डॉ मोनिका शर्मा की कलम ज्वलंत सामाजिक मुद्दों को बखूबी लिखती हैं, एक एक शब्द तपे हुए ईंट से होते हैं !
उनकी यह पोस्ट हर माता-पिता के लिए ज़रूरी है, पढ़ते हुए स्मरण रहे कि वे स्वयं एक माँ हैं, और वे अपने बच्चे को पूरा वक़्त दे रही है। जिस तरह बागीचे में लगाए गए नन्हें पौधे को सही समय पर सिंचन, मिटटी की मुलायमियत, काट-छांट की ज़रूरत होती है, ठीक उसी तरह बढ़ते बच्चों को अपने माता पिता का साथ चाहिए, एक सजग अभिभावक की तरह ...
बच्चों का दोस्त बनना ठीक है ...पर उनके के माँ-बाप भी ...
साइबर दुनिया के किसी गेम के कारण जान दे देने की बात हो या बच्चों की अपराध की दुनिया में दस्तक | नेगेटिव बिहेवियर का मामला हो या लाख समझाने पर भी कुछ ना समझने की ज़िद | परवरिश के हालात मानो बेकाबू होते दिख रहे हैं | जितना मैं समझ पाई हूँ हम समय के साथ बच्चों के दोस्त तो बने पर घर के बड़े और उनके अभिभावक होने के नाते जो मर्यादित सख़्ती (जी मैं सोच-समझकर सख़्ती ही कह रही हूँ ) बरतनी चाहिए थी वो भूल गए हैं | जाने कैसी देखा-देखी की राह पकड़ी कि "हम तो अपने बच्चे को कुछ नहीं कहते" एक फैशनेबल स्टेटमेंट सा हो गया | "वी आर लाइक फ्रेंड्स..यू नो" कहते हुए मानो बच्चों के कोई सवाल करने का अपना अधिकार ख़ुद ही छीन रहे हैं | ऐसे पेरेंट्स भी देख रही हूँ जो जानते हैं कि बच्चे में व्यवहारगत समस्याएं आ रही हैं लेकिन बताने-समझाने पर उलटे टीचर से ही उलझ जाते हैं | बच्चे की इच्छा और ज़रूरत का अंतर समझे बिना स्मार्ट गैजेट्स के तोहफ़े उनके हाथ में दे देते हैं |
दुनिया के सभी माता-पिता जानते हैं कि उन्हें अपने बच्चों के कमरे में दरवाज़े पर दस्तक देकर आने जैसी औपचारिकता की शुरुआत कब करनी है | लेकिन ऐसी बातें कम उम्र में बच्चे कहने लगें या यूँ कहूं कि पेरेंट्स को बच्चों से ये आदेश मिलने लगें तो दोस्ती नहीं सख़्ती से सवाल किये जाने की भी ज़रूरत है | स्पेस के नाम पर बच्चे आपके संवाद से बचने लगें तो क्यों और किसलिए वाले प्रश्न जरूरी हो जाते हैं | मुझे लगता है कि माँ-बाप बने दो इंसानों का हक़ भी है और उत्तरदायित्व भी कि वे बच्चों को सही गलत का फ़र्क़ समझाएं । गलती पर रोकें-टोकें। नैतिक ज्ञान और भविष्य को बेहतर बनाने के लेक्चर भी सुनाएँ। ज़रूरी हो तो कुछ बंदिशे भी लगायें ।
बड़ों को समझना होगा कि दोस्ताना वातावरण में बच्चे से खुलकर बात करने और उनके हर तरह के नकारात्मक व्यवहार को ख़ुशी-ख़ुशी अपना लेने में बहुत फ़र्क़ होता है | मैं ये तो नहीं कहूँगी कि बच्चों को डरा-धमका कर रखें लेकिन आज के समय में ख़ुदअभिभावक बच्चों से डरे-डरे से रहते हैं, ये कैसी परवरिश है ? नई पीढ़ी को बांधना नहीं है लेकिन थामने के लिए भी कुछ तो नियम और सीख देनी ही होगी | दोस्त बनकर आप देर रात घर लौटे बच्चे से कितने सवाल कर पायेंगें ? माँ-बाप बनकर घर और ज़िन्दगी के नियम-क़ायदे समझाए बिना आपकी बात सुनी तक ना जाएगी | मुझे लगता है दोस्त बनकर रहने के नाम पर ऐसे हालात सही नहीं कहे जा सकते जिनमें बच्चों को सब कुछ देने की जद्दोज़हद में अपनी ज़िन्दगी जीना भूल रहे पेरेंट्स की रहनुमाई भी उन्हें स्वीकार ना हो |
हार्दिक आभार आपका |
जवाब देंहटाएंकब 10 पर पहुँच गये पता ही नहीं चला। कई पन्ने है अछूते अब भी अवलोकन के लिये। सुन्दर प्रस्तुति।
जवाब देंहटाएंदोस्त बनकर रहने के नाम पर ऐसे हालात सही नहीं कहे जा सकते जिनमें बच्चों को सब कुछ देने की जद्दोज़हद में अपनी ज़िन्दगी जीना भूल रहे पेरेंट्स ... बिल्कुल सही और सशक्त लेखन ... बधाई सहित आभार
जवाब देंहटाएंमहिला रचनाकारों का योगदान हिंदी ब्लॉगिंग जगत में कितना महत्वपूर्ण है ? यह आपको तय करना है ! आपके विचार इन सशक्त रचनाकारों के लिए उतना ही महत्व रखते हैं जितना देश के लिए लोकतंत्रात्मक प्रणाली। आप सब का हृदय से स्वागत है इन महिला रचनाकारों के सृजनात्मक मेले में। सोमवार २७ नवंबर २०१७ को ''पांच लिंकों का आनंद'' परिवार आपको आमंत्रित करता है। ................. http://halchalwith5links.blogspot.com आपके प्रतीक्षा में ! "एकलव्य"
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर ....
जवाब देंहटाएंजय श्री राधे
भ्रमर ५
बहुत सुन्दर ....
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