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बुधवार, 22 अक्टूबर 2014

अवलोकन 2014 (15)



जो लिखा जाये, वह गुम नहीं होता
कोई सन्नाटे सा चेहरा उसे पढता जाता है  ... 



"प्रेम कविता लिखते हुए"


मुकेश पांडेय http://mukeshpandey87.blogspot.in/
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मुझे एक प्रेम कविता लिखने को कहा गया।
मैंने अपनी जेबों में हाथ डाला,
स्मृतियाँ टटोलीं, अनुभवों के जितने थे
गढ़े मुर्दे उखाड़े व सन्दर्भों के सभी चिठ्ठे फाड़ डाले,
लेकिन अतीत से कुछ भी विशेष हासिल न कर सका!

न ! प्रेम से मुझे कोई पैदाशयी नफरत नहीं रही,
अरे मेरा तो जन्म ही प्रेम के आधार पर हुआ था।
प्रेम के चरम पर ही तो मैंने विभत्सता, द्वेष व ईर्ष्या
जैसे अत्यधिक भौतिक शब्द(दुनियादारी के लिए सटीक) सीखे,
नफरत भी!

सच तो ये है कि
मैं जब-जब रोया या तो प्रेम के अभाव में
या प्रेम भाव में रोया।
व प्रेम ने ही तो मुझमे
संवेदना जैसा बहुत ही गैर ज़रूरी बीज भी बोया।

मैं कभी सही गलत का अंतर नहीं समझ पाया
बल्कि सीखा पक्षपात करना,
प्रेम को आधार बना कर मैंने कमज़ोर मित्र बनाये,
(अपनी असफल छवि से
निजात पाने हेतु तैयार कई सफल क्लोन!)
और उनमे बेहतर खुद को ढूँढा।

मैंने ईश्वर को प्रेम से सम्बोधित कर
पूरी इंसानियत को नकार दिया,
पुण्य को हमेशा पाप से ऊपर आँका,
व प्रेम के बदले प्रेम चाहा।
(इस तरह मैंने प्रेम की मौलिकता का हनन किया।)
मुझे तैरना नहीं आता था
परन्तु मैंने प्रेम के अनकंडीशनल होने का दावा किया
और इस तरह एक उत्तम तैराक को डुबोना चाहा।

मैंने प्रेम को मनगढ़ंत तरीकों से अभिव्यक्त किया।
प्रेम पर कई परिभाषाएं गढ़ दीं,
व उसे अपेक्षाओं के तराज़ू पर रखा।
मैंने प्रेम से लेन-देन व सौदाबजी करना सीखा,
व किसी पाखंडी धर्म प्रचारक की तरह
प्रेम को प्रेम कह कर ताउम्र वाह-वाही बटोरी।
(इस तरह भावनाओं के बाज़ार का सबसे बड़ा व्यापारी बना।)

परन्तु सच तो ये है कि मैं जीवन भर प्रेम के अर्थ से छला गया
व प्रेम की चिकनी सतह पर बार-बार बार फिसला।
मैंने अपना प्रेम दूसरों पर अहसानों की तरह थोपा
व बदले में उनसे सूद बटोरना चाहा।
पहले मैंने दुखी होना सीखा व फिर दुखी रहना।

और इस तरह प्रेम बिंदु से शुरू कर
दुख, अवसाद, कुंठा, निराशा व घृणा तक का सफ़र तय किया
व अंतत: प्रेम में लिप्त ईश्वर को पूजते-पूजते नकार दिया।
   



अहिल्या के प्रश्न

नील परमार http://the-blue-clue.blogspot.in/


क्या मूल्य ?
क्या नैतिकता ?
क्या प्रेम ?
क्या न्याय ?
कौन हो दण्ड का भागी?
कहो महिर्षि गौतम
इन्द्र?
चन्द्र?
मै ?
या हर न्यायाधीश ?

हर पत्थर मुक्त हो जाता है
अपनी जड़ता से
लेकिन कितने युगों के बाद?
जाने किसके स्पर्श से?

जीवन के वर्तुल में
एक श्राप को काटता
एक दूसरा श्राप.
ये कैसा न्याय है ?

क्या तुम्हारा अभिमान नही समझता इतना भी
कि ठोकर से पत्थर वापस मनुष्य नही बनता
मनुष्यता पत्थर हो जाती है
और इतिहास कलंकित.

हे क्रोधोन्मत्त व्रतानुरागी
मै अहिल्या नही
इतिहास हूँ.
मेरे प्रश्नों को भस्म नही कर सकते तुम्हारे श्राप
ना वो अनैतिक हो जाते है तुम्हारे कहने पर.

अवतार मुक्त करेगा
मुझको
या तुमको?

तुम्हारा श्राप मुक्त नही न्यूटन के तीसरे नीयम से
जाओ
सिसीफस से पूछो
क्या एक दिन हर श्राप की मियाद पूरी हो जाती है ?

7 टिप्‍पणियां:

  1. दीपावली की शुभकामनाऐं सभी ब्लाग बुलेटिन परिवार के सद्स्यों को । एक और सुंदर कड़ी अवलोकन की ।

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  2. दीपावली की हार्दिक शुभकामनाएँ...

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  3. Sundar post hindi technology blog ko bhi dhekhe http://www.hinditechtrick.blogspot.com

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  4. बहुत बढ़िया बुलेटिन प्रस्तुति
    आभार!
    शुभ दीपावली!

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  5. दोनों कविताएं सुंदर। अहिल्या के प्रश्न बहुत मार्मिक हैं। श्राप को मुक्ति उःशाप से ही है प्रतिशाप से नही।

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