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सोमवार, 21 दिसंबर 2015

प्रतिभाओं की कमी नहीं - एक अवलोकन 2015 (२१)


काश  ...
मैं नदी होती 
सागर से मिलने को 
सरगम सी कलकल ध्वनि लिए 
कोई गीत बनकर 
उसके होठों पर थिरकने के लिए 
मीलों बहती 
.... 
अपने शनैः शनैः प्रवाहित मन पर 
तैरती नाव में बैठे 
अज्ञात नाविक से पूछती - 
अँधेरी रात में 
लहरों पर निकलना 
तुम्हारा कैसा महाभिनिष्क्रमण है ?
किस पिपासा की शान्ति चाहिए ?
... 
काश  ... 
मैं नदी होती 


हृषीकेश वैद्य



“कुछ अफ़सोस इतने निजी होते हैं...”


हाँ,
लड़कपन की उम्र थी,
आमने-सामने बैठे थे दोनों।
बीच में लंबी सी मेज़..... खुरदरे हरे सनमाइका वाली।
लड़की ने अपना चेहरा झुका लिया था
नहीं चाहती थी
कि लड़का उसे पढ़े।
और लड़का...
उसे तो ये भी नहीं पता था
कि वो ख़ुद से क्या चाहता है।
गर्मी की दोपहर में,
एक सन्नाटा तारी था
दूर कोई पक्षी चीख रहा था रह-रह कर
चीं चीं चीं चीं !!!
दोनों की बोल-चाल बंद थी,
यही कोई डेढ़ महीनों से।
पिछले डेढ़ महीने....
जो बहुत भारी थे !!!
जिनका बोझ ढोते-ढोते
दोनों निस्तेज हो चले थे।
विदा की बेला भी पास ही थी।
इतनी पास.....
कि उँगली के दो पोरों पर दिन गिन लो।
स्थायी विदाई
उफ़्फ़ !!!!
लड़का उसे बहुत चाहता था,
मगर हेकड़ीबाज़ था।
और लड़की....
वो बस रो रही थी ज़ार-ज़ार।
पिछले चार हफ़्तों से चुप थी।
बिछड़ने से दो दिन पहले रुलाई फट पड़ी।
आँखों से आँसू की धार यूँ रलक रही थी।
ज्यूँ रातभर की बारिश के बाद,
छत से पानी का रेला बहता है।
एक अनवरत रेला,
दीवार के सहारे-सहारे।
लड़के के जी में आया
कि उसके आँसू पोंछ दे।
मगर हिम्मत न जुटा सका......उसके गालों को छूने की !
वो पागल भी पिछली पूरी रात,
चादर को मुँह में दबाये
रोता रहा था भूखा-प्यासा !
फिर बस....
वे जुदा हो गए।
किसीसे सुना था लड़के ने
कि उसकी शादी हो गई।
पिछले बीस सालों में,
तीन बार वो लड़की उसके सपनों में आयी।
कभी उदास सी,
तो कभी प्रश्न भरी आँखें लिये।
हर सपने के बाद,
पूरे-पूरे हफ़्ते लड़के को नींद नहीं आयी।
कुछ अफ़सोस इतने निजी होते हैं...
कि चाहकर भी हम,
उनका ज़िक्र किसीसे नहीं कर पाते।
पता नहीं कैसे....
ये गलती हो जाती है।
नीबू को खड़ा काट कर
हम अफ़सोस मनाते रहते हैं।
तुम अक्सर नाराज़ होती हो ना
कि मैं हर बात का ढिंढोरा पीट दिया करता हूँ;
कि मैं किसी भी बात को व्यक्तिगत नहीं रहने देता;
कि मैं तुम्हारे प्रति मेरे प्यार का इज़हार…..
इतना खुलकर क्यों करता हूँ !!
हीर मेरी....
मैं वो गलती नहीं दोहराना चाहता
जो उस लड़के ने की थी।
कोई मुझ पर हँस ले, गिला नहीं।
पर मैं अपने दिल की बात ना कह पाऊँ,
ये मुझे मंज़ूर नहीं।
ओह गालिब
कैसी-कैसी बातें करते थे तुम भी।
“ या रब !
वो न समझे हैं, ना समझेंगे मेरी बात
दे और दिल उनको, जो न दे मुझको ज़बां और।”
कोई ख़ुद होकर,
अपने प्यार का तमाशा नहीं बनाता।
मुनिया मेरी,
बच्ची हो तुम....
मासूम सी।
मेरी एलिस इन वंडर-लैंड,
....... जीयो !!!
तुम्हारा
देव

8 टिप्‍पणियां:

  1. हृषीकेश वैद्य जी की सुन्दर रचना प्रस्तुति हेतु आभार!

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  2. बहुत अच्छा लगता है इन्हें पढ़ना

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