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शनिवार, 18 नवंबर 2017

2017 का अवलोकन 4




चलते चलते ठिठकी हूँ कई बार 
ओस सी भीगी दूब 
जैसे एक अनोखा एहसास देती है 
ठीक उसी तरह 
शब्दों के गलीचे मुझे एक नई सोच देते हैं 
कई उलझे तारों को झंकृत कर देते हैं 

राहुल सिंह का ब्लॉग सिंहावलोकन आपको भी कुछ सोचने को मजबूर करेगा -



शहर में शहर रहता है
शहर में सिर्फ शहर होता है
हर शहर का अपना वजूद है
उसका अपना वजूद, अपने होने से 

चिरई-चुरगुन, तालाब-बांधा, मर-मैदान
गुड़ी-गउठान, पारा-मुहल्ला
बाबू-नोनी, रिश्ते-नाते
शाम-ओ-सहर सब
या समाहित या शहर बदर
अब शहर में बस शहर ही शहर

3 टिप्‍पणियां:

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