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शुक्रवार, 2 जून 2017

मेरी रूहानी यात्रा का एक पड़ाव नीलेश मिश्रा


नीलेश मिश्रा हों या कोई भी ब्लॉगर या रचनाकार, उनका परिचय मैं भला क्या दूँगी 
मेरी रूह तो बस प्रशंसक है 
और अथक पाठक !




इस रूहानी यात्रा में एक ही बात ज़ेहन में आती है -
"तालियाँ हम बटोर न सके समझदारों की भीड़ में 
शायद इसीलिए खामोशियाँ सुनने की आदत सी हो गई  ..."(रश्मि प्रभा)

आइये, आज हम नीलेश जी की कलम से परिचय बढ़ाते हैं -


एक कहानी और मैं ज़िद पे अड़े
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एक कहानी और मैं
 ज़िद पे अड़े
 दोनों में से कोई ना
 आगे बढ़े
वो है कहती क्या समझता
 ख़ुद को तू?
 मैं नहीं तो क्या है तू
 ऐ नकचढ़े?
वो ये चाहे अपनी किस्मत
ख़ुद लिखे
मैंने बोला देखे तुझ
जैसे बड़े
है क़लम मेरी, मैं जो
चाहे लिखूं!
मेरी मर्ज़ी, जिस तरफ ये
चल पड़े!
झगड़ा ना सुलटेगा लगता
सारी रात
देखते हैं होगा क्या जब
दिन चढ़े
हैं हज़ार-एक लफ्ज़ लिख के
हम खड़े
एक कहानी और मैं
ज़िद पे अड़े



हमारे मन के कमरे में
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हमारे मन के कमरे में,
यूँ इक मंज़र अनोखा हो
हवा की तेज़ लहरें हों, 
कहीं पानी का झोंका हो 
और इक लम्हे की कश्ती पे, 
कुछ इस तरहा तू बैठी हो 
वही मेरी हकीकत हो, 
वही नज़रों का धोखा हो 
हमारे मन के कमरे में, 
यूँ इक मंज़र अनोखा हो …


इसके साथ ये है उनका यू ट्यूब पर उनके शोज का एक अनोखा अंदाज - इस लिंक के सहारे आप उनसे मिलते जायेंगे 
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3 टिप्‍पणियां:

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