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सोमवार, 8 जुलाई 2019

ब्लॉग बुलिटेन-ब्लॉग रत्न सम्मान प्रतियोगिता 2019 (पन्द्रहवाँ दिन) कविता




शिखा वार्ष्णेय को हम उनके शब्दों में पहले जान लें, फिर कुछ कहें -
"अपने बारे में कुछ कहना कुछ लोगों के लिए बहुत आसान होता है, तो कुछ के लिए बहुत ही मुश्किल और मेरे जैसों के लिए तो नामुमकिन फिर भी अब यहाँ कुछ न कुछ तो लिखना ही पड़ेगा न. तो सुनिए. मैं एक जर्नलिस्ट हूँ मास्को स्टेट यूनिवर्सिटी से गोल्ड मैडल के साथ टीवी जर्नलिज्म में मास्टर्स करने के बाद कुछ समय एक टीवी चैनल में न्यूज़ प्रोड्यूसर के तौर पर काम किया, हिंदी भाषा के साथ ही अंग्रेज़ी,और रूसी भाषा पर भी समान अधिकार है परन्तु खास लगाव अपनी मातृभाषा से ही है.अब लन्दन में निवास है और लिखने का जुनून है."
ये शिखा ने तब कहा, जब उसने ब्लॉग बनाया, आज वे एक स्थापित ब्लॉगर ही नहीं, किताबों की दुनिया में भी उनके ठोस कदम पड़े हैं, रसोई चिंतन उनका लाजवाब होता है, स्वादिष्ट लज़ीज़ खाने की सरल विधि के साथ वे अपने भुक्खड़ घाट पर और रेडियो पर मिलती हैं। आज वे इस प्रतियोगिता मंच पर अपनी एक कविता के साथ हैं, इस चाह के साथ कि ब्लॉग के दिन लौट आयें। 


वह जीने लगी है…



अब नहीं होती उसकी आँखे नम जब मिलते हैं अपने
अब नहीं भीगतीं उसकी पलके देखकर टूटते सपने।
अब नहीं छूटती उसकी रुलाई किसी के उल्हानो से
अब नहीं मरती उसकी भूख किसी के भी तानो से।

अब किसी की चढ़ी तौयोरियों से नहीं घुटता मन उसका
अब किसी की उपेक्षाओं से नहीं घुलता तन उसका ।

अब नम होने से पहले वह आँखों पर रख लेती है खीरे की फांकें
लेती है कॉफी के साथ केक, सुनती है सेवेंटीज के रोमांटिक गाने।

मन भारी होता है तो वह अब रोती नहीं रहती है
पहनती है हील्स और सालसा क्लास चल देती है।
आखिरकार अपनी जिंदगी अब वह जीने लगी है
क्योंकि पचास के आसपास की अब वह होने लगी है।

24 टिप्‍पणियां:

  1. कुछ भी कहना आसान नहीं
    व्यक्तित्व और लेखनी सदा प्रभावशाली रही

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  2. व्वाहहहहहह
    अब नहीं होती उसकी आँखे नम जब मिलते हैं अपने
    अब नहीं भीगतीं उसकी पलके देखकर टूटते सपने।
    बेहतरीन..
    सादर नमन

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  3. बिल्कुल सही है
    शिखा बिल्कुल सबके मन की बात खूबसूरत शब्दो मे उकेर देती है।

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  4. वाह .......यही है अब आज की स्त्री की सशक्त पहचान

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  5. बहुत सुंदर ....हर सुख हर दुख को पीने लगी है ...सही अर्थों में अब वो जीने लगी है ...

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  6. एक उम्र बीती कटते कटते इस तरह कि अब जीना आ गया....
    अच्छी कविता....

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  7. वाह क्या बात हैं | बस उम्र दस साल बढ़ा दी अब ये और पहले होने लगा हैं :)

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  8. बहुत बढ़िया। पचास का होने से पहले ये सोच आ जाए तो शायद जिंदगी के बहुत से कीमती वर्ष बर्बाद होने से बच जाएँ। शिखाजी का परिचय पाकर बहुत अच्छा लगा।

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  9. ये समझ पचास के आस पास ही क्यों आती है ? खैर देर आए दुरुस्त आए । तुम्हारी कविता पढ़ कर शायद अब शुरू से ही ऐसी जीवन शैली अपना लें ।

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  10. बहुत खूब ,शिखा जी का शब्द चयन भी सरल रहता है 👍

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  11. वाह शिखा जी बहुत खूब ! कितना सुन्दर मूल मन्त्र थमा दिया जीने का अपनी इस खूबसूरत कविता के माध्यम से ! आज की नारी घुट घुट कर नहीं जीती अब ! उसने भी जीना सीख लिया है !

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  12. बेहद हृदयस्पर्शी प्रस्तुति

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  13. शिखा जी का नाम किसी परिचय का मोहताज नहीं! इनकी विभिन्न विषयों पर कई पुस्तकें भी।प्रकाशित हुई हैं और उन्हें सम्मानित भी किया जा चुका है।
    प्रस्तुत रचना नारी मनोविज्ञान के एक रोचक पहलू की ओर ध्यानाकर्षित करती है, जो सचाई के साथ साथ एक बड़ा ही रोचक दृश्य उपस्थित करती है।

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  14. ऐसा लग रहा है शिखा आप मेरी बात कह रही हैं ...अति भावुकता के चलते सबसे ज्यादा तो हम खुद ही के हाथों सताए जाते हैं...और उस दर्द के कुँड से हम ही खुद को हौसले की रस्सियों से बाहर निकाल सकते हैं और यह हौसला कहाँ आ पाता है जल्दी बहुत ठुकने पिटने के बाद आती है हिम्मत और अकल भी...बहुत सुंदर सटीक रचना ...बधाई आपको 💐

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  15. सुंदर सशक्त रचना... ब्लॉग और ब्लॉगर के मज़बूत रिश्ते सदा बने रहें... शुभकामनाएं

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  16. बहुत कमाल की रचना ...
    जो बहुत पहले हो जाना चाहिए ... पर अब भी हुआ तो अच्छा है ... बहुत शुभकामनाएँ

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  17. अब वह जीने लगी है....बहुत बढ़िया

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  18. खुद के लिए जीना जब भी आ जाये..भला है..जो खुद के साथ खुश है वह जहाँ में खुशियाँ ही बांटेगा

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  19. रोचक सत्य! ख़ूबसूरती के साथ रचा हुआ!
    हार्दिक बधाई शिखा जी!

    ~सादर
    अनिता ललित

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  20. अरे वाह... शिखा जी को हार्दिक बधाई

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  21. अरे वाह... शिखा जी को हार्दिक बधाई

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