"मैंगो पीपल यानी हम और आप वो आम आदमी जिसे अपनी हर परेशानी के लिए दूसरो को दोष देने की बुरी आदत है . वो देश में व्याप्त हर समस्या के लिए भ्रष्ट नेताओं लापरवाह प्रसाशन और असंवेदनशील नौकरशाही को जिम्मेदार मानता है जबकि वो खुद गले तक भ्रष्टाचार और बेईमानी की दलदल में डूबा हुआ है. मेरा ब्लाग ऐसे ही आम आदमी को समर्पित है और एक कोशिश है उसे उसकी गिरेबान दिखाने की." - जानी-मानी ब्लॉगर अंशुमाला जी खरी खरी बातें हर खरे लोगों को अपनी ओर आकर्षित करती है। तर्कसंगत बातें इतनी संयत होती हैं, लेखन में इतनी स्पष्टता होती है कि आप सहज रूप से उसे स्वीकार करते हैं।
आज उनकी लघुकथा भी इतनी ही तर्कसंगत है -
सेठ जी हाथ में खीर पूड़ी और दो लड्डू लिए अब भी ऊपर पेड़ पर कौवो को खोज रहें थे , जिनकी आवाज तो आ रही थी लेकिन दिख नहीं रहे थे | सामने फुटपाथ पर पड़ा गोबर और थोड़ी घास बता रही थी कि रोज वहां अपनी गाय लाने वाली वाली अपनी गाय लेकर जा चुकी हैं | अब मुंबई जैसे शहर में उन्हें कहाँ रास्ते में घूमती गाय मिलेगी | मन ही मन सोचने लगे क्या इस पितृपक्ष को मेरे पितर अतृप्त ही रह जायेंगे | यहाँ तो कोई जानवर पंछी दिख ही नहीं रहा जो उनके पितरो तक उनका दिया भोजन पहुंचा सके | तभी किनारे खड़े दो बच्चो पर उनकी नजर गई शायद फुटपाथ पर रहने वालों के थे | एक पांच छह साल का दूसरा सात आठ साल का रहा होगा | उनके गंदे बदन पर फटी गंदी पैंट के सिवा कुछ ना था | उनकी नज़रे पेड़ के नीचे ढेर सारे पत्तलों में रखे तरह तरह के खानो पर थी जिन पर मखियाँ भिनभिना रही थी | सेठ जी ने एक नजर घड़ी पर डाली और अपना पत्तल भी वही उन पकवानो के ढेर के बगल में रख दिया और हाथ जोड़ आगे बढ़ने से पहले आँखों से उन बच्चो को घूर कर हिदायत दे दी की वो उस खाने को खाने के बारे में सोचे भी नहीं | जैसे ही वो आगे बढे एक तेज हवा का झोका ढलान पर रखे लड्डुओं को लुढ़का कर उन पकवानो से दूर कर दिया | सामने खड़े बच्चो ने एक नजर एक दूसरे को देखा और झट उन लड्डुओं को मुट्ठी में भींच पास की दिवार की ओट में छुप गयें | दिवार के पीछे दो तृप्त आत्माएं अपनी हथेलियों की मिठास के मजे ले रहीं थी |
व्वाहहहहह
जवाब देंहटाएंपितर तृप्त हुए
बेहतरीन
सादर नमन
वाह ...
जवाब देंहटाएंचुटीली ... लघु लेकिन गहरी ... बहुत बहुत शुभकामनाएँ ...
गागर में सागर
जवाब देंहटाएंआईना समाज के सामने ...
उम्दा लेखन
बहुत सुंदर!
जवाब देंहटाएंतीक्ष्ण कटाक्ष .
जवाब देंहटाएंबढ़िया लघुकथा है।
जवाब देंहटाएंसटीक तर्कसंगत लेखन.
जवाब देंहटाएंसटीक और तर्कसंगत कथ्य।
जवाब देंहटाएंरश्मि प्रभा जी बहुत बहुत धन्यवाद | उम्मीद हैं सभी को लघुकथा पसंद आयेगी 🙏
जवाब देंहटाएंवाह, इनका ब्लॉग मेरी पसंद है... बहुत सटीक लेखन है इनका हमेशा से ,बधाई
जवाब देंहटाएंबहुत बढ़िया लघुकथा
जवाब देंहटाएंवाह बहुत बढ़िया लघुकथा , एकदम सटीक
जवाब देंहटाएंमानवीय संवेदनाओं को झकझोर कर जगाती एक अत्यंत सुन्दर एवं मर्मस्पर्शी कथा !बहुत खूब !
जवाब देंहटाएंसंवेदनशील रचना
जवाब देंहटाएंअंशुमाला एक बहुत सुलझी हुई इन्सान हैं, जिसका प्रभाव उनके लेखन की हर विधा पर दिखता है... हर विधा बोले तो हर विधा... इनकी कहानियाँ, घरेलू संस्मरण, इनकी टिप्पणियाँ, राजनैतिक व्यंग्य... सबकुछ! इनकी यह कहानी जल्दी में छाँटी हुई कहानी लग रही है! बहुत अच्छा विषय है... इस विषय पर एक फ़िल्म भी देखी है मैंने जो एक बांग्ला कथा पर आधारित थी!
जवाब देंहटाएंख़ैर, एक बेहतर चुनाव रश्मि दी!
भूखे का धर्म भोजन है.
जवाब देंहटाएंकथा अच्छी है.
बस पितृ पक्ष के लिए कहूँ तो उसमें सबका भाग होता है. गाय, कौवे, कुत्ते और अतिथि (यहाँ अतिथि मतलब मेहमान नहीं बल्कि गरीब, अनाथ होता है)
सत्य को दर्शाती रचना ....हालांकि अब काफी परिवर्तन आ चुका है फिर भी बहुत सारों को समझना अभी बाकी है ..
जवाब देंहटाएंसभी पाठकों का धन्यवाद 🙏 |
जवाब देंहटाएंसार्थक लघु कथा ।
जवाब देंहटाएंइस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.
जवाब देंहटाएंअंशुमाला जी का ब्लॉग मेरे मन के बहुत करीब है क्योंकि मैं मैंगोपीपल में से एक हूँ। उनके लेखन में बेबाकी और सहजता दोनों मन मोह लेती हैं। यह लघुकथा भी सार्थक संदेश देती है।
जवाब देंहटाएंबहुत ही मार्मिक कथा | अंशुमाला जी को पहली बार पढ़ा | धन्यवाद ब्लॉग बुलेटिन सुदक्ष कथाकार से रिची करवाने के लिए |
जवाब देंहटाएंअति सम्वेदनशील लघु कहानी...
जवाब देंहटाएंबहुत सुंदर लघुकथा।
जवाब देंहटाएंपरंपराओं का सम्मान करने के नाम पर हृदयहीनता का कैसा प्रदर्शन...सोचने पर मजबूर करती हुई सशक्त रचना
जवाब देंहटाएंसटीक लेखन... शुभकामनाएं
जवाब देंहटाएंसटीक लेखन... शुभकामनाएं
जवाब देंहटाएंबहुत बढ़िया लघुकथा...सटीक लेखन
जवाब देंहटाएंसही अर्थों में यही असली धर्म है!
जवाब देंहटाएंसुंदर लघुकथा!
हार्दिक बधाई !
~सादर
अनिता ललित