संगीता स्वरुप - 2008 से इनका ब्लॉग गीत.......मेरी अनुभूतियाँ हमारे साथ है। जीवन की आपाधापी में अनेकों बार हम रुक जाते हैं, पर विचारों का सैलाब नहीं थमता। ऊपर से ठहरी हुई नदी कभी ठहरती नहीं, तभी तो आज वे हमारे बीच आई हैं - अपनी गूढ़ रचना के साथ -
उद्गम था कंस का
एक पापाचार
नारी पर किया नर ने
वीभत्स अत्याचार ,
उग्रसेन की भार्या
पवनरेखा थीं पतिव्रता
रूप धर कर पति का
द्रुमिल ने था उसको छला ,
भान जब उसको हुआ तो
विक्षिप्त सी वो हो गयी
दुर्मिल के इस अंश को
वो यूं शापित कर गयी ।
बोया है जो तूने
मुझमें अपना अंश
खत्म करेगा उसे
यादव का ही वंश
समाज ने भी निर्दोष को
तिरस्कृत कर दिया
पति ने भी उसे स्वयं से
उपेक्षित कर दिया ।
ज्यों ज्यों बढ़ा बालक
अचंभित होता रहा
माँ के एकांतवास पर
गहनता से सोचता रहा ,
सुन कर ऋषि नारद से
अपने जन्म की कथा
भर गया उसका हृदय
सुन माँ की अंतर व्यथा ।
सबल हुआ जब यही बालक
लिया बदला अत्याचार का
पिता को उसने दिखाया
मार्ग कारागार का ।
समाज से उसको कुछ ऐसी
वितृष्णा सी जाग गयी
प्रजा पर अत्याचार कर
धधकती ज्वाला शांत की ।
बच नहीं पाया वो लेकिन
माँ के दिये श्राप से
मुक्ति मिली कृष्ण हाथों
उसके किए सब पाप से ।
अंतिम समय में बस उसने
कृष्ण से ये निवेदन किया
गर स्वीकारता समाज माँ को
तो ये न होता , जो मैंने किया ।
नियति से शापित था वो
इसलिए ये सब होना ही था
अंत पाने के लिए उसे
ये सब करना ही था ।
छोड़ दें इतिहास को तो
आज भी नारी शापित है
छल से या बल से
उसकी अस्मिता लुट जाती है ।
निर्दोष होते हुये भी समाज
ऐसी नारी को नहीं स्वीकारता
हृदय पर लगे ज़ख़्मों की
गहराई को नहीं नापता ।
एक पापाचार
नारी पर किया नर ने
वीभत्स अत्याचार ,
उग्रसेन की भार्या
पवनरेखा थीं पतिव्रता
रूप धर कर पति का
द्रुमिल ने था उसको छला ,
भान जब उसको हुआ तो
विक्षिप्त सी वो हो गयी
दुर्मिल के इस अंश को
वो यूं शापित कर गयी ।
बोया है जो तूने
मुझमें अपना अंश
खत्म करेगा उसे
यादव का ही वंश
समाज ने भी निर्दोष को
तिरस्कृत कर दिया
पति ने भी उसे स्वयं से
उपेक्षित कर दिया ।
ज्यों ज्यों बढ़ा बालक
अचंभित होता रहा
माँ के एकांतवास पर
गहनता से सोचता रहा ,
सुन कर ऋषि नारद से
अपने जन्म की कथा
भर गया उसका हृदय
सुन माँ की अंतर व्यथा ।
सबल हुआ जब यही बालक
लिया बदला अत्याचार का
पिता को उसने दिखाया
मार्ग कारागार का ।
समाज से उसको कुछ ऐसी
वितृष्णा सी जाग गयी
प्रजा पर अत्याचार कर
धधकती ज्वाला शांत की ।
बच नहीं पाया वो लेकिन
माँ के दिये श्राप से
मुक्ति मिली कृष्ण हाथों
उसके किए सब पाप से ।
अंतिम समय में बस उसने
कृष्ण से ये निवेदन किया
गर स्वीकारता समाज माँ को
तो ये न होता , जो मैंने किया ।
नियति से शापित था वो
इसलिए ये सब होना ही था
अंत पाने के लिए उसे
ये सब करना ही था ।
छोड़ दें इतिहास को तो
आज भी नारी शापित है
छल से या बल से
उसकी अस्मिता लुट जाती है ।
निर्दोष होते हुये भी समाज
ऐसी नारी को नहीं स्वीकारता
हृदय पर लगे ज़ख़्मों की
गहराई को नहीं नापता ।
शापित थी, शापित है। विचारों को झकझोरने वाली कविता है।
जवाब देंहटाएंइस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.
जवाब देंहटाएं
जवाब देंहटाएंलम्बे समय से संगीता जी ने अपने ब्लॉग पर कोई रचना नहि डाली तो आज उनको पढ़ कर बहुत सुकून मिल रहा है ... आपकी बेमिसाल लेखनी का हमेशा से क़ायल हूँ और चाहता हूँ की आप निरंतर लिखें और पढ़ने वाले आनंदित ...
छोड़ दें इतिहास को तो
जवाब देंहटाएंआज भी नारी शापित है
छल से या बल से
उसकी अस्मिता लुट जाती है ।
दीदी को सादर नमन
आदरणीया के लेखन ने सदा रोमांचित किया
जवाब देंहटाएंसादर प्रणाम
बहुत दिनों बाद पढ़ा इनका लिखा ,बेहतरीन हमेशा की तरह
जवाब देंहटाएंरश्मि जी आप अक्सर ऐसा कुछ ले आतीं है जहाँ स्वयं ही उपस्थिति दर्ज कराने का मन हो उठता है .यूँ तो आपकी बात सही है कि नदी ठहरती नहीं लेकिन कभी कभी विलुप्त हो जाती है और आप सप्रयास विलुप्त भी नहीं होने देतीं . यहाँ मुझे स्थान देने के लिए बहुत बहुत शुक्रिया .
जवाब देंहटाएंविलुप्त नदी भी प्रवाह कायम रखती है
हटाएंसादर
शिखा, शुक्रिया कहूं या आभार ? :)
जवाब देंहटाएंदिगंबर नासवा जी , मेरी रचनाओं को आपका स्नेह प्रारम्भ से मिला है . आपके द्वारा मिली प्रेरणा के लिए शुक्रिया शब्द छोटा है पर ये भी न कहूं तो गलत होगा . हृदय से आभारी हूँ .
जवाब देंहटाएंयशोदा , शुक्रिया
जवाब देंहटाएंविभा जी आभार
जवाब देंहटाएंरंजू , शुक्रिया
जवाब देंहटाएंयही स्त्री की नियति आदिकाल से चली आ रही है......खूबसूरत विवेचन
जवाब देंहटाएंअचंभित होती हूँ देख कर कि सनातन काल से नारी किस तरह शोषित होती रही और समाज मूक दृष्टा बना उसके अपमान को उसकी नियति मान अकर्मण्य बना देखता रहा ! चिंतन मंथन के लिए प्रेरित करती उत्कृष्ट रचना ! संगीता जी के सशक्त लेखन की पहले भी धुर प्रशंसिका थी आज भी हूँ ! इतने दिनों के बाद उनकी रचना पढ़ कर बहुत आनंद मिला ! हार्दिक शुभकामनाएं संगीता जी !
जवाब देंहटाएंसंगीता दी के साथ तो अब एक दशक का नाता है। इन्होंने लिखना छोड़ दिया और पिछले साल भर से मैंने छोटी कविताएँ लिखना शुरू कर दिया। संगीता दी मेरी हर रचना की नियमित पाठक हैं।
जवाब देंहटाएंसंगीता दी की रचनाएँ हमेशा नए भाव और नई अभिव्यक्ति लेकर आती हैं। उनकी कविताओं में एक खूबसूरत कसाव होता है और कभी भी अनावश्यक विस्तार नहीं होता। प्रस्तुत रचना वास्तव में उनकी प्रतिनिधि रचना है।
बहुत बहुत सुंदर!!
बहुत अच्छा लग रहा है ब्लॉग जगत के पुराने सशक्त लेखकों को पढ़ना। आदरणीया संगीताजी अभिवादन स्वीकारें।
जवाब देंहटाएंआसान कहाँ होता अपनी गलतियों को स्वीकारना शायद इसी वजह से समाज निर्दोष होते हुए ऐसी नारी को नही स्वीकार कर पाता है ...बहुत सुंदर भाव संगीता जी ...👌👌
जवाब देंहटाएंउत्कृष्ट रचना,
जवाब देंहटाएंबहुत अच्छा लगा पुराने सशक्त कलमकारों को पढ़ना.
वंदना शुक्रिया
जवाब देंहटाएंसाधना जी , आपकी टिप्पणी हमेशा रचना की व्याख्या लिए होती है जो बहुत संतुष्टि प्रदान करती है । आभार
जवाब देंहटाएंसलिल जी ,
जवाब देंहटाएंलिखना छोड़ा नही है बल्कि ये कहिये की लिखा नही जाता :) । खैर ये तो मज़ाक है वाकई छूट ही गया है कुछ लिखना । आप हमेशा से ही बहुत गंभीर पाठक हैं । यदि आप कुछ लिखे की प्रशंसा करते हैं तो निश्चय ही सम्मान की बात है । आभारी हूँ ।
मीना शर्मा जी , हार्दिक शुक्रिया
जवाब देंहटाएंनिशा जी , शुक्रिया । बहुत दिनों बाद यहां मुलाकात हो रही है ।
जवाब देंहटाएंपम्मी सिंह ,
जवाब देंहटाएंबहुत बहुत शुक्रिया ।
अपनी गुरु को क्या कहूँ ? संगीता जी मेरी प्रथम ब्लॉग गुरु हैं । नारी की नियति ही शोषण है , चाहे कुछ प्रतिशत कितना ही सशक्त क्यों न हो जाये ? ये शोषण शून्य नहीं हो सकता है ।
जवाब देंहटाएंकंस के जन्म की ये दुखद कथा शायद बहुतों को नहीं पता होगी...कंस कंस न होता यदि उसकी माँ पर अत्याचार न होता और निर्दोष होने पर भी इतनी बड़ी सजा न भुगतनी पड़ती...बचपन से ही तिरस्कृत ,उपेक्षित जलते आँचल की छाँव तले पला बढ़ा बच्चा और कैसा होता भला...वो प्यार का नहीं छल का बीज था श्राप व तिरस्कार की छाया में पला ...तरस आया पढ़ कर ...एक नया दृष्टिकोण दिया आपने पुन: सोचने पर मजबूर करती है आपकी कविता...बहुत बधाई आपको !
जवाब देंहटाएंसही कह रही हैं उषाजी आप । कंस के जन्म की कथा के बारे में जब मैंने पढ़ा तो लगा कुछ लिखना चाहिए । परिस्थितियां मनुष्य को कैसे प्रभावित करती हैं । इतनी बारीकी से विश्लेषण करने के लिए आभार ।
हटाएंनारी की विडंबना यही रही
जवाब देंहटाएंउत्कृष्ट रचना
आभार वर्मा जी ।
हटाएंशापित थी , आज भी है। नारी जीवन की यही विडंबना। गूढ़ विषय और गहन भाव। बहुत दिनों बाद संगीता दी का लेखन पढ़ने मिला। सुखद अनुभूति....
जवाब देंहटाएंशुक्रिया संध्या । आज पुराने दिन याद आ रहे हैं
हटाएंछोड़ दें इतिहास को तो
जवाब देंहटाएंआज भी नारी शापित है
छल से या बल से .... बेहद सशक्त और सटीक लेखन ... सादर वंदन भी और अभिनन्दन भी
सदा ,
हटाएंस्नेह .
इस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.
जवाब देंहटाएंरेखा जी , आप हमेशा ही इतना मान देती हैं कि मैं नतमस्तक हो जाती हूँ । आपकी मूल्यवान टिप्पणी के लिए आभार ।
जवाब देंहटाएंशुभकामनाएँ
जवाब देंहटाएंशुक्रिया प्रीति
हटाएंछोड़ दें इतिहास को तो
जवाब देंहटाएंआज भी नारी शापित है
छल से या बल से
उसकी अस्मिता लुट जाती है ।
निर्दोष होते हुये भी समाज
ऐसी नारी को नहीं स्वीकारता!!!!
पहली बार संगीता जी को पढ़ा | धारदार लेखनी है | परिचय करवाने के लिए आभार ब्लॉग बुलेटिन |
शुक्रिया रेणु ।
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हटाएंबहुत बढ़िया लेखन, संगीता दी।
जवाब देंहटाएंसमाज की संवेदनहीनता पर प्रश्नचिह्न खड़ा करती हुई सशक्त रचना..
जवाब देंहटाएं.. बेहद सशक्त और सटीक लेखन
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