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शुक्रवार, 26 जुलाई 2019

ब्लॉग बुलिटेन-ब्लॉग रत्न सम्मान प्रतियोगिता 2019 (तेतीसवाँ दिन)कहानी




कविता वर्मा एक सक्रीय ब्लॉगर, नियमित पाठिका - अपने को उन्होंने तराशा है, सहेजा है, प्रस्तुत किया है - खुद को मील का पत्थर बनाया है।
आज का दिन उनके साथ -


सड़क के मोड़ पर उस पेड़ के नीचे फिर मेरी अभ्यस्त नज़र चली गई और उसे वहाँ ना देख अनायास पैर पर जोर पड़ा और बाइक को ब्रेक लग गया। ऐसा तो पिछले चार महीनों में कभी नहीं हुआ था जो मैंने आज देखा। हैरानी तो हुई ही नज़रें उसे आसपास ढूंढने लगीं। पीछे मुड़ कर पेड़ों की कतार के नीचे पड़ी लंबी छाँव में भी उसे ढूँढ लिया लेकिन वह नज़र नहीं आई और तभी मेरी बाइक के पीछे रुकी बाइक वाले पर मेरी नज़र पड़ी। वह अचानक रास्ता रुक जाने से पूरी ताकत से हॉर्न बजाते हुए बड़बड़ा रहा था। मैं तो उसकी खोज में ऐसा खो गया कि न हॉर्न सुन पाया और ना ही यह समझ पाया कि एक व्यस्त सड़क पर व्यस्त समय में रास्ता रोके खड़ा हूँ। मैंने रुकी पड़ी बाइक को फिर गति दी और अब आँखें सड़क के साथ साथ सड़क के किनारे पेड़ों के नीचे उसे ढूँढ रही थीं। जब लगभग एक डेढ़ किलोमीटर आगे पहुँच गया तब चौराहे की लाल बत्ती से मेरी तन्द्रा टूटी। ओह मैं अब तक उसे क्यों ढूँढ रहा हूँ ? वह इतनी दूर कैसे आयेगी ? पिछले चार महीने से मैंने कभी उसे सौ दो सौ मीटर से ज्यादा आगे जाते नहीं देखा। 

चार महीने पहले की बात है जब ऑफिस के लिए जाते हुए इस व्यस्त एम जी रोड के उस मोड़ पर सड़क के किनारे मैंने उस बूढ़ी औरत को अकेले बैठे देखा था। मोड़ पर गाड़ी धीमी होते ही मेरा ध्यान उस पर गया। खिचड़ी बाल गढ्ढे में धंसी गोल गोल आँखें पोपला मुँह। उम्र के हर पड़ाव पर घिसते घिसते हड्डियों का कंकाल सा रह गया शरीर, अनुभवों और शायद जीवन की तल्खियों का बोझ उठाती झुकी कमर, मैली तार तार होती साड़ी जो शायद कभी हल्की पीली या गुलाबी या किसी और रंग की रही होगी , पैरों में दो अलग अलग तरह की बड़ी बड़ी चप्पलें। मुँह में अपने साथी दाँतों के ना रहने से उपजे खालीपन का लगातार एहसास करती घूमती जीभ उसकी तरफ देखने पर सारा ध्यान खुद की ओर खींच लेती थी। उस दिन भी मैंने अनायास ब्रेक लगा दिया था और कौतूहल से उसकी ओर देखा था। नज़रें मिलते ही वह भोलेपन से मुस्कुरा दी। इतना भोलापन था उस मुस्कान में कि प्रत्युत्तर में मैं मुस्कुराये बिना न रह सका। उस दिन तो आगे बढ़ गया लेकिन बिना ध्यान दिये भी जो बातें ध्यान में आ गईं वे दिमाग में चलती रहीं। वह इतनी बूढी औरत वहाँ बिलकुल अकेली थी उसके आसपास कोई नज़र नहीं आया। क्या पता वह कहीं जा रही होगी चलते चलते थक गई तो सुस्ताने बैठ गई। उसका चलता हुआ पोपला मुँह शायद उसके हाँफने की निशानी हो। उसे देखकर तो ऐसा ही लगा जैसे कि जिंदगी का सफर तय करते करते भी थक गई है लेकिन इस सफर में सुस्ताना कैसा यहाँ तो परम आराम ही रुकने का कारण बनता है। खैर जो भी हो वह जिस तरह वहाँ बैठी थी अकेली निस्सार निसंकोच उससे उसकी तरफ आकर्षित होना स्वाभाविक था। उसके बाद ऑफिस के कामों की व्यस्तताओं ने उसे मेरे दिमाग से निकाल दिया। 

उस शाम सड़क के दूसरी ओर से गुजरते हुए भी वह बुढ़िया मेरे ध्यान में नहीं आई।  हाँ दूसरे दिन ऑफिस जाते हुए घर के सामने ही एक बूढ़े भिखारी को भीख माँगते देखा तो उसका ख्याल आया और मैंने अपनी ही बेवकूफी पर खुद को झिड़का। वह क्या अब तक वहाँ बैठी होगी ? कहीं जाते हुए रास्ते में रुकी होगी थोड़ी देर सुस्ताकर चली गई होगी। उसकी वह भोली मुस्कान एक और बार देखने की आस जरूर थी। 
सड़क के मोड़ पर गाड़ी धीमी होते ही नज़रें उसे ढूँढने लगीं। वह उकडू बैठी थी और आँचल सिर पर रखते हुए उसका फटा हिस्सा सिर पर आ गया था जिसे दोनों हाथों से उठाये उसके बीच से आसमान देखते हुए या शायद उसकी मरम्मत तुरपन करने की सम्भावना खोजते वह जिस तरह गर्दन घुमा घुमा कर उस फटे आँचल को देख रही थी मुझे हँसी आ गई। शुक्र था उसने मुझे नहीं देखा था। आगे बढ़ते ही मुझे दूसरी चिंता ने घेर लिया। क्या वह बुढ़िया रात भर यहीं रही थी सड़क किनारे ? कहाँ सोई होगी इसके पास तो बिस्तर चादर कुछ नहीं हैं ? क्या खाया होगा लगता तो नहीं है इसके पास पैसे होंगे ? इसके पास तो पानी पीने तक की व्यवस्था नहीं दिखती। यह आई कहाँ से इसके परिवार वाले कहाँ हैं ?कहीं यह उनसे बिछड़ तो नहीं गई ?कहीं उन्होंने इसे घर से निकाल तो नहीं दिया ? आजकल बुजुर्गों के साथ परिवार में जिस तरह से व्यवहार होता है सब संभव है। उसके मैले फटे कपडे देख कर तो ऐसा लग रहा है जैसे वह कई दिनों से बिना घरद्वार के सड़क पर ही रह रही है। गाड़ी चलाते हुए मैं लगातार उसके बारे में सोचता या यह कहूँ मोड़ पर गाड़ी धीमी होते ही वह मेरे साथ हो जाती और ऑफिस तक साथ जाती। ऑफिस की व्यस्तता में वह मुझे छोड़ वापस सड़क के उस मोड़ पर जा बैठती शायद और किन्ही लोगो का ध्यान खींचती या शायद उनमें से किसी के साथ हो लेती। उससे पूछना तो बहुत कुछ चाहता था पर घडी की भागती सुइयाँ मुझे थमने नहीं देतीं और उसके ख्याल दिमाग में रुकते नहीं थे। रोज़ सोचता कि घर से कोई पुराना कम्बल चादर ला कर उसे दे दूँगा लेकिन शाम को सड़क के उस पार से निकलते वह बुढ़िया इस पार ही रह जाती। नज़र तो तब जाती जब उसका ख्याल आता और ख्याल नहीं आता इसलिए अपना निश्चय भी भूल जाता। 

अभी मार्च ख़त्म नहीं हुआ था हवा में ठंडक थी और रात में खुले में सोने पर अच्छी खासी ठण्ड लगती होगी। वह बुढ़िया सड़क किनारे फटी साड़ी में कैसे रात गुजारती होगी यह सोच कर मेरा मन आत्मग्लानि से भर जाता। एक दिन ऑफिस पहुँचते ही पत्नी को फोन करके एक चादर और शाल निकाल कर रखने को कहा ताकि दूसरे दिन उसे याद से दे दूँ। अगले दिन जब उसे चादर और शाल दी प्रत्युत्तर में उसने दोनों हाथ उठा कर वही भोली मुस्कान दी तो बड़ा सुकून मिला मुझे। 

यह रोज़ का क्रम हो गया सड़क के मोड़ पर गाड़ी धीमी कर मैं एक नज़र उस पर डाल ही लेता वह कभी देखती कभी नहीं। कुछ ही दिनों में पेड़ के नीचे पुराने कपड़ों में बंधी दो तीन पोटलियाँ दिखीं। उनमे क्या था यह तो नहीं पता लेकिन धीरे धीरे उन पोटलियों की संख्या बढ़ती गई फटे पुराने कपड़ों में बंधी लाल नीली पीली छोटी छोटी पोटलियाँ कचरे से बीने गए कपड़ों में ही बंधी थीं। कुछ सामान खुले में पड़ा होता था जिसमे टूटे कप, प्लास्टिक की बोतल चूड़ियाँ कंघियाँ कार्ड बोर्ड के कुछ खाली डब्बे प्लेट चम्मच जूट की बोरी कुछ डोरियाँ अलग अलग तरह की चप्पलें चादर शाल और एक पुराना तकिया। पोटलियों में शायद कुछ कपडे थे। वह अपने सामान की देखभाल में लगी रहती कभी उसे पेड़ के बिलकुल पास रखती तो कभी खुद पेड़ के पास बैठ सामान अपने चारों ओर रख लेती। पता नहीं उसमें से कितना सामान वह उपयोग करती होगी। जाने वह उपयोग करने लायक था भी या नहीं लेकिन उसका उस सामान के प्रति अनुराग साफ़ साफ़ दिखता था। एक दिन वह दूसरी साड़ी में दिखी शायद किसी ने दी हो। 

जैसे जैसे दिन बीतते जा रहे थे उसका साम्राज्य फैलता जा रहा था। वह महीने भर से सड़क के मोड़ पर उस पेड़ के नीचे डटी हुई थी। दिन में शायद कहीं खाना माँगने जाती हो या कचरे के ढेर से सामान बीनती हो। आते जाते लोग शायद उसे कुछ पैसे देते हों मैंने तो उसे कभी पैसे नहीं दिये। कभी उसके आसपास किसी को  देखा भी नहीं इसलिए यह अंदाज़ा भी नहीं लगा पाया कि उसके परिवार में और लोग हैं भी या नहीं वे भी कहीं भीख माँगते हैं या कुछ और करते हैं। 

दिन की धूप तीखी होने लगी थी लेकिन उस बुढ़िया के जमा किये सामान के साथ उसकी जिंदगी कुछ आसान लगने लगी थी। बुढ़ापे में सामान इकठ्ठा करने के उसके शौक से मुझे कई बार अचरज भी होता। उम्र के इस पड़ाव पर जब व्यक्ति विरक्ति की ओर बढ़ता है उस बुढ़िया की आसक्ति हैरान करती खास कर तब जब उसके आगे पीछे कोई नहीं दिखता था। कभी लगता वह शायद कुछ विक्षिप्त है किसी मानसिक आघात ने उसे सही गलत के ज्ञान से वंचित कर दिया है लेकिन उस दिन उसका सामान एक घने पेड़ के नीचे रखा देखा। बाँस की दो खपच्चियों के सहारे उसने एक ओर से आड़ बना ली थी और इसलिए उसके विक्षिप्त होने की संभावना भी ख़त्म हो गई। 

मेरे मन में उससे बात करने की तीव्र इच्छा होती। उसकी मनस्थिति को जानने समझने की उत्कंठा होती। उसके लिए कुछ करने का विचार भी सिर उठाता पर सुबह की हड़बड़ी और शाम को भारी ट्रैफिक के बीच सड़क पार करने की दुश्वारियाँ रोक लेतीं। फिर मैं कोई विक्षिप्त भी तो नहीं था जो यूँ एक बुढ़िया के लिये अपने जरूरी काम छोड़ कर इतनी मुश्किलें उठाता। चादर शॉल देने जैसे आसान काम करके भी जब संतुष्टि पाई जा सकती है फिर इतनी मशक्कत कौन करे ? 
उस दिन इतवार था मुझे किसी से मिलने जाने के लिए एम जी रोड से ही गुजरना था। सड़क के मोड़ पर बुढ़िया को देखते ही मैंने बाइक के पूरे ब्रेक लगा दिए। चर्र की आवाज़ के साथ बाइक रुकी। छुट्टी के कारण सड़क पर ट्रैफिक कम था पीछे से किसी ने हॉर्न नहीं बजाया। बुढ़िया सामान की साज संभाल में व्यस्त थी गाड़ी की आवाज़ पर भी उसने मुड़ कर नहीं देखा मैं उसकी एकाग्रता देख कर दंग रह गया। गाड़ी किनारे लगाकर मैं उसके समीप पहुँचा और उसे आवाज़ दी अम्मा अम्मा। बुढ़िया जिस झटके से मुड़ी एक बारगी डर ही गया लगा सच में यह पागल है और कहीं कोई सामान या पत्थर उठाकर मार न दे। मैं दो कदम पीछे हट गया डर के कारण दोनों हाथ उठकर चेहरे के सामने आ गये। उसने झुककर मेरे हाथों के नीचे से मुझे देखा और वही भोली मुस्कान उसके चेहरे पर प्रकट हुई जिसने मुझे राहत पहुँचाई। हाथ नीचे करते करते खुद पर हँसी भी आई यह बुढ़िया महीनों से सड़क पर रह रही है बिना किसी से डरे कि कोई उसे चोट या नुकसान पहुँचा सकता है और मैं उसके पलटने से डर गया। यह डर किस चीज़ का था या उसे किस चीज़ के ना होने के कारण कोई डर नहीं है ? खैर यह गंभीर चिंतन का विषय था जिसके लिये वह समय मुफीद न था और न ही रविवार का वह दिन। 

बुढ़िया बोरे पर बैठ गई  और मुझे भी बैठने का इशारा किया। इतनी सरलता मुझमे नहीं थी मैं वहीँ पंजों के बल उकडू बैठ गया और हाथों के इशारे से खुद के ठीक होने का आश्वासन दिया। एक नज़र उसके सामान पर डाली और उससे पूछा "कैसी हो अम्मा ?" 
"ठीक हूँ " धीमी आवाज़ और  मुस्कान के साथ जवाब मिला। 
" यहाँ अकेली हो तुम्हारा परिवार कहाँ है?  कहाँ से आई हो?" मेरी बात सुनकर उसकी मुस्कान तिरोहित हो गई। कुछ देर वह खोई खोई नज़रों से अपने सामान को देखती रही कुछ ना बोली। मैंने फिर पुकारा "अम्मा क्या हुआ बताओ ना तुम्हारा परिवार कहाँ है ?" 
दुःख क्रोध क्षोभ चेहरे की सलवटों के ऊपर उभर आये , होंठ फड़फड़ाने लगे आँखें भर आईं उसने हाथ झटका और किसी के ना होने का इशारा किया। 
"कोई तो होगा अम्मा बेटा बेटी बहू पोता पोती क्या हुआ कहाँ हैं सब ?"
बुढ़िया बैचेनी से यहाँ वहाँ देखने लगी पानी की बोतल पर उसकी नज़र टिकी लेकिन वह उससे दूर रखी थी। मैंने हाथ बढ़ा कर बोतल उसे पकड़ा दी। दो घूँट पानी पीकर उसने खुद को संभाला। मेरी आँखों में मेरा प्रश्न अभी भी मौजूद था जिसे देख पहले तो वह सिर झुका कर जमीन को तकने लगी फिर धीरे धीरे बोलना शुरू किया। 
बेटा हम बहुत बड़े ठाकुर परिवार के  हैं भोत बड़ी जमीन जायदाद रही हमाई। भोत बड़ो परिवार हतो तीन बेटा बहुएँ नाती नता। हमाए ठाकुर बड़े भले मानस रहे गरीबन की जी खोल के मदद करत रहे। उनके जावे के बाद हमसे जो कछु बन पडत थो हम कर देत थे। बस जई सोचत थे कि हमरी ड्योढ़ से कोई खाली हाथ न जाये। पर बेटा जो समय को चक्कर ना कभी उलटो भी घूम जाए है। हमरे बेटा बहुअन को जा बात पसंद ना हती। पहले तो बे हमें मना करत रहे हमने भी उनकी बात रखबे खातिर थोड़ो हाथ तो खींच लओ थो पर बेटा कभी कभी जब कोई भोतइ मजबूर मनक बड़ी आस ले कर आ जाये बा से कैसे मना कर सकत थे। हम अपने गहना गरुआ में से कछु दे देत थे। ठाकुर हवेली से मजबूर इंसान खाली हाथ जाये तो हवेली की सान घटत है। पर बेटा उन लोगन को जो भी पसंद नहीं आओ और एक दिना कहते हुए बुढ़िया चुप हो गई एक घुटी सी सिसकी बोल पड़ी। 
"और क्या अम्मा क्या हुआ ?" मैंने व्यग्रता से पूछा। 
बुढ़िया की सूनी आँखों से आँसुओं के रेले बह निकले "और बेटा एक लंबी सिसकी के बाद वह बोली "एक दिना आधी रात के बड़ो बेटा अपनी मोटर गाड़ी में हमें बैठार के इस गाँव में हमें छोड़ गओ। जो कौन गाँव है बेटा हमें तो जा भी नहीं पता। कछु दिना हम इते उते घूमत रहे लोगन से हमाए घर पहुचाने की कहत रहे फिर सोची उते पहुँच कर भी का हुए ? बे ओरें फिर हमें बाहर निकार दियें जैसे अब हम बेटा जहिं के हो गए। पास की बस्ती में दो चार घर हैं भले लोग हैं बेचारे कोई ना कोई कछु दे देत है। हमरो खाबो कित्तो सो है बेटा, एक रोटी और तनक सी सब्जी तो खातई हैं।"  कह कर बुढ़िया चुप हो गई। 
"अम्मा तुम पुलिस के पास क्यों नहीं जातीं वो तुम्हारे बेटों से कहेगी तुम्हे रखें। कौन गाँव की हो गाँव का नाम पता है ?" 
"नहीं बेटा अब वापस उते नई जाने। हमाओ का हतो उते जो थो सो ठाकुर साब को उनके बाद उनके लड़को को । 
"अम्मा कितनी तेज़ गर्मी पड़ रही है फिर बरसात आ जाएगी यहाँ खुले में कैसे रहोगी ?" मैंने भविष्य की चिंता जता कर उससे कहा। 
"तब की तब देखी जैहे बेटा। हम का जानत थे के एक दिन सड़क पर रहना पड़ेगा। " 
मैं निरुत्तर था उसका मन अब बेटे बहुओं घर परिवार से हट गया था। वह यहाँ सुकून से थी क्या हुआ जो चार दीवार और छत नहीं थी। 
"अम्मा यह सामान क्यों इकठ्ठा किया है ये कोई काम आता है क्या ?मैंने टूटे कप कंघी बोतल को देखते हुए कहा। अम्मा के पोपले मुँह पर फिर भोली मुस्कान बिखर गई। " जे सब हमरी जमा पूँजी है। लड़कों ने हमें उस सामराज से निकार दओ पर जब हम मरेंगे तब अपनों सामराज छोड़ जैहें । तुमार लाने जो बेकार सामान हुईए पर जिनके पास जो भी नहीं है उनके लाने जो बड़ो कीमती है। कोई कछु माँगत है तो जई में से दे देत हैं हम ठकुराइन हैं बेटा अपने पीछे गरीबन के लाने कछु छोड़ कर जईहे।" बुढ़िया का स्वर गर्व से बुलंद हो गया। मैं कुछ कह नहीं सका खड़े होते होते मैंने सौ का नोट बोरी के नीचे दबा दिया। 
"अम्मा मैं यहाँ से रोज़ निकलता हूँ कभी किसी चीज़ की जरूरत हो तो बता देना। बुढ़िया ने निश्छल मुस्कान के साथ दोनों हाथ आशीष की मुद्रा में उठा दिए। 
अजीब मनस्थिति में मैं वहाँ से चला आया। तब से रोज़ ही उस बुढ़िया को देखता कभी कभी समय को रोक उसके पास रुक जाता था कभी कुछ फल खाना या कुछ पैसे दे देता था। 
आज उस बुढ़िया को वहाँ न देखकर बैचेनी होने लगी। उसका सामान वहीँ पेड़ के नीचे था मुझे लगा शायद आसपास कहीं गई होगी खाना लेने या कचरे से कुछ बीनने। समय भागा जा रहा था इसलिए मैं भी रुक न सका। 
अगले दिन फिर बुढ़िया दिखाई नहीं दी तभी नगर पालिका की कचरा गाड़ी वहाँ आकर रुकी और उसका सामान उठाकर गाड़ी में डालने लगी। मैं जैसे तिलमिला गया तुरंत बाइक किनारे लगाई और गाड़ी के पास पहुँचा। 
"भई क्यों ये सामान ले जा रहे हो यह उस बूढी अम्मा का है वह आसपास कहीं गई होगी अभी आ जाएगी। उसने बुढ़ापे में बड़ी मुश्किल से अपनी जरूरत का सामान इकठ्ठा किया है।"
सामान रखने वाले ने बड़ी लापरवाही से कहा "साब वो बुढ़िया तो परसों रात मर गई कल लावारिस लाश का क्रियाक्रम भी हो गया। अब ये सामान हटा कर कचरे में डाल देंगे जिसे जरूरत होगी ले जायेगा।" 
मेरी आँखें भर आई वह बुढ़िया चली गई तभी कचरा बीनने वाले दो लडके वहाँ आ गये उन्होंने बोरी उठाई उसके नीचे सौ का नोट और कुछ छोटे नोट थे उन्होंने वे जेब में ठूंस लिए और बुढ़िया के छोड़े साम्राज्य से अपनी जरूरत का सामान चुनने लगे। 

11 टिप्‍पणियां:

  1. कैसा बदलाव आया है .. रौंगटे खड़े हो जाते हैं.. यह सब जानकर..

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  2. शुरू से अंत तक बांधे रखती है कहानी,भाषा का प्रवाह अद्भुत है ...मनोविज्ञान का चित्रण बखूबी किया है ....बेहद संवेदनशील कहानी,बधाई हो आपको 👍👍👍

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  3. यथार्थ का सजीव चित्रण । प्रवाहपूर्ण अभिव्यक्ति । गज़ब का साम्राज्य बनाया ।

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  4. मार्मिक..
    मेरी आँखें भर आई वह बुढ़िया चली गई तभी कचरा बीनने वाले दो लडके वहाँ आ गये उन्होंने बोरी उठाई उसके नीचे सौ का नोट और कुछ छोटे नोट थे उन्होंने वे जेब में ठूंस लिए और बुढ़िया के छोड़े साम्राज्य से अपनी जरूरत का सामान चुनने लगे।
    सादर..

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  5. ये यथार्थ चित्रण है होता रहता है । किसी बड़ी दुर्घटना में कुछ ऐसे भी लोग होते है , जो घायलों की सहायता की बजाय उनके मोबाइल, अगूँठी और पर्स लूटते देखे जाते हैं ।

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  6. कहानी उत्सुकता जगाये रखते हुए स्तब्ध कर गई.
    निपूती ही रह जाती तो सुखी रहती!

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  7. ओह ! कई बार अपनी भावनाएं कह पाना बड़ा मुश्किल सा होता हैं | ये कहानी पढ़ कर ऐसा ही हो रहा हैं एक अजीब सी बेबसी कुछ ना कर पाने की कसक कुछ ऐसा ही | कहानी ने अंत तक एकदम बाँध कर रखा | बहुत ही अच्छी कहानी |

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  8. मर्मस्पर्शी यथार्थ चित्रण... कहानी की तारतम्यता बाँधे रखती है, जो आपके लेखन की विशेषता है... शुभकामनाएं कविता जी

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  9. एक सच ये भी है आज का.... बेहद शानदार लेखन के लिये बधाई सहित शुभकामनाएं

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  10. ओह ! अत्यंत मार्मिक कथा ! दरकी संवेदनाओं और टूटते रिश्तों का सशक्त चित्रण ! कहानी के साथ साथ चलते चलते ऐसा लगा जैसे अचानक ही हम भी वृद्धा के साथ अंतिम कगार पर आ खड़े हुए हैं ! साधुवाद कविता जी !

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