतरंज खेलते ...
    मेरे सारे सैनिक खोटे निकले" बचपन जब मासूमियत के बिस्तरे पर ख्वाब देखता है तो क्षणांश को भी यह ख्याल नहीं आता कि न सिकंदर रहेंगे न रहेगा अपने होने का सुकून , होगी सिर्फ थकान और हर खेल से विरक्त मन !

    ख़्वाबों की उड़ान बड़ी ऊँची , बड़ी ज़बरदस्त होती है .... एक सूरज की कौन कहे , ख़्वाबों में उभरे कई सूरज हथेलियों में रहते हैं - इस उड़ान के आगे बुद्धि भी हैरां होती है -

    "ख्वाब परिंदों की तरह होते हैं
    छूना चाहो तो ये उड़ जाते हैं
    और फिर हाथ नहीं आते हैं ..." एक तो ज़िन्दगी की रफ़्तार , उस पर ख्वाब - कई बार ठेस लगती है, जाने अनजाने - रिसता है खून या रिसता है मन , कौन जाने !

    पर डरना क्या ... हौसला है ज़िन्दगी से हर हिसाब किताब करने का .
    "आ जिंदगी तू आज मेरा कर हिसाब कर
    या हर जबाब दे, या मुझे लाजबाब कर " प्रश्न ज़िन्दगी से भी है , उसके जवाब का भी इंतज़ार है ... इंतज़ार है वो कुछ ऐसा कह जाए कि अपना आप लाजवाब हो जाए ...

    तो जीवन की तमाम राहों से आप रूबरू हों तब तक.... मैं आती हूँ कुछ नए एहसास लिए ...

    रश्मि प्रभा

    रविवार, 25 दिसंबर 2011

    प्रतिभाओं की कमी नहीं - अवलोकन २०११ (16) - ब्लॉग बुलेटिन

    ब्लॉग बुलेटिन की पूरी टीम की ओर से आप सब को ... 



    Merry Christmas!
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    कई भागो में छपने वाली इस ख़ास बुलेटिन के अंतर्गत आपको सन २०११ की कुछ चुनिन्दा पोस्टो को दोबारा पढने का मौका मिलेगा !

    तो लीजिये पेश है अवलोकन २०११ का १६ वां भाग ...
     



    पहला अनुभव माँ बनने का - शब्दों से परे है यह एहसास , जहाँ बचपन के गुडिया घर में कोई अपना आनेवाला होता है - एक पूरी ज़िन्दगी और माँ , एक अद्वैत रिश्ता ..... ईश्वर ने अपने निर्माण यज्ञ में माँ को बहुत उंचा स्थान दिया . ९ महीने किसी को अपने भीतर जीना , फिर एक एक बूंद दूध से उसे पालना , उसकी लोरी बन जाना - ..... सोचने से ही देवालय में होने सा लगता है . पर , एक बेटे की चाह में माँ के एहसासों की धज्जियां उड़ जाती हैं ....

    "कूड़े के ढेर पर दो नवजात बच्चियां
    बचा ली गईं ... " अखबार की यह सुर्खियाँ आँखों से बहती भी नहीं , न ही अन्दर कोई विस्फोट होता है , पर सोच के सारे स्रोत विस्मित होते हैं , क्या हैवानियत इससे अलग होती है . अपने खून को खून से रंगना इतना सरल होता है , स्वार्थ इतना बेरहम !!!

    भीड़ में भीड़ से परे कई चेहरे ऐसे होते हैं , जो न कहकर भी बहुत कुछ कह जाते हैं ....

    ज्योति मिश्रा http://hindiscribbles.blogspot.com/2011/12/blog-post.html
    "वो चेहरा, भीड़ में
    सुबकता, अकेला एक कोने में |
    कुछ तो गलत हुआ था, उसके साथ |
    वो आंसू पोंछते, उसके आंसू भरे हाथ |
    बहुत अजीब था, वो सब देखना
    उससे भी ज्यादा अजीब था,
    उसका यूँ इस तरह, इतना अकेला होना |" सबकी अपनी बेबसी , ... जीवन पर मृत्यु की छाया , क्या अर्थ है इन साँसों को , ये तो चलते हुए भी रुके होते हैं -

    विचार थमते नहीं ... 20 , 40 , 80 की रफ़्तार से दौड़ते रहते हैं मन के रास्तों पर ... काबू में लाते हुए एक अजीब सी आवाज़ होती है , अँधेरे का भी खौफ होता है -
    "मेरा मन एक धुआंधार ट्राफिक वाला रस्ता ।
    विचारों के छोटे, बडे , मझोले वाहन, बेछूट दौडते हुए । बडे विचार, छोटे विचार खरे विचार, खोटे विचार बुरे विचार, अच्छे विचार झूटे विचार, सच्चे विचार निरंतर दौडते रहते हैं साइकिलों, तिपहियों, कारों, बसों और ट्रकों की तरह । मै चाह कर भी इन्हे रोक नही पाती रोक सकती नही ।" ऊपर से ऐसा कुछ कहाँ पता चलता है , पर अन्दर आकस्मिक तोड़फोड़ होती रहती है और कांच बिखरे होते हैं .... खुद ही हटाओ , खुद ही रास्ते साफ़ करो - अगली रफ़्तार के लिए !

    पर ज़िन्दगी के सफ़र में गुज़र जाते हैं जो मुकाम , वो फिर नहीं आते -

    "पर इस बार वो नहीं होगी
    अपनी क्लास में केक काटने के लिए
    और उसका चेहरा chocolate और Cream से
    नहाया हुआ नहीं होगा" चलते चलते छूट जाता है जो चेहरा , वह यादों में होता है- नज़र नहीं आता . और हर साल किसी ख़ास दिन मन के दरवाज़े को जोर जोर से खटखटाता है ....
    बन्द कर देने से दरवाज़े बन्द नहीं हो जाते ...
    अपर्णा भटनागर http://manuparna.blogspot.com/2011/01/blog-post_24.html
    "मैं उन्हें जानती हूँ
    उनकी विधवा देह पर
    कई रजनीगंधा सरसराते हैं
    अपनी सुरभि से लिखती हैं वे
    सफ़ेद फूल
    और रातभर कोई धूमिल अँधेरा
    ढरकता है
    चौखट पर जलता रहता है
    देह का स्यापा ." मौसम कितना भी बदल जाए , बसंत के एहसास मर तो नहीं जाते ! गंगा बाँध में कहाँ बंधती है ....

    जो ना बंध पाए , उसपे चिंतन कैसा , बस समझना है ख़ामोशी से .... तो आप खामोश सोचिये , मैं कुछ और किनारों के हलचल लिए हाज़िर होती हूँ ...


    रश्मि प्रभा