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मंगलवार, 30 जुलाई 2019

ब्लॉग बुलिटेन-ब्लॉग रत्न सम्मान प्रतियोगिता 2019(सैंतीसवां दिन)कविता,ग़ज़ल




दिशा
दिशा जिन्दगी की, दिशा बन्दगी की, दिशा सपनों की, दिशा अपनों की, दिशा विचारों की, दिशा आचारों की, दिशा मंजिल को पाने की, दिशा बस चलते जाने की....
मिलिए दीपाली तिवारी से -
मेरा फोटो 


उदासी
https://deepali-disha.blogspot.com/2019/05/blog-post.html?m=1 

मत छोड़ तू उम्मीदियों का दामन,
तो क्या हुआ जो अभी देहरी पर है अंधेरा।
सब्र कर, तोड़ दे ये उदासियों के घेरे,
उस पार, इंतजार कर रहा है, एक नया सवेरा।।
सच, बहुत फर्क पड़ता है, तेरी सोच का,
हो आशावाद का या निराशावाद का कोहरा।
एक कठपुतली की तरह नाचता है इंसान,
और बन जाता है, सोच की शतरंज का मोहरा
तो उठ, और कर कल्पना , एक सुंदर कल की,
रोशनी से भरे, उज्ज्वल, हर खुशनुमा पल की
हटा दे अपनी सोच से, उदासी का पहरा
देख तेरा इंतज़ार कर रहा है, भविष्य सुनहरा।

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पुष्पेंद्र 'पुष्प' की ग़ज़ल-'हाय वो कितना सितमगर हो गया'

हम समझते थे कि दिलबर हो गया
हाय! वो कितना सितमगर हो गया

किस सलीके से निभाई थी वफ़ा
प्यार फिर भी रेत का घर हो गया

कौन पहचाने हमें इस भीड़ में
आइना भी जैसे पत्थर हो गया

देखकर उसकी अदा का बाँकपन
आज हर कोई सुख़नवर हो गया

वस्ल का इक पल मिला जो ख्वाब में
हिज़्र  का  ऊँचा  मुक़द्दर  हो  गया

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रिश्ते – आम का अचार
प्रज्ञा 

रिश्तों में, नया-ताज़ा कुछ नहीं होता।
उनमें बोरियत होती है।
एक जैसी सुबह
एक जैसी दोपहर,और शाम होती है।

फिर वही चाय,
फिर छुट्टियों में कहाँ घूमने जाएँ!
रिश्ते दादी माँ के हाथ का अचार हो जाते हैं,
जिनके बारे में सोच कर लगता है कि,
सीढ़ी घर की काठ की अलमारी में,
शीशे के बोइयाम हमेशा सजे रहेंगे।
कोई देखे न देखे।

कभी आम के टिकोले, कभी लहसुन-मिर्ची
कभी कुच्चों के गुच्छे, हमेशा बने रहेंगे
कोई सोचे न सोचे।

वो ज़रा से ढक्कन का हटना और
रेलवे के शयन कक्ष तक महक जाना,
हमेशा बना रहेगा
कोई पूछे न पूछे।

की जैसेे वो आम के अचार,
नवीकरणीय ऊर्जा के स्त्रोत हों,
जिनकी अनवरत आपूर्ति
एक निश्चित समय में हो ही जायेगी।

की जैसे गर्मी तो फिर आएगी ही,
पेड़ों में आम भी आएंगे।
पर कौन जनता था?
एक दिन बोरियत से ज़्यादा,
दूरियों के फांस गड़ जायेंगे।

गर्मी अब भी आती है,
पेड़ों में आम भी आते हैं,
पर धूप !
धूप मेरे छठे माले की खिड़की पे,
झांक कर चली जाती है।
जैसे शिकायत कर रही हो!

“शीशियों की देखभाल की थी तुमने?,
“बस खाने की फ़िराक थी तुमको!”
“कभी सोचा था कितने मुश्किल से बनते थे,”
“कितना नमक, मिर्च-मसाला,और हाथ के बल लगते थे।”
“अब नया ताज़ा मिलता है ना!”
“भर भर कर,कारखानो से !”

मुझे इतना कुछ वाकई पता नहीं था,
बस याद है , अचार कई दिनों में बनता था।
ठहाकों में कटता था, बाल्टी भर,
घर की औरतों के कह कहों से
बीच-बीच में बुलाहट आती थी:
“जा चद्दर पसार,
खाट लगा कर आ!
छोटे वाले छत पर!”
मुंह फुला के उठती थी,
टी. वी.जो बंद करना पड़ता था
अचार की कामगारी पर।
मुझे वो बोरियत अच्छी लगती थी।
अलसायी दोपहर की ताज़ी सांस अच्छी लगती थी।
बिना बात मेरे लिए किसी की फिकर अच्छी लगती थी
अच्छा लगता था मुझे तुम्हारा दौड़कर लिपट लेना।
जैसे ये अहसास आजीवन विद्यमान रहेंगे
अचल सम्पत्ति बन कर
समय भूल जायेगा मेरे घर का रास्ता
करीबी रिश्तेदार बनकर!

समय भूल जायेगा मेरे घर का रास्ता
करीबी रिश्तेदार बनकर!

7 टिप्‍पणियां:

  1. शुभ संध्या...
    सभी रचनाएँ बेहतरीन...
    सभी को शुभकामनाएँ..
    सादर..

    जवाब देंहटाएं
  2. समय भूल जायेगा मेरे घर का रास्ता
    करीबी रिश्तेदार बनकर! - appropriate :)
    तीनों की रचनाएँ शानदार
    शुभकामनायें !

    जवाब देंहटाएं

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