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शनिवार, 31 मार्च 2018

महान अभिनेत्री मीना कुमारी जी की ४६ वीं पुण्यतिथि

प्रिय ब्लॉगर मित्रों,
प्रणाम |

मीना कुमारी (अंग्रेज़ी: Meena Kumari, जन्म-1 अगस्त 1932; मृत्यु- 31 मार्च 1972) फ़िल्म जगत् की प्रसिद्ध अभिनेत्री थीं। इनका पूरा नाम 'महजबीं बानो' है। मीना कुमारी अपनी दर्द भरी आवाज़ और भावनात्मक अभिनय के लिए दर्शकों के बीच बहुत प्रसिद्ध है। मीना कुमारी की 'साहिब बीबी और ग़ुलाम', 'पाकीज़ा', 'परिणीता', 'बहू बेगम' और 'मेरे अपने' दिल को छू लेने वाली कलात्मक फ़िल्में है।

लगभग तीन दशक तक अपने संजीदा अभिनय से दर्शकों के दिलों पर राज करने वाली हिन्दी सिनेमा जगत की महान् अभिनेत्री मीना कुमारी, 31 मार्च 1972 को इस दुनिया से विदा हो गईं।

स्व॰ मीना कुमारी जी की ४६ वीं पुण्यतिथि पर ब्लॉग बुलेटिन टीम और हिन्दी ब्लॉग जगत की ओर से हम सब उन्हें सादर नमन करते हैं |
सादर आपका
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गम अगरबत्ती की तरह देर तक जला करते हैं-- मीना कुमारी












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अब आज्ञा दीजिये ...

जय हिन्द !!!

शुक्रवार, 30 मार्च 2018

लायक बेटे की होशियारी

प्रिय ब्लॉगर मित्रों,
प्रणाम |

एक दिन एक बहुत बड़े कजूंस सेठ के घर में कोई मेहमान आया!!

कजूंस ने अपने बेटे से कहा,

आधा किलो बेहतरीन मिठाई ले आओ। बेटा बाहर गया और कई घंटों बाद वापस आया।

😊😊

कंजूस ने पूछा मिठाई कहाँ है।

बेटे ने कहना शुरू किया-" अरे पिताजी, मैं मिठाई की दुकान पर गया और हलवाई से बोला कि सबसे अच्छी मिठाई दे दो। हलवाई ने कहा कि ऐसी मिठाई दूंगा बिल्कुल मक्खन जैसी।

फिर मैंने सोचा कि क्यों न मक्खन ही ले लूं। मैं मक्खन लेने दुकान गया और बोला कि सबसे बढ़िया मक्खन दो। दुकान वाला बोला कि ऐसा मक्खन दूंगा बिल्कुल शहद जैसा।

मैने सोचा क्यों न शहद ही ले लूं। मै फिर गया शहद वाले के पास और उससे कहा कि सबसे मस्त वाला शहद चाहिए। वो बोला ऐसा शहद दूंगा बिल्कुल पानी जैसा साफ।

तो पिताजी फिर मैंने सोचा कि पानी तो अपने घर पर ही है और मैं चला आया खाली हाथ।

कंजूस बहुत खुश हुआ और अपने बेटे को शाबासी दी। लेकिन तभी उसके मन में कुछ शंका उतपन्न हुई।

"लेकिन बेटे तू इतनी देर घूम कर आया। चप्पल तो घिस गयी होंगी।"

"पिताजी ये तो उस मेहमान की चप्पल हैं जो घर पर आया है।"

लायक बेटे की होशियारी देख बाप की आंखों मे खुशी के आंसू आ गए ।

🤣🤣🤣😝😝😝

सादर आपका 

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कोई यूँ ही नहीं ...!!












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अब आज्ञा दीजिये ...

जय हिन्द !!!

गुरुवार, 29 मार्च 2018

महावीर जयंती की शुभकामनायें और ब्लॉग बुलेटिन


नमस्कार साथियो,
आज देश महावीर जयंती मना रहा है. जैनियों के २४वें तीर्थंकर भगवान महावीर का जन्म ईसा से ५९९ वर्ष पूर्व चैत्र शुक्ला त्रयोदशी को वैशाली में लिच्छिवी वंश के महाराज सिद्धार्थ और माता त्रिशला के यहाँ हुआ. उनके बचपन का नाम वर्धमान था. वे बाल्यकाल से ही साहसी, तेजस्वी, ज्ञान पिपासु और अत्यन्त बलशाली थे. विद्याध्ययन के पश्चात उनका विवाह यशोदा नामक सुन्दर राजकन्या से हुआ. इनके संयोग से उन्हें कन्या रत्न प्रियदर्शन की प्राप्ति हुई. परिवार मोह वर्धमान को लम्बे समय तक मोह-माया में बाँध कर नहीं रख पाया. माता-पिता के स्वर्गवास पश्चात वर्धमान तीस वर्ष की युवावस्था में तपस्या के लिए निकल पड़े. गहन वनों में ज्ञान की खोज करते हुए उन्होंने कठोर तपस्या की तथा वस्त्र एवं भिक्षा-पात्र तक त्याग दिया. उनका मानना था कि इच्छा आवश्यकता को और आवश्यकता इच्छा को जन्म देती है. वे इस अन्तहीन सिलसिले को समाप्त करना चाहते थे. उन्होंने शरीर को कष्ट देने को ही अहिंसा नहीं माना बल्कि मन, वचन, कर्म से भी किसी को आहत करना उनकी दृष्टि में अहिंसा थी. अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह को पूर्णतया अपने जीवन में उतार कर वे वर्धमान से महावीर जिन कहलाए. जिन से ही जैन बना है जिसका अर्थ है  अपने को जीत लेना. इस प्रकार जो काम जयी है, तृष्णा जयी है, इन्द्रिय जयी है, भेद जयी है वही जैन है. भगवान महावीर ने अपनी इन्द्रियों को जीत लिया और जितेन्द्र कहलाए.


वर्द्धमान नाम का कोई राजकुमार, जिसके चारों तरफ वैभव तैरता हो, सुविधाएँ जिसको घेरे रहती हों, ऐश्वर्य जिसकी आरती उतारता हो वह यदि सब कुछ स्वेच्छा से त्यागकर, वैराग्य धारण करता है तो निस्संदेह वह अलौकिक भी है, असाधारण भी है और अनुकरणीय भी है. ऐसे ही राजकुमार को समाज ने वर्धमान के बजाय महावीर रूप में स्वीकार किया है. आज ऐसे महापुरुष की जयंती को महावीर जयंती के रूप में सम्पूर्ण समाज मना रहा है.

आप सभी को भी महावीर जयंती की शुभकामनायें.

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बुधवार, 28 मार्च 2018

गुरु अंगद देव और ब्लॉग बुलेटिन

सभी ब्लॉगर मित्रों को सादर नमस्कार।
गुरु अंगद देव
गुरु अंगद देव (अंग्रेज़ी: Guru Angad Dev, जन्म- 31 मार्च, 1504 ; मृत्यु- 28 मार्च, 1552) सिक्खों के दूसरे गुरु थे। वे गुरु नानक के बाद सिक्खों के दूसरे गुरु थे। इस पद पर वे 7 सितम्बर, 1539 से 28 मार्च, 1552 तक रहे। गुरु अंगद देव महाराज जी का सृजनात्मक व्यक्तित्व था। उनमें ऐसी अध्यात्मिक क्रियाशीलता थी, जिससे पहले वे एक सच्चे सिख और फिर एक महान् गुरु बनें। गुरु अंगद देव 'लहिणा जी' भी कहलाते हैं। ये पंजाबी लिपि गुरुमुखी के जन्मदाता हैं, जिसमें सिक्खों की पवित्र पुस्तक आदिग्रंथ के कई हिस्से लिखे गए। ईश्वरीय गुणों से भरपूर महान् और प्रभावशाली व्यक्तित्व के स्वामी थे गुरु अंगद देव।



~ आज की बुलेटिन कड़ियाँ ~




आज की बुलेटिन में बस इतना ही कल फिर मिलेंगे तब तक के लिए शुभरात्रि। सादर .... अभिनन्दन।।

मंगलवार, 27 मार्च 2018

न जाने कहाँ !!!





















हम
क्षितिज हैं
जहाँ प्रेम का वहम है
मिलन की मरीचिका है
पर,
मिल रहे हैं
नज़्मों में उतर रहे हैं
ख्यालों की सड़क पर
एक दूसरे को थामे
चलते जा रहे हैं ...

न तुम हो
न मैं हूँ
ना ही है कोई ठोस सड़क
पर चल पड़े हैं  ... न जाने कहाँ !!!


सोमवार, 26 मार्च 2018

आधुनिक काल की मीराबाई को नमन करती ब्लॉग बुलेटिन


नमस्कार साथियो,
हिन्दी कविता के साहित्यिक कालखंड छायावाद का प्रमुख स्तम्भ माने जाने वाली कवयित्री  महादेवी वर्मा का जन्म आज, 26 मार्च 1907 को फ़र्रुख़ाबाद में हुआ था. उनके पिता श्री गोविन्द प्रसाद वर्मा एक वकील और माता श्रीमती हेमरानी देवी गृहणी थीं. दोनों ही शिक्षा के अनन्य प्रेमी थे, जिसके चलते उनको भी पर्याप्त शिक्षा-दीक्षा मिली. इलाहाबाद में क्रॉस्थवेट कॉलेज से शिक्षा का प्रारंभ करते हुए महादेवी वर्मा ने इलाहाबाद विश्वविद्यालय से संस्कृत में एम.ए. की उपाधि प्राप्त की. तब तक उनके दो काव्य संकलन नीहार और रश्मि प्रकाशित होकर चर्चा में आ चुके थे. उनकी काव्य प्रतिभा सात वर्ष की उम्र से ही पहचान पा चुकी थी. महादेवी वर्मा हिन्दी कविता के छायावादी युग के चार प्रमुख स्तंभ सुमित्रानन्दन पन्त, जयशंकर प्रसाद और सूर्यकान्त त्रिपाठी निराला के साथ की एक कड़ी मानी जाती हैं. उन्होंने खड़ी बोली हिन्दी को कोमलता और मधुरता से सँवारकर सहज मानवीय संवेदनाओं की अभिव्यक्ति का द्वार खोला. उनकी रचनाओं में विरह की दीपशिखा का गौरवगान मिलता है.


उनका विवाह लगभग नौ वर्ष की उम्र में ही हो गया था परन्तु उनको सांसारिकता से कोई लगाव नहीं था. वे बौद्ध धर्म से बहुत प्रभावित थीं और स्वयं भी एक बौद्ध भिक्षुणी बनना चाहतीं थीं. विवाह पश्चात् उन्होंने अपना अध्ययन जारी रखा. बाद में उन्होंने अपने प्रयत्नों से इलाहाबाद में प्रयाग महिला विद्यापीठ की स्थापना की. इसकी वे प्रधानाचार्य एवं कुलपति भी रहीं. सन 1932 में उन्होंने महिलाओं की प्रमुख पत्रिका चाँद का कार्यभार सँभाला. उन्होंने न केवल चाँद का सम्पादन किया वरन् हिन्दी के प्रचार-प्रसार के लिए प्रयाग में साहित्यकार संसद की स्थापना की. उन्होंने साहित्यकार मासिक का संपादन भी किया और रंगवाणी नाट्य संस्था की भी स्थापना की. महादेवी वर्मा को आधुनिक काल की मीराबाई कहा जाता है. हिन्दुस्तानी स्त्री की उदारता, करुणा, सात्विकता, आधुनिक बौद्धिकता, गंभीरता और सरलता उनके व्यक्तित्व में समाविष्ट थी. उनके व्यक्तित्व और कृतित्व की विलक्षणता से अभिभूत होकर विभिन्न रचनाकारों ने उन्हें साहित्य साम्राज्ञी, हिन्दी के विशाल मंदिर की वीणापाणि, शारदा की प्रतिमा आदि विशेषणों से सम्मानित किया.

सन 1952 में वे उत्तर प्रदेश विधान परिषद की सदस्य मनोनीत की गईं. सन 1956 में भारत सरकार ने उनकी साहित्यिक सेवा के लिए उन्हें पद्म भूषण की उपाधि से सम्मानित किया. इससे पूर्व उनको सन 1934 में सेकसरिया पुरस्कार, सन 1942 में द्विवेदी पदक से सम्मानित किया गया. सन 1943 में उन्हें मंगला प्रसाद पुरस्कार एवं उत्तर प्रदेश सरकार के भारत भारती पुरस्कार से सम्मानित किया गया. यामा नामक काव्य संकलन के लिए उन्हें भारत का सर्वोच्च साहित्यिक सम्मान ज्ञानपीठ पुरस्कार प्राप्त हुआ. साहित्य के साथ-साथ सामाजिक क्षेत्र से जुड़ी महादेवी वर्मा का निधन 11 सितम्बर 1987 को प्रयाग में हुआ.

आज उनके जन्मदिन पर बुलेटिन परिवार की तरफ से हार्दिक श्रद्धांजलि.

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रविवार, 25 मार्च 2018

जीतकर भी अवसाद से मुक्ति नहीं मिलती ...




कोई बात करते हुए
उंगलियों को तोड़ता मरोड़ता है
कोई गले से अजीब सी आवाज़ निकालता है
कोई आंखों की पुतलियों से हरकतें करता है 
कोई कंधे उचकाता है
...
गलत आदत !
काम्प्लेक्स !
.. जाने क्या क्या हम कह देते हैं !
आदत और काम्प्लेक्स के अलावे
यह आत्मविश्वास की कमी भी तो हो सकती है 
और यह एक गंभीर बात है !
आत्मविश्वास के आगे 
कोई दुर्घटना हो सकती है
कोई भी 
जिससे बचपन
युवावस्था, वृद्धावस्था 
अत्यधिक प्रभावित हो 
और हम ताल ठोककर कहते जाएं 
"अरे हीनभावना से भरा हुआ आदमी है"
!!!
जहाँ तक मेरी सोच जाती है
मेरा अनुभव है 
हीनभावना से भरा व्यक्ति
बहुत खतरनाक होता है
वह चीजों को जानबूझकर तोड़ता है 
रिश्ते बिगाड़ता है
अप्रासंगिक,अचानक 
लड़ने, 
और बहस करने के मुद्दे उठाता है  
....
लेकिन आत्मविश्वास की कमी 
भीड़ में अकेला बनाती है 
अकेलेपन में भयभीत करती है 
लोगों के अट्टाहास में घबराहट देती है 

जीतकर भी अवसाद से मुक्ति नहीं मिलती  ... 

तो - किसी में ऐसा कुछ नज़र आए तो उसका मज़ाक न उड़ाएँ !


आखिर में रामनवमी के विशेष दिन पर 

शनिवार, 24 मार्च 2018

संगीत और तनाव मुक्ति - 2000वीं ब्लॉग बुलेटिन

अब त हमरे पास आपलोग से माफी माँगने का भी मुँह नहीं रह गया है. बाकी देस का कानून के हिसाब से बिना सफाई सुने हुए सजा सुनाना भी गैरकानूनी बात है. एही से कम से कम हमरे दिल का व्यथा त सुनिये लीजिये. नया साल का सुरुआत के साथ नवरात्रि का भी पूर्नाहुति का समय आ गया है. लेकिन हमरे लिये त अभी साल का आखिरी हफ्ता सुरु होने वाला है... नहीं बुझाया. अरे भाई बित्त बरिस यानि फाइनेंसियल ईयर का समाप्ति. साल भर का लेखा-जोखानफा-नोकसानबिजनेस अऊर टारगेट. ई पूरा महीना एतना भाग-दौड़ का होता है कि का बताएँ. न घर से निकलने का टाइमन लौटने का टाइमन सोने का समयन आराम का नाम.



दू दिन पहिले दोस्त लोग के साथ बैठे थेत गुप्ता जी पूछ लिये – वर्मा जी आँख सूजी हुई हैसोये नहीं क्या ठीक सेअब हम का बतातेबोले – नींद नहीं आती है इन दिनों. अब तो बस मरने के बाद ही चैन मिलेगा. घर के लोगों को तो मैंने कह दिया है कि मरने के बाद दस-पंदरह दिनों तक यूँ ही सोने देनाफिर ले जाकर दफ़न कर देना मिट्टी में.
गुप्ता जी बोले – दफ़न क्यों करना?
“मुझे आग से डर लगता है.”
पास में हमरे चैतन्य आलोक जी भी थे. ऊ कहाँ चुप रहने वाले थे – सुनिये बॉसजब तक पूरा शरीर नहीं समाप्त होगाआत्मा भटकती रहेगी. फिर दूसरा शरीर कैसे मिलेगा आपको. दफ़न कर दिया तो बहुत समय लग जाएगा.
हम भी सायरी में जवाब दिये – हम इंतज़ार करेंगे तेरा क़यामत तक.

बात हँसी-हँसी में खतम हो गया. लेकिन रात भार नींद नहीं आनाकाम का दबावअसम्भव टारगेट के पीछे भागनाएतना थका देने वाला हो गया है कि कल बाथरूम में ब्रस करते समय गलती से आँख खुला रह गया त अपना चेहरा देखकर लगा कि हे भगवान हमरे साथ बाथरूम में कऊन आदमी घुसा हुआ है. पढाई लिखाई सब बंद. अजीब तरह का घुटन भरा समय. एही नहींई त भगवान का लाख लाख धन्यबाद है कि हम अपना बैंक के क्वाटर में रहते हैं. नहीं त जो रेपुटेसन बना है सोसाइटी मेंलोग बाग समाज में रहना मोस्किल कर देता. सरकार भले आराम से तरक्की का क्रेडिट ले लेलोन लेकर भागने वाले का दोस बैंक वाला के माथा पर कारिख जैसा पोता गया है.



खैरऊ सब बात त चलता रहेगा. बदनामी-नेकनामी भी कपार पर लिखा होता हैजब जेतना मिलना है ऊ त मिलबे करना है. मगर ई तनाव का माहौल में हमको एक ठो बहुत बढिया तनाव भंजक रास्ता मिल गया. लिखना पढना बंद होने के बावजूद भीहमरे मन में संगीत को लेकर हमेसा एगो रिग्रेट रहता था कि हमको गाना नहीं आता है. फिर याद आया संजीव कुमार जी का जो बता गये थे कि गाना आए या न आएगाना चाहिये. त इधर आकर हम गाना सुरू किये.

हमरे स्वर्गीय पिता जी को गाना का बहुत सौक था. ऊ गाते भी अच्छा थे. फिल्मी गाना का बारीकी हम उन्हीं से सीखे थे. अऊर ई महीना में उनका जनमदिन भी हैसो सोचे कि उनके पसंद का गाना अपने आवाज में रिकॉर्ड करना सुरू किया जाए. बेसुरा गला के बावजूद भी जो हमको अपना गाना का खासियत देखाई दिया ऊ बस एही था कि हम सब गाना एक बार में रिकॉर्ड कियेसब गाना का बोल हमको पूरा याद था अऊर धुन कण्ठस्थ था. रहा बात आवाज कात ऊ त भगवान का दिया हुआ है. जब भगवान बिगाड़ के भेज दिये हैं त हम केतना बना लेंगे.



बेसुरा गला से गाते-गाते लगभग सत्तर गाना हम गा दिये. ऑफिस का सारा थकान अऊर परेसानी दू गो गाना गाकर हम भगा देते थे. तब जाकर अनुभव हुआ कि संगीत से बड़ा कोनो मेडिटेसन नहीं है. एगो छोटा सा मोबाइल का ऐप्प सारा दिन का तकलीफ भुला देता है अऊर हमको हमरे पिता जी का याद से जोड़े रखता है, एही का कम है. आज 24 मार्च है अऊर आज ही के दिन महान कर्नाटक संगीतकार श्री मुत्तुस्वामी दिक्षितार का जन्म हुआ था. इसका मतलब का ई महीना के साथ हमारा कोनो न कोनो म्युज़िकल कनेक्सन जरूर है.

आज सबलोग छुट्टी मना रहा हैमगर हमरे खातिर आज अऊर कल एतवार को भी काम है. प्रधानमंत्री जी का घोसना पूरा करने का दायित्व भी त हम ही लोग के ऊपर है. लेकिन हमलोग त मजूर आदमी हैंवैसे भी इतिहास त ईमारत बनवाने वाले को इयाद करता हैबनाने वाले का त कोनो गिनतिये नहीं है. ऊ लोग के किसमत में त हाथ कटवाना लिखा होता है.



जाने दीजियेहम भी कहाँ का बात कहाँ ले बैठे. आज जब चारो तरफ बैंक वाले के नाम पर का मालूम केतना हज़ार करोड़ का घपला का बात चल रहा हैओहाँ ई बिहारी बैंकर आपके लिये लाया है मात्र 2000वाँ ब्लॉग बुलेटिन. आज का बुलेटिन में हमरा बेसुरा गाना सुनकर साबासी भी दिये त समझेंगे कि हमारा तकलीफ का रेगिस्तान में कोनो झरना फूट गया है.
धन्यवाद!!

-                                                                                                                                                                                       - सलिल वर्मा


शुक्रवार, 23 मार्च 2018

उन युवाओं से क्यों नहीं आज के युवा : ब्लॉग बुलेटिन


नमस्कार साथियो,
आज, २३ मार्च भारतीय इतिहास की क्रांतिकारी तारीख कही जा सकती है. आज के दिन उस अंग्रेजी सरकार ने, जिसने समूचे देश में आतंक मचा रखा था, तीन युवाओं के प्रति भारतीय समाज का समर्पण देखकर सजा के लिए निर्धारित तिथि से एक दिन पूर्व ही सजा दे दी थी. देश की आज़ादी के लिए अपनी जान न्योछावर करने वाले असंख्य वीर क्रांतिकारियों में उन तीन युवाओं ने, जिनकी उम्र २३-२४ वर्ष रही थी, आज ही आज़ादी के हवनकुंड में अपने प्राणों की आहुति दी थी. ये तीन युवा किसी परिचय के मोहताज नहीं होंगे; भगत सिंह, सुखदेव, राजगुरु के क्रांतिकारी कदमों की देशवासियों को जानकारी होगी, ऐसी अपेक्षा की जा सकती है. आज जानकारी के अभाव में इन तीनों युवाओं या कहें कि विशेष रूप से भगत सिंह को बम, बन्दूक, रिवाल्वर का पर्याय बना दिया गया है. उनके विचारों को विशेष-विचारधारा की चादर ओढ़ाकर उन्हें कभी कामरेड, कभी मार्क्सवादी, कभी समाजवादी बनाया जाने लगता है. उनके आलेख विशेष का सन्दर्भ लेते हुए उन्हें ईश्वरीय-सत्ता विरोधी, नास्तिक बताये जाने की कवायद चलती रहती है. ऐसे लोगों के लिए आज का दिन सर्वाधिक उपयुक्त होता है, जबकि वे इन तीनों क्रांतिकारियों को याद करते हुए अपनी विचारधारा से इतर लोगों को कोसने का काम करने लग जाते हैं.


कई बार मन में विचार आता है कि आखिर ऐसा क्या चला होगा उस समय के युवाओं के मन में जो वे अपने प्राणों की परवाह न करते हुए तत्कालीन सरकार के खिलाफ खड़े हो गए थे? क्या इनके मन में कभी भी एक पल को अपनी मौत का, अंग्रेजी शासन के अत्याचारों का खौफ नहीं जागा होगा? ऐसा विचार इसलिए भी आता है कि आखिर २३-२४ वर्ष की उम्र होती ही कितनी है. आज इतने वर्ष का युवा अपने कैरियर के बारे में सोच रहा होता है. उसे न तो अपने परिवार की समस्याओं को दूर करने की फ़िक्र होती है और न ही उसे समाज की समस्याओं की तरफ ध्यान देने की फुर्सत होती है. क्या उस समय उन युवाओं के मन में अपने कैरियर, अपने परिवार, अपने भविष्य के प्रति कोई मोह नहीं जागा होगा? ऐसी कौन सी शक्ति इनके अन्दर उत्पन्न हो गई होगी जिससे ये शासन के खिलाफ विद्रोह का बिगुल फूंकने की हिम्मत जुटा सके थे? ऐसी कौन सी शिक्षा इनको मिली थी जो महज दो दशक के जीवन में वैचारिकी का उत्कृष्ट उदाहरण सम्पूर्ण देश के लिए ये लोग छोड़ गए? युवा तो आज भी हैं. शिक्षा-व्यवस्था आज तत्कालीन समाज से बेहतर है. अव्यवस्थाएँ तो आज भी बनी हुई हैं. प्रशासनिक निरंकुशता, सरकारी अव्यवस्था तो आज भी दिखाई देती है. फिर आज का युवा इनके खिलाफ विद्रोह का बिगुल क्यों नहीं फूंक पाती है? आज का युवा अपने कैरियर का मोह त्याग कर क्यों नहीं सरकार के खिलाफ आन्दोलन खड़ा करता है?

जब-जब भी इन सवालों के जवाब भगत सिंह, सुखदेव, राजगुरु आदि के इंकलाब के सापेक्ष खोजने का काम किया जाता है तो लगता है कि इनकी वैचारिकी के प्रचार के स्थान पर इनके उस बम को ज्यादा प्रचारित किया गया है जिसे फेंकने के समय उछाले गए पर्चों का पहला ही वाक्य था कि बहरों को सुनाने के लिये विस्फोट के बहुत ऊँचे शब्द की आवश्यकता होती है. उनकी क्रांति को सीधे-सीधे बन्दूक से, हत्या से, धमाके से जोड़ दिया गया है. उनके इंकलाब जिंदाबाद को विशुद्ध रूप से अराजकता का द्योतक बताया जाने लगा है. ऐसे में जबकि हमारे ही देश में हमारे देश के इन क्रांतिकारी युवाओं के बारे में संकुचित मानसिकता के साथ जानकारी दी जा रही हो तो कैसे अपेक्षा की जाये कि आज का युवा किसी अव्यवस्था के खिलाफ, किसी अराजकता के विरुद्ध उठ खड़ा होगा. देखा जाये तो आज भ्रष्टाचार, रिश्वतखोरी, आतंकवाद, नक्सलवाद, सामाजिक अपराध, राजनैतिक अपराध, लूटमार, हत्याएँ, हिंसा, जातिगत विभेग, लिंगभेद आदि ऐसी स्थितियाँ हैं जो भले ही विदेशी शासन न हों पर विदेशी शासन जैसी दिखती हैं. इसके बाद भी आज का समाज, विशेष रूप से युवा इनके प्रति अनभिज्ञ बना हुआ अपने आपमें ही खोया हुआ है. उसके लिए उसके आसपास की दुनिया ही उसका अपना देश है. उसके लिए अपना कैरियर ही उसकी आज़ादी है.

ऐसी विद्रूप स्थितियों में हम शहीदी दिवस मनाने की औपचारिकता का निर्वहन कर लेते हैं. भगत सिंह, राजगुरु, सुखदेव की प्रतिमाओं, चित्रों पर माल्यार्पण कर लेते हैं. उनके बारे में चलन में बनी सामान्य सी जानकारी को चंद लोगों के बीच गोष्ठी रूप में बार-बार प्रसारित करते रहते हैं. भगवा और लाल रंग का विभेद कर देश के लिए प्राण न्योछावर कर देने वाले युवाओं का भी बंटवारा कर लेते हैं. इन सबके बीच कभी किसी ने विचार करने का प्रयास किया है कि उस दिन असेम्बली में बम फेंकने की घटना के समय भगत सिंह के साथ राजगुरु, सुखदेव तो थे नहीं फिर इन दोनों वीरों को भगत सिंह के साथ फाँसी क्यों? उस दिन भगत सिंह के साथ एक अन्य युवक जो साथ था, उन बटुकेश्वर दत्त को आज कौन याद कर रहा है? उस वीर नौजवान के साथ क्या हुआ? आज भले ही शहीद भगत सिंह अपने अन्य साथियों के सापेक्ष बहुत बड़े कद के दिखाई देते हों पर हम सभी का कर्तव्य है कि देश के लिए अपने प्राण न्योछावर कर देने वालों के चित्र यदि एकसाथ रखे हों तो हम सबको पहचान सकें. इनके विचारों को किसी विचारधारा विशेष के खाँचे में बाँधकर प्रसारित न करें. आने वाली पीढ़ी को समझाएं कि आज वे जिस आज़ाद हवा-पानी में अपना जीवन गुजार रहे हैं वह ऐसे युवाओं के कारण संभव है. आज की पीढ़ी को बताना होगा कि भगत सिंह सहित अन्य युवा क्रांतिकारी हिंसा का, बन्दूक का, बम का पर्याय नहीं हैं. ऐसे वीर युवकों के विचारों की सान पर आज की पीढ़ी को तैयार करना होगा ताकि वह भी आज के समस्यारुपी शासकों के खिलाफ बिगुल फूंक सके.

यदि हम सब मिलकर खुद जाग सकें, आज की पीढ़ी को जगा सकें, आने वाली पीढ़ी को इन वीरों के बारे में समझा सकें, इन सबकी पहचान करवा सकें तो भगत सिंह, सुखदेव, राजगुरु सहित अनेकानेक ज्ञात-अज्ञात वीरों के प्रति सच्ची श्रद्धांजलि होगी.

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