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रविवार, 30 जून 2019

ब्लॉग बुलिटेन-ब्लॉग रत्न सम्मान प्रतियोगिता 2019 (सातवां दिन) कविता




एहसासों की जब बारिश होती है, तब यादों का संदूक अतीत की पांडुलिपियों से भर जाता है।  कहानी, कविता की शक्ल लिए न जाने कितने रिश्ते बचपन के रुमाल, दुपट्टे में बंधे मिल जाते हैं - कुछ ऐसे ही रिश्ते के साथ आज इस मंच पर हैं मुदिता गर्ग।  


अलमारी - एहसास अंतर्मन के

 

देखा था
‘अम्मा‘ को
रहते हुए मसरूफ
ब्याह में साथ आई
शीशम की नक्काशीदार अलमारी को
सहेजते संजोते ....

सोचा करती थी मैं ,
क्या संभालती हैं
दिन भर इस पुरानी अलमारी में
दिखाती थी वो मुझे
अपने हाथ के बने
क्रोशिया के मेजपोश
कढ़ाई वाली बूटेदार चद्दर
और दादा के नाम वाले रुमाल ......

पापा के
पहली बार पहने हुए कपड़ों को
छूते  हुए छलक उठता था
वात्सल्य उनके रोम रोम से ,
और लाल हो उठते थे रुख़सार
मीना जड़े झुमकों को
कान पे लगा के
खुद को देखते हुए आईने में ,
हया से लबरेज़ आँखों को
मुझसे चुराते हुए बताया था उन्होंने
ये मुंह दिखाई में दिए थे “उन्होंने”....

मैं नादान
कहाँ समझ पाती थी उन दिनों
उस अलमारी से जुड़े
उनके गहरे जज्बातों को ,
सहेज ली है आज मैंने भी
एक ऐसी ही अलमारी
ज़ेहन में अपने .....

छूती रहती हूँ
जब तब खोल के
गुज़रे हुए सुकुंज़दा लम्हों को
कभी दिखाती हूँ किसी को
चुलबुलाहट बचपन की
जो रखी है
करीने से तहा कर
अलमारी के एक छोटे से खाने में...

एक और खाने में
जमाई है सतरंगी चूनर
शोख जवान यादों की
और कुछ तो
तस्वीरों की तरह सजा ली हैं
अलमारी के पल्लों पर ,
आते जाते नज़र पड़े
और मुस्कुरा उठूँ  मैं
अपने पूरे वजूद में ....

अलमारी के एक कोने में
लगती है ज़रा सी सीलन
लिए हुए नमी
उस भीगे हुए सीने की,
टूटा था बाँध
अश्कों  का
उस आगोश में समा कर ......

छू गया था दुपट्टा मेरा
जब आये थे वो
घर मेरे पहली दफ़ा
महक रहा है अब तक
एक कोना अलमारी का
उस छुअन की खुशबु से ......

बिखरी हैं यादें कितनी ही
बेतरतीब सी
बेतरतीबी उनकी
सबब है ताजगी का
सहेज लिया है चंद को
बहुत सलीके से
जैसे हो माँ का शाल कोई
छू  कर जिसे
पा जाती हूँ वही ममता भरी गर्माहट.....

डाल दी हैं
कुछ अनचाही यादें
अलमारी के सबसे निचले तल पर
गड्डमड्ड करके
जो दिखती नहीं
लेकिन बनी रहती हैं वही,
हर पुनर्विवेचन के बाद
हो जाता है विसर्जन
उनमें से कुछ का,
कुछ रह जाती हैं
अगली नज़रसानी के इंतज़ार में ...

सीपियाँ जड़ी वो डब्बी
गवाह  है
उन पलों की
जहाँ बस मैं और वो
जी लेते थे कुछ अनाम सा,

गुजरना इस अलमारी के
हर कोने से
बन जाती है प्रक्रिया ध्यान की
और खो  जाती हूँ मै
समय के विस्तार में
दिन महीने सालों से परे
भूत ,भविष्य और वर्तमान को
एक-मेक करते हुए.......

 (अम्मा-मैं अपनी दादी माँ को कहा करती थी )


15 टिप्‍पणियां:

  1. सीपियाँ जड़ी वो डब्बी
    गवाह है
    उन पलों की
    जहाँ बस मैं और वो
    जी लेते थे कुछ अनाम सा,
    बेहतरीन यादें

    जवाब देंहटाएं
  2. गज़ब की यादें समेटे हुए । यहां तक कि अलमारी के एक कोने में सीलन भी है । बहुत प्यारी कविता है मुदिता ।

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    उत्तर
    1. अलमारी के कोने की सीलन के बिना यादों की अलमारी पूरी कहाँ होती है दीदी 😊

      हटाएं
  3. जीवंत चित्रण बीते पलों का ...शानदार

    जवाब देंहटाएं
  4. क्या कहूँ..
    चुप भी कैसे रहूँ..
    भावाभिव्यक्ति अपनी सी

    जवाब देंहटाएं
    उत्तर
    1. धन्यवाद विभा जी अपनी सी महसूस करने के लिए

      हटाएं
  5. वाह ! कितनी बेशकीमती यादों और अनमोल पलों को सहेजे हुए यह ख्व्वाब्गाह सी खूबसूरत अलमारी ! जी उठी इस रचना की हर पंक्ति के साथ ! बहुत ही सुन्दर रचना ! बिलकुल कुछ अपनी सी लगी कुछ आपकी सी !

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  6. आजकल के 'यूज एंड थ्रो' वाले जमाने के बच्चों को ऐसी आलमारी का महत्त्व कहाँ मालूम है.... ये खजाने भी इतिहास होते जा रहे हैं....

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  7. सही कह रही हैं मीना जी 👍👍

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  8. बहुत ही प्यारी रचना और सुश्री मुदिता जी से परिचय और भी अच्छा लगा | धन्यवाद ब्लॉग बुलेटिन |

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  9. बहुत सुंदर रचना आदरणीया मुदिता जी को बधाई सुंदर बुलेटिन प्रस्तुती

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  10. बचपन और यौवन को यादों को समेटे जादू भरी तिलस्मी आलमारी..जिसका हर कोना एक अनजानी सुगंध से भरा है..सुंदर रचना..

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