हँसते हुए किसी बात पर
मैंने उसे हल्का नहीं बनाया
सुननेवाले ने बना दिया
मैंने तो बस उस पल को जी लिया
जिसमें दर्द का सैलाब था
दर्द पर खुद हँस लेना
हँसा देना
… हल्कापन नहीं होता
स्नेह-ऋण
प्रतुल वशिष्ठ http://darshanprashan- pratul.blogspot.in/
शरद निशा में
काँप रहा तन
थर-थर-थर-थर
मैं बिस्तर में सिमट गया
तन फिर भी शीतल
तभी कहीं से आया लघु
एक स्वप्न प्यारा
पिय ने मेरी दशा देखकर
मारी स्नेह धारा
उस गरमी से दहक उठा
मेरा शीतल तन
चलि*
उर में जो ठहर गई थी
मेरी धड़कन
पौं फटने में रहे
मात्र अब थोड़े ही पल
और अधिक बन गया भुवन
शीकर में शीतल
भोर भई
भानु भी भय से
भाग रहे भीरु बन
कड़क शीत में
कर-पिया से
माँग रहे स्नेह तन
भानु
पिया के आँचल में
छिप गया सिमटकर
हुआ कपिल रंग
था अब तक जो
भगवा दिनकर
स्नेह ताप से गर्म किया
दिनकर ने निज तन
उर में छाई धुंध
छँटी और बढ़ा सपन
ह्रदय धुंध हटते ही पिय का
स्नेह हटा निज उर से
सम्भवतः छिप गया
ओट पाकर के
निज उर-सर से
व्याकुल हो पूछा तब मैंने
"उर-सर! कहाँ छिपा है
'पिय का ऋण'
जिससे ठंडा निज
तन-मन बहुत तपा है
आप बता दें तो मिल जाए
ढाँढस मेरे हिय को।
आज नहीं तो
कल उधार
लौटाना है पिय को।"
(आगे का स्वप्न कहीं लापता हो गया है। मिलते ही आपसे मिलवाने लाऊँगा।)
पचास की वय पार कर
सुशील कुमार http://words4me. blogspot.in/
पचास की वय पार कर
मैं समझ पाया कि
वक्त की राख़ मेरे चेहरे पर गिरते हुए
कब मेरी आत्मा को छु गई, अहसास नहीं हुआ
उस राख़ को समेट रहा हूँ अब दोनों हाथों से
2.
दो वाक्य के बीच जो विराम-चिन्ह है
उसमें उसका अर्थ खोजने का यत्न कर रहा हूँ
3.
मेरे पास खोने को कुछ नहीं बचा
समय उस पर भारी होगा
जो समय का सिक्का चलाना चाहते हैं
आने दो उस अनागत अ-तिथि को
उसके चेहरे पर वह राख़ मलूँगा
जिसे मैंने अपने दोनों हाथों से बटोरी है
4.
जितने दृश्य दर्पण ने रचे थे
वह सब उसके टूटने से बिखर गए
रेत पर लिखी कविताएँ
लहरें अपने साथ बीच नदी में ले गई
अब जो रचूँगा, सहेजकर रखूँगा
हृदय के कागज पर अकथ लिखूंगा
5.
यह कालक्रम नहीं
समय के दो टूकड़ों के बीच की रिक्ति है
अथवा कहो- क्रम-भंग है,
एक विभाजन-रेखा है
इसमें अनहद है अनाहत स्वर है
नि: शब्द संकेत-लिपि है
कविता का बीज गुप्त है इसमें !
ज़िन्दगी ख़तम कहाँ होती है...
निखिल श्रीवास्तव http:// ankahibaatein.blogspot.in/
एक किसान था...
खेत बेचा था एक
सींचना था बड़ा सा दूसरा खेत
दाम कम मिले थे
पर उम्मीद थी एक दिन
वो फसल लहलहाएगी।
साल भर अपने बच्चों के साथ
खून से सींच डाला खेत
और साल भर बाद
देखकर अपने लहलहाते खेत
कहता था अपने बच्चों से
आएँगी बहार उनके जीवन में
पढ़ने जायेंगे खेत की
पगडंडियों से दूर
खुद की एक राह बनायेंगे
रात में ख्वाब घुल पाते
किसान के अरमानों को
एक अदद बार दोहरा पाते
सरसों के कोपल खुल पाते
कि एक जालिम रात गुज़री
उसकी ज़िन्दगी से होकर
सुबह तपिश बेपनाह थी
ज़िन्दगी का एक टुकड़ा
जल रहा था फसल के साथ
पीली ख़ुशी काली राख बन गयी
कुछ लोग बोले...ज़िन्दगी
का ये अंत तो नहीं।
कुछ आंसू गिरे
कुछ पोछ लिए गए
कुछ सूख के गालों पे
इक लकीर छोड़ गए
बच्चों ने बांध ली गठरी।
छोड़ दी किराये की वो कोठरी
भूल गए ख्वाब वो हसीन
बाप की राख नदी में
प्रवाहित कर वो भी किसी
सेठ की इमारत में ईंट
लगा रहे हैं...
ज़िन्दगी ख़तम कहाँ होती है...
माँ को अब भी उम्मीद है
किराये की छत से निकल
अपना घर बनाने की...
एक किसान तो था...
कुछ और बेहतरीन मोती समेट लिये ।
जवाब देंहटाएंबढ़िया
जवाब देंहटाएं@ आदरणीया रश्मि प्रभा जी, अधूरा स्वप्न ब्लॉग बुलेटिन में भी आया। देखकर दंग हुआ। आभारी हूँ।
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