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शनिवार, 6 जुलाई 2019

ब्लॉग बुलिटेन-ब्लॉग रत्न सम्मान प्रतियोगिता 2019 (तेरहवां दिन) कहानी




पूजा अनिल एक मीठी आवाज़, एहसासों की गहरी नदी, शब्दों की बूँद बूँद सागर तक अपना ठिकाना ढूंढती हैं  ... जी हाँ, पाठक ही तो सागर हैं। 
आज यह कहानी प्रवाहित होकर आप तक आई है, सुकून मिलेगा -




-चाय पियोगी?
आयशा हैरान कि यह कौन पूछ रहा!
-???- उसने प्रश्न चिन्ह भेज दिए.
-सॉरी. गलती से आ गया सन्देश आपके पास.
:) - उसने स्माइली भेज दी और फिर अपनी सखी संग गप्पों में व्यस्त हो गई. एक विचार उसके जेहन में बिना ठहरे आगे बढ़ गया कि रोंग फोन काल्स की तरह फेसबुक पर भी रोंग chat काल्स चले आते हैं लोगों से!! इस बीच चाय का नाम सुनकर उसे भी चाय की तलब हो आई. तभी और एक विचार चला आया उसके पास, “जिस तरह टी वी पर पब्लिसिटी से इच्छाएं जगाई जाती हैं, उसी तरह यहाँ एफ बी पर बिना इजाज़त संवेदनाओं को उकेरा जाता है.” उसने स्क्रीन पर समय देखा, शाम के साढ़े चार बजे हैं. चाय पी ही ली जाए, सोच कर उठ आई वो.

-चाय पियोगी?
वही समय! वही बंदा! वही सवाल! आयशा ने सोच लिया कि यह गलती नहीं, शरारत है.
-दो कप भिजवा दो, पतिदेव भी पीयेंगे! तमक कर कहा उसने.
“.................” कोई जवाब नहीं आया.
फेसबुक पर उसकी फ्रेंड लिस्ट में था सोमेश नाथ.  उसने लिस्ट चेक की तो परिचितों के अलावा जाने कितने अपरिचित लोग अपनी सम्पूर्ण, अपूर्ण और अर्ध पूर्ण जन्म कुंडली के साथ उसके फ्रेंड पेज की शोभा बढ़ा रहे थे. उन्ही में से एक थे यह जनाब. बड़ा ही निरर्थक विचार आया तब उसके दिमाग में, “परिवार और अपने दोस्तों के लिए इस सोशल साईट पर आई थी मैं और अब जाने कितने तो  अनजान अपरिचित लोगों को मित्र बना रखा है यहाँ! जिनमे से कईयों के तो नाम भी नहीं मालूम! क्यों इन अपरिचित लोगों को अपने किले में सेंध लगाने दे रही हूँ?” खोखला विचार साबित हुआ यह और तत्काल नया विचार अपनी जगह बनाने में सफल हुआ. “इन्ही अपरिचित मित्रों में से कुछ बहुत अच्छे और साथ देने वाले मित्र मिले हैं और कुछ तो खूब हौसला अफजाई करते हैं. फिर भी यह बात तो सत्य है कि कई लोग फ्रेंड पेज पर नाम मात्र के लिए हैं. सबसे पहचान और बात कभी हुई ही नहीं और संभवतः होगी भी नहीं!”

इतने विचारों के बीच आयशा सोमेश नाथ की प्रोफाइल तक पहुँच चुकी थी. हिस्टरी के साथ इलेक्ट्रोनिक इंजीनियरिंग का कॉम्बो था यह बंदा. पहली जनवरी को जन्म दिन और अपने बारे में फ़रमाया था :-
“ना समझ यूँ ही गुज़रता राही मुझे,
रोशन हुआ करती है दुनिया मेरे नाम से.”

कुछ प्रोफाइल पिक्चर्स थे उसके स्वयं के, संजीदा किन्तु शरारती नौजवान दिखा इन चित्रों में वह. कुछ प्रकृति के चित्र लगा रखे थे उसने, कुछ दोस्तों के साथ.
कुछ खास प्रभावित नहीं किया आयशा को इस प्रोफाइल ने. उसने याद करने की कोशिश की पर नहीं याद आया कि कब उसने यह मित्रता स्वीकार की थी! उसने नज़रें हटा लीं कि होगा कोई बंदा, भूले भटके टकरा गया होगा एफ बी पर. एक ही बात थी जो आयशा के गले बिलकुल नहीं उतर रही थी, वो यह कि अजमेर का रहने वाला था सोमेश!! ऐसे ऊटपटांग बंदे सहन नहीं होते थे आयशा को उसके अपने ही शहर में. फिर एक विचार आया उसे, कि ऐसे चम्पू यहीं क्यों भरे पड़े हैं? मेरे शहर को बदनाम किये हुए हैं! हुंह...!!

तभी फिर से पिंग हुआ. दो कप चाय की तस्वीर के साथ एक मुस्कान भी आई.
फिर एक मेसेज – “आप दोनों के लिए चाय.” J
आयशा जाने के लिए सोच रही थी, फिर रुक गई.
-थेंक यू. उसने लिखा.
- J जवाब में फिर एक मुस्कान आई.

 कुछ ही दिनों में बातों का सिलसिला चल पड़ा आयशा और सोमेश के बीच.  बातों ही बातों में एक दिन दोनों कॉफी के लिए सी सी डी चले आये. सिने मॉल में एक दूसरे को आमने सामने पहली बार मिले दोनों. मध्यम कद काठी की सांवली  सुन्दर आयशा ने जब कद्दावर सोमेश को देखा तो बहुत पहले उसके बारे में सोचा हुआ चम्पू वाला ख़याल रद्द कर दिया आज. सोमेश तस्वीरों में ही शरारती नहीं दीखता था, स्वभाव से भी खूब शरारती था. वहाँ टेबल पर जैसे ही आयशा ने मोबाइल रखा, नज़र छुपा कर सोमेश ने उस पर कब्ज़ा कर लिया. कुछ देर बाद जब आयशा को ध्यान आया कि उसका मोबाइल गायब है तो वो परेशान हो उठी. शरारती सोमेश उसकी मदद करता रहा खोजने में, खुद के पास ही उसका मोबाइल छिपाए हुए. जब थक हार कर आयशा जाने लगी तो सोमेश ने खूबसूरत अंदाज में उसका मोबाइल पेश किया कि “लीजिए मैडम ! और ज़रा सावधान रहिये, किसी दिन कोई आपका दिल चुरा ले जाएगा और आप यूँ ही खोजती रह जायेंगीं.”
आयशा थोडा नाराज़ हुई उस से, फिर उसकी मनुहार से मान गई. सोमेश आयेशा को मैडम ही कहता था, वो उस से आठ साल बड़ी थी और बड़े होने का खूब हक भी  जताती उस पर.

गुलमोहर कॉलोनी और सूरज विहार कॉलोनी में बमुश्किल 7-8 मिनट का फासला है. इन दोनों कॉलोनी के बीच बसा हुआ है सिने मॉल. दोनों के मिलने का अड्डा बन गया सिने मॉल और आना सागर का तट. दोस्ती से शुरू हुआ यह मेल मिलाप गुपचुप प्रेम में परिवर्त्तित होता गया. दोनों ही जान ना पाए कब दोनों प्रेम का खेल खेलने लगे! दिल एक ऐसा खिलौना है जो आपके जाने बिना ही आपको उसके साथ खेलने देता है, और जब तक आप यह जान समझ पायें कि आप अपने ही दिल से खेल रहे हैं, तब तक या तो यह खिलौना टूट चुका होता है या फिर टूटने के छोर पर खड़ा होता है.

आयशा की दीवानगी का आलम यह कि वह अपनी सखियों के साथ बिताने वाला पूरा समय सोमेश पर खर्च कर देती. सोमेश अपने दफ्तर से निपट कर सीधे आयशा से मिलने आता, जो अक्सर आना सागर की गोल छतरी के किनारे उसकी प्रतीक्षा करते मिलती.

कई बार किस्मत अजीब खेल खेलती है, ऐसे खेल जो किसी भी व्यक्ति की समझ से परे होते हैं. आयशा के पति की जॉब केरल में थी. बेटा बोर्डिंग में पढ़ रहा था. दोनों ही छुट्टियों में घर आते थे, अकेली आयशा के लिए बस सखियों का ही सहारा था. ऐसे में सोमेश का मिलना जैसे उसे पंख दे गया. उड़ान का सामान दे गया. बंद अलमारी में रखी हुई खुली किताब थी आयशा. कोई भी अलमारी खोल कर इस खुली किताब को पढ़ सकता था. सोमेश को अधिक देर नहीं लगी इस किताब को पढ़ने में. सोमेश अकेला जीव! ना कोई घर ना घरवाले. उसके लिए आयशा सूखे में बारिश की तरह अवतरित हुई! कैसा खेल था यह किस्मत का कि दोनों एक दूसरे की ओर बिना व्यवधान खींचते चले गए! स्पिरिचुअल साइंस कहती है कि इस जीवन में हम उन्ही व्यक्तियों से मिलते हैं, जिनके साथ किसी तरह का लेना देना बकाया होता है. इनमे सबसे अधिक हिस्सा पति पत्नी का होता है, फिर माता पिता, भाई बहन का और फिर प्रेमी प्रेमिकाओं का. क्या यही संयोग इन दोनों के जीवन को बाँध रहा था? कितना हिस्सा रहा होगा इन दोनों का एक दूसरे के जीवन में?

आयशा जितनी बार उस से मिलती, सोमेश की हर मुलाक़ात उसकी यादों में सुरक्षित हो जाती. जाने कब आयशा की आँखों में सोमेश की यादों के घरौंदे बनने लगे थे. छोटे छोटे, प्यारे प्यारे, सुन्दर सतरंगी घरौंदे. वो सोमेश से जुडी हर याद से उन घरौंदों को सजाने लगी. धीरे धीरे इन घरौंदों ने एक कॉलोनी की शक्ल ले ली. और बढते बढते इन से एक यादों का शहर बस गया. सुन्दर, सजीला, अनोखा, चमकदार शहर! कोई भूल से उसकी आँखों में झाँक लेता तो उस से पूछ लेता, “सूरज तुम्हारी आँख में रहता है क्या?” वो हंस कर कहती, “नहीं, मेरी आँखों में तो प्यार और खुशी रहते हैं.” लोग उसे पागल समझ उस पर हँसते और उस से दूर हो जाते. जाने सच में उन्हें पागल लगती वो या शायद डर जाते कि कहीं उनकी खुशी भी आयशा की आँखों में ना समा जाये! वो अपनी पलकें बंद कर लेती कि रोशन इस शहर की चमक किसी को चौंधिया ना दे! फिर भी प्रस्फुटित रौशनी की चमकदार किरणें आँखों के बाहर बिखर ही जातीं और वो उन यादों की किरणों को अनमोल हीरे की तरह संजो कर रखने में जुटी रहती.

देह के झूले पर पति का नाम चिपकाए झूलने वाली आयशा रात भर सो नहीं पाई. साजन पास नहीं, प्रेमी भी दूर, आयशा बेचैन हो उठी उस रात. सोमेश को 2 दिन के लिए शहर से बाहर जाना था, इस बीच एक रात को भी आना था. रात आई! उतनी ही खूबसूरती से आई जैसे नन्हा बच्चा हौले से आकार माँ से लिपट जाए और माँ खुद बच्ची बन पुलक पुलक जाए. हलकी ठंडी हवा के झोंके रात के चाँद  को देखने का बहाना दे रहे थे. पर आयशा इस खूबसूरत रात में याद की गोद में जा दुबकी. यादों के समुन्दर में गहरे डूबकर उसने प्रेमपत्र लिखा आज और भूल गई कि किसके लिए लिखा उसने यह! शायद पति को लिखा! ना, ना, शायद सोमेश को लिखा! ये भी सच  नहीं..उसने एक ही साथ दोनों को लिखा!

                     

“मैं हर उस समय तुमसे बात कर रही होती हूँ जब तुम कहीं नहीं होते और हर जगह होते हो. मेरा मन तुमसे तब भी बतियाता है जब तुम मुझसे सांस भर की दूरी पर होते हो और तब भी जब मीलों दूर बैठे तुम मुझे मन ही मन याद कर रहे होते हो. दूरियों के पलों में तुम्हारी याद को सूंघने के लिये मैं तुम्हारे नाम की हिचकी की प्रतीक्षा करते हुये एक पल भी तुम्हें भुला नहीं पाती. पर यादें, यादों की डोर थामे हिचकी की जगह मुस्कान ले आती हैं. इन यादों और  मुस्कानों के साथ भी तुमसे मेरी बात निरंतर चलती रहती है, बिना कहीं रुके  और निःशब्द.  तब तक, जब तक कि मेरे कान तुम्हारी फुसफुसाहट से सुर्ख हो, लजा कर एक नाज़ुक सा गीत सुनने ना चल पड़ें.

तुम पूछते हो मुझसे ," क्या बात करती रहती हो मुझसे मेरी अनुपस्थिति में?"
मैं कहना कुछ और चाहती हूँ पर कहती कुछ और हूँ -"यह मेरी और यादों के बीच की बात है, तुम्हें बता दिया तो राज़ खुल जायेगा."
तुम मन ही मन थोडा बुझ जाते हो पर हँसते हुए यूँ जताते हो जैसे मेरी हर बात तुम्हारे लिये खास है .

मैं कहना चाहती हूँ  कि मैं तुमसे वो सारी बातें करती हूँ जो हमने तब नहीं की जब हम बात कर रहे थे, आज सुबह, आज दोपहर या आज शाम, वो बातें भी जो हमने नहीं कही थी कल  या परसों या बहुत दिनों तक की गई बातों में. मैं कहना चाहती हूँ कि तुम नहीं जानते पर तुम भी मेरे लिये अनोखे हो, अद्भुत हो, बहुत खास हो.  मैं तुमसे कह नहीं पाती कि जब मैं तुम्हें अप्रत्यक्ष अपने पास अनुभव करती हूँ तब तुम त्वचा बन जाते हो.  तब मैं तुम्हें अपनी त्वचा पर ओढ़ लेती हूँ, जो सरसराती है मेरे पूरे तन पर करती हुई गुदगुदी और मैं मुस्कुराते हुये सिमटती जाती हूँ दो त्वचाओं के बीच, यह जानते हुये कि इस सरसराहट से उपजी गर्मी मेरी देह को पिघला देगी. और जब मैं पूर्ण तौर पर घुल जाउंगी  तब तुम्हारी हथेली पर बचा रह जायेगा एक नाम जो पूर्व की लालिमा से उत्पन्न होकर पश्चिम के धुंधलके में ढल कर विलुप्त हो जायेगा.

सुनो..! कभी बिछड जाएँ तो याद रखना कि जिस तरह मेरा आना तय था, उसी तरह मेरा जाना भी तय है. मैं तुम्हारे भीतर की खोज की तरह आई थी, अब स्वयं को खो कर जा चुकी हूँ. मेरी तिल भर यादें हवाओं की तरह तुम्हारे साथ रहेंगी, यह आयेंगी और जायेंगी. तुम इन्हें देख कर कभी  रो पड़ोगे कभी हंस दोगे. तुम्हारे आंसुओं में झिलमिलाती हुई मैं सदा रहूंगी और तुम्हारी हंसी में छिपी मुस्कान भी मेरी ही होगी.

किसी दिन जब तुम अपने दोनों हाथों में पकड़ लोगे हवा में घुली हुई मीठी महक  तब मैं और तुम फिर बात करेंगे, अनजानी अनकही बातें, मेरी और तुम्हारी बातें, यादों की बातें, अनंत बातें, अनेक बातें, जादुई बातें, किसी धुंधलके में समाप्त ना होने वाली बातें.
बहुत प्रेम.
आयशा.”
**************

दो दिन बाद आयशा और सोमेश मिले. आयशा बेहद खुश थी. मनचला शरारती सोमेश उस से चिपक जाना चाहता था. आयशा हर तरह जोर लगाकर उस से दूर जाने की कोशिश करती, वो आयशा के और करीब आता. यह आना इतना सरल होता कि आयशा अपनी कठिनाई से दूर जाने के प्रयत्न को स्थगित कर उसकी सरलता को अपना लेती. आयशा का ठहर जाना सोमेश की मंजिल होता और सोमेश का बेवजह आयशा को निहारते रहना आयशा के लिए सोमेश की सबसे मधुर हरकत होता. सोमेश ढलते हुए सूरज के सामने जा खड़ा होता ताकि आयशा पर सूरज ना आये. वो कहता, इस से तुम खो जाती हो, बस तुम्हारी परछाई दिखती है. मैं तुम्हे देखना चाहता हूँ. बार बार देखना चाहता हूँ. जैसे ही सूरज डूबता वो लपक कर आयशा का हाथ पकड़ लेता. पकडे हुए हाथ को चूम कर तसल्ली करता कि आयशा ही है वहाँ, उसकी परछाई नहीं. पेन से उसके हाथ पर अपना नाम लिखता और कहता, अब सुबह तक हाथ ना धोना तुम, आज की रात मैं तुम्हारे साथ सोऊंगा. अपने साथ उसके सोने की बात आयशा के पूरे शरीर को झंकृत कर देती, उसके तन की एक एक कोशिका सोमेश की छुअन की अनुभूति से रोमांचित होती. इस रोमांच को देर तक अपने साथ रखने के लिए वो अपनी आँख बंद कर लेती उसे अपने तन पर फिसलने देती. यह ऐसी अनुभूति होती जो उसे कई कई रातों तक अपना हाथ ना धोने देती. वो जी भर कर इस अनुभूति को जीती. सोमेश उसके जीवन से खुशी चुराकर जीता.

दोनों की मुलाकातों का सिलसिला बढ़ता गया, एक दूसरे की बांहों में उनके अनेकों दिन गुजरते. संवेदनाएं भी उनकी एकाकार होने लगी. आयशा उस से कहती थी, “खुश तुम होते हो, होंठ मेरे मुस्कुराते हैं. दिल तुम्हारा रोता है, आँखें मेरी लाल हो जाती हैं. जब किसी दर्द की पीड़ा से गुजरते हो तुम, तब उस दर्द से मैं कराह उठती हूँ. जब कोई अवसाद तुम्हे अपनी गिरफ्त में लेता है तब मैं अपने रोम रोम में उस तकलीफ को भुगत रही होती हूँ. सिगरेट तुम पीते हो, फेफड़े मेरे काले होते हैं! बोलो, यह कैसा सम्बन्ध है?”
सोमेश उसे कहता, “क्योंकि मेरी हो तुम. हमेशा के लिए मेरी हो तुम.” आयशा उस से लिपट जाती. दोनों खुश हो जाते. संभवतः यही उनकी चरम खुशी थी. संभवतः इस से बड़ी खुशी दोनों ने कभी जानी ही नहीं थी! संभवतः इसी खुशी से उनका जीवन चल रहा था?

     मन का चंचल होना उसके गतिमान होने की निशानी है तो विवेकपूर्ण सोच विचार की भूमि देना भी उसी की बोधगम्यता है. कई बार आयशा सोचने लगती, वो जो कुछ अनुभव कर रही और जो कुछ घट रहा इस समय उसके जीवन में, क्या वह नैतिक है? क्या वह कोई अनैतिक काम कर कर रही है? पर सच तो यह था कि उसे इसमें कुछ भी अनैतिक नहीं लगता. यह प्रेम इतना स्वाभाविक था कि कब इसने उन दोनों के जीवन में जगह बना ली, कब उन्हें इस प्रेम के रूप में ढाल लिया, कब वह इसकी सौम्यता के रंग में रंग गई, यह सारी बातें जानने बूझने का पल कभी आया ही नहीं. ना कभी प्रेम का इज़हार हुआ था उनके बीच ना ही कभी औपचारिक घोषणा. बस उन्होंने इस प्रेम को अपनी बातों में अनुभव किया और प्रेम अपने आकार को स्वयं पसारता गया, जब तक वे यह जान पाते कि वे इस प्रेम का पोषण कर रहे थे, तब तक प्रेम अपना पूर्ण आकार ले चुका था. जिस पल उसने यह जाना कि उनके बीच प्रेम अपनी जगह बना कर ठोस रूप में उपस्थित है, उसी पल उसके मन में नैतिकता का सवाल भी आया. उस पल में वो अपनी भावनाओं पर हैरान होने से ज्यादा अपने विश्वास को लेकर असमंजस में थी. क्या मैं अपने पति को धोखा दे रही हूँ? क्या सोमेश के प्रति प्रेम सिर्फ भ्रम है? दोनों ही प्रश्नों का जवाब नहीं होने की स्थिति में क्या मैं दो पुरुषों से एक साथ प्रेम कर रही हूँ? वही समय सही समय था जब आयशा इस असमंजस भरे प्रश्न को घूर घूर कर देख रही थी, उसका अवलोकन कर रही थी और हर तरह से इसका जवाब पाने का प्रयत्न कर रही थी. इस छटपटाहट को उसने अपने पूरे वजूद में महसूस किया. तन के एक छोर से दूसरे छोर तक इसका जवाब ना मिलने की पीड़ा अनुभूत की. शरीर में बसे जल की नमी और नखों की शुष्कता से जानना चाहा. हर बार उसे यही प्रत्युत्तर मिला कि पति के लिए उसकी चाहत समुन्दर की गहराई की तरह है, अथाह, अनंत. पर कहीं किसी कोने में सोमेश ने बहुत ही शालीनता से, बहुत ही सभ्य नमूने अपनी जगह बना ली है.

सोमेश अपनी बातों से आयशा के पूरे शरीर को छूता और वो हर घडी अपनी तेज होती साँसों की रफ़्तार में उस प्रेम को अनुभव करती.सारा शरीर इस झंकार को अनुभव करता. मन वहीँ ठहर जाता और प्रेम फुहार में भीगने का सम्पूर्ण आनंद उठाता. उसका भीगना वैसा ही होता जैसे ठन्डे पानी में ठंडी बर्फ को स्थापित कर दिया जाये. कि जल से बनी और जल में समाहित हो गई. कि दो रूप होते हुए भी एक ही समान तत्त्वों की संरचना रखकर किसी एक समय में एक दूसरे में इस तरह एकाकार हो जाना जैसे कभी अलग थे ही नहीं. वो इस मिलन को इतना शाश्वत अनुभव करती कि उसे इस से ज्यादा प्राकृतिक होना असम्भव प्रतीत होता. वो कहती, जो इतना शाश्वत है, वो अनैतिक हो ही नहीं सकता.

हाँ, एक अनिश्चितता अवश्य थी उसके मन में. वो सोमेश को लेकर कभी किसी से कोई बात नहीं कर पाती थी. बहुत कुछ खो देने का डर हावी हो जाता था इस विचार से ही कि दुनिया में उन दोनों के रिश्ते का कोई महत्त्व नहीं है! और सच भी था यह डर. जिस दिन सोमेश शादी करके घर बसा लेगा, इस रिश्ते का कोई अस्त्तित्त्व ही नहीं बचेगा.

इस बार सोमेश को अपने काम से 5 दिन के लिए बाहर जाना पड़ा. इतने दिनों का बिछोह कहाँ झेल पाती आयशा! मन में जाने कैसे कैसे विचार आने लगे उसे! उसे लगा कि सोमेश जान बूझ कर उस से दूर जाने की कोशिश कर रहा था. कि अब वो उसे छोड़ किसी और की तरफ आकृष्ट हो गया है. पांच दिन बाद भी सोमेश की कोई खबर नहीं आई तो आयशा चिंतित हो उठी. उसने सोमेश के ऑफिस में फोन लगाया तो पता लगा कि वो किसी मीटिंग में है, फिलहाल बात नहीं हो पायेगी. पहली बार उसे महसूस हुआ कि उसे ठगा जा रहा है. कि जैसे सोमेश उसे टाल रहा है. कि उसने जान बूझ कर मीटिंग का बहाना बनाया है.

उसका ऐसा सोचना असत्य नहीं था. जो सिर्फ एक विचार भर था, वही सत्य बन गया था. उसके इस तरह सोचने में संभवतः वह ताकत थी कि जो कुछ उसने विचार किया, उसे सच होना ही था.

दिन गुजरते गए. सोमेश उसके फोन काल्स टालता रहा. फेसबुक पर भी कोई जवाब नहीं. इमेल से भी नाउम्मीदी मिली. उम्मीद और नाउम्मीद के बीच झूलता झूला है जिंदगी. जितना धक्का उम्मीद की तरफ लगता है, उतनी ही गति से नाउम्मीद की तरफ खींचता है. एक पल उसे लगता कि अब सोमेश का कॉल आएगा, अब आएगा. फिर अगले ही पल निराशा में घिरी धारा बन जाती थी वो. धीरे धीरे रेंगती हुई. जिसमे ना ही गति होती और ना चाल, ना ही कहीं जाने की दिशा.

जिसे उसने अपने जीवन में पूरी हैसियत भरी जगह दी हो, जिसे हर परिस्थिति में स्वयं से बढ़कर प्रेम दिया हो, जिसके लिए मन बार बार तड़पा हो, जो इस कदर करीब हुआ हो कि उसकी धडकनों में अपनी आवाज़ सुनाई दी हो, उसे बेवफा मानने को बिलकुल तैयार नहीं थी वह.

उसकी आँखों में बसे घरौंदे धीरे धीरे वीरान हुए जा रहे थे. उनकी रौशनी धीरे धीरे बुझती जा रही थी. अँधेरे बसने लगे थे वहाँ. और हर बार उसके मन के अंधेरों की तरह  सघन हुए जा रहे थे अँधेरे. लोग अब भी उसकी आँखों में झांकते और उस से दूर भाग खड़े होते. उन्हें अँधेरे इतने गहरे तक दीखते कि उसके आंसुओं पर किसी की दृष्टि ही ना जाती. वो फिर अपनी आँखें बंद कर लेती और अपने ही अंधेरों में विलुप्त हो जाती.

उधर सोमेश ने उस से असत्य कहा था कि वो बाहर जा रहा था. सत्य तो यह था कि उसके जीवन में एक नई युवती का प्रवेश हो चुका था. वो उसके साथ समय बिताने लगा था. आयशा सिर्फ उसकी अपूर्ण इच्छाओं को पूर्ण करने का साधन भर थी. नया साधन मिलते ही आयशा को छोड़ने में उसे कोई झिझक नहीं हुई. उसे किसी तरह की कोई परवाह भी ना थी कि उसकी अनुपस्थिति से आयशा परेशान हुई होगी इसलिए उसने आयशा को सही स्थिति बताने का प्रयत्न ही नहीं किया था.

एक दिन उम्मीदों के रथ पर सवार आयशा ने पुनः सोमेश को फोन किया. इस बार उसने फोन उठाया. आयशा को अनंत खुशी हुई. नाउम्मीद का झूला कुछ कुछ उम्मीद की और झूल गया. उसने सारे अवसाद को पीछे छोड़ बहुत उत्साह से सोमेश से पिछले कई दिनों तक बात ना करने का कारण पूछा. सोमेश ने बहुत ही बेमन से उसे टाल दिया कि “वो व्यस्त रहा था, समय नहीं निकाल पाया बात करने का.” आयशा ने अब उम्मीद के तार को टूटते हुए महसूस किया फिर भी भरपूर प्रेम से भावनाओं में बह उसने जानना चाहा कि इतने दिन उसे आयशा की याद नहीं आई? इस बार सोमेश का जवाब सुनकर उसकी आँखों के बचे खुचे घरौंदे पूरी तरह टूट गए, धूल में मिल गए, ध्वस्त हो गए, जल कर राख हो गये.

आयशा के कानों में सिर्फ सोमेश के शब्द ठहर गये, “आप मुझसे बड़ी हैं, मुझसे इस तरह की बातें करना आपको शोभा नहीं देता. आप ज़रा सोच समझ कर और अपनी उम्र के लिहाज से बात कीजिये.”
भरपूर संजीदगी से कहे गये इस तमाचेनुमा अक्षरक्ष सत्य ताने ने मन के भीतरी तहों में सुलगती हल्की चन्दन सी आग को प्रचंड ज्वाला बना दिया. इस अग्नि में सोमेश के नाम के सारे घरौंदे जल गये. तब आयशा की आँखों में इतनी राख थी कि वो स्वयं के मन को ही ना टटोल पाई, मन के भीतर कुछ दिखा भी नहीं उसे.


20 टिप्‍पणियां:

  1. क्यों होता है ऐसा🤔
    कई बार पढ़ चुकी यह कहानी..

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  2. क्या बात है...
    आयशा के कानों में सिर्फ सोमेश के शब्द ठहर गये, “आप मुझसे बड़ी हैं, मुझसे इस तरह की बातें करना आपको शोभा नहीं देता. आप ज़रा सोच समझ कर और अपनी उम्र के लिहाज से बात कीजिये.”
    उम्मीद से अधिक की चाहना
    सादर..

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  3. ऐसा ही होता है अकसर ..सुंदर कहानी

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  4. वाह पूजा जी वाकई कमाल कर दिया ! परिपक्व सोच, संजीदा कथानक और खूबसूरत अभिव्यक्ति के साथ परत दर परत मन की तहों को खोलती बहुत ही सुन्दर कहानी ! हार्दिक बधाई पूजा ! अनंत शुभकामनाएं !

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  5. बहुत शानदार कहानी। सीख भी दे रही और अकेलेपन के दंश को भी व्यक्त कर रही। बहुत बधाई पूजा।

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  6. बहुत सुंदर कहानी,पूजा दी। शुभकामनाएं।

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  7. कहानी बहुत गहरी बात कह गई, सीख है इस आभासी दुनिया के लिए.... शानदार परिपक्व लेखन के लिए बधाई हो पूजा....

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  8. कहानी बहुत गहरी बात कह गई, सीख है इस आभासी दुनिया के लिए.... शानदार परिपक्व लेखन के लिए बधाई हो पूजा....

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  9. वही मिलते हैं जिससे लेना देना बाकी रह गया. सोमेश ने लिया और निकल गया...
    प्रेम में रहते हुए कब अनैतिक लगता है!
    अच्छी कहानी!

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  10. वाह पूजा ।
    बहुत अच्छी कहानी

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  11. पूजा जी को पढ़ने का यह पहला मौक़ा है और मैं स्तब्ध हूँ... इसलिए नहीं कि कहानी का विषय नया है, लीक से हटकर है या ट्रीटमेण्ट नया है... सिर्फ इसलिए चकित हूँ कि कोई सच्ची घटना जो पात्रों के अदल बदल के साथ किसी के जीवन में घटी हो, हू ब हू कोई अपनी कहानी में कैसे उतार सकता है... हू ब हू का मतलब फ़ोटोकॉपी... एक साँस में पूरी कहानी पढ़ गया और अगर कहूँ कि फ़्लैश बैक में देख गया तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी!
    लेखन शैली प्रभावित करती है और सहज ही कहानी को आगे बढ़ती जाती है। सम्वाद मौलिक, भाषा सरल और कहानी लिखने से अधिक "कहने" या "सुनाने" का फ्लेवर पैदा करती है। बहुत बहुत शुभकामनाएँ पूजा... आई मीन, पूजा जी।

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  12. नई तरह का कथन है पर यथार्थ के बेहद करीब। शानदार कहानी।

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  13. ये कहानी आभासी रिश्तों की वास्तविकता बन रही है धीरे धीरे। कुछ एकाकीपन, कुछ आकर्षण और कुछ भावुकता से निपजे ऐसे रिश्ते अंत में एक टूटन और अवसाद ही दे जाते हैं।

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  14. शब्दों से जिसकी शुरुआत हुई थी ऐसे रिश्ते का शब्दों से ही खत्म हो जाना क्या स्वाभाविक नहीं..प्रेम शब्दों से पार जाकर मिलता है..शब्दों से व्यक्त किया प्रेम एक छलावा ही होता है..जो एक न एक दिन टूटता ही है और उसका टूटना ही बेहतर है..नायिका का प्रेम यदि अपने पति के प्रति भी शब्दों पर ही टिका है तो वह भी एक दिन टूटेगा..

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  15. वाह! लाजवाब! मानव भावनाओं एवं संवेदनाओं से परिपूर्ण, एकदम कसी हुई कहानी! जो दिया जाता है, वापस लौटकर मिलता है -सृष्टि का यही नियम है! सार्थक सन्देश देती इस कहानी के लिए आपको बहुत-बहुत बधाई पूजा जी!

    ~सादर
    अनिता ललित

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