श्रुति अग्रवाल, प्रतियोगिता में शामिल होने के लिए ब्लॉग बनाया और उनके इस सफल प्रयास ने सिद्ध किया कि चाह हो तो कदम उठते ही उठते हैं, और सफलता भी तब कदम बढ़ाती है। चलिए, उनके इस हौसले के साथ हम भी अपना रिश्ता बनायें और उनको पढ़ें -
अकल्पित
आने को तो वह गाँव आ गये थे, पर मन बिल्कुल झल्लाया हुआ था। अक्सर वो इस बात का लेखा जोखा करते रहे हैं कि माँ बाप का विरोध करके, जवानी में, ये पढ़ी लिखी पत्नी लाने का निर्णय कर के उन्होंने सही किया था या गलत ... कि अगर अनपढ़ रही होती तो उनकी हर बात को आज्ञा की तरह मानती, थोड़ा साड़ी गहना पा के खुश हो जाती न कि इस तरह, अजनबी सी ठंडी आवाज में फोन करके गाँव आने का दबाव बनाती और उनको अपना इतना व्यस्त कार्यक्रम, यहाँ तक कि दिल्ली जाकर पी एम तक से मिलने का पूर्वनिर्धारित कार्यक्रम छोड़कर यहाँ आना पड़ता।
घर पँहुचे तो थोड़ा आश्चर्य सा हुआ कि न तो हमेशा की तरह पत्नी अनीता ठसके के साथ सजी धजी, बाहर आकर स्वागत करती हुई मिलीं, न वहाँ उनके आते ही व्यस्त होकर भाग दौड़ करने के लिये घर के नौकर चाकर ही दिखाई दे रहे थे। फिर कमरे में पँहुचे तो लगा जैसे फिज़ा में मरघट सी खामोशी और मुर्दनी छाई हुई हो। अनीता की उड़ी-उड़ी सी रंगत, सूजी आँखें और बिखरे बालों के देख कर वो जरा चिंतातुर से हो उठे।
" क्या बात है, तबियत खराब है? तो हमें यहाँ काहे बुलाया? अाप ही राजधानी आ जातीं, किसी अच्छे डाक्टर से मिला देते!"
एक जोड़ा सूनी सूनी सी निगाहें उनके चेहरे पर आकर टिक गई थीं ... "टी वी देखे हैं दो दिन से?"
फिर झल्ला गये वो, यही पूछने को विधान सभा के चलते सत्र को छुड़वा के इतनी दूर बुला लिया है? इतना नुक्सान सह कर आना पड़ा है उनको!
"दो दिन से टी वी पर गाँव की जिस चौदह साल की बच्ची के बलात्कार की न्यूज चल रही है, जानते हैं कौन है वो? अपने रमेसर की छोटी बिटिया है।"
अरे .... अब याद आया। सचमुच इधर इतने व्यस्त रह गये थे वो कि इसपर ध्यान ही नहीं गया उनका। तब तो ये अच्छा ही हुआ कि इस समय में वो यहाँ आ गये हैं जब पूरा गाँव मीडिया वालों से ठसाठस भरा होगा ... इसका तो जबरदस्त फायदा उठाया जा सकता है। इतने-इतने जरूरी कार्यक्रम छोड़ कर गाँव की एक बच्ची के उद्धार के लिये वो यहाँ दौड़े आए हैं ... इस एक दौरे से सिर्फ़ उनका ही क्या , उनकी पूरी पार्टी का बहुत सारा कलंक धोया जा सकता है ! इसे कहते हैं 'ब्लेसिंग इन डिसगाइस! '.... मन एक्दम से हल्का हो गया और हल्की सी स्मित भी होंठों पर आ सजी। मगर अनिता मानों अपनी ही धुन में हों....
"आपको अंदाज़ है कि ऊ चार लड़के कौन थे?"
उनके जवाब का इन्तजार किये बिना खुद ही बोलने लगीं, "वे लोग आपका मनोहर और उसके दोस्त यार थे!"
सत्य इतना कटु था कि बोलते हुए अनिता की आँखें बेसाख्ता बरसने लगी थीं।"
"पागल हो गई हो? बच्चा है वो तो! ई सब करने की कोई उमर हुई है अभी?"
वो बहुत जोर से चौंके थे पर अनिता किसी भी तर्क से दुविधा ग्रस्त होने को तैयार नहीं थीं।
"काश कि वो बच्चा ही होता! जब से गाँव वापस आया है, अपने आप को सबका मालिक समझ रहा है। खाली नई नई गाड़ी, आवारागर्दी और दोस्ती यारी चल रही है। दारू और पिस्तौल बंदूक भी हो पास में, तो हमको क्या पता? उसका मोबाइल खोल के देखे हैं हम एक दिन, खाली नंगई से भरा हुआ है। हमको याद पड़ता है कि रमेसर की बिटिया की फोटो भी थी उसमें! आपकी शह पर कूदता रहता है, हमारी कोई सुनवाई नहीं है, फालतू रिरियाते रहते हैं! और घटना वाले दिन से तो बिल्कुल गायब है, घर में लौटा ही नहीं है।"
इसबार अनिता की बात को काट नहीं सके वह।
ये क्या हो गया ! वो भी इतने गलत समय पर? अपोजीशन ने सूँघ भी लिया तो मुसीबत हो जायगी! दिन भर घर में बैठे बैठे करती क्या रहती हैं ई औरत लोग, कि एक बच्चा तक नहीं सँभालता इनसे, पर मुँह से कुछ कह दो तो महाभारत खड़ा कर देंगीं।
"आपलोग को तो हर समय बस हरा हरा सूझता है न, हमको कैसी कैसी मुसीबत से जूझना पड़ता है , जानता है कोई? लोग जैसे घात लगा के बैठे हुए हैं। एक मौका मिला नहीं कि दो मिनट नहीं लगेगा, सब सुख आराम खतम होने में! अब देखती रहियेगा, क्या नहीं करना पड़ेगा खबर को बाहर जाने से रोकने के लिये! किसको किसको मालूम है ये सब? कहीं कोई पुलिस दरोगा घर पर तो नहीं आया था? किसकी ड्यूटी है आजकल यहाँ?"
"क्या करने वाले हैं अब आप?"
" देखिये रमेसर कितना बड़ा मुँह खोलता है चुप रहने के लिये! लड़की को गाँव से हटाना पड़ेगा!"
"क्यों करियेगा ये सब? कि मनोहर निश्चिंत होकर एक और लड़की को निशाना बनाने निकल पड़े?"
यही है.... यही सब वजह है कि उनका मन झल्ला उठता है! ऐसी भी क्या पढ़ाई लिखाई कि वक्त की नाजुकता तक समझ में न आए?
"तो आप ही बताइये क्या करें? जेल में डलवा दें उसको कि फाँसी पर चढा दें? और हम? रिजाइन करके घर पर बैठ जाएँ?"
अनिता की जलती हुई आँखों के कटोरे खौलते हुए आँसुओं से भर गए थे कि याद आने लगा था उन सात वर्षों का संघर्ष .... डाक्टर पीर ओझा, मंदिर मस्जिद की दौड़ .... आसानी से नहीं मिला था ये लड़का .... ईश्वर से छीनकर लाई थीं इसे ! तो क्या पाल पोस कर एक दिन फाँसी पर चढा देने के लिये माँगा था इसको?
पर अब मन पर पत्थर रखना जरूरी हो गया था।
" ठीक है, पर वो लड़की? उसका क्या करें? ब्याह करा दें मनोहर से?"
"दिमाग खराब हो गया है? एक तो नीच जात की लड़की, तिसपर से पता नहीं कौन कौन भोग चुका है उसदिन! घर में लाने लायक है? मनोहर के लायक बची है? कहा न रमेसर को भरपूर पैसा दे देंगें।"
पहले तो चुप रह गई थीं अनीता, पर कुछ था जो खौल रहा था मन में , सो बोलना ही पड़ा ...
"हमको पता है, हम आप लोगों को किसी चीज से रोक नहीं पाएँगे। बहुत कमजोर हैं ... न कोर्ट कचहरी की हिम्मत है, न अपने पेट के जाए को जलील होते देखने की! जो मन हो करिये, हम रास्ते में नहीं आएँगे अब! पर खुद तो प्रायश्चित कर सकते हैं न इसका! मनोहर को भगवान के कहर से बचाने के लिये करना ही पड़ेगा ... रमेसर से बात कर लिये हैं, ई बिटिया को हम गोद ले रहे हैं। एक छोटा सा मकान भी देखा है। अब बहू कहिये या बेटी, आज से हमारा सब कुछ वही होगी। पढाएँगे लिखाएँगें, जीने की हिम्मत देगें और रोज उसके साथ हुई ज्यादती की माफी माँगेंगे उससे। बाबूजी वाले पैसे का जो ब्याज आता है, उसी से काम चल जायगा हमारा! नहीं चाहिये हमको वो राजपाट जो हमारे बेटा को फाँसी के तख्ते पर ले जाय!"
दुःख और विरक्ति भरी ठंडी आवाज थी पर चेहरा निर्णय की दीप्ति से चमक रहा था। और मंत्री जी अवाक् से पत्नी का मुँह देखे जा रहे थे।
घर पँहुचे तो थोड़ा आश्चर्य सा हुआ कि न तो हमेशा की तरह पत्नी अनीता ठसके के साथ सजी धजी, बाहर आकर स्वागत करती हुई मिलीं, न वहाँ उनके आते ही व्यस्त होकर भाग दौड़ करने के लिये घर के नौकर चाकर ही दिखाई दे रहे थे। फिर कमरे में पँहुचे तो लगा जैसे फिज़ा में मरघट सी खामोशी और मुर्दनी छाई हुई हो। अनीता की उड़ी-उड़ी सी रंगत, सूजी आँखें और बिखरे बालों के देख कर वो जरा चिंतातुर से हो उठे।
" क्या बात है, तबियत खराब है? तो हमें यहाँ काहे बुलाया? अाप ही राजधानी आ जातीं, किसी अच्छे डाक्टर से मिला देते!"
एक जोड़ा सूनी सूनी सी निगाहें उनके चेहरे पर आकर टिक गई थीं ... "टी वी देखे हैं दो दिन से?"
फिर झल्ला गये वो, यही पूछने को विधान सभा के चलते सत्र को छुड़वा के इतनी दूर बुला लिया है? इतना नुक्सान सह कर आना पड़ा है उनको!
"दो दिन से टी वी पर गाँव की जिस चौदह साल की बच्ची के बलात्कार की न्यूज चल रही है, जानते हैं कौन है वो? अपने रमेसर की छोटी बिटिया है।"
अरे .... अब याद आया। सचमुच इधर इतने व्यस्त रह गये थे वो कि इसपर ध्यान ही नहीं गया उनका। तब तो ये अच्छा ही हुआ कि इस समय में वो यहाँ आ गये हैं जब पूरा गाँव मीडिया वालों से ठसाठस भरा होगा ... इसका तो जबरदस्त फायदा उठाया जा सकता है। इतने-इतने जरूरी कार्यक्रम छोड़ कर गाँव की एक बच्ची के उद्धार के लिये वो यहाँ दौड़े आए हैं ... इस एक दौरे से सिर्फ़ उनका ही क्या , उनकी पूरी पार्टी का बहुत सारा कलंक धोया जा सकता है ! इसे कहते हैं 'ब्लेसिंग इन डिसगाइस! '.... मन एक्दम से हल्का हो गया और हल्की सी स्मित भी होंठों पर आ सजी। मगर अनिता मानों अपनी ही धुन में हों....
"आपको अंदाज़ है कि ऊ चार लड़के कौन थे?"
उनके जवाब का इन्तजार किये बिना खुद ही बोलने लगीं, "वे लोग आपका मनोहर और उसके दोस्त यार थे!"
सत्य इतना कटु था कि बोलते हुए अनिता की आँखें बेसाख्ता बरसने लगी थीं।"
"पागल हो गई हो? बच्चा है वो तो! ई सब करने की कोई उमर हुई है अभी?"
वो बहुत जोर से चौंके थे पर अनिता किसी भी तर्क से दुविधा ग्रस्त होने को तैयार नहीं थीं।
"काश कि वो बच्चा ही होता! जब से गाँव वापस आया है, अपने आप को सबका मालिक समझ रहा है। खाली नई नई गाड़ी, आवारागर्दी और दोस्ती यारी चल रही है। दारू और पिस्तौल बंदूक भी हो पास में, तो हमको क्या पता? उसका मोबाइल खोल के देखे हैं हम एक दिन, खाली नंगई से भरा हुआ है। हमको याद पड़ता है कि रमेसर की बिटिया की फोटो भी थी उसमें! आपकी शह पर कूदता रहता है, हमारी कोई सुनवाई नहीं है, फालतू रिरियाते रहते हैं! और घटना वाले दिन से तो बिल्कुल गायब है, घर में लौटा ही नहीं है।"
इसबार अनिता की बात को काट नहीं सके वह।
ये क्या हो गया ! वो भी इतने गलत समय पर? अपोजीशन ने सूँघ भी लिया तो मुसीबत हो जायगी! दिन भर घर में बैठे बैठे करती क्या रहती हैं ई औरत लोग, कि एक बच्चा तक नहीं सँभालता इनसे, पर मुँह से कुछ कह दो तो महाभारत खड़ा कर देंगीं।
"आपलोग को तो हर समय बस हरा हरा सूझता है न, हमको कैसी कैसी मुसीबत से जूझना पड़ता है , जानता है कोई? लोग जैसे घात लगा के बैठे हुए हैं। एक मौका मिला नहीं कि दो मिनट नहीं लगेगा, सब सुख आराम खतम होने में! अब देखती रहियेगा, क्या नहीं करना पड़ेगा खबर को बाहर जाने से रोकने के लिये! किसको किसको मालूम है ये सब? कहीं कोई पुलिस दरोगा घर पर तो नहीं आया था? किसकी ड्यूटी है आजकल यहाँ?"
"क्या करने वाले हैं अब आप?"
" देखिये रमेसर कितना बड़ा मुँह खोलता है चुप रहने के लिये! लड़की को गाँव से हटाना पड़ेगा!"
"क्यों करियेगा ये सब? कि मनोहर निश्चिंत होकर एक और लड़की को निशाना बनाने निकल पड़े?"
यही है.... यही सब वजह है कि उनका मन झल्ला उठता है! ऐसी भी क्या पढ़ाई लिखाई कि वक्त की नाजुकता तक समझ में न आए?
"तो आप ही बताइये क्या करें? जेल में डलवा दें उसको कि फाँसी पर चढा दें? और हम? रिजाइन करके घर पर बैठ जाएँ?"
अनिता की जलती हुई आँखों के कटोरे खौलते हुए आँसुओं से भर गए थे कि याद आने लगा था उन सात वर्षों का संघर्ष .... डाक्टर पीर ओझा, मंदिर मस्जिद की दौड़ .... आसानी से नहीं मिला था ये लड़का .... ईश्वर से छीनकर लाई थीं इसे ! तो क्या पाल पोस कर एक दिन फाँसी पर चढा देने के लिये माँगा था इसको?
पर अब मन पर पत्थर रखना जरूरी हो गया था।
" ठीक है, पर वो लड़की? उसका क्या करें? ब्याह करा दें मनोहर से?"
"दिमाग खराब हो गया है? एक तो नीच जात की लड़की, तिसपर से पता नहीं कौन कौन भोग चुका है उसदिन! घर में लाने लायक है? मनोहर के लायक बची है? कहा न रमेसर को भरपूर पैसा दे देंगें।"
पहले तो चुप रह गई थीं अनीता, पर कुछ था जो खौल रहा था मन में , सो बोलना ही पड़ा ...
"हमको पता है, हम आप लोगों को किसी चीज से रोक नहीं पाएँगे। बहुत कमजोर हैं ... न कोर्ट कचहरी की हिम्मत है, न अपने पेट के जाए को जलील होते देखने की! जो मन हो करिये, हम रास्ते में नहीं आएँगे अब! पर खुद तो प्रायश्चित कर सकते हैं न इसका! मनोहर को भगवान के कहर से बचाने के लिये करना ही पड़ेगा ... रमेसर से बात कर लिये हैं, ई बिटिया को हम गोद ले रहे हैं। एक छोटा सा मकान भी देखा है। अब बहू कहिये या बेटी, आज से हमारा सब कुछ वही होगी। पढाएँगे लिखाएँगें, जीने की हिम्मत देगें और रोज उसके साथ हुई ज्यादती की माफी माँगेंगे उससे। बाबूजी वाले पैसे का जो ब्याज आता है, उसी से काम चल जायगा हमारा! नहीं चाहिये हमको वो राजपाट जो हमारे बेटा को फाँसी के तख्ते पर ले जाय!"
दुःख और विरक्ति भरी ठंडी आवाज थी पर चेहरा निर्णय की दीप्ति से चमक रहा था। और मंत्री जी अवाक् से पत्नी का मुँह देखे जा रहे थे।
अद्भुत प्रायश्चित ।
जवाब देंहटाएंधन्यवाद
हटाएंबहुत बढ़िया ...
जवाब देंहटाएंThank you
हटाएंनिशब्द हूँ
जवाब देंहटाएंएक नई शुरुआत की राह दिखाती हुई यह कहानी समाजसुधार में स्त्री की अहम भूमिका की पुरजोर पेशकश करती है।
जवाब देंहटाएंइस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.
हटाएंइस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.
हटाएंधन्यवाद
हटाएंकथा पढ़ते हुए सिहरन सी हुई. न्याय की बात करना, दुहाई देना तब तक ही आसान है जब तक उसकी परिधि कोई अपना न आ रहा हो. मानव मन की यह स्वाभाविक वृत्ति है. कुछ न कर पाई तो उसका सहारा ही हो ली.कहानी पढ़ते हुए मुख्य पात्र की बेबसी,बेचैनी पाठक का हिस्सा ही हो जाती है.
जवाब देंहटाएंमँजी हुई कहानी...
धन्यवाद
हटाएंव्वाहहहह श्रुति व्वाहहहह..
जवाब देंहटाएंबेहतरीन..
पसंद आई..
भुना लिया नेता जी ने..
"दो दिन से टी वी पर गाँव की जिस चौदह साल की बच्ची के बलात्कार की न्यूज चल रही है, जानते हैं कौन है वो? अपने रमेसर की छोटी बिटिया है।"
अरे .... अब याद आया। सचमुच इधर इतने व्यस्त रह गये थे वो कि इसपर ध्यान ही नहीं गया उनका। तब तो ये अच्छा ही हुआ कि इस समय में वो यहाँ आ गये हैं जब पूरा गाँव मीडिया वालों से ठसाठस भरा होगा ... इसका तो जबरदस्त फायदा उठाया जा सकता है। इतने-इतने जरूरी कार्यक्रम छोड़ कर गाँव की एक बच्ची के उद्धार के लिये वो यहाँ दौड़े आए हैं ... इस एक दौरे से सिर्फ़ उनका ही क्या , उनकी पूरी पार्टी का बहुत सारा कलंक धोया जा सकता है ! इसे कहते हैं 'ब्लेसिंग इन डिसगाइस! '....
सादर...
श्रुति जी को निजी तौर पर जानती हूँ
जवाब देंहटाएंबेहद सशक्त लेखनी है उनकी
कोमल दिल की स्वामिनी को हार्दिक बधाई
Thanks di
हटाएंबेहतरीन लिखा है...
जवाब देंहटाएंThanks
हटाएंवाह ! परिपक्व सोच और इंसानियत की अद्भुत मिसाल प्रस्तुत करती हुई हृदय स्पर्शी कहानी ! काश माँ के इतने अच्छेे संस्कारों का थोड़ा सा भी अंश उस कलयुगी बेटे को भी मिल जाता !
जवाब देंहटाएंसही कहा आपने
हटाएंकहानी सच्चाई , वास्तविकता के करीब हैं लेकिन पूरी तरह नहीं | शायद ही ऐसी किसी माँ को देखा हो जो इसतरह का फैसला करती हो | ज्यादातर का भाव नेता पति के हाँ में हाँ मिलाने का ही होता हैं | वैसे इसे प्रायश्चित कहना गलत हैं ये कहीं से भी प्रायश्चित नहीं हैं मुआवजा देने का प्रयास ज्यादा हैं | कहानी बहुत अच्छे से लिखा गया हैं पसंद आया |
जवाब देंहटाएंकुछ अलग करने का साहस हो, तभी कथा बनती है
हटाएंआदरणीया को कहानी की यथार्थता पर बधाई । एक नया और बेबसी के बीच का रास्ता ........। इस सोच को नमन है ।
जवाब देंहटाएंहार्दिक धन्यवाद
हटाएंअद्भुत लेखन... बेहद हृदयस्पर्शी कहानी
जवाब देंहटाएंबहुत धन्यवाद
हटाएंयह कहानी पढ़ तो दो दिन पहले ली थी किन्तु व्यस्तता के कारण टिप्पणी नहीं कर पाया। कहानी का विषय बिल्कुल अनोखा है... हालाँकि फिल्मी कहानियों में ऐसे प्रयोग होते रहे है! फिर भी यह कहानी एक असंभव किन्तु सार्थक चुनाव या हल की ओर इशारा करती है। कहानी की भाषा और संवाद वास्तविकता का पुट लिए हैं।
जवाब देंहटाएंमेरी ओर से लेखिका को एक सुझाव यह रहेगा कि प्रतियोगिता के लिए ब्लॉग आरम्भ करना तो ठीक है, किन्तु ब्लॉग को जारी रखना ही इस प्रतियोगिता की सफलता होगी। अतः ब्लॉग को नियमित रखें। मेरी शुभकामनाएँ!
धन्यवाद। कोशिश जरूर रहेगी
हटाएंकहानी का विषय ज्वलंत है,और शीर्षक सार्थक -अकल्पित ...काश कि ऐसे निर्णय लेने के लिए माताएँ पुत्र-मोह ,और सुख-सुविधा त्याग कर आगे आने का साहस कर पाएं...
जवाब देंहटाएंधन्यवाद
जवाब देंहटाएंसुंदर और एक सार्थक सोच को जन्म देती कहानी । समसामयिक विषय किन्तु अंत सबसे सुखद ।
जवाब देंहटाएंThanks a lot
हटाएंबेहद सशक्त लेखन ... अनंत शुभकामनाएं
जवाब देंहटाएंबेहद सशक्त लेखन ... अनंत शुभकामनाएं
जवाब देंहटाएंधन्यवाद
हटाएंसमाज को दिशा देती हुई सुखांत कहानी..
जवाब देंहटाएंThanks
जवाब देंहटाएंश्रुति दी,समाज को नई दिशा देती बहुत सशक्त कहानी। काश, हर माँ ऐसा फैसला लेने की हिम्मत दिखाए।
जवाब देंहटाएंधन्यवाद
हटाएंसही दिशा दिखाती भावपूर्ण कहानी!
जवाब देंहटाएंबहुत बधाई श्रुति जी!
~सादर
अनिता ललित
धन्यवाद अनिता जी
जवाब देंहटाएं