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शनिवार, 18 अक्टूबर 2014

अवलोकन 2014 (13)



प्रेम में जीने के लिए 
प्रेम बुनना होता है 
मन और आँखों की सलाइयों पर 
शब्दों को प्रेम की आग में तपाकर 
कुंदन बनाना होता है  … 


गुब्बारे का ब्रह्मांड 

अनुपम ध्यानी http://journying.blogspot.in/
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जीवन का वेग 
मुझे निचोड़ रहा है
मेरे हाथ काँप रहे हैं
स्पर्धा में पीछे आने का भय
मुझे कचोट रहा है
मैं तो विफलता का ध्वज भी
अट्टहास के साथ लहराता था
पर अब वो ध्वज  भी 
मुझे फंदे जैसा घोट रहा है

एकांत में जा के मैने
कुछ बातें बचपन की याद की
जब पहली बार पिताजी 
गुब्बारा लाए थे
और कहा था
"साँस भरो बेटा...लंबी साँस
इस क्रिया में हर क्षण का करो आभास
और फूँक दो प्राण इस गुब्बारे में
मिला दो मिठास, खारे में"

अपने छोटे फेफड़ों में मैने
स्वास भरा
पूरा, लंबा..
और सिकोड दिए प्राण
फिर गुबारे के छोर को मूह से लगा
छोड़ दिए पूरे वेग से स्वास के बाण
जैसे जैसे हवा गयी, गुब्बारा फूला
ब्रह्मांड रूपी, चमकदार
मेरी पहली रचना का बना जैसे आधार
फूलते साथ ही पर पिताजी ने
किया एक सुई से प्रहार
फुस्स...
आशा
हर ओर निराशा
आंसूओं के खारेपन ने 
चहु ओर दुख तराशा
मैं बिलकते हुए पूछा
"आपने क्यूँ मेरा गुब्बारा फोड़ा
क्यूँ मेरे प्रयास को तोड़ा
क्यूँ मेरा गुब्बारा ना बनने दिया
क्यूँ सब उम्मीद को मरोड़ा?"

पिताजी ने स्नेह से गले लगाया
फिर रहस्य खोला
"बेटे, साँस तुम्हारी छाती में है
उसे गुब्बारे में क्यूँ समेटना?
ब्रह्मांड चहु ओर है, उसे 
परिधि में क्यूँ लपेटना?
गुब्बारे में हवा
एक दिन बासी हो जाएगी
फिर कोई सुई चुभो देगा
ज़िंदगी, उदासी हो जाएगी
एकत्र करते करते 
अपना स्वास ना व्यर्थ कर
इसे गुबारे में भर कर
ब्रह्मांड का अर्थ, न अनर्थ कर
स्वास ब्रह्मांड का हिस्सा है
उसे एकत्र नहीं किया जाता
जो सब ओर है उसे गुबारे में भर कर तो
सर्वत्र नहीं किया जाता"
मुझे तो तब गुबारे की पड़ी थी
पिताजी की निर्दयता 
और मेरे आँसुओं की दीवार
हमारे बीच खड़ी थी.

अब समझा हूँ....
एकत्र करते करते
गुबारे फुलाते फुलाते
साँस फूल गयी है
जो स्वास उड़ान के काम आना था
वो गुब्बारों में भरा है
जीवन स्थिर खड़ा है
भौतिक चीज़ों का गुब्बारा
समाज का गुब्बारा
परिवार का गुब्बारा
ब्रह्माड़ मेरा गुब्बारों में भरा है
कई बार यह गुब्बारे 
सुई से चुभो भी दिए हैं
मैं फिर उन्हे भर देता हूँ
जीवन जीना का "कर" देता हूँ

अब सारे गुब्बारे मैं स्वॅम फोड़ दूँगा
मुझे स्वतंत्र होना है
साँस भरनी है और उड़ना है
पीछे नहीं मुड़ना है
पंख फैलाना है, जिसमे शान है
स्वतंत्र जीवन ही महान है
जहाँ
ना गुब्बारे हैं, ना बंदी ब्रह्माड़ है

पिट्टू (pittoo) का सच

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तमाम दुनिया का चक्कर लगा कर
सबसे जीत, खुद से हार कर
थके पांवों से जब मैं अपने शहर लौटा
तो ज़रा मायूस लौटा.

सच की तलाश में जो सफ़र था जिया 
वो सफ़र आज घर लौट रहा था
सारी कायनात में खोजा जिस सच को
वो कहीं नहीं मिला
बादलों से रास्ते पूछे
पर्वतों से पते निकाले
वादियों की सरगोशियों में इसके किस्से सुने
मगर जो भी मिला, जितना भी मिला 
कुछ उखड़ा उखड़ा सा मिला 
झूठ की परतों पर परतें मिलीं
चेहरों पर गिले-शिकवे, झगडे और समझौते
गालों पर सूखे आंसुओं के निशाँ
आँखों में दर्द के साये पलते हुए मिले
कहीं सच नहीं मिला 
कहीं ख़ुशी नहीं मिली 
कहीं खुदा नहीं मिला

आज जब थक-हार कर
अपने घर के करीब पहुंचा
तब ध्यान मोहल्ले में खेलते हुए बच्चों पर गया
करीने से रखे हुए पिरामिड के आकर में पत्थर के ऊपर पत्थर
एक गेंद हवा में
लहराती हुई
उन छोटे पत्थरों से टकराती हुई
हवा में उछलते हुए पत्थर
कुछ बच्चे गेंद की ओर भागते हुए
तो कुछ बच्चे पत्थरों को वापिस जमाने की ताक में 
"पिट्टू (pittoo) बना!", "बॉल मार!", का शोर
बच्चों का ध्यान खेल पर था
और मेरा बच्चों पर
इतनी शिद्दत से मैंने ज़िन्दगी में कभी कुछ नहीं चाहा था
जितनी शिद्दत से ये बच्चे पिट्टू बनाना चाह रहे थे
मानो उनकी दुनिया बस उस एक पत्थरों के पिंड - "पिट्टू" पर टिकी हो

ध्यान लगाना इसी को तो कहते हैं
यही चाबी है
यही 'सच' है.

मैं हँस पड़ा
खामखा सच की तलाश में इतना भटका!

    
  कोई आयेगा 
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"ज्योति खरे"   http://jyoti-khare.blogspot.in/
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 बीनकर लाती हैं                                
 जंगल से                              
 कुछ सपने                            
  कुछ रिश्ते                            
 कुछ लकड़ियां--                              
 टांग देती हैं
 खूटी पर सपने
सहेजकर रखती हैं आले में
बिखरे रिश्ते
 डिभरी की टिमटिमाहट मेँ
 टटोलती हैं स्मृतियां--
                                
 बीनकर लायीं लकड़ियों से
 फिर जलाती हैं 
विश्वास का चूल्हा 
      कि कोई आयेग
  और कहेगा
      अम्मा
  तुम्हे लेने आया हूं
     घर चलो
  बच्चों को लोरियां सुनाने------


                                                          

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