Pages

गुरुवार, 30 नवंबर 2017

2017 का अवलोकन 16




नहीं पढ़ा है बहुत सारे लोगों को
नहीं जानती हूँ हर कविताओं का अर्थ
नहीं कर पाती व्याख्या
लेकिन तितली की तरह 
इधर से उधर उड़ती रहती हूँ
और कुछ पराग ले आती हूँ ... आज लाई हूँ निधि सक्सेना को 


और अंततः वो मर गई | झर रही है चाँदनी - निधि - WordPress.com



​और अंततः वो मर गई!
परलोक के द्वार पर
पाप पुण्य का लिखा जोखा हो रहा है
चित्रगुप्त बही खाता लिए बैठे हैं
वो अचरज से सब देख रही है!!
समय की इकाई तरल है यहाँ
निश्चित नही है वक्त के अंश
शीघ्र और विलंब मन की कल्पनायें भर हैं!
अब उसकी बारी है
चित्रगुप्त उसके बही खाते बांच रहे हैं
बगैर उसकी ओर देखे
एकाग्रता से!!
उसने सहज ही पूछा है
मेरा भी खाता है क्या यहाँ
चित्रगुप्त ने नीचे देखे देखे ही जवाब दिया
हर मनुष्य का खाता है यहाँ
ओह!! उसके दीर्घ निःश्वास छोड़ी
याने आज ये तो सुनिश्चित हो ही गया
की मैं भी मनुष्य हूँ!!
चित्रगुप्त ने इस बार उस पर उड़ती दॄष्टि डाली
थोड़ी शिष्ट थोड़ी तीखी
थोड़ी चकित थोड़ी व्यथित
बड़े बड़े भरे भरे नयन लिए थी वो!!
चित्रगुप्त पुनः गुणा भाग में तल्लीन हो गए
कुछ ही क्षणों में हिसाब हो गया
तुलन पत्र पर कुल पाप अधिक हैं
कि वो लांछित है
अपराधिनी है
धर्म पथ से भटक गई है
झूठी है
विभत्स लालसायें हैं उसकी!
चित्रगुप्त पढ़ते जा रहे हैं दोष
और उसकी आँखों से आगे से गुजर रही है
चलचित्र सी उसकी जिंदगी
वो पुनः महसूस कर रही है
उन लांछनों के पीछे की विपन्नता
उन अभियोगों के पीछे की परिस्थिति
 अधर्म के पीछे की आहुति
 अपराध के पीछे अपमान
 लालसा के पीछे समर्पण!!
चित्रगुप्त ने फ़ैसला सुनाया है
माफी लायक नही है उसका जीवननामा
नर्क जाना होगा!!
अब क्रोध और आँसू तिरोहित हो गए हैं उसके
सर झुकाए बस इतना ही कह पाई
ईश्वर मुझे शायद माफ कर भी दें
परंतु मैं ईश्वर को कभी माफ न करूंगी!!
आहिस्ता आहिस्ता उसने नर्क की ओर उसने कदम बढ़ाये

एक बार फिर!!!


बुधवार, 29 नवंबर 2017

2017 का अवलोकन 15



बेचैन आत्मा - दुनिया, प्रकृति  ... क्या से क्या हो गई ! आत्मा स्तब्ध 

चिंतन में है, कभी किसी यात्रा के दरम्यान, कभी शून्य में विस्तार को 

देखते और मापते हुए 



नदी - बेचैन आत्मा - blogger

देवेंद्र पाण्डेय 


नदी
अब वैसी नहीं रही

नदी में तैरते हैं
नोटों के बंडल, बच्चों की लाशें
गिरगिट हो चुकी है
नदी!

माझी नहीं होता
नदी की सफाई के लिए जिम्मेदार
वो तो बस्स
इस पार बैठो तो
पहुँचा देगा
उस पार

नदी
के मैली होने के लिए जिम्मेदार हैं
इसमें गोता लगाने
और
हर डुबकी के साथ
पाप कटाने वाले

पाप ऐसे कटता है?
ऐसे तो
और मैली होती है नदी।

तुम क्या करोगे मछेरे?
अपने जाल से
नदी साफ करोगे?
तुम्हारे जाल में
छोटी, बड़ी मछलियाँ फसेंगी
नदी साफ होने से रही।

नदी को साफ करना है तो
इसके प्रवाह को, अपने बन्धनों से
मुक्त कर दो
चौपायों को सुई लगाकर,  दुहना बन्द करो
जहर से
चौपाये ही नहीं मरते
मरते हैं
गिद्ध भी

नदी
तुम्हारी नीतियों के कारण मैली हुई है
नदी
तुम्हारी नीतियों के कारण
गिरगिट हुई है
अब यह तुमको तय करना है
कि अपना
हाथ साफ करना है या
साफ करनी है
नदी।

मंगलवार, 28 नवंबर 2017

2017 का अवलोकन 14



मनमोहन भाटिया जी को मैं हमेशा पढ़ती हूँ, नियम से वे मुझे अपनी रचनाएँ मेल करते हैं  ... 
My photo
निष्ठा से प्रायः हर दिन लिखते हुए मैंने देखा है - मनमोहन भाटिया, सुशील कुमार जोशी और देवेंद्र कुमार पांडेय को  ...इन्हें  पढ़ते हुए बहुत ही अच्छा लगता है !






सुबह के सात बजे सुरिंदर कमरे में समाचारपत्र पढ़ रहे थे उनके पुत्र ने एक वर्षीय पौत्र को सुरिंदर की गोद मे दिया।
"चलो दादू को गुड मॉर्निंग बोलो।"
पौत्र शौर्य दा-दा कहते हुए समाचारपत्र को अपने नन्हे हाथों में लेकर मसल देता है जिस कारण समाचारपत्र फट जाता है। फटे समाचारपत्र को देख शौर्य खुशी से हंसने लगता है। शौर्य के साथ सुरिंदर खेलने लगते हैं और दोनों जोर से हंसते हैं। शौर्य की दादी सुषमा पूजा समाप्त करके शौर्य  को गोद में लेती है।
"आप समाचारपत्र आराम से पढ़ो। मैं इसको संभालती हूं।"
अभी सुरिंदर अलग-अलग फटे हुए पन्नों को जोड़ रहे थे तभी उनकी पांच वर्षीय पौत्री सुहानी आकर सुरिंदर से चिपक जाती है।
"गुड मॉर्निंग दादू।"
"गुड मॉर्निंग सुहानी।"
गुड मॉर्निंग कह कर सुहानी दादा सुरिंदर के कंधे पर चढ़ जाती है।
"दादू आपके सिर के बाल कहां गए?" सुहानी ने सुरिंदर के सिर पर हाथ फेरते हुए पूछा।
"आपने खींचे थे इसलिए सब उड़ गए।"
"दादू झूठ बोल रहे हो, मैंने कब खींचे हैं। मैं तो कल आई हूं। बाल तो कल भी नही थे।" कह कर सुहानी सुरिंदर के कंधे पर चढ़ कर बैठ जाती है और सिर पर हाथ फेरते हुए बाल खींच लेती है।"
"सुहानी बेटे, बाल मत खींचो, दर्द होता है। आप मेरे सिर की चम्पी करो।" सुहानी मस्ती में दादा सुरिंदर के सिर की चम्पी करते  हुए बाल भी खींच लेती है। सुरिंदर को दर्द होता है फिर भी वे सुहानी के साथ मस्ती करते हैं।
सुरिंदर अपने पौत्र और पौत्री के संग मस्ती करते हैं। सुरिंदर की पुत्रवधू सुहानी को डांट कर डाइनिंग टेबल पर दूध पीने के लिए बिठाती है। सुरिंदर स्नान करने जाते है। सुहानी मस्ती में दूध पीते हुए कप गिरा देती है। कप टूट जाता है। सुहानी मां से डांट खाती है और रोते हुए दादी की गोद मे छुप जाती है।

सुरिंदर और सुषमा सेवा निवृति के पश्चात अकेले जीवन व्यतीत कर रहे है। शादीशुदा पुत्र और पुत्री अपने परिवार संग दूसरे शहर में रहते हैं। वर्ष दो के बाद कभी-कभी मिलने आते है तब घर मे रौनक लग जाती है वर्ना दोनो बूढे पति-पत्नी सारा दिन दीवारें ताकते हुए टीवी देखते हैं।
आज पोते-पोती संग सुरिंदर चहक रहे हैं। स्नान के बाद सुरिंदर पूजा में बैठते हैं तब शौर्य गोद मे मस्ती में कभी ताली बजाता है कभी गोदी से निकलने की कोशिश करता है। सुहानी बगल में बैठ कर मंदिर की घंटी बजाने में मस्त है।
नाश्ता करने के पश्चात सुरिंदर सुषमा सुहानी और शौर्य को लेकर बाजार जाते हैं और उनके लिए कपड़े और खिलौने खरीदते हैं। दोहपर के समय घर आकर खाने के पश्चात आराम करते हैं।
"सुहानी कल रविवार है तुम्हें चिड़ियाघर दिखलाते हैं।"
"वहां क्या होता है दादू?" सुहानी उत्सुकता में सुरिंदर से चिपक जाती है।
"वहां आपको शेर, हाथी, ज़ेबरा, दरियाई घोड़ा, बंदर और बहुत सारे पशु-पक्षी नजर आएंगे। आपको बहुत मजा आएगा।"
"सब सच्ची के होंगे दादू?"
"हां सच्ची के होंगे।"
"मुझे डर लगेगा दादू।"
"डर नही लगेगा क्योंकि एक तो हम आपके साथ होंगे और उनको पिंजड़े या बाडे में रखा जाता है। हम सबको दूर से देखेंगे।"

अगले दिन सुरिंदर सुहानी को चिड़ियाघर लेकर जाते हैं। अभी तक सुहानी ने जानवर टीवी पर देखे थे, आज उनको सामने देख अति प्रसन्न हुई। पांच वर्षीय सुहानी जल्दी थक गई तब सुरिंदर उसके साथ घर चले गए। घर आकर सुहानी खुशी में झूमते हुए सबको बताती है कि उसने शेर देखा।
हर रोज सुबह सुहानी और शौर्य के साथ समीप के पार्क जाते। सुहानी को झूला झुलाते।
एक सप्ताह बीतते पता ही नही चला और बच्चों के वापस जाने का समय हो गया। झलकती आंखों के साथ सुरिंदर ने बच्चों को विदा किया।

बच्चों के जाने के पश्चात सुरिंदर और सुषमा अकेले पढ़ गए।
"बच्चे अपने साथ रौनक ले गए।" सुषमा ने सुरिंदर के कंधे पर हाथ रख कर कहा।
बालकनी में समाचारपत्र पढ़ते हुए सुरिंदर ने चश्मा और समाचारपत्र टेबल पर रखते हुए कहा "घर सूना हो गया।"
"रौनक बच्चों से होती है। समय पंख लगा कर उड़ गया। एक सप्ताह फुरसत ही नही मिली और अब करने को कोई काम नही।"
"सुषमा सेवा निवृति के पश्चात समय व्यतीत करने की समस्या का कोई समाधान नही है। बच्चों के साथ संयुक्त परिवार में मन लगा रहता है। अकेलेपन की कोई दवा नही सुषमा। पूरे दिन में दो से तीन घंटे का काम है और बाकी समय किताबे पढ़ने और टीवी देखने मे बिताना पड़ता है।"
"अब उम्र के इस पड़ाव में हकीकत से मुंह नही मोड़ सकते। सच्चाई स्वीकार करके प्रभु वंदन करते जीवन बिताना है।"
बच्चों से कभी कभार फोन पर बात हो जाती है तो चेहरे पर मुस्कान आ जाती है।

एक दिन शाम को बाजार से फल-सब्जी और रसोई का सामान खरीद कर सुरिंदर और सुषमा घर लौट रहे थे। सोसाइटी के गेट पर भीड़ थी। रिक्शे से वहीं उतर गए। पुलिस भी खड़ी थी और लोग खुसर-फुसर कर रहे थे। पूछने पर पता चला कि एक मकान में चोरी हो गई। मकान में रहने वाला परिवार शादी में दूसरे शहर गए थे। दो दिन मकान में ताला लगा था। जब वापिस आये तब चोरी का पता चला। सोसाइटी के चौकीदारों पर शक की सुई घूम गई, जिन्हें हर मकान और उनके परिवार के आने-जाने की पूरी जानकारी होती है। पुलिस चौकीदारों से पूछताछ कर रही थी। सुरिंदर और सुषमा घर आ गए।
"सुषमा अब हम दोनों को चौकन्ना रहना चाहिए। दिन-दहाड़े चोरियां और बुजर्गो पर हमले हो रहे हैं। चोरी के समय बुजुर्गों पर कातिलाना हमला अब आम बात हो गई है।" सुरिंदर ने चिंता जाहिर की।
"सुरिंदर हमारे यहां तो कोई नौकर भी नही है। बुढ़ापे में समय काटने के लिए घर के सभी काम अपने हाथों से करते हैं। सिर्फ झाड़ू-पोंछे के लिए एक समय माई आती है।" सुषमा ने कह कर सुरिंदर को तसल्ली दी।
"अनजान व्यक्तियों को घर मे नही घुसने देना। मुख्य दरवाजे पर अतिरिक्त सुरक्षा का प्रबंध करते हैं।"
"जो होना है सुरिंदर हो ही जायेगा, कितनी ही मोटे ताले जड़ दो। कंस के लाख पहरों के बावजूद कृष्ण सुरक्षित यशोदा के घर पहुंच गए।" सुषमा कह कर रसोई में चाय बनाने लगी।

कुछ दिन बाद सुरिंदर और सुषमा बालकनी में शाम की चाय पी रहे थे। घर की घंटी बजी, दरवाजा खोला तो पुलिस खड़ी थी। सुरिंदर आशंकित और अचंभित हो गया। वह पुलिस की शक्ल देखने लगा। पुलिस की वर्दी पर लिखा था। "अजय दहिया"
"जी कहिए क्या आपको मेरे से कोई काम है?" सुरिंदर ने गला साफ करते हुए पूछा।
"बस आपके पांच मिनट लूंगा। अंदर बैठ कर बात करते हैं।"
सुरिंदर और अजय दाहिया सोफे पर बैठते है। सुषमा चाय पूछती है।
"नही आंटी चाय नही बस पानी, वो भी सादा। ठंडा फ्रिज का नही चलेगा।"
पानी पीने के बाद अजय दाहिया ने सुरिंदर को संबोधित किया।
"अंकल आजकल शहर में चोरी और बुजुर्गों पर हमलों की वारदात बढ़ गई है। पुलिस ने एक नई योजना बनाई है जिसमें हम थाना क्षेत्र में रहने वाले अकेले रह रहे बुजुर्गों की एक लिस्ट बना रहे हैं। हमें आपका नाम, पता और संपर्क नंबर चाहिए। आप हमें जरूरत के समय इन फोन नंबरों पर फोन कर सकते हैं। आपकी तबीयत ठीक न हो, हम आपको डॉक्टर या अस्पताल लेकर जाएंगे। केमिस्ट से दवा ला कर देंगे। समय-समय पर थाने से कोई सिपाही आपका हालचाल पूछने आएगा। अब आप समस्या बताएं जिनका हम समाधान ढूंढ सके और आपकी मदद कर सकें।"
"पुलिस की पहल और योजना का मैं स्वागत करता हूं।" सुरिंदर ने पुलिस का फार्म भर दिया।
"इस योजना को अधिक सफल बनाने के लिए आप सुझाव दीजिए।"
"बेटा इस उम्र में आकर अकेले रह रहे हम बुजुर्गों की बस एक समस्या अकेलेपन की है। मकान अपना है, दाल-रोटी मिल जाती है। बच्चे दूर हैं, मन उचाट रहता है। टीवी भी कितना देखें, बार-बार सारा दिन वोही कार्यक्रम दोराहे जाते हैं। बच्चों का कोई दोष नही है, नौकरी और व्यापार के लिए दूसरे शहर और देश जाना पड़ता है। बच्चों के बिन घर सूना लगता है और काटने को दौड़ता है। अकेलापन समस्या है। इस उम्र में अधिक काम कर नही सकते।" कह कर सुरिंदर और सुषमा की आंखें नम हो गई।
"आज सब के साथ यही समस्या है।" कह कर अजय दाहिया ने प्रस्थान किया।

सुरिंदर अपने मोबाइल पर सुहानी और शौर्य की तस्वीरों को देखते विचारों में डूब जाते हैं।


सुशील कुमार जोशी 



किसी दिन तो 
सब सच्चा 
सोचना छोड़ 
दिया कर 

कभी किसी 
एक दिन 
कुछ अच्छा 
भी सोच 
लिया कर 

रोज की बात 
कुछ अलग 
बात होती है 
मान लेते हैं 

छुट्टी के 
दिन ही सही 
एक दिन 
का तो 
पुण्य कर 
लिया कर 

बिना पढ़े 
बस देखे देखे 
रोज लिख देना 
ठीक नहीं 

कभी किसी दिन 
थोड़ा सा 
लिखने के लिये 
कुछ पढ़ भी
लिया कर 

सभी 
लिख रहे हैं 
सफेद पर 
काले से काला 

किसी दिन 
कुछ अलग 
करने के लिये 
अलग सा 
कुछ कर 
लिया कर 

लिखा पढ़ने में 
आ जाये बहुत है 
समझ में नहीं 
आने का जुगाड़ 
भी साथ में 
कर लिया कर 

काले को 
काले के लिये 
छोड़ दिया कर 
किसी दिन 
सफेद को 
सफेद पर ही 
लिख लिया कर 

‘उलूक’ 
बकवास 
करने 
के नियम 
जब तक 
बना कर 
नहीं थोप 
देता है 
सरदार 
सब कुछ 
थोपने वाला 

तब तक 
ही सही 
बिना सर पैर 
की ही सही 
कभी अच्छी भी 
कुछ बकवास 
कर लिया कर ।

सोमवार, 27 नवंबर 2017

2017 का अवलोकन 13




अभिप्रेत कथा - The Three Graces - blogger 

लवली गोस्वामी का ब्लॉग, भावों की शाब्दिक थाती है, पढ़ने की उत्कंठा बढ़ती ही जायेगी 


उनकी एक लम्बी कविता, जिसे मैंने 2017 की ब्लॉगिंग डायरी से चुना है,  ... 



मेरे “मैं” के बारे में

मुझे थोड़ा - थोड़ा सब चाहते थे
ज़रूरत के हिसाब से कम - बेशी
सबने मुझे अपने पास रखा
जो हिस्सा लोग गैर ज़रूरी समझ कर अलगाते रहे
मेरा “मैं” वहाँ आकार लेता था
आखिर जो हिस्सा खर्चने से बाक़ी रह जाता है
वही तो हमारी बचत है

मुझ पर अभियोग लगे,
जाने वालों को रोकने के लिए
मैंने आवाज़ नहीं लगायी

मेरा मन मौन का एक भंवर है
      जिसमे कई पुकारें दुःख के घूँट पीती
कलशी की तरह डूब जाती हैं

मैंने कभी किसी से नहीं कहा
कि मेरी अधूरी कविताओं की परछाइयाँ  
मेरे भीतर निशा संगीत की धुन पर
दिए की कांपती लौ की मानिंद नृत्य करती हैं

रात के तीसरे पहर मेरी परछाई
दुनिया के सफ़र पर निकलती है
उन परछाइयों से मिलने
जिन्हें अपने होने के लिए
रौशनी की मेहरबानी नहीं पसंद

कुछ पुकारें हैं मेरे पास जो सिर्फ अँधेरी रातों के
घने सन्नाटे में मुझे सुनायी देती हैं

कुछ धुनें हैं जो सिर्फ तब गूंजती हैं
जब मेरे पास कोई साज़ नहीं होता

कविता की कुछ नृशंस पंक्तियाँ हैं
जो उस वक़्त मेरा मुँह चिढ़ाती हैं
जब मेरे पास उन्हें नोट करने के लिए वक़्त नहीं होता

कुछ सपने हैं जो रोज चोला बदल कर
मुझे मृत्यु की तरफ ले जाते हैं
अंत में नींद हमेशा मरने से पहले टूट जाती है

जिस समय लोग मुझे चटकीली सुबहों में ढूंढ रहे थे
मैं अवसादी शामों के हाथ धरोहर थी

क्या यह इस दुनिया की सबसे बड़ी विडम्बना नहीं है
कि रौशनी की हद अँधेरा तय करता है ?

रौशनी को जीने और बढ़ने के लिए
हर पल अँधेरे से लड़ना पड़ता है

मैं लड़ाकू नहीं हूँ , मैं जीना चाहती हूँ
अजीब बात है, सब कहते हैं
यह स्त्री तो हमेशा लड़ती ही रहती है

मैं खुद पर फेंके गए पत्थर जमा करती हूँ
कुछ को बोती हूँ, पत्थर के बगीचे पर
पत्थर की चारदीवारी बनाती हूँ

उन्हें इस आशा में सींचती हूँ
किसी दिन उन में कोपलें फूटेंगी
हंसिये मत, मैं पागल नहीं हूँ

हमारे यहाँ पत्थर औरतों और भगवान
तक में बदल जाते हैं
मैंने तो बस कुछ कोपलों की उम्मीद की है

अपने होने में मैं अपने नाम की गलत वर्तनी हूँ
मेरा अर्थ चाहे तब भी मुझ तक पहुँच नहीं सकता
उसे मुझ तक ले कर आने वाला नक़्शा ही ग़लत है

दुनिया के तमाम चलते - फिरते नाम
ऐसे ग़लत नक़्शे हैं जो अपने लक्ष्यों से
बेईमानी करने के अलावा
कुछ नहीं जानते

जवाबों ने मुझे इतना छला
कि एक दिन मैंने सवाल पूछना छोड़ दिया

मैं नहीं हो पायी इतनी कुशाग्र
कि किसी बात का सटीक जवाब दे सकूँ
इस तरह मैं न सवालों के काम की रही
न जवाबों ने मुझे पसन्द किया

अलग बात है शब्द ढूंढते ढूंढते,
मैंने इतना जान लिया कि
परिभाषाओं में अगर दुरुस्ती की गुंजाईश बची रहे
तो वे अधिक सटीक हो जाती हैं

कुछ खास  गीतों से मैं अपने प्रेमियों को याद रखती हूँ
प्रेमियों के नाम से उनके शहरों को याद रखती हूँ

शहरों की बुनावट से उनके इतिहास को याद रखती हूँ 
इतिहास से आदमियत के जय के पाठ को

मेरी कमज़ोर स्मृति को मात देने का
मेरे पास यही एकमात्र तरीक़ा है

भूलना सीखना बेशक जीवन का सबसे ज़रूरी कौशल है
लेकिन यह पाठ हमेशा उपयोगी हो यह ज़रूरी नहीं है

मन एक बैडरूम के फ़्लैट का वह कमरा है
जिसमें जीवन के लिए ज़रूरी सब सामान है
बस उनके पाए जाने की कोई माकूल जगह नहीं है

आप ही बताएँ वक़्त पर कोई सामान ना मिले
तो उसके होने का क्या फ़ायदा है ?

मेरे पास कुछ सवाल हैं जिन्हें कविता में पिरो कर
मैं दुनिया के ऐसे लोगों को देना चाहती हूँ,
जिनका दावा है कि वे बहुत से सवालों के जवाब जानते हैं

जैसे जब तबलची की चोट पड़ती होगी तबले पर
तब क्या पीठ सहलाती होगी मरे पशु की आत्मा ?

जिन पेड़ों को कागज हो जाने का दंड मिला
उन्हें कैसे लगते होंगे खुद पर लिखे शब्दों के अर्थ ?

वे बीज कैसे रौशनी को अच्छा मान लें ?
जिनका तेल निकाल कर दिए जलाये गए,
जबकि उन्हें धरती के गर्भ का अंधकार चाहिए था
अंकुर बनकर उगने के लिए

एक सुबह जब मैं उठी
तो मैंने पाया प्रेम और सुख की सब सांत्वनाएं
मरी गौरैयों की शक्ल में पूरी सड़क पर बिखरी पड़ीं हैं

इसमें मेरा दोष नहीं था मुझे कम नींद आती है
इसलिए मैं कभी नींद की अनदेखी न कर पायी
मेरी नींदों ने हमेशा आसन्न आँधियों की अनदेखी की

इस क़दर धीमी हूँ मैं कि रफ़्तार का कसैला धुआँ
मेरी काया के भीतर उमसाई धुंध की तरह घुमड़ता है

कुछ अवसरवादी दीमकें हैं जो मन के अँधेरे कोनों से
कालिख़ मुँह में दबाये निकलती हैं

ये शातिर दीमकें मेरी त्वचा की सतह के नीचे
अँधेरे की लहरदार टहनियाँ गुंथतीं हैं

देह की अंदरुनी दीवारों पर अवसाद की कालिख़ से बना
अँधेरे का निसंध झुरमुट आबाद है

चमत्कार यह हैं कि काजल की कोठरी में
विराजती है एक बेदाग़ धवल छाया
जो लगातार मेरी आत्मा होने का दावा करती है

कई लोग मेरे बारे में इतना सारा सच कहना चाहते थे
कि सबने आधा - आधा झूठ कहा

अक्सर ऐसे अगोरती हूँ जीवन
जैसे राह चलते कोई ज़रा देर के लिए
सामान सम्हालने की जिम्मेदारी दे गया हो

एक दिन अपने बिस्तर पर
ऐसा सोना चाहती हूँ कि मैं उसे जीवित लगूं 
एक दिन शहर की सडकों पर
बिना देह घूमना चाहती हूँ.

दुःखों की उपज हूँ मैं
इसलिए उनसे कहो, मुझे नष्ट करने का ख़्वाब भुला दें
पानी में भले ही प्रकृति से उपजी हर चीज सड़ जाये
काई नही सड़ती.

रविवार, 26 नवंबर 2017

2017 का अवलोकन 12





स्त्री मन, यानि कोमल - पुरुष के भीतर हो तो शिव की विशेष कृपा, 
अजय कुमार झा - एक आम आदमी ..........जिसकी कोशिश है कि ...इंसान बना जाए !


कल हमारी बहुत सी मित्र दोस्त सहेलियों ने बड़ी ही मार्के की बात कही , वैसे ऐसा तो वे अक्सर करती हैं , कि सालों साल और लगभग पूरी उम्र हमारी माँ , बहिन और पत्नी की भांति वे सब , घरेलू काम , जिसमें सबसे प्रमुख घर के सभी सदस्यों के पौष्टिक और सुस्वाद भोजन तैयार कर सबको खिलाना , सबसे अहम् , को चुपचाप , बिना किसी पारिश्रमिक , मेहनताने और कई बार तो प्रशंसा भी नहीं , के बिना ही , निरंतर करती जाती हैं | उनका कहना कि , पुरुषों को ये काम करना आना तो दूर इन कामों के किये और करने वाली की कद्र भी नहीं होती , सच है , अक्सर ऐसा देखा भी जता है | ये उनकी नैसर्गिक ड्यूटी मान कर अनदेखा किया जाता है | अपना हाल थोड़ा जुदा है |

पढाई लिखाई के कारण , शायद इंटर कालेज के दिनों में ही माँ बाबूजी और घर से दूर रहने के दौरान , विद्यार्थी जीवन में ही खुद के लिए लगभग हर वो काम , जो गृहणियों के जिम्मे होता है , करने की पहले मजबूरी फिर आदत सी हो गयी | शुरुआत , दाल चावल ,खिचड़ी जैसे आसान विकल्पों से हुई और जाने कितने ही बरस , वही उबला उबली चलती रही |

आज से पूरे बाईस बरस पहले जब दिल्ली पहुंचे तो मामला और आगे बढ़ा ,मगर खेल असली तब शुरू हुआ जब रोटी बनाने की बारी आई | हम सब नए रंगरूटों को हमारे सीनियरों ने पूरे एक सप्ताह तक तो एकदम नई दुल्हन की तरह रखा फिर एक दिन अचानक ही बिना बताये सब गायब हो लिए और सुबह से दोपहर होते होते ,पेट में चूहे दौड़ने लगे | किचन में पूरी सफाई से ,पहले ही हमारी खिचडी का सब रसद गायब , सिर्फ आटा | वहां से शुरू हुई हमारी रोटियाँ बनाने की पूरी ट्रेनिंग | लस्सी , लपसी से होते हुए जल्दी ही हम लोई तक पहुँच गए | फिर तो हम रोटियाँ भी ऐसी बनाने लगे कि सबका सरकमफ्रेंस भी भी नाप के देखा जाता तो एक दम सेम टू सेम :) :) :) :)

इसके बाद तो हममें से सब के सब इतने दक्ष हो चुके थे कि , परीक्षाओं के दिनों में गाँव से आने वाले अपने तमाम दोस्तों के लिए हम खेल खेल में सब कुछ बना लेते थे | मुझे याद है कि , दो घंटे तक बिना रुके मैं सत्तर सत्तर रोटियाँ बना लेता था | आज जब दो संतानों का पिता हूँ तो ,किसी भी कुशल गृहणी को न सिर्फ चुनौती बल्कि हर तरह के भोजन , निरामिष भी ,दक्षिण भारतीय भी और गुलाबजामुन , मालपुए जैसे पकवान भी पूरी दक्षता से बना लेता हूँ |

बिटिया बुलबुल की चोटी गूंथना और उसे तैयार करना जितना मुझे पसंद है ,उससे अधिक बिटिया को पापा से तैयार होना | कढ़ाई , सिलाई , इस्त्री ...छोडिये ..


सौ बात की एक बात ..माँ जो कहती थी ...भोला तेरा मन भीतर से स्त्री है , और मुझे लगता है पुरुष तन के भीतर स्त्री मन होना ही सर्वोत्तम है ....बिलकुल अर्धनारीश्वर हो जाने जैसा है .........

शनिवार, 25 नवंबर 2017

2017 का अवलोकन 11




My photo
अर्चना चावजी  ... उन्हें ब्लॉगर कहूँ, तैराक कहूँ, बच्चों की दोस्त, सबकी दोस्त, एक जिज्ञासु महिला, मायरा का खिलौना कहूँ, घर की मजबूत दीवारें कहूँ, वैराग्य में राग भरती धुन कहूँ, नाम बदलकर एकलव्य रख दूँ या कहूँ इत्ती सी हँसी, इत्ती सी ख़ुशी,  ... ख़्वाबों के तिनके से बना आशियाँ कहूँ  !
कुछ नहीं, कुछ लोग शब्दों के दायरे में नहीं आते,  ... अर्चना चाव भी नहीं आती। 

यूँ भी अवलोकन ब्लॉग का है, तो एक टुकड़ा आपके आगे है, जो अलग अलग कहानियों में आपकी सोच को पिरोयेगा -




1-
"रूको,तुम्हारे जूते में अब भी मेरा पैर नहीं आता ..... हाथ में ले लेने दो .....
.
चलना तो है ही पीछे-पीछे ...शुरू से ही पीछे जो रह गई हूं..... :-("
.
.
. ऐसे ही किसी टुकड़ा कहानी से - जो न जाने कब पूरी होगी ...:-(
2-
चलो खींच दो न अब वो ऊपर से अटकी चुनरी....... उचक-उचक थक चुकी ....
दूसरे रंग मैच भी तो नहीं करते इस चणिया चोली से .....
फ़िर कहोगे - ऐसे ही बैठी हो तब से ...?... :-P
.
. ऐसे ही किसी टुकड़ा कहानी से - जो न जाने कब पूरी होगी ...:-(

3-
जानबूझ कर इतना ऊपर चढे बैठे हो ....
पहले तो कह्ते थे - समन्दर की गहराई में देखो ... कितने रंग छुपे हैं , और अब न जाने क्यों ,बादलों के पीछे छुपा इन्द्र धनुष ही भाने लगा है तुम्हें ......
जानते हो! कि मुझे मुड़कर देखने की आदत है ... सो लगे चिढाने .... ... आखिर धूप चश्में पर तरस भी तो नहीं खाती .......
ऐसे ही किसी टुकड़ा कहानी से - जो न जाने कब पूरी होगी ...

4-
आज संडे तो नहीं है पर छुट्टी जरूर है .... और पहली चाय की बारी तुम्हारी है .....
.
.
. ये कभी भूलते क्यों नहीं तुम ..... और मुझे खाना बनाने में देर हो जाती है .... 
उफ़्फ़! ...

ऐसे ही किसी टुकड़ा कहानी से - जो न जाने कब पूरी होगी ...

5-
...ये खिड़की बन्द नहीं हो रही ... रात भर आवाज करेगी ....
-तुमने कारपेंटर को बुलाया नहीं ?
-नहीं, लगा था कर लूंगी बन्द ...पर नहीं पता था , जो काम मैंने किये नहीं वो मुझसे वाकई नहीं होंगे .....
... अब रात भर चांद दिखते रहेगा झिर्री से ....

ऐसे ही किसी टुकड़ा कहानी से - जो न जाने कब पूरी होगी ...
6-
बाथरूम के नल से टपकते पानी की बूंद रह-रह कर डरा देती है रात को .... कपड़ा ढूंसना चाहा तो वो पेंचकस नहीं मिला , हरे हत्थे वाला ...
पता नहीं कहां रख दिया मैंने ...उसका डिब्बा तो कब से इधर -उधर हो गया ... 
एक अकेला वो बचा था ... वो भी ....:-(
और ये काम भी तो तुम्हारा ही था न .... 
गिनूंगी बूंदे ...

ऐसे ही किसी टुकड़ा कहानी से - जो न जाने कब पूरी होगी ...

7-
याद है ! एक बार तुम्हारे दोस्त ने कहा था-
-
भाभी जी आपने बदल दिया हमारे दोस्त को , एक बार आप बोल देंगी तभी शुरू करेगा फ़िर ..
- अबे यार चुप !... कहकर चुप करा दिया था तुमने उसे 
- क्या बन्द किया मैंने ? मैं तो कुछ भी नहीं कहती ...
-हाँ , तभी तो.... आपको पता है ये नॉन्वेज खाता भी था और बनाता भी था .... 
-नहीं तो.....
-क्यों बताया नहीं तूने? ... फ़िर वो तो चला गया ...
और मैं बहुत गुस्सा हुई थी , .... बात नहीं की थी तुमसे, चुपचाप खाना बनाया और मुझे भूख नहीं कहकर सोने चल दी थी.....
तब तुमने बताया था कि अपनी सगाई तय होने के समय तुम्हें पता चला था कि मेरा परिवार शुद्ध शाकाहारी है , और उस दिन से तुमने खाना छोड़ दिया था ...वरना शादी नहीं हो पाती अपनी ...
.....
.... तब मैं सोचती थी क्या फ़र्क पड़ जाता शादी नहीं होती तो ......
...
..
.. अब समझी ....... हां बहुत फ़र्क पड़ता ..... :-(

ऐसे ही किसी टुकड़ा कहानी से - जो न जाने कब पूरी होगी ...

8-
-- इनसे मिलो ये हैं बनर्जी ,साथ ही रहते थे हम पहले एक रूम में 
-नमस्ते
-नमस्ते भाभी जी , सुना है आपने लॉ किया है?
- जी
-तो प्रेक्टिस नहीं करेंगी आप ?
- जी, अभी तो एक्ज़ाम ही दी है , और यहाँ आ गई... आगे सोचेंगे जैसा भी होगा
- आप तो फ़िलहाल यहीं कंपनी की स्कूल में अप्लाई कर दीजिये, हिन्दी भी अच्छी है आपकी..
- जी नहीं, मुझे टीचर नहीं बनना..
-क्यों?
- किसी के अन्डर में काम करना पसन्द नहीं,मतलब वही पुराना सा तय सिलेबस सिखाओ ,
जो खुद से सिखाना चाहूं वो सिखा पाउं तो हो सकता है... कभी बन भी जाउं .... :-)

ऐसे ही किसी टुकड़ा कहानी से - जो न जाने कब पूरी होगी ...

9-
एक बात फ़िर याद हो आई आज,
जब तुमने कहा था-
-सुनों याद है न कल बिटिया के एडमिशन के लिए जाना है 
-हाँ याद है, पर मम्मी-पापा को क्या पूछेंगे , मैं तो हिन्दी में ही जबाब दूंगी अंग्रेजी में देना हो तो आप बोलना
-लेकिन अगर इसी बात पर एडमिशन नहीं हुआ तो ?
- ऐसा हो सकता है?
-हाँ हो सकता है,
- तब देखी जाएगी ,मैं बात कर लूंगी पर आप न बोलना फ़िर 
- ओके
.....
.....
और इसके बाद आठ दिन का समय मांग लिया था मैंने प्रिसिपल मैडम से ... और पूरे हफ़्ते मेरे अंग्रेजी में बोले बिना आपने मेरी बात का जबाब नहीं दिया था ...खूब हँसे थे उस पूरे हफ़्ते हम  
और आठ दिन बाद बिटिया का एडमिशन हो गया था .....
...
...
लेकिन उसके बाद कभी अंग्रेजी बोली नही गई मुझसे .....

ऐसे ही किसी टुकड़ा कहानी से - जो न जाने कब पूरी होगी ...

शुक्रवार, 24 नवंबर 2017

2017 का अवलोकन 10




डॉ मोनिका शर्मा की कलम ज्वलंत सामाजिक मुद्दों को बखूबी लिखती हैं, एक एक शब्द तपे हुए ईंट से होते हैं !
उनकी यह पोस्ट हर माता-पिता के लिए ज़रूरी है, पढ़ते हुए स्मरण रहे कि वे स्वयं एक माँ हैं, और वे अपने बच्चे को पूरा वक़्त दे रही है। जिस तरह बागीचे में लगाए गए नन्हें पौधे को सही समय पर सिंचन, मिटटी की मुलायमियत, काट-छांट की ज़रूरत होती है, ठीक उसी तरह बढ़ते बच्चों को अपने माता पिता का साथ चाहिए, एक सजग अभिभावक की तरह  ... 


बच्चों का दोस्त बनना ठीक है ...पर उनके के माँ-बाप भी ...




साइबर दुनिया के किसी गेम के कारण जान दे देने की बात हो या बच्चों की अपराध की दुनिया में दस्तक | नेगेटिव बिहेवियर का मामला हो या लाख समझाने पर भी कुछ ना समझने की ज़िद |  परवरिश के हालात मानो बेकाबू होते दिख रहे हैं | जितना मैं समझ पाई हूँ हम समय के साथ बच्चों के दोस्त तो बने पर घर के बड़े और उनके  अभिभावक होने के नाते जो  मर्यादित सख़्ती  (जी मैं सोच-समझकर सख़्ती ही कह रही हूँ ) बरतनी चाहिए थी वो भूल गए हैं | जाने कैसी देखा-देखी की राह पकड़ी कि "हम तो अपने बच्चे को कुछ नहीं कहते"  एक फैशनेबल स्टेटमेंट सा हो गया |  "वी आर लाइक फ्रेंड्स..यू नो" कहते हुए मानो बच्चों के कोई सवाल करने का अपना अधिकार ख़ुद ही छीन रहे हैं |  ऐसे पेरेंट्स भी देख रही हूँ जो जानते हैं कि बच्चे में व्यवहारगत समस्याएं आ रही हैं लेकिन बताने-समझाने पर उलटे टीचर से ही उलझ जाते हैं | बच्चे की इच्छा और ज़रूरत का अंतर समझे बिना स्मार्ट गैजेट्स के तोहफ़े उनके हाथ में दे देते हैं |  

दुनिया के सभी माता-पिता जानते हैं कि उन्हें अपने बच्चों के कमरे में  दरवाज़े पर दस्तक देकर आने जैसी औपचारिकता की शुरुआत कब करनी है |  लेकिन  ऐसी बातें कम उम्र में बच्चे कहने लगें या यूँ कहूं कि पेरेंट्स को बच्चों से ये आदेश मिलने लगें तो दोस्ती नहीं सख़्ती से सवाल किये जाने की भी  ज़रूरत  है | स्पेस के नाम पर बच्चे आपके संवाद से बचने लगें तो क्यों और किसलिए वाले प्रश्न जरूरी हो जाते हैं | मुझे लगता है कि माँ-बाप बने दो इंसानों का हक़ भी है और उत्तरदायित्व भी कि वे बच्चों को सही गलत का फ़र्क़ समझाएं । गलती पर रोकें-टोकें।  नैतिक ज्ञान और भविष्य को बेहतर बनाने के लेक्चर भी सुनाएँ। ज़रूरी हो तो कुछ  बंदिशे भी लगायें ।  

बड़ों को समझना होगा कि दोस्ताना वातावरण में बच्चे  से खुलकर बात करने और उनके हर तरह के नकारात्मक व्यवहार को ख़ुशी-ख़ुशी अपना लेने में बहुत फ़र्क़ होता है |  मैं ये तो नहीं कहूँगी कि बच्चों को डरा-धमका कर रखें लेकिन आज के समय में  ख़ुदअभिभावक बच्चों से डरे-डरे से रहते हैं, ये कैसी परवरिश है ? नई पीढ़ी को बांधना नहीं है लेकिन थामने के लिए भी कुछ तो नियम और सीख देनी ही होगी | दोस्त बनकर आप देर रात घर लौटे बच्चे से कितने सवाल कर पायेंगें ?  माँ-बाप बनकर घर और ज़िन्दगी के नियम-क़ायदे समझाए बिना आपकी बात सुनी तक ना जाएगी | मुझे  लगता है दोस्त बनकर रहने के नाम पर ऐसे हालात सही नहीं कहे जा सकते जिनमें बच्चों को सब कुछ देने की जद्दोज़हद में अपनी ज़िन्दगी जीना भूल रहे पेरेंट्स की रहनुमाई भी उन्हें स्वीकार ना हो |  

गुरुवार, 23 नवंबर 2017

2017 का अवलोकन 9




एक विशेष व्यक्तित्व की मालकिन अजित गुप्ता जी और उनका एक विशेष ब्लॉग 

अजित गुप्ता का कोना

हर दिन तो मैं किसी को नहीं पढ़ पाती, हाँ  ... पढ़ती ज़रूर हूँ।  नहीं पढूँ तो उसके बारे में कुछ भी कहना, लिखना ना ही सही होगा, ना ही उचित।  
यह कोना मेरा अनुमान नहीं, इस कोने की मैंने गाहे बगाहे सैर की है, और एक पुख्ता सोच मिली है !

चलिए, एक पुख्ता विषय से आपको भी मिलाऊँ - 


यही जीवन है, यही सफलता है और यही सुख है

मैं अपनी जिन्दगी की जाँच-परख करती रहती हूँ, कभी दूसरों की नजरों से देखती हूँ तो कभी अपनी नजरों से। आप भी आकलन करते ही होंगे कि क्या पाया और क्या खो दिया। मेरे सोचने का ढंग कुछ बेढंगा सा है, मैं सोचती हूँ कि भगवान ने सुख की एक सीमा दी है, अब मुझे निश्चित करना है कि सुख की परिधि में किसे मानूं या किसे नहीं मानूं। कुछ लोग मिठाई खाकर सुखी होते हैं तो कुछ चटपटा खाकर या मेरे जैसे लोग फल खाकर। जब मैं किसी इच्छित वस्तु को छोड़ती हूँ तो लगता है कि यह छोड़ना ही नवीन सुख को पाना है और मैं छोड़ने से अधिक पाने का सुख भोगने लगती हूँ। लेकिन दुनिया की नजर ऐसी नहीं है, वह आपका आकलन अलग तरह से करती है। आप सत्ता के कितना करीब हैं, वैभव आपके पास कितना है, दुनिया का यह आकलन है लेकिन मेरा आकलन बिल्कुल अलग है।
मैं जब अपने बारे में चिंतन करती हूँ तब देखती हूँ कि मेरी सफलता का पैमाना क्या है? सफलता का मतलब मेरे लिये है कि मैं खुद को अभिव्यक्त कर सकूं। मेरे अन्दर जो कुछ है, उसे बाहर निकाल सकूं, मेरी वेदनाएं, मेरी आशाएं, मेरा विश्वास सभी कुछ बाहर आ पाए और मैं दुनिया के सामने स्वयं को उजागर कर सकूं। सत्ता के करीब या वैभव से परिपूर्ण होने पर असुरक्षा की दीवार से हम घिरे रहते हैं, कुछ भी अभिव्यक्त करने से पहले डरते हैं कि सत्ता से दूरी नहीं बन जाए या वैभव कम ना हो जाए लेकिन जब इन सबसे दूर हो जाते हैं तब बेधड़क स्वयं को अभिव्यक्त कर सकते हैं और मैं इसी अभिव्यक्ति को परम सुख मानती हूँ। मैं जब भी लोगों के चेहरों को देखती हूँ, मुझे डरे हुए, समझौता किया हुए, लाचार से चेहरे दिखायी देते हैं, दुनिया उन्हें सफल भी कहती है और उनका उदाहरण भी देती है। कम से कम मुझे तो कह ही देते है कि तुम क्या थे और वे क्या थे, आज वे क्या हैं और तुम क्या हो! मैं सफलता के इस मापदण्ड से आहत नहीं होती। मैं खुद के बनाए मापदण्डों को ही ध्यान में रखती हूँ और फिर विश्वास से भर जाती हूँ कि आज मैंने जो पाया है, वह शायद मेरी औकात से ज्यादा ही है। मैं कभी सोच भी नहीं सकती थी कि मैं स्वयं को अभिव्यक्त करने का साहस जुटा पाऊंगी और हर पल संतोष मेरे अन्दर बिराजमान होगा।
कुछ लोग ताली बजाते हैं कि उन्होंने मुझे धक्का लगा दिया, वे सफल हो गये। लेकिन मुझे लगता है कि मुझे जीवन मिल गया, साधना के लिये समय मिल गया। अपने आपको कुरेदने का वक्त मिल गया। मैं जब पीछे मुड़कर देखती हूँ तब घबरा जाती हूँ और पल भर में ही अपना ध्यान विगत से हटा लेती हूँ। कैसे दम घोंटू वातावरण में जीना था, अपना वजूद भुलाकर, कुछ पा लेना शायद सबसे बड़ा खोना है। मुझे खुली हवा में सांस लेना अब अच्छा लगने लगा है और पता भी चला है कि खुली हवा क्या होती है? लेकिन जो कल था वह भी अनुभव से परिपूर्ण था और आवश्यक था। आप की बुद्धि कितनी ही कुशाग्र हो या आपके अन्दर ज्ञान का भण्डार हो लेकिन बिना अनुभव के कुछ काम का नहीं है। इसलिये अनुभव से पूर्ण होकर, सबकुछ छोड़कर पाने का जो आनन्द है वह निराला है, अपने आपको तलाशते रहने का आनन्द अनूठा है, अपने को भली-भांती अभिव्यक्त करने का प्रयास अनोखा है। बस मेरे लिये यही जीवन है, यही सफलता है और यही सुख है।

बुधवार, 22 नवंबर 2017

2017 का अवलोकन 8





Search Results

मेरा फोटो


वर्षा...यहां सुनाई देते हैं स्त्रियों की ... - blogger


यहां गूंजते हैं स्त्रियों की मुक्ति के स्वर, बे-परदा, बे-शरम,जो बनाती है अपनी राह, कंकड़-पत्थर जोड़ जोड़,जो टूटती है तो फिर खुद को समेटती है, जो दिन में भी सपने देखती हैं और रातों को भी बेधड़क सड़कों पर निकल घूमना चाहती हैं, अपना अधिकार मांगती हैं। जो पुकारती है, सब लड़कियों को, कि दोस्तों जियो अपनी तरह, जियो ज़िंदगी की तरह  ... 

कहीं कोई टिप्पणी नहीं, ज़रूरत भी नहीं - जिनकी कलम निर्बाध चलने का संकल्प उठाती है, वह रुककर किसी का इंतज़ार नहीं करती।  
वजूद खुद तराशना होता है, निशान अपने पैरों के हों तो रास्ते बताये जा सकते हैं  ... 


शहर शहर


हर वो शहर जिससे होकर हम कभी गुजरते हैं, जहां कुछ पल ठहरते हैं, जहां की सड़कें-बाज़ार-इमारतें देखते हैं, उससे एक नाता सा बना लेते हैं। हमारी स्मृतियों के जंगल में उस शहर के लिए एक कोना तैयार हो जाता है। कई बार तो ट्रेन के सफर में मंजिल के पड़ावों में जिन स्टेशनों पर ट्रेन ठहरती है, वहां पी गई चाय, वहां की ख़ास चीज का ज़ायका भी उस जगह के ख़ास अनुभव सहेज कर रख देता है।

संडीला की रेवड़ी, आगरे का पेठा, मेरठ की गुड़ पट्टी, लखनऊ के कबाब, वाराणसी की जलेबियां, देहरादून के मोमोज, मसूरी का मैगी प्वाइंट, जयपुर के मिर्चवाले पकौड़े, मुंबई का बटाटा वड़ा और ऐसे तमाम छोटे मगर कीमती जायके अपने शहर का स्वाद बनाते हैं और उनसे हमारा रिश्ता मजबूत करते हैं। लखनऊ का भूलभुलैया किसने भी बनवाया, लेकिन लखनऊ में रहनेवाले हर किसी का उस पर हक़ है कि वो यहां का बाशिंदा है। वो जब अपने घर से कोसों दूर होता है तो अपने शहर को याद करते हुए वहां की गलियों, चौराहों, बाजार में पहुंच जाता है, वहां की ऐतिहासिक इमारतों से अपना रिश्ता जोड़ लेता है। किसी की स्मृतियां अपने शहर के घंटाघर, वहां की बारादरी के ईर्दगिर्द घूमती हैं। जिन सड़कों पर कितनी सुबह-शामों को आते-जाते,उतरते-डूबते, यूं ही गुजरते देखा, वो उनकी स्मृतियों की पूंजी में जमा हो जाती हैं। अलग-अलग शहरों के बाजारों की चहलपहल की गूंज हमारे कानों में कहीं रम जाती है। राजस्थानी बंधेजी साड़ियां, जयपुर की चूड़ियां, कन्नौज का इत्र, फर्रुख़ाबाद की दालमोठ, इनके साथ इन शहरों की तस्वीर जेहन में उतराती चली जाती है। उस शहर से हमारा ख़ास रिश्ता जोड़ देती है। 

नदियों के किनारे बसे शहर के लोग तो अपनी नदियों से ख़ास लगाव रखते हैं। उनके मन में उनकी नदी अविरल-निर्मल अपने पूरे विस्तार के साथ बहती है। कोई गंगा की धार से अपने मन को सींचता है तो कोई अपने घर के आसपास बने पोखर-कुएं से ही नमी हासिल करता है। नदी के जल में ढलता कोई सूरज सालों के लिए हमारे मन में भी ढल जाता है। गोमती के किनारे उगे चटक जंगली फूल की अनुभूति भी नदी के साथ हमारे यादों से जुड़ जाती है। वो पोखर- कुएं, उनके ईर्दगिर्द घटित घटनाएं कभी हमारा पीछा नहीं छोड़ते। अपनी नदी, अपने पोखर, अपनी झील, अपने गदन, अपनी नयार से दूर बैठे व्यक्ति को कभी अकेले में याद आती है उसकी तरल ध्वनि। मई-जून की किसी बौरायी सी दोपहर में चिहुंकती नदी की तपन से गालों पर गर्म हवा के थपेड़े पड़े होंगे। हम सब की यादों में बसी हैं ऐसी कई दोपहरें। सूखी पत्तियों के झुंड का चिड़ियों सा उड़ना हम सब के मन में कहीं बसा है। हमारे स्मृतियों के जंगल की बसावट को जो और करीने से काढ़ता है। 

किसी शहर से गुजरते हुए उस शहर की एक ख़ास गंध हमारे भीतर रह जाती है। वहां की इमारतें हमारे ख्यालों में घर बना जाती हैं, उन सब से हम अपना एक ख़ास नाता जोड़ लेते हैं। अपने शहर से दूर रहनेवाले लोग जब वहां के किस्से सुनाते हैं तो जुबान नहीं रुकती, मीठी सी यादों का कारवां सा निकल पड़ता है, वो बांवरे से अपने शहर को याद करते हैं। जहां कभी वो रहे, रुके, जिये। लोगों की बातों में उनका शहर बहुत जीवंत होता है, वहां के कंकड़-पत्थर के लिए भी उनके दिल में प्यार उमड़ता है।

हमारी स्मृतियों के इन शहरों से ठीक उलट नये मिज़ाज के शहर भी तेजी से बन और बस रहे हैं, जिनसे चाह के भी कोई रिश्ता नहीं जुड़ पाता। उनकी चौड़ी सड़कों पर भागती बड़ी-लंबी गाड़ियों में हम हर वक़्त ठिठकते-ठिठकते चलते हैं। जैसे हर वक़्त किन्हीं हादसों से बच रहे हों। ऐसी शहरों की चिकनी सड़कों पर कितने साल गुजार के भी दिल का कोई तार यूं नहीं जुड़ता जैसे अपने मोहल्ले की टूटीफूटी सड़कों से जुड़ा करता था। इन तेज मिज़ाज हाईटेक शहरों में लकदक इमारते हैं, शीशे के महल जैसे मॉल हैं, बड़े-बड़े वाटर पार्क हैं लेकिन ये उस बाजार का हिस्सा हैं जहां हम सबसे बड़े प्रोडक्ट होते हैं। हम वो प्रोडक्ट होते हैं जिनके लिए कई सारे प्रोडक्ट बनाये जा रहे हैं। बढ़िया जींस, बढ़िया कपड़े की शर्ट, खुश्बूदार साबुन,डियो,परफ्यूम। हमारे खानेपीने के लिए एक से बढ़कर एक जायके, मैक्डोनल्ड का बर्गर, पिज्जाहट, शानदार कॉफी, हर शहर की मशहूर डिशेज-कुजीन। लेकिन एक ख़ास चीज की कमी होती है, एक ख़ास जायका कहीं छूटता है। कहते हैं हर शहर के पानी का स्वाद भी अलग होता है, उससे बनी चीजों का स्वाद भी अलग होता है।

हम तरक्की का, विकास का हम अपने जीवन में स्वागत करते हैं। पर कुछ तो ऐसा है जिसे हम खो रहे हैं, जिसके चलते हम हर वक़्त बेचैन रहते हैं, हम दिन रात खटते हैं, खूब काम किया करते हैं, मगर किसी काम के न रहे। ऐसे शहर को अपने जीवन के कई साल देकर भी अजनबी से ही रहे। ऐसा मोहपाश जिसमें रहा भी नहीं जाता, छोडा भी नहीं जाता। ऐसे शहर जो सिर्फ अजनबी बनाते हैं, अजनबियत को कायम रखते हैं और जिनसे कोई रिश्ता नहीं बुना जा पाता। ऐसे शहर में हर साल करोड़ों लोग आते हैं अजनबी की तरह और अजनबी ही रह जाते हैं।

मंगलवार, 21 नवंबर 2017

2017 का अवलोकन 7




क्षितिज को हम भ्रम मानते हैं, क्योंकि हम बढ़ते जाते हैं और क्षितिज आगे ही होता है ! आसान था मान लेना कि क्षितिज यानी धरती आकाश का मिलना भ्रम है।  
उसी भ्रम के साये में वह खीर बनता है, जिसे सुजाता ने बुद्ध को खिलाया था, शबरी जूठे बेर लिए प्रतीक्षित होती है, राम और केवट एक होते हैं  ... !
उसी क्षितिज पर मैंने पाया है अनीता निहलानी को, ज़िन्दगी का पारदर्शी दृष्टिकोण लिए 



मेरा फोटो

बेहोशी में जो भी बीतता है, वह बेहोशी को मजबूत करता है. होश में जो भी बीतता है वह होश को मजबूत करता है. वे जागकर देखें तो हरेक कृत्य पूजा हो जाता है. उनका हर क्षण सार्थक हो जाता है. आज बहुत दिनों बाद एक सखी से बात हुई, वही जो अपनी परेशानी तो बताती है पर कोई भी सुझाव देने पर उसे न मानने में अपनी मजबूरी भी झट बता देती है, तब उसे लगता है जैसे वह अपनी तकलीफ में भी खुश ही है. नन्हे से बात नहीं हो पायी, शायद वह काफी व्यस्त है. सुबह पिकेटिंग थी, ड्राइवर ड्यूटी पर नहीं आये, वह स्कूल भी नहीं जा पायी. जून इस समय नन्हे की मित्र के घर पर होंगे दिल्ली में.
किसी पक्षी की आवाज आ रही है, जो रात्रि को बोलता है अक्सर. आज सोने में कुछ देर हो गयी है, रात्रि के पौने दस बजे हैं, जून कल आ जायेंगे, फिर सब कुछ समय पर होगा. वैसे तो कल महिला क्लब कमेटी की मीटिंग उनके घर में है, देर हो सकती है. सुबह उठी तो कुछ देर यूँही आँख बंद करके बैठ गयी, एक उपस्थिति का अनुभव इतने करीब होता है कि अब ध्यान करना भी नहीं होता. ओशो को सुना, मन को साक्षी होकर देखना आ जाये तो सारा दुःख समाप्त हो जाता है. मन नहीं रहता तभी साक्षी का अनुभव होता है. आज शाम को भी भीतर कुछ घटा, जब एक सखी ने ‘नारायण हरि ॐ’ भजन गाया, वह बहुत अच्छा गाती है. मीटिंग ठीक से हो गयी, इस महीने अभी तक मृणाल ज्योति नहीं जा पाई है, जब भी जाने में देर हो जाये तो जैसे कोई टोकता है भीतर से.

आत्मा की ज्योति पर पहरे लगे हैं
ख्वाहिशों की सेना के
जो अधूरी हों तो धुआं देती हैं
पूरी हों तो छिपा देती हैं  

इतवार को उनके लॉन में आसपास के सर्वेन्ट्स के लिए ‘आर्ट ऑफ़ लिविंग’ का ‘नव चेतना शिविर’ होने वाला है. एओल की टीचर से बात की तो वह काफी उत्साहित जान पड़ीं. यकीनन वे सभी को सद्गुरू का ज्ञान बता पाएंगी. सद्गुरु कहते हैं, जिससे भौतिक तौर पर कल्याण हो और मोक्ष भी मिले वही धर्म है. भक्ति, युक्ति, मुक्ति और प्राप्ति धर्म के अंग हैं. साधना ही वह चार्जर है जिससे आत्मा की बैटरी परमात्मा से जुड़ी रखनी है, विश्वास रूपी सिम कार्ड लगाना है और रेंज के भीतर रहना कृपा का पात्र बनना है. तब परमात्मा से कनेक्शन बना रहेगा. सरलता, सहजता ही सिद्धावस्था है. संत को कोई पराया नहीं लगता, वह स्वयं पूर्ण है और दूसरों को आशीर्वाद देता है. सुख-दुःख में सम रहना आ जाये और सबके साथ समान भाव से व्यवहार हो तो जानना चाहिए, भीतर प्रेम जगा है. सबको अपना देखने की कला ही ‘जीवन जीने की कला’ है. ध्यान, सेवा और सत्संग तब जीने का अंग बन जाते हैं.
काशी में इसी महीने गुरूजी आ रहे हैं, यहाँ भी आने की बात तो है. परमात्मा ही सदगुरुओं के रूप में धरती पर आते हैं. सुबह रामदेव जी के प्रेरणात्मक वचन सुने तो मन जैसे तृप्त और आनंदित हो गया. उनके जीवन में कितनी खुशियाँ भर गयी हैं ज्ञान के आलोक से जो संतों का दिया हुआ है. नन्हे ने कहा है, दशहरे पर वे सब मैसूर जा सकते हैं, सेलम भी जा सकते हैं एक दिन.   

सोमवार, 20 नवंबर 2017

2017 का अवलोकन 6



विष्णु बैरागी  .... 
My photo






..... जो स्वयं को साधारण समझता है, वही असाधारण होता है , विश्वास न हो तो पढ़ डालिये 




14 फरवरी की दोपहर होने को थी। मेरे एक उदारवादी मित्र के धर्मान्ध बेटे का फोन आया - ‘अंकल! पापा आपके यहाँ हैं क्या?’ मैं दहशत में आ गया। अपनी कट्टरता और धर्मान्धता के अधीन वह मुझे तो ‘निपटाता’ ही रहता है, अपने पिता को भी मेरी उपस्थिति में एकाधिक बार लताड़ चुका। 14 फरवरी को ऐसे ‘हिन्दू बेटे’ को अपने, ‘हिन्दू धर्म के दुश्मन’ पिता को तलाशते देख मन में आशंकाओं और डर की घटाएँ घुमड़ आईं। मैंने सहज होने की कोशिश करते हुए पूछा - ‘क्यों? सब ठीक तो है? कोई गड़बड़ तो नहीं?’ खिन्न स्वरों में उत्तर आया - ‘हाँ। सब ठीक ही है।’ मैंने पूछा - ‘कोई काम आ पड़ा उनसे?’ उसी उखड़ी आवाज में बेटा बोला - ‘हाँ। उनके पाँव पूजने हैं।’ डरे हुए आदमी को हर बात में धमकी ही सुनाई देती है। ‘पाँव पूजने’ का अर्थ मैंने अपनी इसी मनोदशा के अनुसार निकाला और घबरा कर पूछा - ‘अब क्या हो गया तुम दोनों के बीच?’ वह झल्ला कर बोला - ‘ऐसा कुछ भी नहीं है जैसा आप सोच रहे हो। आज सच्ची में उनके पाँव पूजने हैं। वेलेण्टाइन डे के विरोध में आज हम लोग मातृ-पितृ दिवस मना रहे हैं।’ सुनकर, अनिष्ट की आशंका से मुक्त हो मैंने आश्वस्ति की लम्बी साँस तो ली लेकिन हँसी भी आ गई। बोला - ‘जिस बाप को हिन्दू विरोधी मानते हो, जिसे यार-दोस्तों के सामने, बीच बाजार हड़काते रहते हो, हिन्दुत्व की रक्षा के लिए आज उसी बाप को तलाश रहे हो?’ वह झुंझलाकर बोला - ‘मैं इसीलिए आपसे नहीं उलझता अंकल! आप सब जानते, समझते हो। पापा के दोस्त हो इसलिए चुप रहता हूँ। फालतू बात मत करो। पापा आपके यहाँ हो तो बात करा दो। बस!’ अगले ही पल हम दोनों एक-दूसरे से मुक्त हो गए।

समर्थन हो या विरोध, पाखण्ड के चलते प्रभावी नहीं हो पाता है। इसके विपरीत, ऐसी हर कोशिश अन्ततः खुद की ही जग हँसाई कराती है। किसी एक खास दिन या मौके के जरिए पूरी संस्कृति को, सामूहिक रूप से खारिज या अस्वीकार करने की कोई भी कोशिश कभी कामयाब नहीं हो पाती। चूँकि निषेध सदैव आकर्षित करते हैं और प्रतिबन्ध सदैव उन्मुक्त होने को उकसाते हैं इसलिए ऐसी हर कोशिश हमसे हर बार उसी ओर ताक-झाँक करा देती है जिससे आँखें चुराने को कहा जाता है।

ऐसे ‘दिवस’ (‘डे’) मनाना पाश्चात्य परम्परा है। शुरु-शुरु मैं ऐसे प्रत्येक ‘डे’ पर चिढ़ता, गुस्सा होता था। किन्तु एक बार जब मैंने विस्तार से समझने की कोशिश की तो पाया कि मेरी असहमति तो ठीक है लेकिन मेरा चिढ़ना गैरवाजिब है। पश्चिम में सामूहिक परिवार की अवधारणा नहीं है। वहाँ बच्चों के सयाने होते ही माँ-बाप का घर छोड़ना बहुत स्वाभाविक बात होती है। इसके विपरीत, हम संयुक्त परिवार से कहीं आगे बढ़कर संयुक्त कुटुम्ब तक के विचार को साकार करने मेें अपना जीवन धन्य और सफल मानते हैं। एकल परिवार का विचार ही हमें असहज, व्यथित कर देता है। बेटे का माँ-बाप से अलग होना हमारे लिए पारिवारिक और सामाजिक स्तर पर अपमानजक लगता है। यह मनुष्य स्वभाव है कि वह उसीकी तलाश करता है जो उसके पास नहीं है। पराई चीज वैसे भी सबको ही ललचाती ही है। इसी के चलते हमारी अगली पीढ़ी को एकल परिवार की व्यवस्था ललचाती है। उदारीकरण और वैश्वीकरण के रास्ते पर चल पड़ने के बाद यह हमारे बच्चों की मजबूरी भी बनती जा रही है। ऊँचे पेकेजवाली नौकरियाँ अपने गाँव में तो मिलने से रहीं! बच्चों को बाहर निकलना ही पड़ता है। बचत की या माँ-बाप को रकम भेजने की बात तो दूर रही, महानगरों में जीवन-यापन ही उन्हें कठिन होता है। सीमित जगह वाले, किराये के छोटे मकान। माँ-बाप को साथ रख सकते नहीं और माँ-बाप भी अपने दर-ओ-दीवार छोड़ने को तैयार नहीं। हमारी जीवन शैली भले ही पाश्चात्य होती जा रही हो किन्तु भारतीयता का छूटना मृत्युपर्यन्त सम्भव नहीं। 

हमारी सारी छटपटाहट इसी कारण है। त्यौहारों पर बच्चों का घर न आना बुरा समझा जाता है। उनके न आ पाने को हम लोग बीसियों बहाने बना कर छुपाते हैं। पश्चिम में सब अपनी-अपनी जिन्दगी जीते हैं। बूढों की देखभाल की अपनी जिम्मेदारी निभाने के लिए ‘राज्य’ ने ‘ओल्ड होम्स’ की व्यवस्था कर रखी है। क्रिसमस वहाँ का सबसे बड़ा त्यौहार। बच्चे उस दिन अपने माँ-बाप से मिलने की भरसक कोशिश करते हैं। शेष तमाम प्रसंगों के लिए ‘डे’ की व्यवस्था है। होली-दीवाली पर हम जिस तरह अपने बच्चों की प्रतीक्षा करते हैं, उसी तरह ‘मदर्स/फादर्स/पेरेण्ट्स डे’ पर वहाँ माँ-बाप बच्चों के बधाई कार्ड की प्रतीक्षा करते हैं। बच्चे भी इस हेतु अतिरिक्त चिन्तित और सजग रहते हैं। कार्ड न आने पर माँ-बाप और न भेज पाने पर बच्चे लज्जित अनुभव करते हैं।

‘डे’ मनाने का यह चलन हम उत्सवप्रेमी भारतीयों के लिए अनूठा तो है ही, आसान भी है और प्रदर्शनप्रियता की हमारी मानसिकता के अनुकूल भी। ‘कोढ़ में खाज’ की तर्ज पर ‘बाजारवाद’ ने हमारी प्रदर्शनप्रियता की यह ‘नरम नस’ पकड़ ली। अब हालत यह हो गई है कि ऐसे प्रत्येक ‘डे’ पर हर साल भीड़-भड़क्का, बाजार की बिक्री, लोगों की भागीदारी बढ़ती ही जा रही है। पहली जनवरी को नव वर्ष की शुरुआत को सर्वस्वीकार मिल चुका है। केक और ‘रिंग सेरेमनी’ भारतीय परम्परा का हिस्सा बन गई  समझिए। बाबरी ध्वंस की जिम्मेदारी लेनेवाली, एकमात्र भाजपाई, हिन्दुत्व की प्रखर पैरोकार उमा भारती ने तो एक बार किसी हनुमान मन्दिर में केक काटा था।

वस्तुतः कोई भी परम्परा लोक सुविधा और लोक स्वीकार के बाद ही संस्कृति की शकल लेती है। सांस्कृतिक आक्रमण को झेल पाना आसान नहीं होता। हमलावर संस्कृति का विरोध कर अपनी संस्कृति बचाने की कोई भी कोशिश कभी कामयाब नहीं हो पाती। सतत् निष्ठापूर्ण आचरण से ही कोई संस्कृति बचाई जा सकती है। लेकिन हमारे आसपास ऐसी कोशिशों के बजाय अपनेवालों को ही मारकर भारतीय संस्कृति बचाने के निन्दनीय पाखण्ड किए जा रहे हैं। ऐसी कोशिशों से प्रचार जरूर मिल जाता है और दबदबा भी कायम हो जाता है किन्तु संस्कृति हाशिए से भी कोसों दूर, नफरत के लिबास में कूड़े के ढेर पर चली जाती है। पश्चिम के लोग अपनी धारणाओं, मान्यताओं पर दृढ़तापूर्वक कायम रहते हैं। उन्हें वेलेण्टाइन डे मनाना होता है। मना लेते हैं। अपने वेलेण्टाइन डे के लिए वे हमारी होली, हमारे बसन्तोत्सव का विरोध नहीं करते। अपने फादर्स डे के लिए हमारे पितृ-पक्ष का, अपने क्रिसमस के लिए हमारी दीपावली का, अपने ‘न्यू ईयर’ के लिए हमारी चैत्र प्रतिपदा का विरोध नहीं करते। 

पश्चिम के लोगों में और हममें बड़ा और बुनियादी फर्क शायद यही है कि वे अपनी लकीर बड़ी करने में लगे रहते हैं जबकि हम सामनेवाले की लकीर को छोटी करने की जुगत भिड़ाते रहते हैं। इतनी ही मेहनत हम यदि अपनी लकीर बड़ी करने में करें तो तस्वीर कुछ और हो। उनकी लकीर छोटी करने की हमारी प्रत्येक कोशिश का सन्देश अन्ततः नकारात्मक ही जाता है। हमारी छवि आतंकी जैसी होती है। हम अपनों से ही नफरत करते हैं, अपनों की नफरत झेलते हैं।

बेहतर है कि हम तय कर लें कि हमें क्या बनना है, कैसा बनकर रहना है और तय करके, जबड़े भींच कर, वैसा ही बनने में जुट जाएँ। कहीं ऐसा न हो जाए कि हम वह भी नहीं रह पाएँ जो हम हैं। 

रविवार, 19 नवंबर 2017

2017 का अवलोकन 5




हिंदी और अंग्रेजी बोलते हुए लोगों की केमिस्ट्री बदल जाती है, हिंदी सपाट चप्पल में नज़र आती है और थोड़ी उर्दू ज़ुबान हुई तो लोग बिदक जाते हैं कि सब ऊपर से निकल गया, संस्कृत अब आवश्यक विषय रहा नहीं।  रही बात अंग्रेजी की तो लगता है बोलनेवाला पेंसिल हील पर खड़ा है, और थोड़ा राउंड राउंड जीभ घुमा, तब तो अंग्रेजी के लिए कई आँखें तालियाँ  ... नहीं, नहीं क्लैप करती नज़र आती हैं। 
यही हाल है ब्लॉगिंग का  ... हिंदी के कुछ ही ब्लॉग ऊँचे पायदान पर हैं, वरना अंग्रेजी की टिटबिट्स के आगे तो दुनिया वारी है  ... लिखने में शान, बताने में शान, बुक निकल गई तब तो शान ही शान !
हिंदी की भी कभी ऐसी ही शान थी, लेकिन इस शान को हिन्दीवालों ने ही मिटा दिया, कुछ लोग आज भी शान को बरकरार रख रहे, और ब्लॉग बुलेटिन उनको रेखांकित करता है - आज की शान हैं, अनुराग शर्मा मेरा फोटो





सन 2008 की गर्मियों में जब मैंने यूनिकोड और लिप्यंतरण (ट्रांसलिटरेशन) की सहायता से हिंदी ब्लॉग लेखन आरम्भ किया तब से अब तक की दुनिया में आमूलचूल परिवर्तन आ चुका है। यदि वह ब्लॉगिंग का उषाकाल था तो अब सूर्यास्त के बाद की रात है। अंधेरी रात का सा सन्नाटा छाया हुआ है जिसमें यदा-कदा कुछ ब्लॉगर कवियों की रचनाएँ जुगनुओं की तरह टिमटिमाती दिख जाती हैं। इन नौ-दस वर्षों में आखिर ऐसा क्या हुआ जो ब्लॉगिंग का पूर्ण सत्यानाश हो गया?

एक कारण तो बहुत स्पष्ट है। ब्लॉगिंग में बहुत से लोग ऐसे थे जो यहाँ लिखने के लिये नहीं, बातचीत और मेल-मिलाप के लिये आये थे। ब्लॉगिंग इस कार्य के लिये सर्वश्रेष्ठ माध्यम तो नहीं था लेकिन फिर भी बेहतर विकल्प के अभाव में काम लायक जुगाड़ तो था ही। वैसे भी एक आम भारतीय गुणवत्ता के मामले में संतोषी जीव है और जुगाड़ को सामान्य-स्वीकृति मिली हुई है। खाजा न सही भाजी सही, जो उपलब्ध था, उसीसे काम चलाते रहे। ब्लॉगर मिलन से लेकर ब्लॉगिंग सम्मेलन तक काफ़ी कुछ हुआ। लेकिन जब फ़ेसबुक जैसा कुशल मिलन-माध्यम (सोशल मीडिया) हाथ आया तो ब्लॉगर-मित्रों की मानो लॉटरी खुल गई। त्वरित-चकल्लस के लिये ब्लॉगिंग जैसे नीरस माध्यम के मुकाबले फ़ेसबुक कहीं सटीक सिद्ध हुई। मज़ेदार बात यह है कि ब्लॉगिंग के पुनर्जागरण के लिये चलाया जाने वाला '#हिन्दी_ब्लॉगिंग' अभियान भी फ़ेसबुक से शक्तिवर्धन पा रहा है।

तकनीकी अज्ञान के चलते बहुत से ब्लॉगरों ने अपने-अपने ब्लॉग को अजीबो-गरीब विजेट्स का अजायबघर बनाया जिनमें से कई विजेट्स अधकचरे थे और कई तो खतरनाक भी। कितने ही ब्लॉग्स किसी मैलवेयर या किसी अन्य तकनीकी खोट के द्वारा अपहृत हुए। उन पर क्लिक करने मात्र से पाठक किन्हीं अवाँछित साइट्स पर पहुँच जाता था। तकनीकी अज्ञान ने न केवल ऐसे ब्लॉगरों के अपने कम्प्यूटर को वायरस या मैलवेयर द्वारा प्रदूषित कराया बल्कि वे जाने-अनजाने अपने पाठकों को भी ऐसे खतरों की चपेट में लाने का साधन बने।

हिंदी के कितने ही चिट्ठों के टिप्पणी बॉक्स स्पैम या अश्लील लिंक्स से भरे हुए हैं।कुछ स्थितियों में अनामी और नाम/यूआरएल का दुरुपयोग करने वाले  टिप्पणीकार भी एक समस्या बने। टिप्पणी मॉडरेशन इन समस्याओं का सामना करने में सक्षम है। मैंने ब्लॉगिंग के पहले दिन से ही मॉडरेशन लागू किया था और कुछ समय लगाकर अपने ब्लॉग की टिप्पणी नीति भी स्पष्ट शब्दों में सामने रखी थी जिसने मुझे अवांछित लिंक्स चेपने वालों के बुरे इरादे के प्रकाशन की ब्लॉगिंग-व्यापी समस्या से बचाया। मॉडरेशन लगाने से कई लाभ हैं। इस व्यवस्था में सारी टिप्पणियाँ एकदम से प्रकाशित हो जाने के बजाय पहले ब्लॉगर तक पहुँचती हैं, जिनका निस्तारण वे अपने विवेकानुसार कर सकते हैं। जो प्रकाशन योग्य हों उन्हें प्रकाशित करें और अन्य को कूड़ेदान में फेंकें। 

टिप्पणी के अलावा अनुयायियों (फ़ॉलोअर्स) की सूची को भी चिठ्ठाकारों की कड़ी दृष्टि की आवश्यकता होती है। कई ऐसे ब्लॉगर जिन्हें ग़ैरकानूनी धंधों की वजह से जेल में होना चाहिये, अपने लिंक्स वहाँ चेपते चलते हैं। यदि आपने अपने ब्लॉग पर फ़ॉलोअर्स का विजेट लगाया है तो बीच-बीच में इस सूची पर एक नज़र डालकर आप अपनी ज़िम्मेदारी निभाकर उन्हें ब्लॉक भी कर सकते हैं और रिपोर्ट भी। वैसे भी नए अनुयाइयों के जुड़ने पर उनकी जाँच करना एक अच्छी आदत है।

कितने ही ब्लॉग 'जातस्य हि ध्रुवो मृत्यु:' के सिद्धांत के अनुसार बंद हुए। किसी ने जोश में आकर लिखना शुरू किया और होश में आकर बंद कर दिया। कितने ही ब्लॉग हिंदी चिट्ठाकारी के प्रवक्ताओं के 'सदस्यता अभियान' के अंतर्गत बिना इच्छाशक्ति के जबरिया खुला दिये गये थे, उन्हें तो बंद होना ही था। लेकिन कितने ही नियमित ब्लॉग अपने लेखक के देहांत के कारण भी छूटे। पिछले एक दशक में हिंदी ब्लॉगिंग ने अनेक गणमान्य ब्लॉगरों को खोया है। ईश्वर उनकी आत्मा को शांति दे। 

केवल तकनीक ही नहीं कई बार व्यक्ति भी हानिप्रद सिद्ध होते हैं। हिन्दी चिठ्ठाकारी का कुछ नुकसान ऐसे हानिप्रद चिट्ठाकारों ने भी किया। घर-परिवार से सताए लोग जो यहाँ केवल कुढ़न निकालने के लिये बैठे थे उन्होंने सामाजिक संस्कारों के अभाव और असभ्यता का प्रदर्शन कर माहौल को कठिन बनाया जिसके कारण कई लोगों का मन खट्टा हुआ। कुछ भोले-भाले मासूम ब्लॉगर जो शुरू में ऐसे लोगों को प्रमोट करते पाये गये थे बाद में सिर पीटते मिले लेकिन तब तक चिट्ठाकारी का बहुत अहित हो चुका था। कान के कच्चे और जोश के पक्के ब्लॉगरों ने भी कई फ़िज़ूल के झगड़ों की आग में जाने-अनजाने ईंधन डालकर कई ब्लॉग बंद कराए।

गोबरपट्टी की "मन्ने के मिलेगा" की महान अवधारणा भी अनेक चिट्ठों की अकालमृत्यु का कारण बनी। ब्लॉगिंग को कमाई का साधन समझकर पकड़ने वालों में कुछ तो ऐसे थे जिन्होंने अन्य चिठ्ठाकारों की कीमत पर कमाई की भी लेकिन अधिकांश के पल्ले कुछ नहीं पड़ा। विकीपीडिया से ब्लॉग और ब्लॉग से विकीपीडिया तक टीपीकरण की कई यात्राएँ करने, भाँति-भाँति के विज्ञापनों से लेकर किसम-किसम की ठगी स्कीमों से निराश होने के बाद ब्लॉगिंग से मोहभंग स्वाभाविक ही था। सो यह वाला ब्लॉगर वर्ग भी सुप्तावस्था को प्राप्त हुआ। हालांकि ऐडसेंस आदि द्वारा कोई नई घोषणा आदि होने की स्थिति में यह मृतपक्षी अपने पर फ़ड़फ़ड़ाता हुआ नज़र आ जाता है।

हिंदी ब्लॉगरों के सामूहिक सामान्य-अज्ञान ने भी ब्लॉगिंग का अहित किया। मौलिकता का पूर्णाभाव, अभिव्यक्ति की स्तरहीनता, विशेषज्ञता की कमी के साथ, चोरी के चित्र, चोरी की लघुकथाएँ मिल-मिलाकर कितने दिन चलतीं। कॉपीराइट स्वामियों की शिकायतों पर चोरी की कुछ पोस्टें तो खुद हटाई गईं लेकिन कितने ही ब्लॉग कॉपीराइट स्वामियों की शिकायतों पर ब्लॉगर या वर्डप्रैस आदि द्वारा बंद कर दिये गये।

कितने ही ब्लॉगर उचित प्रोत्साहन के अभाव में भी टूटे। एक तो ये नाज़ुकमिज़ाज़ सरलता से आहत हो जाते थे, ऊपर से स्थापित मठाधीशों को अपने राजपथ से आगे की तंग गलियों में जाने की फ़ुरसत नहीं थी। कइयों के टिप्पणी बक्सों में लगे वर्ड वेरिफ़िकेशन जैसे झंझटों ने भी इनके ब्लॉग को टिप्पणियों से दूर किया। बची-खुची कसर उन तुनकमिज़ाज़ों ने पूरी कर दी जो टिप्पणी में सीधे जंग का ऐलान करते थे। कोई सामान्य ब्लॉगर ऐसी खतरनाक युद्धभूमि में कितनी देर ठहरता? सो देर-सवेर घर को रवाना हुआ। यद्यपि कई अस्थिर-चित्त ब्लॉगर ऐसे भी थे जो हर तीसरे दिन टंकी आरोहण की घोषणा सिर्फ़ इसी उद्देश्य से करते थे कि लोग आकर मनाएंगे तो कुछ टिप्पणियाँ जुटेंगी। किसे खबर थी कि उनकी चौपाल भी एक दिन वीरान होगी।

ऐसा नहीं है कि ब्लॉगिंग छूटने के सभी कारण निराशाजनक ही हों। बहुत से लोगों को ब्लॉगिंग ने अपनी पहचान बनाने में सहायता की। कितने ही साथी ब्लॉगर बनने के बाद लेखक, कवि और व्यंगकार बने। उनकी किताबें प्रकाशित हुईं। कुछ साथी ब्लॉगिंग के सहयोग से क्रमशः कच्चे-पक्के सम्पादक, प्रकाशक, आयोजक, पुरस्कारदाता, और व्यवसायी भी बने। कितनों ने अपनी वैबसाइटें बनाईं, पत्रिकाएँ और सामूहिक ब्लॉग शुरू किये। कुछ राजनीति से भी जुड़े।

खैर, अब ताऊ रामपुरिया के हिन्दी ब्लॉगिंग के पुनर्जागरण अभियान के अंतर्गत 1 जुलाई को "अंतरराष्ट्रीय हिन्दी ब्लॉगिंग दिवस" घोषित किये जाने की बात सुनकर आशा बंधी है कि हम अपनी ग़लतियों से सबक लेंगे और स्थिति को बेहतर बनाने वालों की कतार में खड़े नज़र आयेंगे।

शुभकामनाएँ!

शनिवार, 18 नवंबर 2017

2017 का अवलोकन 4




चलते चलते ठिठकी हूँ कई बार 
ओस सी भीगी दूब 
जैसे एक अनोखा एहसास देती है 
ठीक उसी तरह 
शब्दों के गलीचे मुझे एक नई सोच देते हैं 
कई उलझे तारों को झंकृत कर देते हैं 

राहुल सिंह का ब्लॉग सिंहावलोकन आपको भी कुछ सोचने को मजबूर करेगा -



शहर में शहर रहता है
शहर में सिर्फ शहर होता है
हर शहर का अपना वजूद है
उसका अपना वजूद, अपने होने से 

चिरई-चुरगुन, तालाब-बांधा, मर-मैदान
गुड़ी-गउठान, पारा-मुहल्ला
बाबू-नोनी, रिश्ते-नाते
शाम-ओ-सहर सब
या समाहित या शहर बदर
अब शहर में बस शहर ही शहर

शुक्रवार, 17 नवंबर 2017

2017 का अवलोकन 3


मेरा फोटो


अवलोकन की यात्रा मैं कछुए की तरह करती हूँ, ताकि अधिक से अधिक तराशी हुई कलम से साक्षात्कार हो, नज़रों से शब्दों का एहसासों का कोई महारथी न छूट जाए  ... और यह आप तय करेंगे मेरे द्वारा किये गए अवलोकन से कि मैं इन्साफ कर पाई हूँ या नहीं 


सत्यार्थमित्र: झाड़-फ़ूंक की अदृश्य शक्ति से सामना



कई दिनों के व्यतिक्रम के बाद आज साइकिल से सैर करने निकला। हालाँकि सोकर उठने में थोड़ी देर हो गयी थी लेकिन मैंने मन को बहानेबाज़ी का कोई मौका देना उचित नहीं समझा। बाहर का मौसम बहुत ख़ुशगवार नहीं था। सूरज निकल चुका था और सुबह की हवा में अपनी किरणों की आंच मिलाने लगा था। आसमान में कुछ फुटकर बादल इधर-उधर तैर रहे थे। इन विरल बादलों से धूप की तेजी पर यदा-कदा विराम लगने का झूठा संतोष हो रहा था। जमीन से धूल उठने लगी थी और 'इंदिरा-उद्यान' में टहलने वाले आखिरी लोग घरों की ओर लौटने लगे थे।
घर से बाहर निकलते ही एडीएम साहब मिल गये। रुककर कुशल-क्षेम पूछने के लिए ब्रेक लगाया। बायें पैर से जमीन पर टेक लेकर मैं साइकिल की सीट पर ही खुद को अटकाये रहा। वे एक-दो महीने में ही सेवानिवृत्त होने वाले हैं इसलिए उनका हाल-चाल लेता रहता हूँ। मैंने देखा कि उनकी तर्जनी अंगुली में पट्टी बंधी थी। वह लाल दवा से सनी हुई थी। पूछने पर उन्होंने बताया कि सीलिंग फैन की ब्लेड लग गयी थी। टाइप-4 के सरकारी आवास के बरामदे की छत में लगा पंखा इतना नीचे होता है कि सामान्य ऊंचाई के व्यक्ति का हाथ भी छू ले। ये साहब तो छः फुट वाले हैं। मैंने अफसोस व्यक्त करते हुए चलने की इज़ाजत मांगी और बताया कि आज भुएमऊ गेस्ट-हाउस तक जाऊँगा। उन्होंने अनुमान लगाया- मतलब आठ किलोमीटर जाएंगे।
परसदेपुर रोड पर इंदिरानहर पुल की ढलान से उतरते हुए पैडल नहीं मारना पड़ता। ढलान खत्म होने के सौ मीटर बाद भुएमऊ गाँव शुरू हो जाता है जिसकी शुरुआत कांग्रेस पार्टी के गेस्ट-हाउस से होती है। आज जब मैं ढलान से नीचे उतरते हुए अपनी साँसे स्थिर कर रहा था तो सड़क की दाहिनी ओर घने पेडों के बीच एक स्थान पर कुछ हलचल दिखी। झाड़ियों के पीछे एक लंबे पेड़ के नीचे कुछ महिलाएँ थीं। वहीं सड़क किनारे एक रिक्शा, एक बाइक और कुछ साइकिलें खड़ी थीं।
मैंने अपनी गति धीमी कर दी और अभी-अभी रिक्शे से उतरकर खड़ी हुई युवती से पूछा - यहाँ क्या हो रहा है? उसने कोई जवाब नहीं दिया बल्कि कंधे पर सो रहे बच्चे का सिर अपने पल्लू से ढंकने लगी। उसके चेहरे पर एक असुरक्षा व संकोच का भाव तैर गया था। रिक्शे वाले ने तबतक अपने मुँह का मसाला थूक दिया था। उसने बताया - कुछ नहीं, वहाँ बाबा बैठते हैं। उन्हीं को दिखाने आयी हैं। मैंने पूछा- क्या, झाड़-फूँक? उसने सहमति में सिर हिलाया। मुझे तत्काल वहाँ से आगे बढ़ जाना ठीक लगा।
आगे गेस्ट-हाउस के गेट तक जाते-जाते मेरा खोजी मन कुलबुलाने लगा। आखिर इस निर्जन स्थान पर घनी झाड़ियों के बीच, ऊँचे जंगली पेड़ों की ओट में ऐसा क्या हो रहा है जो इन गरीबों को यहाँ खींचे ले जा रहा है? मैंने साइकिल वापस मोड़ दी और उसी स्थान पर लौट आया। एक किशोर अपनी बाइक खड़ीकर उसकी सीट पर बैठा हुआ था। वह अपनी भाभी को लेकर आया था जो अपने नवजात शिशु को दिखाने आयीं थीं। मैंने सड़क पर से ही वहाँ की तस्वीर ली। लेकिन इससे कुछ खास स्पष्ट नहीं हो सका। मैंने साइकिल को सड़क से उतारकर नीचे खड़ा किया और ताला लगाकर उस पगडंडी पर उतर गया जो सड़क किनारे के गढ्ढे को पारकर मुझे उस पेड़ के पास ले गयी।
वहाँ का नजारा बड़ा रोचक था। करीब दर्जन भर माताएँ अपने-अपने बीमार बच्चों को गोद में लिए मौजूद थीं। एक दुग्ध-धवल लंबे बालों और दाढ़ी वाले बाबा जी पेड़ की जड़ के पास बैठे थे। बगल में एक बड़ी सी पोटली रखी थी जो धीरे-धीरे भर रही थी। उनके हाथ में करीब दस इंच का एक लोहे का चाकू था। उसकी मूठ भी लोहे की थी। बच्चों का इलाज़ प्रत्यक्षतः इसी यंत्र से किया जा रहा था। इसके अतिरिक्त कदाचित कुछ अनसुने मन्त्र भी थे जो चमत्कारी बाबाजी बुदबुदाए जा रहे थे। जिस बच्चे का 'इलाज' होते हुए मैंने देखा उसकी उम्र एक माह से कम ही रही होगी। बाबाजी चाकू की धार को जमीन की मिट्टी में धँसाकर खींचे जा रहे थे। बार-बार चाकू की धार से कटकर वहाँ की सूखी मिट्टी बारीक धूल जैसी हो गयी थी। मंत्र पूरा होने के बाद बाबाजी ने वह धूल मुठ्ठी में भर ली और उसे मसलने लगे और कुछ ध्यान करने लगे। इस प्रकार 'अभिमंत्रित' की जा चुकी धूल को उन्होंने बच्चे की माँ को देकर कुछ अस्फुट निर्देश दिया। उसने उसे लेकर बच्चे की नाभि व तलवों में लगा दिया। फिर अगले बच्चे की बारी आ गयी। बाबाजी इस इलाज़ के लिए कोई फीस नहीं मांग रहे थे। लेकिन सभी माताएँ उन्हें दस-बीस रुपये या/ और आटा-चावल इत्यादि देती जा रही थीं। यह सब उनकी पोटली के पेट में समाता जा रहा था।
एक कम उम्र की औरत के बुखार से तप रहे बच्चे को देखते हुए बाबा जी ने पूछा - कितने बच्चे हैं? उसने सिर झुकाकर बताया - तीन। उफ्फ, बीस-इक्कीस साल की इस दुबली-पतली कृषकाय लड़कीनुमा औरत को तीन बच्चे? मैं सोच में पड़ गया। बाबा जी ने फिर पूछा - इसे अपना दूध पिलाती हो? उसने जिस प्रकार अपना सिर हिलाया उससे मैं नहीं समझ पाया कि उत्तर हाँ है या ना। उसने कहा- बच्चे की टट्टी भी सूख गयी है। बाबा जी बोले - अभी इसका बुखार उतार रहा हूँ। जब बुखार उतर जाय तब आना। तब वह भी देख लेंगे। उसने पॉलीथिन का आटा और दो-तीन सिक्के बाबा जी को थमाये और उठ खड़ी हुई।
मैंने अगले बच्चे से पहले बाबाजी को टोका- आप किन-किन तकलीफों का इलाज करते हैं बाबा जी?
वे बोले- कोई भी तकलीफ हो जो लोग आते हैं उनकी मदद कर देता हूँ। वैसे छोटे बच्चे जिन्हें 'सूखा' हो गया हो, बुखार हो, खाते-पीते न हों उनके लिए कुछ कर देता हूँ।
मैंने पूछा- क्या कुछ? मतलब झाड़-फूँक? क्या सही में फायदा होता है? 
बाबाजी थोड़े अनमने हो गये। लेकिन मेरा यह प्रश्न सबके लिए खुला था। एक लड़के ने स्थानीय बोली (अवधी) में जो कहा उसका अर्थ यह था कि यदि फायदा नहीं होता तो प्रत्येक मंगलवार और रविवार को इतनी भीड़ कैसे लगती? उसकी बात से बाबाजी के चेहरे पर संतुष्टि लौट आयी और नये उत्साह से काम में लग गये। मरीजों की संख्या बढ़ती जा रही थी।

मैंने बाबाजी से फोटो खींचने की औपचारिक अनुमति मांग ली। उन्होंने मना नहीं किया बल्कि सहर्ष पोज देने लगे।हालाँकि इसके पहले ही अनेक फोटो मेरे मोबाइल कैमरे में कैद हो चुके थे।
मैंने जब उनका नाम पूछा तो थोड़े असहज हो गये। फिर बोले- मेरा नाम कोई नहीं जानता, लेकिन मुझे जानते सब हैं। यहाँ यह काम और कोई तो करता नहीं है। बस यह जान लीजिए कि हम पंडित हैं। इसी गाँव (भुएमऊ) के। इतवार-मंगल को यहीं मिलते हैं।
मैंने कहा- फिर भी कोई नाम तो होगा आपका। मान लीजिए बाहर किसी को बताना हो तो कैसे बताया जाएगा? आप इतनी भलाई का काम कर रहे हैं। लोगों को पता कैसे चलेगा?
वहाँ उपस्थित ग्रामीणों ने मेरे समर्थन में सिर हिलाया। एक लड़के ने कहा-इसे ले जाकर व्हाट्सअप पे डाल दीजिए। (उसे शायद फेसबुक की कल्पना नहीं थी।) अब बाबा जी पसीजकर बोले- नाम तो मेरा शिवदास है। 
मैंने उन्हें धन्यवाद दिया और उन सबको अपने पीछे दिखाते हुए सेल्फी ली और चल पड़ा।

मेरे दिमाग में अभी यह चल ही रहा था कि क्या यहाँ वाकई कोई अदृश्य, अलौकिक शक्ति है जो इस बाबा के हाथों की धूल के माध्यम से इन नवजात शिशुओं की बीमारी ठीक कर देती है। क्या वास्तव में इन बच्चों पर किसी भूत-प्रेत की छाया है जिसे बाबा शिवदास नियंत्रित कर रहे हैं? तभी मैंने देखा कि मेरी साइकिल की चेन उतर गयी है। अच्छी-भली खड़ी करके गया था। फिर यह उतर कैसे गयी और अंदर की ओर स्पॉकिट में बुरी तरह फँस कैसे गयी? मन मे उठी भूत की क्षणिक आशंका को मैंने सिर झटक कर नकारा और चेन चढ़ाने में पसीना बहाने लगा। बड़ी मुश्किल से बात बनी। मेरे दोनो हाथ ग्रीस की कालिख से काले हो गये। अब हैंडल कैसे पकड़ूँ? मैंने जमीन से सूखी मिट्टी उठाकर दोनो हाथों में रगड़ा तो कालिख का गीलापन खत्म हो गया। इसके बाद वहीं झाड़ी से कुछ हरी पत्तियां तोड़कर उन्हें हाथ मे मसलने लगा।
हाथ की कालिख कुछ कम हुई तो मैं चलने को उद्यत हुआ। तभी पैर उछालकर साइकिल की सीट पर बैठते हुए 'चर्र...' की आवाज हुई। धत तेरे की...। बिल्कुल नयी पैंट थी। 'कलर-प्लस' के स्पेशल डिस्काउंट ऑफर में पिछले हफ्ते ही लिया था। अब इसकी मजबूत सिलाई करानी पड़ेगी। यह सोचते हुए मैं सीट पर आसीन हो चुका था। अब घर पहुंचने से पहले कहीं रुकने की कोई गुंजाइश नहीं थी। बाबाजी से पिटी हुई कोई आत्मा मुझे तंग तो नहीं कर रही थी?