कई भागो में छपने वाली इस ख़ास बुलेटिन के अंतर्गत आपको सन २०११ की कुछ चुनिन्दा पोस्टो को दोबारा पढने का मौका मिलेगा !
तो लीजिये पेश है अवलोकन २०११ का १८ वां भाग ...
बादलों की गर्जना में , रिमझिम बारिश में , सिहरती हवाओं में ढेर सारे शब्द होते हैं , चुम्बक बना मन उनको लेता है और पिरो देता है .....बारिश से भीगी मिट्टी की सोंधी गंध सोधे सोंधे शब्द दे जाती है , सोंधे शब्द तपते मन को राहत देते हैं , पर जाने क्यूँ कभी कभी ऐसा भी होता है-
अमित श्रीवास्तव http://amit-nivedit.blogspot.com/2011/04/blog-post_20.html
"मै शाहखर्च नहीं,
शब्दों को खर्चने में,
पर क्या रिश्तों की भी,
नीलामी होती है,
जो ज्यादा शब्दों की,
बोली लगाएगा,
वही जीतेगा |" शब्दों में जीत क्या हार क्या ... नाप तौलकर बोले गए शब्दों से कुछ नहीं मिलता . यह तो स्वतः बनता है और कभी बिगड़ भी जाता है . परीक्षक की दृष्टि हो तो सारे शब्दों पर स्याही गिर जाती है , ऐसा भी होता है !
पर तर्क को कुतर्क बनाकर जीतने में क्या मिलेगा ? मन से भाग लोगे क्या ?
निधि टंडन http://zindaginaamaa.blogspot.com/2011/04/blog-post_19.html में कुछ ऐसे ही सवालों के साथ हैं ,
"एक बात पूछूँ ,तुमसे..........
कि
तुम यह कैसे कर पाते हो कि ..
जब तुमसे गलती हो जाती है
तब इतनी ढिठाई से .....
तर्क पे तर्क करते रहते हो
बिना शर्मसार हुए .
तुम तब तक यह सब करते हो
जब तक मुझे एहसास नहीं करा देते
कि
जो गलती तुमने करी
उसका कारण भी मैं ही हूँ ." कुछ लोगों को इसीमें सुकून मिलता है , खुद को बेदाग़ दिखाने में वे अपनी शान समझते हैं ! उनसे प्रश्न भी व्यर्थ है - क्योंकि अपने सवालों के चक्रव्यूह में वे खुद चिडचिडे बने रहते हैं !
भिन्न भिन्न सांचे , भिन्न भिन्न खोज -
प्रकृति भी तो बदल गई , नीरज गोस्वामी आज में पहले की खुशबू ढूंढ रहे हैं , http://ngoswami.blogspot.com/2011/07/blog-post_25.html
"कोयल की कूक मोर का नर्तन कहाँ गया
पत्थर कहॉं से आये हैं गुलशन कहॉं गया
दड़बों में कैद हो गये,शहरों के आदमी
दहलीज़ खो गयी कहॉं , ऑंगन कहॉं गया।" जाने कहाँ ! पहले तो कोयल अपनी कूक से परेशान कर देती थी , अब इमारतों के बीच कूक खो गई है ... कभी मिले तो कोई इत्तला करना हमें भी .
तब तक बढ़ते हैं अमर प्रेम के जलते दीपक के निकट ...
"तू भावों की थाली सजा
आस दीप में
कम्पायमान अरमानों की
लौ को प्रखर कर
जिन्दगी को उजास देती है." ... अँधेरा कैसा भी हो , यह विश्वास ही प्रोज्ज्वलित होता है और प्रेरणा बनता है .
वरना एक गुमसुम ख़ामोशी के अँधेरे में कुछ नहीं दिखता -
"इस गुमसुम खामोशी में
ख्यालों की आंधियां लाते
अनसुलझे सवालों में
धूपिल छाँव तलाशते
कैसे हैं ये जज्बात !" किनारे की तलाश , आत्मिक सुकून की चाह से भरे होते हैं जज़्बात ... तूफानों को चीरकर निकलते हैं
सभी रचनाएं बहुत गहनता लिए हुए हैं .. सभी रचनाकारों को बधाई आपका इस बेहतरीन प्रस्तुति के लिए आभार ।
जवाब देंहटाएंबहुत अच्छा जी.... बेहतरीन प्रस्तुति के लिए आभार ।
जवाब देंहटाएंबहुत ही अनमोल मोती सहेजे हैं।
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर रचनाएं मिलीं इस बुलेटिन में दी....
जवाब देंहटाएंसादर आभार...
sabhi links bahut acchhe rahe.
जवाब देंहटाएंaabhar meri rachna ko sthan dene k liye.
अच्छों की कतार में खुद को खडा पाकर अच्छा लगा ....
जवाब देंहटाएंआभार ...:)
सादर अभिवादन! सदा की तरह आज का भी अंक बहुत अच्छा लगा।
जवाब देंहटाएंएक और बेहद खुबसूरत गुलदस्ता पेश किया आपने आज की इस बुलेटिन के रूप में ... आभार !
जवाब देंहटाएंभावनाओं की सहजता इसमें सर्वोपरि नजर आ रही है।
जवाब देंहटाएंसभी रचनाएं बेहतरीन..... आज का बुलेटिन बहुत सारे रंगों को समेटे हुए है...... मुझे नीरज जी की पंक्तियां विशेष रूप से अच्छी लगी.....
जवाब देंहटाएंकोयल की कूक मोर का नर्तन कहाँ गया
पत्थर कहॉं से आये हैं गुलशन कहॉं गया
दड़बों में कैद हो गये,शहरों के आदमी
दहलीज़ खो गयी कहॉं , ऑंगन कहॉं गया।
बेहतरीन..... शुभकामनाएं...
आप बहुत अद्भुत काम कर रहीं हैं...साल भर ब्लॉग जगत में प्रकाशित रचनाओं को छांट कर उन्हें बताना कोई आसान काम नहीं, ये काम बहुत सारी मेहनत और गज़ब की लगन मांगता है, आपके इस प्रयास की शब्दों में प्रशंशा करना संभव नहीं...मेरा नमन स्वीकारें
जवाब देंहटाएंनीरज
बहुत ही महत्वपूर्ण संदर्भ श्रंखला के रूप में स्थापित हो रही इस भगीरथी प्रयास के लिए रश्मि प्रभा जी का कोटि कोटि आभार
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