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बुधवार, 31 जुलाई 2019

ब्लॉग बुलिटेन-ब्लॉग रत्न सम्मान प्रतियोगिता 2019(अड़तीसवां दिन)लघुकथा,कविता

ब्लॉग बुलिटेन-ब्लॉग रत्न सम्मान प्रतियोगिता 2019 का अड़तीसवां दिन, समापन दिन है।  यूँ तो यह 24 जुलाई को खत्म होना था, परन्तु, पहली बार को ध्यान में रखते हुए प्रोत्साहन के तौर पर हमने इसे 31 तक कर दिया।

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हज़ारों वर्षों की नारकीय यातनाएं भोगने के बाद भीष्म और द्रोणाचार्य को मुक्ति मिली। दोनों कराहते हुए नर्क के दरवाज़े से बाहर आये ही थे कि सामने कृष्ण को खड़ा देख चौंक उठे, भीष्म ने पूछा, "कन्हैया! पुत्र, तुम यहाँ?"

कृष्ण ने मुस्कुरा कर दोनों के पैर छुए और कहा, "पितामह-गुरुवर आप दोनों को लेने आया हूँ, आप दोनों के पाप का दंड पूर्ण हुआ।"

यह सुनकर द्रोणाचार्य ने विचलित स्वर में कहा, "इतने वर्षों से सुनते आ रहे हैं कि पाप किया, लेकिन ऐसा क्या पाप किया कन्हैया, जो इतनी यातनाओं को सहना पड़ा? क्या अपने राजा की रक्षा करना भी..."

"नहीं गुरुवर।" कृष्ण ने बात काटते हुए कहा, "कुछ अन्य पापों के अतिरिक्त आप दोनों ने एक महापाप किया था। जब भरी सभा में द्रोपदी का वस्त्रहरण हो रहा था, तब आप दोनों अग्रज चुप रहे। स्त्री के शील की रक्षा करने के बजाय चुप रह कर इस कृत्य को स्वीकारना ही महापाप हुआ।"

भीष्म ने सहमति में सिर हिला दिया, लेकिन द्रोणाचार्य ने एक प्रश्न और किया, "हमें तो हमारे पाप का दंड मिल गया, लेकिन हम दोनों की हत्या तुमने छल से करवाई और ईश्वर ने तुम्हें कोई दंड नहीं दिया, ऐसा क्यों?"

सुनते ही कृष्ण के चेहरे पर दर्द आ गया और उन्होंने गहरी सांस भरते हुए अपनी आँखें बंद कर उन दोनों की तरफ अपनी पीठ कर ली फिर भर्राये स्वर में कहा, "जो धर्म की हानि आपने की थी, अब वह धरती पर बहुत व्यक्ति कर रहे हैं, लेकिन किसी वस्त्रहीन द्रोपदी को... वस्त्र देने मैं नहीं जा सकता।"

कृष्ण फिर मुड़े और कहा, "गुरुवर-पितामह, क्या यह दंड पर्याप्त नहीं है कि आप दोनों आज भी बहुत सारे व्यक्तियों में जीवित हैं, लेकिन उनमें कृष्ण मर गया..."

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मेरी फ़ोटो


कल रात मेरे पास आ गयी माँ शारदे
कहने लगी , कुछ प्रश्नों के मुझको जवाब दे
मैंने कहा माँ तुम तो स्वयं ज्ञान की दाता
कौन सा सवाल , जो तुमको भी न आता ?
मैं अदना सी अनजान सी , कुछ भी तो न जानूं
फिर भी हैं क्या सवाल ? एक बार तो सुनूं

पहला सवाल -फ़ैली क्यों भारत में भुखमरी?
आज़ाद भारत में भी क्यों फ़ैली है बेकारी ?
क्यों सोन चिडिया भूल रही अपने ही रास्ते ?
मर रहा क्यों आदमी पैसे के वास्ते ?
लालच में अंधा हो के क्यों ईमान वार दे ?
कल रात मेरे पास आ गयी माँ शारदे |

दूसरा सवाल- ज्ञान खो गया किधर ?
भ्रष्टाचार दीखता क्यों मैं देखती जिधर ?
गलियों में पनपे बाबा , कहते खुद को जग-गुरु
भारत में हो गयी ये कैसी सभ्यता शुरू ?
कहाँ गयी वो माँ जो अच्छे संस्कार दे |
कल रात मेरे पास आ गयी माँ शारदे |

तीसरा सवाल- जल रही क्यों बेटियाँ ?
रानी बनाकर राज कर रही क्यों चेटियाँ ?
क्यों माँ लगाती मोल स्व बेटे का इस तरह
व्यापारी बेचता हो कुछ सामान जिस तरह ?
क्यों बेटियों को जन्म से पहले ही मार दे ?
कल रात मेरे पास आ गयी माँ शारदे

चौथा सवाल – बोलो ये है जाति-पाति क्या ?खो गयी क्यों आज सारी कोमलता दया ?क्यों धर्म के नाम पर भगवान को बांटा ?मानवता के नाम पर क्यों चुभ रहा काँटा ?शर्मो-हया के गहने नारी क्यों उतार दे ?कल रात मेरे पास आ गयी माँ शारदे

पाँचवें सवाल ने मुझको हिला दिया |कहते हुए उसनें तो माँ को भी रुला दिया |कहती समझ न पाई मैं -नेता हैं चीज क्या ?धब्बा राजनीति पे , जिसनें लगा दिया |कहते स्वयं को सेवक . पर कुर्सी के लालचीसाम , दाम,दंड , भेद की न है कमी |कुर्सी बिना न रह सकें , ऐसा भी मोह क्या ?क्यों दीन दुखियों पर इन्हें आती नहीं दया ?इनकी चले तो देश का सर्वस्व वार दें |कल रात मेरे पास आ गयी माँ शारदे

सवाल है छटा , है लगता मुझको अटपटा |
खो गयी कहाँ -हरी सावन की थी घटा ?
सुन्दरता भी कुदरत की क्यों नष्ट हो रही ?
साँस लेने को भी वायु शुद्ध न रही |
मानव भू पे गन्दगी को ,क्यों पसार दे ?
कल रात मेरे पास आ गयी माँ शारदे

ध्यान से सुनो -ये मेरा प्रश्न सातवाँ |
मैंने कहा कर जोड़ -माँ मुझको करो क्षमा |
अब कहाँ हनुमान औ श्रीराम है बसा ,
इसीलिए सर उठा रही , धरती पे अब सुरसा
दे दो हमें वो शक्ति , जो सब-कुछ संवार दे |
कल रात मेरे पास आ गयी माँ शारदे
कहने लगी , कुछ प्रश्नों के मुझको जवाब दे
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 नूपुर शांडिल्य (मेरी जुस्तजू ही मेरी पहचान है)


नानाजी ने दी थी
नारायण की चवन्नी ।

कहा था,
संभाल कर रखना
इसे कभी मत खोना ।

ये भी कहा था,
जब सब खो जाता है,
तब काम आती है
नारायण की चवन्नी ।

बात सच्ची निकली ।
जब किस्मत खोटी निकली
तब चवन्नी ही काम आई ..
नारायण की चवन्नी ।

क्या नहीं खरीद सकती ?
चांदी-सोने की गिन्नी ?
पर मन का चैन देती
नारायण की चवन्नी ।

इस चवन्नी के बल पर
हम दुनिया से लड़ गए ।
बहुत हारे, पर हारे नहीं ।
हमारी मुट्ठी में जो थी,
नारायण की चवन्नी ।

अमीरी का हमारी
ठिकाना नहीं !
ठाकुरजी के दिए
ठाठ हैं सभी !
प्रारब्ध की कील
गड़ती नहीं ।
विरासत में हमको
सेवा मिली ।

रसास्वादन की
कला दी थी ..
रस में पगी
कथा दी थी ..

नानाजी ने दी थी
नारायण की चवन्नी ।

मंगलवार, 30 जुलाई 2019

ब्लॉग बुलिटेन-ब्लॉग रत्न सम्मान प्रतियोगिता 2019(सैंतीसवां दिन)कविता,ग़ज़ल




दिशा
दिशा जिन्दगी की, दिशा बन्दगी की, दिशा सपनों की, दिशा अपनों की, दिशा विचारों की, दिशा आचारों की, दिशा मंजिल को पाने की, दिशा बस चलते जाने की....
मिलिए दीपाली तिवारी से -
मेरा फोटो 


उदासी
https://deepali-disha.blogspot.com/2019/05/blog-post.html?m=1 

मत छोड़ तू उम्मीदियों का दामन,
तो क्या हुआ जो अभी देहरी पर है अंधेरा।
सब्र कर, तोड़ दे ये उदासियों के घेरे,
उस पार, इंतजार कर रहा है, एक नया सवेरा।।
सच, बहुत फर्क पड़ता है, तेरी सोच का,
हो आशावाद का या निराशावाद का कोहरा।
एक कठपुतली की तरह नाचता है इंसान,
और बन जाता है, सोच की शतरंज का मोहरा
तो उठ, और कर कल्पना , एक सुंदर कल की,
रोशनी से भरे, उज्ज्वल, हर खुशनुमा पल की
हटा दे अपनी सोच से, उदासी का पहरा
देख तेरा इंतज़ार कर रहा है, भविष्य सुनहरा।

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पुष्पेंद्र 'पुष्प' की ग़ज़ल-'हाय वो कितना सितमगर हो गया'

हम समझते थे कि दिलबर हो गया
हाय! वो कितना सितमगर हो गया

किस सलीके से निभाई थी वफ़ा
प्यार फिर भी रेत का घर हो गया

कौन पहचाने हमें इस भीड़ में
आइना भी जैसे पत्थर हो गया

देखकर उसकी अदा का बाँकपन
आज हर कोई सुख़नवर हो गया

वस्ल का इक पल मिला जो ख्वाब में
हिज़्र  का  ऊँचा  मुक़द्दर  हो  गया

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रिश्ते – आम का अचार
प्रज्ञा 

रिश्तों में, नया-ताज़ा कुछ नहीं होता।
उनमें बोरियत होती है।
एक जैसी सुबह
एक जैसी दोपहर,और शाम होती है।

फिर वही चाय,
फिर छुट्टियों में कहाँ घूमने जाएँ!
रिश्ते दादी माँ के हाथ का अचार हो जाते हैं,
जिनके बारे में सोच कर लगता है कि,
सीढ़ी घर की काठ की अलमारी में,
शीशे के बोइयाम हमेशा सजे रहेंगे।
कोई देखे न देखे।

कभी आम के टिकोले, कभी लहसुन-मिर्ची
कभी कुच्चों के गुच्छे, हमेशा बने रहेंगे
कोई सोचे न सोचे।

वो ज़रा से ढक्कन का हटना और
रेलवे के शयन कक्ष तक महक जाना,
हमेशा बना रहेगा
कोई पूछे न पूछे।

की जैसेे वो आम के अचार,
नवीकरणीय ऊर्जा के स्त्रोत हों,
जिनकी अनवरत आपूर्ति
एक निश्चित समय में हो ही जायेगी।

की जैसे गर्मी तो फिर आएगी ही,
पेड़ों में आम भी आएंगे।
पर कौन जनता था?
एक दिन बोरियत से ज़्यादा,
दूरियों के फांस गड़ जायेंगे।

गर्मी अब भी आती है,
पेड़ों में आम भी आते हैं,
पर धूप !
धूप मेरे छठे माले की खिड़की पे,
झांक कर चली जाती है।
जैसे शिकायत कर रही हो!

“शीशियों की देखभाल की थी तुमने?,
“बस खाने की फ़िराक थी तुमको!”
“कभी सोचा था कितने मुश्किल से बनते थे,”
“कितना नमक, मिर्च-मसाला,और हाथ के बल लगते थे।”
“अब नया ताज़ा मिलता है ना!”
“भर भर कर,कारखानो से !”

मुझे इतना कुछ वाकई पता नहीं था,
बस याद है , अचार कई दिनों में बनता था।
ठहाकों में कटता था, बाल्टी भर,
घर की औरतों के कह कहों से
बीच-बीच में बुलाहट आती थी:
“जा चद्दर पसार,
खाट लगा कर आ!
छोटे वाले छत पर!”
मुंह फुला के उठती थी,
टी. वी.जो बंद करना पड़ता था
अचार की कामगारी पर।
मुझे वो बोरियत अच्छी लगती थी।
अलसायी दोपहर की ताज़ी सांस अच्छी लगती थी।
बिना बात मेरे लिए किसी की फिकर अच्छी लगती थी
अच्छा लगता था मुझे तुम्हारा दौड़कर लिपट लेना।
जैसे ये अहसास आजीवन विद्यमान रहेंगे
अचल सम्पत्ति बन कर
समय भूल जायेगा मेरे घर का रास्ता
करीबी रिश्तेदार बनकर!

समय भूल जायेगा मेरे घर का रास्ता
करीबी रिश्तेदार बनकर!

सोमवार, 29 जुलाई 2019

ब्लॉग बुलिटेन-ब्लॉग रत्न सम्मान प्रतियोगिता 2019(छतीसवां दिन)कविता




मेरी फ़ोटो
रेणु  
रचनात्मकता के छोटे से प्रयास के रूप में ब्लॉग लेखन | मूलतः पढना ही सर्वोपरि |




 चाँद नगर सा गाँव तुम्हारा
 भला ! कैसे पहुँच पाऊँगी मैं ?
 पर ''इक रोज मिलूंगी तुमसे  ''
कह जी को बहलाऊंगी मैं | !!

मौन साधना  तुम  मेरी  ,
मनमीत ! तुमसा  कहाँ   कोई प्यारा ?
मन -क्षितिज पर  स्थिर  हुआ  -
 तुम्हारी  प्रीत  का झिलमिल तारा ;
 इक पल  भी तुम्हे भूल भला  
कैसे  सहज जी पाऊँगी मैं ?

जगती आँखों के सपने तुम संग -
देखूं !कहाँ अधिकार मेरा ?
फिर भी  पग -पग संग आयेगा -
ये  करुणा  का उपहार मेरा ;
ले  ख्वाब  तुम्हारे आँखों में -
हर रात यूँ ही सो जाऊंगी मैं -
   
एकांत भिगोते  नयन - निर्झर -
सुनो ! मनमीत तुम्हारे हैं ,
मेरे पास कहाँ कुछ था -
सब गीत तुम्हारे हैं ;
 इस दिव्य ,  अपरिभाषित प्यार को 
रच गीतों में अमर कर जाऊंगी मैं !!

 तुम ! वाणी रूप और  शब्द रूप ,
तुम ! स्नेही मन- सखा मेरे ; 
  बांधे रखते स्नेह  -  डोर में  -
  तुम्हारे  सम्मोहन  के घेरे  ; 
थाम  इन्हें जीवन-पार कहीं -
आ तुममें  मिल जाऊंगी मैं -
चाँद नगर सा गाँव तुम्हारा - 
भला ! कैसे पहुँच पाऊँगी मैं ?

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अनिता ललित 


प्यारी बेटियाँ 
https://boondboondlamhe-anita.blogspot.com/2016/09/blog-post_24.html  

भोर सी सुहानी होती हैं बेटियाँ !
पाँव पड़ते ही जिनके
हो जाता है घर में उजाला,
सूरज की किरणों सी-
बिछ जाती हैं,
ढक लेती हैं,
हर अँधेरे कोने को
अपनी सुनहरी आभा से !

रिमझिम बूँदों सी होती हैं बेटियाँ !
मचलती, थिरकती, गुनगुनाती
भिगोती, मन लुभाती,
मिटा देती हैं थकन
और आँगन का सूनापन,
अपनी चंचल किलकारियों
और अंतहीन
मख़मली बातों से !

मंदिर की घंटियों सी होती हैं बेटियाँ !
गूँजती रहती है जिनकी बातें
कानों में,
और थपथपाती हैं
दिलों के द्वार,
लेकर मन में
चंदन की सुगंध,
कर देती हैं पावन
हर उस शय को
जो होती है उनके आसपास
अपने स्नेहिल स्पर्श से !

माँ की दुआओं सी होती हैं बेटियाँ!
जो रहती हैं बन कर परछाई
पिता और भाई के साथ !
बचाती हैं हर संकट से उन्हें,
संभालती हैं
हर मुश्किल घड़ी में ,
देकर मज़बूत सहारा
अपने विश्वास का,
थामती हैं, भरमाती हैं
अपनी मासूम संवेदनाओं से !

चोट पर मलहम सी होती हैं बेटियाँ!
खींच लेती हैं
हर दर्द को ,
सहलाती हैं प्यार से,
धोती हैं अपने आँसुओं से
उस ज़ख़्म को,
जो दिखता नहीं किसी को
पर महसूस करती हैं वो
अपनी आत्मा की गहराई से !

शीतल चाँदनी सी होती हैं बेटियाँ !
देती हैं सुक़ून,
ग़म के घने बादलों को
हटाकर,
मिटाकर अँधेरी-स्याह रातों की
कालिमा,
उबारती हैं,
देती हैं हिम्मत
अपने मासूम आश्वासनों
और स्निग्ध,
निश्छल मुस्कानों से !

घर का उल्लास होती हैं बेटियाँ,
हर दिल की आस होती है बेटियाँ,
पूजा की ज्योत होती हैं बेटियाँ,
बरसता है ईश्वर का नूर सदा उस दर पर,
हँसती-खिलखिलाती हैं जिस घर में प्यारी बेटियाँ !!!

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 रेणु सिंह  



हे भगीरथ ! सुनो,
 तुम्हारे याचना, वंदना से
द्रवित ,क्षरित मैं
अवगुंठन को तोड़
प्रबल प्रवाह के साथ
निकली थी,,,
तुम्हारी अनुनय,विनय,प्रार्थना से
ध्यानलीन शान्त स्थितिप्रज्ञ
भोले शम्भू महादेव ने जटाओं को खोल
थाम लिया मेरा वेग,
उन्माद,निनाद, उल्लास ,में,
मैं भागीरथी ,,,
शिव की जटाओं में
संकुचित, सिमट
जब निकली
तुम्हारी अनुचरी बन
चल पड़ी
तारने तुम्हारे पुरखे
 सगर- पुत्रों की भस्म ।
हे भगीरथ,मैंने वचन निभाया
भस्मीभूत तुम्हारे पुरखे
स्वर्गगामी हुये ।
तारिणी,जान्हवी,सुरसरि बना
मेरी वलय को  तोड़
मेरी छाती पर चढ़
लील लेना चाहते हैं
मनुपुत्र ।
कह दो इन्हें
हिमाचल सुता हूँ मैं
जब प्रलयंकर रूप धर
 लील जाऊंगी तुम्हारे दम्भ
मिटा दूंगी तुम्हारा अहंकार
बनाते रहोगे बांध,,
पाटते रहोगे मेरे पाट
बांधते रहो,
कल्प भर में जलप्लावित कर
समा लुंगी धरती को ।
देखते रहना किसी पर्वत के
उतंग शिखर से
किंकर्तव्यविमूढ़,,,,,।

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ऐसा कुछ लिखने की चाहत जो किसी की जिंदगी बदल पाए ...मन के अनछुए उस कोने को छू पाए जो इक कवि अक्सर छूना चाहता है ...काश अपनी लेखनी को कवि-काव्य के उस भाव को लिखने की कला आ जाये ....फिलहाल आपको हमारे मन का गुबार खूब मिलेगा यहाँ ...जो समाज में यत्र तत्र बिखरा है ..| दिल में कुछ तो है, जो सिसकता है, कराहता है ....दिल को झकझोर जाता है और बस कलम चल पड़ती है |
सविता मिश्रा जी की रचना 


नाच-नाच के
थक गयी जब मैं
बैठ़ गई सुस्ताने
पेड़ की छाँव में
पलक झपकते पेड़
पेड़ ही न रहा
मजबूरन कंक्रीट के जंगलों में
छाया की तलाश में
भटक रही हूँ
समय पंख लगा
उड़ गया पल भर में
हताश मैं
अंधी गली के
कोने में पड़ी
जीवन का
चिन्तन कर रही हूँ
एक एक करके
यादों की परत हटाते हुए
देखो तो मैं मूरख
अपने आप से ही
बात कर-करके
कभी आँखों में नमी
और कभी चेहरे पर हँसी
बिखरा रही हूँ
हठ़ात सडाँध का एक झोंका
मुझे हकीक़त के
दायरे में खींच लाता है
मैं सोच रही हूँ
आयेगा एक दिन ऐसा ही
सभी के जीवन में
फिर भी
भविष्य के लिये
वर्तमान को
दांव पर लगते देख
घबरा रही हूँ मैं
स्वयं की जैसी गति देख
सभी गतिमान की
बेचैन हुई जा रही हूँ मैं
तरक्की की अंधी दौड़ में
भागते-भागते
जीवन की सच्चाई से
रूबरू होकर
फिर से पेड़ की छाँव
तलाश रही हूँ मैं
कठपुतली सा मुझे
नचा-नचा के तू न थका पर
नाच-नाच के थक गयी हूँ मैं |
 

रविवार, 28 जुलाई 2019

ब्लॉग बुलिटेन-ब्लॉग रत्न सम्मान प्रतियोगिता 2019(पैंतीसवां दिन)कहानी, कविता




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सरस दरबारी जी का ब्लॉग यादों का एक काफिला है, जो पृष्ट दर पृष्ट पूरा जीवन बन गया जिसमें गाहे बगाहे, कुछ सुरीले, सुखद क्षण, .....उनके हिस्से की धूप बन गए... 
बैठे होंगे आप कभी न कभी उस भीनी धूप में, उस गुनगुनी धूप में आज फिर 

अजन्मी - मेरे हिस्से की धूप

  

आज मैं आज़ाद हूँ -मौसम के थपेड़े झेलने के लिए -जंगली जानवरों द्वारा नोचे जाने के लिए -या फिर किसी नदी नाले की मैली  धारा में बह जाने के लिए -
मैं आज़ाद हूँ -
आज़ाद हूँ अपनी माँ की कोख से...एक अजन्मे के लिए सबसे महफूज़, सबसे सुरक्षित जगह- जहाँ वह निश्चिन्त  ...ऑंखें मूंदे पड़ा रहता है - दुनिया के छल-कपट से बेखबर, दुनिया के दुःख दर्द से दूर , हर डर से परे आज मैं आज़ाद हूँ उसी कोख से जो मेरे लिए कभी थी ही नहीं ....
मेरे माता पिता एक बेटा चाहते थे, उन्ही अनगिनत लोगों की तरह बेटी जिनके लिए बोझ है- एक दु:स्वप्न , एक ज़िम्मेदारी, क़र्ज़ का पिटारा -एक अभिशाप !
तभी तो मुझ जैसी न जाने कितनी हैं त्यक्त ! अभिशप्त !!
    मेरे पिता भी एक बेटा चाहते थे ...दो बेटियों के बाद एक और बेटी का 'लांछन' उन्हें मंज़ूर नहीं था .
"लोग क्या कहेंगे?"
उन्होंने लोगों की परवाह की....और एक डॉक्टर से मिलकर मुझे निकाल फेंकनें का निश्चय कर लिया .
    वह रात बहुत भयावह थी ...चारों तरफ घुप्प अँधेरा .
तेज़ आंधी तूफ़ान से खिड़की दरवाज़े बेकाबू हो रहे थे .बारिश की बौछारें भालों की तरह चुभ रही थीं .
आसमान फटा जा रहा था -मानो सारी सृष्टि इस विनाश से रुष्ट हो . एक प्रकोप की तरह बिजली कड़कती और गडगडाहट से माँ की चीख दब जाती .
       मेरी माँ दर्द से तड़प रही थी . डॉक्टर का दिया हुआ इंजेक्शन काम कर रहा था -
सारा पानी 'मेरा सुरक्षा कवच' बह गया था, और साथ ही बह गयीं थीं, मेरे जीने की सारी उम्मीदें .
मैं रह रहकर माँ की कोख में लोटती रही और माँ खून पानी में सनी -बिस्तर पर पड़ी तड़पती रही. और पिताजी ...हम दोनों की दशा देख दूर खड़े कसमसाते रहे. माँ हर बार जोर लगाकर मुझे निकालना चाहती , और मैं हर प्रयास के साथ उनके सीने मैं और दुबकती जाती.
       माँ दो ढाई घंटे कोशिश करती रहीं और थक कर चूर हो गयीं-उनकी हिम्मत टूट चुकी थी लेकिन मैंने उन्हें कसकर भींच लिया था ...मैं बहार नहीं जाना चाहती थी.
तभी अचानक माँ ने बैठकर जोर लगाया, चौंककर  मैं सहारे के लिए लपकी, लेकिन तभी फिसलकर बहार आ गयी....सब कुछ ख़त्म हो गया .
  माँ को देखा वह मुझसे मुंह छिपा रही थीं...उन्हें अपनेसे ग्लानि हो रही थी..वह मुझसे आँख मिलाकर कभी अपने आपसे आँख नहीं मिला  पातीं..
उन्होंने मुझे नहीं देखा -उन्हें  डर था वे अपनी ममता को नहीं रोक पाएंगी.लेकिन मैंने माँ का चेहरा देखा था. अनगिनत भाव थे उनकी आँखों में.मैंने तैरते हुए आँसुओं में उन्हें देखा था ..पहचाना था . उन में परिस्तिथियों से न लड़ पाने की असह्याता थी , ऐसा कुकर्म करने का दुःख, पीड़ा ,ग्लानि और शर्म थी, अपने अंश को अपने से अलग कर देने की विवशता थी. मुँह  फेरकर माँ ने उन सभी भावों को मुझसे  छिपाना चाहा था.
  फिर नर्सने मुझे एक कपडे में लपेटकर पिताजी को सौंप दिया,"इसे ले जाईये ".
पिताजी की नज़र ज़मीन पर गढ़ी थी...गर्दन ग्लानी के बोझ से झुकी हुई.उन्होंने नर्सकी तरफ बगैर  देखे ही मुझे ले लिया . झुकी हुई नज़रों में थी वह पीड़ा जो उन्हें मुझे ले जाते हुए हो रही थी....उन्होंने भी मेरी तरफ नहीं देखा .
  उस रात जब पिताजी मुझे सीने से लगाये उस पुल पर खड़े थे , मैंने उनका चेहरा गौर से पढ़ा. वह बुरी तरह भीगा हुआ था ...बारिश से कम आंसुओं से ज्यादा....वे बुदबुदा रहे थे ...
"इश्वर हमें क्षमा करना, हमसे यह भूल कैसे हो गयी.कितना बड़ा पाप किया है मैंने . एक पिता होकर इतना घिनोना कृत्य.मैं एक पिता कहलाने लायक नहीं. इस पापसे मैं कैसे उबर पाऊंगा. प्रभु मैंने पाप किया है , मुझे प्रायश्चित करने का एक मौका और दे दो. "
    पिताजी मुझे अपने सीनेसे लगाकर फूट फूटकर रो रहे थे और मैं महसूस कर रही थी उस दर्द को . पिताजी ने आखरी बार मुझे गले से लगाया और आसमान की ओर हाथ उठाकर कहा ."इश्वर मैं उसे तुम्हारे संरक्षण में भेज रहा हूँ....इसकी रक्षा करना और इसे मेरी ही बेटी बनाकर मेरे पास फिर भेजना, यही मेरा प्रायश्चित होगा."
  पिताजी का यह आर्तनाद मैं सुनती रही ..और उन्होंने मुझे उफनती नदी के सुपुर्द कर दिया ...
 उस आंधी तूफ़ान में वह लहरें मुझे झुलातीं  रहीं. मन शांत था . माँ पिताजी के प्रति सारा द्वेष धुल  चुका था. मैं धीरे धीरे नदी के तल पर पहुँच गयी. मन में बस एक ही विचार था." हाँ पिताजी मैं आप ही के पास आऊँगी."
                                  ________________

दो साल बाद माँ की गोद हरी हुई .वही चिर परिचित कोख . कितना सुकून कितनी शान्ति , कितना अपनापन था यहाँ. हर डर से बेखबर, हर खतरे से महफूज़, मैं बहार आने का इंतज़ार कर रही थी. माँ जब प्यार से मुझे सहलातीं  बाबूजी स्पर्श करते तो लगता "कितना सहा है मैंने , इस एक स्पर्श के लिए अब और कितना इंतज़ार करना होगा मुझे ?"
   वह दिन भी आ गया. माँ बाबूजी की ख़ुशी का ठिकाना नहीं था.वे मुझे चूमते जाते और इश्वर को धन्यवाद देते जाते . पिताजी प्यार से झिड़कते ,"तुम्हे तो मैं फेक आया था , तुम फिर आ गयीं."
और इस झिडकी में छिपी ख़ुशी, तृप्ति उनके चेहरेसे अविरल बहती रहती".
                                      _________________

आज मैं १९ साल की हो चुकी हूँ . इन्जीनेरिंग कॉलेज मैं पढ़ रही हूँ.पिताजी कहते हैं मैं उनकी सबसे मज़बूत बेटी हूँ, ढृढ़निश्चयी , इरादों और उसूलों की पक्की , उनकी सबसे प्रिय.
काश सब मेरे पिता जैसे होते . अपनी भूलोंसे कुछ सीखते, दूसरों को वही भूल करने से रोकते ,  बेटियों की अहमियत को समझते...तब न जाने कितनी ही 'अजन्मी 'आज अपने माता पिता का अभिमान होती ....अभिशाप नहीं !

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ब्लॉग बनाकर इस प्रतियोगिता तक पहुँचना परिणीता सिन्हा के द्वारा भी हुआ है।  सहज, पर गंभीरता से कहती हैं, 
जब कभी मेरा अन्तःकरण व्यथित होता है और अस्तित्व पर सवाल उठने लगते है मेरे शब्द आकार लेने लगते हैं कविता स्वतः स्वरूप ले लेती है၊ हमारा जीवन एक रंगमंच की तरह है जिसमें कई किरदार रोल निभाते है ၊ कभी कभी तो हम निर्देशक के इशारों पर अनवरत नाचते है लेकिन किसी खास वक्त पर हमारा अर्न्तमन इन इशारों को नकार देता है और स्वयं की ओर बढ़ता है ၊ अब जीवन में उपेक्षाएँ नहीं अपेक्षाएँ है ၊ एक ठोस मकसद की ओर प्रयासरत हूँ   ၊ 

आज उनकी कविता डर के साथ उपस्थित हूँ -

Parinita Sinha's profile photo, Image may contain: Parinita Sinha, smiling, plant and flower

लड़कियां अकसर डर जाती है
अपने अतीत से ,अपने मीत से और ज़माने की रीत से
वह डरती है नुकीली हर चीज से
जो असमय उन्हें माँ की कोख से नोच फ़ेकती है
वह डरती है नमक से ,ऊँचे ताखो से और चारपाई के पैरो से
जो उनके चिन्हित होते ही उन्हें रौंद डालते है
वह डरती है एकांत से , रात से और हर सूनी दोपहर से
जो उन्हें बलात्कृता बनाने को आतुर खड़ी है
वह लोगो को जानती कम और पहचानती ज्यादा है
वह तुरंत नाप लेती है आदमी के ओछेपन की हद
और सूंघ लेती है वहशीपन की गंध
इसलिए माँ के इर्द-गिर्द मंडराती फिरती है
उनके हर सपनो में, सपनो के टूट जाने का डर शामिल होता है
उनकी हर मंजिल में ,सीढ़ी के खीच लिए जाने का भय शामिल होता है
सगाई से लेकर शादी तक
पिता की पगड़ी उछाले जाने का डर उनके कलेजे को दहलता है
फिर शादी से लेकर अर्थी तक
पिता के घर लौट आने का , विधवा बन जाने का , बाँझ या बेटियों की माँ बन जाने का डर
उसके रोंगटे खड़े करवाता है
वह अपने इन डरो से कभी उबार नहीं पाती
 क्योकि उनका यह डर उनकी नारी कोखमें समां जाता है !

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मृदुला प्रधान जी और उनका स्थापित ब्लॉग 

mridula's blog एहसासों की खान है। बचे हुए लम्हों में आते हैं उस खान में :)

mridula's blog: कुछ लिखते समय अगर.…….

कुछ लिखते समय अगर दिमाग में उर्दू का कोई शब्द आ जाये तो मैं उसके लिये हिंदी का कोई पर्यायवाची शब्द नहीं ढूँढती……इसी स्वभाव के कारण मुझसे एक ऐसी कविता बन गयी जिसमें उर्दू के काफी शब्द एक साथ आ गये ……और सौभाग्यवश वो कविता 'समकालीन भारतीय साहित्य' में छप गयी . प्रकाशित होने के दो-चार दिनों बाद ,हिंदी साहित्य के एक जाने-माने रचनाकार का फोन आया. अपना नाम बताने के बाद बोले,'बेटे ,आपकी कविता 'समकालीन भारतीय साहित्य' के नये अंक में पढ़ी है.…… मैं गद्गद ,इतने बड़े साहित्यकार ने पढ़कर फोन किया …….तब तक उनकी अगली पंक्ति 'लेकिन आपने इतने ज़्यादा उर्दू शब्दों का प्रयोग क्यों किया ?'मैं एकदम से सकपका कर ,साहस जुटाकर बोली ,'सर ,आपको अच्छी नहीं लगी क्या ? वे बोले ,'अगर अच्छी  नहीं लगती तो क्या मैं फोन करता ? 'मुझे बहुत अच्छी लगी ………पर आगे से उर्दू के नहीं हिंदी के शब्दों का ही प्रयोग किया करो'.…….' 'जी ज़रूर कोशिश करूँगी कह तो दी मैंने…….  लेकिन करूँ क्या ? गाहे-बगाहे उर्दू के शब्द दस्तक दे ही देते हैं…….और मैं मुँह नहीं मोड़ पाती…… उसी का प्रमाण है ये कविता जिसका अभी-अभी ज़िक्र की हूँ ……  

कभी मुंतज़िर चश्में
ज़िगर हमराज़ था,
कभी बेखबर कभी
पुरज़ुनू ये मिजाज़ था,
कभी गुफ़्तगू  के हज़ूम तो, कभी
खौफ़-ए-ज़द
कभी बेज़ुबां,
कभी जीत की आमद में मैं,
कभी हार से मैं पस्त था.
कभी शौख-ए-फ़ितरत का नशा,
कभी शाम-ए-ज़श्न  ख़ुमार था ,
कभी था हवा का ग़ुबार तो
कभी हौसलों का पहाड़ था.
कभी ज़ुल्मतों के शिक़स्त में
ख़ामोशियों का शिकार था,
कभी थी ख़लिश कभी रहमतें
कभी हमसफ़र का क़रार था.
कभी चश्म-ए-तर की गिरफ़्त में
सरगोशियों का मलाल था,
कभी लम्हा-ए-नायाब में
मैं  भर रहा परवाज़ था.
कभी  था उसूलों से घिरा
मैं रिवायतों के अजाब में,
कभी था मज़ा कभी बेमज़ा
सूद-ओ- जिया के हिसाब में.
मैं था बुलंदी पर कभी
छूकर ज़मीं जीता रहा,
कभी ये रहा,कभी वो रहा
और जिंदगी चलती रही .…… 

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उजाले उनकी ऒर"नाम से
कभी कभार अनायास ही कुछ लिखने का मन करता है.......और रचनाएं बन जाती हैं।

सूरत अग्नि कांड-एक प्रतिक्रिया  

रोज की तरह आज की सुबह भी बड़ी निराली थी,
अब तो सूरज ने भी करवट बदल डाली थी,
और हमेशा की तरह उनकी भी यही तैयारी थी,
कि अगले ही कुछ सालों में जिन्दगी बदलने की बारी थी।

दिलों में जोश और अथक जुनून उनमे भरा पड़ा था,
और अगले ही पल उनमें से हर कोई कोचिंग में खड़ा था,
उस अनभिज्ञ बाल मन को क्या पता था,
कि अगले ही पल तूफान भी उनके द्वार पर खड़ा था ।

लेकिन जैसे-तैसे क्लास की हो गयी तैयारी थी,
उन्हें क्या पता उनकी किस्मत यहाँ आके हारी थी,
वो तो बस धुन के पक्के लगे थे भविष्य बनाने मे,
उनका भी तो लक्ष्य था हर सीढ़ी पर आगे आने में।

जैसे ही मिली सूचना,उस अनहोनी के होने की,
मच गया था कोहराम,पूरे भवन और जीने में,
ना कोई फरिश्ता था आगे,अब उनको बचाने में,
लेकिन फिर जद्दोजहद थी,उनकी जान बचाने में।

कॉपी पेन और भविष्य,अब पीछे छूट चुके थे,
सब लोगों के पैर फूल गये औऱ पसीने छूट चुके थे,
अब तो बस एक ही ख्याल,दिल और दिमागों में था,
विश्वास अब  बन चुका था,जो खग औऱ विहगों में था।

यही सोचकर सबने ऊपर से छलांग लगा दी थी,
लेकिन प्रशासन की तैयारी में बड़ी खराबी थीं,
न कोई तन्त्र अब तैयार था नोजवानों को बचाने में,
अब तो बस खुद की कोशिश थी बच जाने में।

पूरी भीड़ में बस,वो ही एक माँ का लाल निराला था,
जो आठ जानें बचा के भी,न रूकने वाला था,
वो सिँह स्वरूप केतन ही, मानो बच्चों का रखवाला था,
रक्त रंजित शर्ट थीं उसकी, जैसे वही सबका चाहने वाला था।

बाकी खड़ी भीड़ की,आत्मा मानो मर चुकी थी,
उनको देख के तो मानो,धरती माँ भी अब रो चुकी थीं,
कुछ निहायती तो बस वीडियो बना रहे थे,
और एक-एक करके सारे बच्चे नीचे गिरे जा रहे थे।

फिर भी उनमें से किसी की मानवता ने ना धिक्कारा था,
गिरने वाला एक - एक बच्चा अब घायल और बिचारा था,
कुछ हो गए घायल और कुछ ने जान गँवाई थी,
ऐसे निर्भयी बच्चों पर तो भारत माँ भी गर्व से भर आयी थी।

लेकिन फिर भी न बच पाए थे वो लाल,
और प्रशासन भी ना कर पाया वहाँ कोई कमाल,
उज्ज्वल भविष्य के सपने संजोये वो अब चले गए,
कल को बेहतर करने की कोशिश में आज ही अस्त हो गए।

उन मात- पिता के दिल पर अब क्या गुजरी होगी,
उनकी ममता भी अब फुट- फूटकर रोई होगी,
क्या गारंटी है किसी और के साथ आगे न होगा ऐसा,
इसलिए प्रण करो कि सुधारे व्यवस्था के इस ढांचे को,
ताकि न हो आहत कोई आगे किसी के खोने को,

क्योंकि जो गए वो भी किसी की आँखों के तारे थे,
किसी को तो वो भी जान से ज्यादा कहीं प्यारे थे।

शनिवार, 27 जुलाई 2019

ब्लॉग बुलिटेन-ब्लॉग रत्न सम्मान प्रतियोगिता 2019चौतीसवां दिन)कविता




लिखना जीवन के प्रति एक विश्वास है यशोदा अग्रवाल जी का।  प्रतियोगिता में शामिल होना उनकी ब्लॉग के प्रति निष्ठा है।  

ज़िंदगी के मायने और है - धरोहर

 

आज की चाहतें और है
कल की ख़्वाहिशें और हैं
जो जीते है ज़िंदगी के पल-पल को
उसके लिये ज़िंदगी के मायने और है

हसरतें कुछ और हैं
वक़्त की इल्तज़ा कुछ और है
हासिल कुछ हो न हो
उम्र का फलसफ़ा कुछ और है

कौन जी सका है...
ज़िन्दगी अपने मुताबिक
वक़्त की उंगली थामे
हर मोड़ की कहानी कुछ और है 

ख़यालों के सफ़र में
हक़ीकत और ख़्वाब बुने जाते हैं
दिल चाहता कुछ और है
पर होता कुछ और है

यूं तो जिंदगी में आवाज देने वाले,
ढेरों मिल जायेंगे .......!!
कुछ पल सुकून आ जाये
ऐसे हमनवां का एहसास और है.....!!

 

शुक्रवार, 26 जुलाई 2019

ब्लॉग बुलिटेन-ब्लॉग रत्न सम्मान प्रतियोगिता 2019 (तेतीसवाँ दिन)कहानी




कविता वर्मा एक सक्रीय ब्लॉगर, नियमित पाठिका - अपने को उन्होंने तराशा है, सहेजा है, प्रस्तुत किया है - खुद को मील का पत्थर बनाया है।
आज का दिन उनके साथ -


सड़क के मोड़ पर उस पेड़ के नीचे फिर मेरी अभ्यस्त नज़र चली गई और उसे वहाँ ना देख अनायास पैर पर जोर पड़ा और बाइक को ब्रेक लग गया। ऐसा तो पिछले चार महीनों में कभी नहीं हुआ था जो मैंने आज देखा। हैरानी तो हुई ही नज़रें उसे आसपास ढूंढने लगीं। पीछे मुड़ कर पेड़ों की कतार के नीचे पड़ी लंबी छाँव में भी उसे ढूँढ लिया लेकिन वह नज़र नहीं आई और तभी मेरी बाइक के पीछे रुकी बाइक वाले पर मेरी नज़र पड़ी। वह अचानक रास्ता रुक जाने से पूरी ताकत से हॉर्न बजाते हुए बड़बड़ा रहा था। मैं तो उसकी खोज में ऐसा खो गया कि न हॉर्न सुन पाया और ना ही यह समझ पाया कि एक व्यस्त सड़क पर व्यस्त समय में रास्ता रोके खड़ा हूँ। मैंने रुकी पड़ी बाइक को फिर गति दी और अब आँखें सड़क के साथ साथ सड़क के किनारे पेड़ों के नीचे उसे ढूँढ रही थीं। जब लगभग एक डेढ़ किलोमीटर आगे पहुँच गया तब चौराहे की लाल बत्ती से मेरी तन्द्रा टूटी। ओह मैं अब तक उसे क्यों ढूँढ रहा हूँ ? वह इतनी दूर कैसे आयेगी ? पिछले चार महीने से मैंने कभी उसे सौ दो सौ मीटर से ज्यादा आगे जाते नहीं देखा। 

चार महीने पहले की बात है जब ऑफिस के लिए जाते हुए इस व्यस्त एम जी रोड के उस मोड़ पर सड़क के किनारे मैंने उस बूढ़ी औरत को अकेले बैठे देखा था। मोड़ पर गाड़ी धीमी होते ही मेरा ध्यान उस पर गया। खिचड़ी बाल गढ्ढे में धंसी गोल गोल आँखें पोपला मुँह। उम्र के हर पड़ाव पर घिसते घिसते हड्डियों का कंकाल सा रह गया शरीर, अनुभवों और शायद जीवन की तल्खियों का बोझ उठाती झुकी कमर, मैली तार तार होती साड़ी जो शायद कभी हल्की पीली या गुलाबी या किसी और रंग की रही होगी , पैरों में दो अलग अलग तरह की बड़ी बड़ी चप्पलें। मुँह में अपने साथी दाँतों के ना रहने से उपजे खालीपन का लगातार एहसास करती घूमती जीभ उसकी तरफ देखने पर सारा ध्यान खुद की ओर खींच लेती थी। उस दिन भी मैंने अनायास ब्रेक लगा दिया था और कौतूहल से उसकी ओर देखा था। नज़रें मिलते ही वह भोलेपन से मुस्कुरा दी। इतना भोलापन था उस मुस्कान में कि प्रत्युत्तर में मैं मुस्कुराये बिना न रह सका। उस दिन तो आगे बढ़ गया लेकिन बिना ध्यान दिये भी जो बातें ध्यान में आ गईं वे दिमाग में चलती रहीं। वह इतनी बूढी औरत वहाँ बिलकुल अकेली थी उसके आसपास कोई नज़र नहीं आया। क्या पता वह कहीं जा रही होगी चलते चलते थक गई तो सुस्ताने बैठ गई। उसका चलता हुआ पोपला मुँह शायद उसके हाँफने की निशानी हो। उसे देखकर तो ऐसा ही लगा जैसे कि जिंदगी का सफर तय करते करते भी थक गई है लेकिन इस सफर में सुस्ताना कैसा यहाँ तो परम आराम ही रुकने का कारण बनता है। खैर जो भी हो वह जिस तरह वहाँ बैठी थी अकेली निस्सार निसंकोच उससे उसकी तरफ आकर्षित होना स्वाभाविक था। उसके बाद ऑफिस के कामों की व्यस्तताओं ने उसे मेरे दिमाग से निकाल दिया। 

उस शाम सड़क के दूसरी ओर से गुजरते हुए भी वह बुढ़िया मेरे ध्यान में नहीं आई।  हाँ दूसरे दिन ऑफिस जाते हुए घर के सामने ही एक बूढ़े भिखारी को भीख माँगते देखा तो उसका ख्याल आया और मैंने अपनी ही बेवकूफी पर खुद को झिड़का। वह क्या अब तक वहाँ बैठी होगी ? कहीं जाते हुए रास्ते में रुकी होगी थोड़ी देर सुस्ताकर चली गई होगी। उसकी वह भोली मुस्कान एक और बार देखने की आस जरूर थी। 
सड़क के मोड़ पर गाड़ी धीमी होते ही नज़रें उसे ढूँढने लगीं। वह उकडू बैठी थी और आँचल सिर पर रखते हुए उसका फटा हिस्सा सिर पर आ गया था जिसे दोनों हाथों से उठाये उसके बीच से आसमान देखते हुए या शायद उसकी मरम्मत तुरपन करने की सम्भावना खोजते वह जिस तरह गर्दन घुमा घुमा कर उस फटे आँचल को देख रही थी मुझे हँसी आ गई। शुक्र था उसने मुझे नहीं देखा था। आगे बढ़ते ही मुझे दूसरी चिंता ने घेर लिया। क्या वह बुढ़िया रात भर यहीं रही थी सड़क किनारे ? कहाँ सोई होगी इसके पास तो बिस्तर चादर कुछ नहीं हैं ? क्या खाया होगा लगता तो नहीं है इसके पास पैसे होंगे ? इसके पास तो पानी पीने तक की व्यवस्था नहीं दिखती। यह आई कहाँ से इसके परिवार वाले कहाँ हैं ?कहीं यह उनसे बिछड़ तो नहीं गई ?कहीं उन्होंने इसे घर से निकाल तो नहीं दिया ? आजकल बुजुर्गों के साथ परिवार में जिस तरह से व्यवहार होता है सब संभव है। उसके मैले फटे कपडे देख कर तो ऐसा लग रहा है जैसे वह कई दिनों से बिना घरद्वार के सड़क पर ही रह रही है। गाड़ी चलाते हुए मैं लगातार उसके बारे में सोचता या यह कहूँ मोड़ पर गाड़ी धीमी होते ही वह मेरे साथ हो जाती और ऑफिस तक साथ जाती। ऑफिस की व्यस्तता में वह मुझे छोड़ वापस सड़क के उस मोड़ पर जा बैठती शायद और किन्ही लोगो का ध्यान खींचती या शायद उनमें से किसी के साथ हो लेती। उससे पूछना तो बहुत कुछ चाहता था पर घडी की भागती सुइयाँ मुझे थमने नहीं देतीं और उसके ख्याल दिमाग में रुकते नहीं थे। रोज़ सोचता कि घर से कोई पुराना कम्बल चादर ला कर उसे दे दूँगा लेकिन शाम को सड़क के उस पार से निकलते वह बुढ़िया इस पार ही रह जाती। नज़र तो तब जाती जब उसका ख्याल आता और ख्याल नहीं आता इसलिए अपना निश्चय भी भूल जाता। 

अभी मार्च ख़त्म नहीं हुआ था हवा में ठंडक थी और रात में खुले में सोने पर अच्छी खासी ठण्ड लगती होगी। वह बुढ़िया सड़क किनारे फटी साड़ी में कैसे रात गुजारती होगी यह सोच कर मेरा मन आत्मग्लानि से भर जाता। एक दिन ऑफिस पहुँचते ही पत्नी को फोन करके एक चादर और शाल निकाल कर रखने को कहा ताकि दूसरे दिन उसे याद से दे दूँ। अगले दिन जब उसे चादर और शाल दी प्रत्युत्तर में उसने दोनों हाथ उठा कर वही भोली मुस्कान दी तो बड़ा सुकून मिला मुझे। 

यह रोज़ का क्रम हो गया सड़क के मोड़ पर गाड़ी धीमी कर मैं एक नज़र उस पर डाल ही लेता वह कभी देखती कभी नहीं। कुछ ही दिनों में पेड़ के नीचे पुराने कपड़ों में बंधी दो तीन पोटलियाँ दिखीं। उनमे क्या था यह तो नहीं पता लेकिन धीरे धीरे उन पोटलियों की संख्या बढ़ती गई फटे पुराने कपड़ों में बंधी लाल नीली पीली छोटी छोटी पोटलियाँ कचरे से बीने गए कपड़ों में ही बंधी थीं। कुछ सामान खुले में पड़ा होता था जिसमे टूटे कप, प्लास्टिक की बोतल चूड़ियाँ कंघियाँ कार्ड बोर्ड के कुछ खाली डब्बे प्लेट चम्मच जूट की बोरी कुछ डोरियाँ अलग अलग तरह की चप्पलें चादर शाल और एक पुराना तकिया। पोटलियों में शायद कुछ कपडे थे। वह अपने सामान की देखभाल में लगी रहती कभी उसे पेड़ के बिलकुल पास रखती तो कभी खुद पेड़ के पास बैठ सामान अपने चारों ओर रख लेती। पता नहीं उसमें से कितना सामान वह उपयोग करती होगी। जाने वह उपयोग करने लायक था भी या नहीं लेकिन उसका उस सामान के प्रति अनुराग साफ़ साफ़ दिखता था। एक दिन वह दूसरी साड़ी में दिखी शायद किसी ने दी हो। 

जैसे जैसे दिन बीतते जा रहे थे उसका साम्राज्य फैलता जा रहा था। वह महीने भर से सड़क के मोड़ पर उस पेड़ के नीचे डटी हुई थी। दिन में शायद कहीं खाना माँगने जाती हो या कचरे के ढेर से सामान बीनती हो। आते जाते लोग शायद उसे कुछ पैसे देते हों मैंने तो उसे कभी पैसे नहीं दिये। कभी उसके आसपास किसी को  देखा भी नहीं इसलिए यह अंदाज़ा भी नहीं लगा पाया कि उसके परिवार में और लोग हैं भी या नहीं वे भी कहीं भीख माँगते हैं या कुछ और करते हैं। 

दिन की धूप तीखी होने लगी थी लेकिन उस बुढ़िया के जमा किये सामान के साथ उसकी जिंदगी कुछ आसान लगने लगी थी। बुढ़ापे में सामान इकठ्ठा करने के उसके शौक से मुझे कई बार अचरज भी होता। उम्र के इस पड़ाव पर जब व्यक्ति विरक्ति की ओर बढ़ता है उस बुढ़िया की आसक्ति हैरान करती खास कर तब जब उसके आगे पीछे कोई नहीं दिखता था। कभी लगता वह शायद कुछ विक्षिप्त है किसी मानसिक आघात ने उसे सही गलत के ज्ञान से वंचित कर दिया है लेकिन उस दिन उसका सामान एक घने पेड़ के नीचे रखा देखा। बाँस की दो खपच्चियों के सहारे उसने एक ओर से आड़ बना ली थी और इसलिए उसके विक्षिप्त होने की संभावना भी ख़त्म हो गई। 

मेरे मन में उससे बात करने की तीव्र इच्छा होती। उसकी मनस्थिति को जानने समझने की उत्कंठा होती। उसके लिए कुछ करने का विचार भी सिर उठाता पर सुबह की हड़बड़ी और शाम को भारी ट्रैफिक के बीच सड़क पार करने की दुश्वारियाँ रोक लेतीं। फिर मैं कोई विक्षिप्त भी तो नहीं था जो यूँ एक बुढ़िया के लिये अपने जरूरी काम छोड़ कर इतनी मुश्किलें उठाता। चादर शॉल देने जैसे आसान काम करके भी जब संतुष्टि पाई जा सकती है फिर इतनी मशक्कत कौन करे ? 
उस दिन इतवार था मुझे किसी से मिलने जाने के लिए एम जी रोड से ही गुजरना था। सड़क के मोड़ पर बुढ़िया को देखते ही मैंने बाइक के पूरे ब्रेक लगा दिए। चर्र की आवाज़ के साथ बाइक रुकी। छुट्टी के कारण सड़क पर ट्रैफिक कम था पीछे से किसी ने हॉर्न नहीं बजाया। बुढ़िया सामान की साज संभाल में व्यस्त थी गाड़ी की आवाज़ पर भी उसने मुड़ कर नहीं देखा मैं उसकी एकाग्रता देख कर दंग रह गया। गाड़ी किनारे लगाकर मैं उसके समीप पहुँचा और उसे आवाज़ दी अम्मा अम्मा। बुढ़िया जिस झटके से मुड़ी एक बारगी डर ही गया लगा सच में यह पागल है और कहीं कोई सामान या पत्थर उठाकर मार न दे। मैं दो कदम पीछे हट गया डर के कारण दोनों हाथ उठकर चेहरे के सामने आ गये। उसने झुककर मेरे हाथों के नीचे से मुझे देखा और वही भोली मुस्कान उसके चेहरे पर प्रकट हुई जिसने मुझे राहत पहुँचाई। हाथ नीचे करते करते खुद पर हँसी भी आई यह बुढ़िया महीनों से सड़क पर रह रही है बिना किसी से डरे कि कोई उसे चोट या नुकसान पहुँचा सकता है और मैं उसके पलटने से डर गया। यह डर किस चीज़ का था या उसे किस चीज़ के ना होने के कारण कोई डर नहीं है ? खैर यह गंभीर चिंतन का विषय था जिसके लिये वह समय मुफीद न था और न ही रविवार का वह दिन। 

बुढ़िया बोरे पर बैठ गई  और मुझे भी बैठने का इशारा किया। इतनी सरलता मुझमे नहीं थी मैं वहीँ पंजों के बल उकडू बैठ गया और हाथों के इशारे से खुद के ठीक होने का आश्वासन दिया। एक नज़र उसके सामान पर डाली और उससे पूछा "कैसी हो अम्मा ?" 
"ठीक हूँ " धीमी आवाज़ और  मुस्कान के साथ जवाब मिला। 
" यहाँ अकेली हो तुम्हारा परिवार कहाँ है?  कहाँ से आई हो?" मेरी बात सुनकर उसकी मुस्कान तिरोहित हो गई। कुछ देर वह खोई खोई नज़रों से अपने सामान को देखती रही कुछ ना बोली। मैंने फिर पुकारा "अम्मा क्या हुआ बताओ ना तुम्हारा परिवार कहाँ है ?" 
दुःख क्रोध क्षोभ चेहरे की सलवटों के ऊपर उभर आये , होंठ फड़फड़ाने लगे आँखें भर आईं उसने हाथ झटका और किसी के ना होने का इशारा किया। 
"कोई तो होगा अम्मा बेटा बेटी बहू पोता पोती क्या हुआ कहाँ हैं सब ?"
बुढ़िया बैचेनी से यहाँ वहाँ देखने लगी पानी की बोतल पर उसकी नज़र टिकी लेकिन वह उससे दूर रखी थी। मैंने हाथ बढ़ा कर बोतल उसे पकड़ा दी। दो घूँट पानी पीकर उसने खुद को संभाला। मेरी आँखों में मेरा प्रश्न अभी भी मौजूद था जिसे देख पहले तो वह सिर झुका कर जमीन को तकने लगी फिर धीरे धीरे बोलना शुरू किया। 
बेटा हम बहुत बड़े ठाकुर परिवार के  हैं भोत बड़ी जमीन जायदाद रही हमाई। भोत बड़ो परिवार हतो तीन बेटा बहुएँ नाती नता। हमाए ठाकुर बड़े भले मानस रहे गरीबन की जी खोल के मदद करत रहे। उनके जावे के बाद हमसे जो कछु बन पडत थो हम कर देत थे। बस जई सोचत थे कि हमरी ड्योढ़ से कोई खाली हाथ न जाये। पर बेटा जो समय को चक्कर ना कभी उलटो भी घूम जाए है। हमरे बेटा बहुअन को जा बात पसंद ना हती। पहले तो बे हमें मना करत रहे हमने भी उनकी बात रखबे खातिर थोड़ो हाथ तो खींच लओ थो पर बेटा कभी कभी जब कोई भोतइ मजबूर मनक बड़ी आस ले कर आ जाये बा से कैसे मना कर सकत थे। हम अपने गहना गरुआ में से कछु दे देत थे। ठाकुर हवेली से मजबूर इंसान खाली हाथ जाये तो हवेली की सान घटत है। पर बेटा उन लोगन को जो भी पसंद नहीं आओ और एक दिना कहते हुए बुढ़िया चुप हो गई एक घुटी सी सिसकी बोल पड़ी। 
"और क्या अम्मा क्या हुआ ?" मैंने व्यग्रता से पूछा। 
बुढ़िया की सूनी आँखों से आँसुओं के रेले बह निकले "और बेटा एक लंबी सिसकी के बाद वह बोली "एक दिना आधी रात के बड़ो बेटा अपनी मोटर गाड़ी में हमें बैठार के इस गाँव में हमें छोड़ गओ। जो कौन गाँव है बेटा हमें तो जा भी नहीं पता। कछु दिना हम इते उते घूमत रहे लोगन से हमाए घर पहुचाने की कहत रहे फिर सोची उते पहुँच कर भी का हुए ? बे ओरें फिर हमें बाहर निकार दियें जैसे अब हम बेटा जहिं के हो गए। पास की बस्ती में दो चार घर हैं भले लोग हैं बेचारे कोई ना कोई कछु दे देत है। हमरो खाबो कित्तो सो है बेटा, एक रोटी और तनक सी सब्जी तो खातई हैं।"  कह कर बुढ़िया चुप हो गई। 
"अम्मा तुम पुलिस के पास क्यों नहीं जातीं वो तुम्हारे बेटों से कहेगी तुम्हे रखें। कौन गाँव की हो गाँव का नाम पता है ?" 
"नहीं बेटा अब वापस उते नई जाने। हमाओ का हतो उते जो थो सो ठाकुर साब को उनके बाद उनके लड़को को । 
"अम्मा कितनी तेज़ गर्मी पड़ रही है फिर बरसात आ जाएगी यहाँ खुले में कैसे रहोगी ?" मैंने भविष्य की चिंता जता कर उससे कहा। 
"तब की तब देखी जैहे बेटा। हम का जानत थे के एक दिन सड़क पर रहना पड़ेगा। " 
मैं निरुत्तर था उसका मन अब बेटे बहुओं घर परिवार से हट गया था। वह यहाँ सुकून से थी क्या हुआ जो चार दीवार और छत नहीं थी। 
"अम्मा यह सामान क्यों इकठ्ठा किया है ये कोई काम आता है क्या ?मैंने टूटे कप कंघी बोतल को देखते हुए कहा। अम्मा के पोपले मुँह पर फिर भोली मुस्कान बिखर गई। " जे सब हमरी जमा पूँजी है। लड़कों ने हमें उस सामराज से निकार दओ पर जब हम मरेंगे तब अपनों सामराज छोड़ जैहें । तुमार लाने जो बेकार सामान हुईए पर जिनके पास जो भी नहीं है उनके लाने जो बड़ो कीमती है। कोई कछु माँगत है तो जई में से दे देत हैं हम ठकुराइन हैं बेटा अपने पीछे गरीबन के लाने कछु छोड़ कर जईहे।" बुढ़िया का स्वर गर्व से बुलंद हो गया। मैं कुछ कह नहीं सका खड़े होते होते मैंने सौ का नोट बोरी के नीचे दबा दिया। 
"अम्मा मैं यहाँ से रोज़ निकलता हूँ कभी किसी चीज़ की जरूरत हो तो बता देना। बुढ़िया ने निश्छल मुस्कान के साथ दोनों हाथ आशीष की मुद्रा में उठा दिए। 
अजीब मनस्थिति में मैं वहाँ से चला आया। तब से रोज़ ही उस बुढ़िया को देखता कभी कभी समय को रोक उसके पास रुक जाता था कभी कुछ फल खाना या कुछ पैसे दे देता था। 
आज उस बुढ़िया को वहाँ न देखकर बैचेनी होने लगी। उसका सामान वहीँ पेड़ के नीचे था मुझे लगा शायद आसपास कहीं गई होगी खाना लेने या कचरे से कुछ बीनने। समय भागा जा रहा था इसलिए मैं भी रुक न सका। 
अगले दिन फिर बुढ़िया दिखाई नहीं दी तभी नगर पालिका की कचरा गाड़ी वहाँ आकर रुकी और उसका सामान उठाकर गाड़ी में डालने लगी। मैं जैसे तिलमिला गया तुरंत बाइक किनारे लगाई और गाड़ी के पास पहुँचा। 
"भई क्यों ये सामान ले जा रहे हो यह उस बूढी अम्मा का है वह आसपास कहीं गई होगी अभी आ जाएगी। उसने बुढ़ापे में बड़ी मुश्किल से अपनी जरूरत का सामान इकठ्ठा किया है।"
सामान रखने वाले ने बड़ी लापरवाही से कहा "साब वो बुढ़िया तो परसों रात मर गई कल लावारिस लाश का क्रियाक्रम भी हो गया। अब ये सामान हटा कर कचरे में डाल देंगे जिसे जरूरत होगी ले जायेगा।" 
मेरी आँखें भर आई वह बुढ़िया चली गई तभी कचरा बीनने वाले दो लडके वहाँ आ गये उन्होंने बोरी उठाई उसके नीचे सौ का नोट और कुछ छोटे नोट थे उन्होंने वे जेब में ठूंस लिए और बुढ़िया के छोड़े साम्राज्य से अपनी जरूरत का सामान चुनने लगे। 

गुरुवार, 25 जुलाई 2019

ब्लॉग बुलिटेन-ब्लॉग रत्न सम्मान प्रतियोगिता 2019 (बत्तीसवाँ दिन)कविता




कुछ रचनाएँ शेष रह गई हैं, जिसे मैं हफ्ते भर का अतिरिक्त समय लेकर प्रकाशित करुँगी।  अब कोई नई प्रविष्टि नहीं ले पाऊँगी। 

अरुण चंद्र रॉय जी को भी सब जानते हैं और उनकी कलम ने सबको बाँधा है।  यह कविता उनके कोमल मन का परिचय देती है।  


आज
बहुत याद आ रही है
कील पर टंगी
बाबूजी की कमीज़ 

शर्ट की जेब
होती थी भारी
सारा भार सहती थी
कील अकेले 

होती थी
राशन की सूची 
जिसे बाबूजी 
हफ्तों टाल मटोल करते रहते थे
माँ के चीखने चिल्लाने के बाद भी
तरह तरह के बहाने बनाया करते थे बाबूजी 
फिर इधर उधर से पैसों का जुगाड़ होने के बाद
आता था राशन
कील गवाह थी
उन सारे बहानो का
बहानो का भार जो बाबूजी के दिल पर पड़ता था
उसकी भी गवाह थी 
कील 

बाबूजी के जेब में 
होती थी 
दादा जी की चिट्ठी 
चिट्ठी में दुआओं के साथ 
उनकी जरूरतों का लेखा जोखा 
जिन्हें कभी पूरा कर पाते थे बाबूजी
कभी नहीं भी
कील सब जानती थी

कील 
उस दिन बहुत 
खुश थी
जब बाबूजी की जेब में था
मेरे परीक्षा-परिणाम की कतरन
जिसे सबके सोने के बाद 
गर्व से दिखाया था उन्होंने 
माँ को 
नींद से जगा कर 

कील उस दिन भी
खुश थी
जिस दिन बाबूजी ने 
बांची थी मेरी पहली कविता
माँ को 
फिर से नींद से जगा कर 

बाबूजी की जेब में 
जब होती थी
डॉक्टर की पर्ची
जांच की रिपोर्ट
उदास हो जाती थी
कील
माँ से पहले 

ठुकने के बाद
सबसे ज्यादा खुश थी
कील 
जब बाबूजी लाये थे
शायद पहली बार 
माँ के लिए बिछुवे
अपनी आखिरी तनख्वाह से 

आज 
बाबूजी नहीं हैं
उनकी कमीज़ भी नहीं है
लेकिन कील है 
अब भी
माँ के दिल में 
चुभी हुई 
हमारे दिल में भी ।

बुधवार, 24 जुलाई 2019

ब्लॉग बुलिटेन-ब्लॉग रत्न सम्मान प्रतियोगिता 2019 (इक्कतीसवां दिन) लघुकथा




एक लकीर खींची थीसामने, और पूछ रही थी वह -
तैयार हो दौड़ने के लिए ?
उसने बड़े रोचक अंदाज में उसे देखा, और कहा -
पंख दे दो, तो उड़के भी दिखा सकती हूँ  ... 
समय ने पंख दिए, या विभा जी ने खुद गढ़ लिए, जो भी हो, आज उनका परिचय क्षेत्र बड़ा है, कार्यक्षेत्र बड़ा है,  ... जितना कहूँ, कम होगा।  
आज इस प्रतियोगिता में उनकी एक लघुकथा -



तन पर भारीपन महसूस करते अधजगी प्रमिला की आँख पूरी तरह खुल गयी। भादो की अंधेरिया रात और कोठरी में की बुझी बत्ती में भी उसे उस भारी चीज का एहसास उसके गन्ध से हो रहा था, "कौन है ?" सजग होकर परे हटाने की असफल प्रयास करती पूछी।
"मैं! मुझे भूल गई?"
" तुझे इस जन्म में कैसे भूल सकती हूँ.. तेरे गन्ध को भली-भांति पहचानती हूँ..!"
"फिर धकिया क्यों रही है?"
"सोच-समझने की कोशिश कर रही हूँ, तुझे मेरी याद इतने वर्षों के बाद क्यों और कैसे आई?"
"मैं तेरा पति हूँ!"
"तब याद नहीं रहा, जब दुनिया मुझे बाँझ कहती रही और मेरा इलाज होता रहा.. तेरे इलाज के लिए जब कहती तो कई-कई इल्ज़ाम मुझपर तुमदोनों माँ-बेटे लगा देते!"
"इससे हमारा रिश्ता तो नहीं बदल गया या तुझपर से मेरा हक़ खत्म हो गया?"
"हाँ! हाँ.. बदल गया हमारा रिश्ता.. खत्म हो गया मुझपर से तेरा हक़..," चिल्ला पड़ी प्रमिला,"जब तूने दूसरी शादी कर ली और उससे भी बच्चा नहीं हुआ तो तूने अपना इलाज करवाया और उससे बेटी हुई।"
"तुझे भी जरूरत महसूस होती होगी?"
"जिस औरत को तन की दासता मजबूर कर देती है, वह कोठे पर बैठी रह जाती है।"
"तुझे बेटा हो जाएगा! तेरा ज्यादा मान बढ़ जाएगा..!"
"तेरी इतनी औकात कि तू मुझे अब लालच में फँसा सके..!" पूरी ताकत लगा कर परे धकेलती है और पिछवाड़े पर पुरजोर लात लगा कमरे से बाहर करती हुई चिल्लाती है, "दोबारा कोशिश नहीं करना, वरना काली हो जाऊँगी..!"

मंगलवार, 23 जुलाई 2019

ब्लॉग बुलिटेन-ब्लॉग रत्न सम्मान प्रतियोगिता 2019 (तीसवां दिन) कविता



सीमा 'सदा' - एक शांत,सरस नदी सी ब्लॉगर, जिसने बिना कुछ चाहे खुद को गुलमोहर, देवदार जैसा बना लिया।  यूँ तो ज़िन्दगी के सारे अभिन्न रंग उनके ब्लॉग पर मिल जाते हैं, लेकिन माँ"और पिता"की छवि हर रंग का सारांश है। 
चलते हैं इस लिंक पर -

माँ, तुलसी और गुलमोहर ...


 माँ कहती थी
आँगन के एक कोने में तुलसी
और दूसरे में गुलमोहर हो
तो मन से बसंत कभी नहीं जाता
तपती धूप में भी
खिलखिलाता गुलमोहर जैसे
कह उठता हो
कुछ पल गुजारो तो सही
मेरे सानिध्य में
मन का कोना-कोना
मेरी सुर्ख पत्तियों के जैसा
खुशनुमा हो जाएगा!

नहीं है इस बड़े महानगर में
गुलमोहर का पेड़
मेरे आस-पास
पर कुछ यादें आज भी हैं
इसके इर्द-गिर्द
बचपन की, माँ की,
और इसकी झरतीं सुर्ख पत्तियों की
मेरी यादों में गुलमोहर
हमेशा मेरे साथ ही रहेगा
मेरे पीहर की तरह
अपनेपन की छाँव लिये !!