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मंगलवार, 16 सितंबर 2014

कमाल की अभिव्यक्ति




उन्हें परेशानी नहीं होती 
वे देखते भी नहीं 
- किसने पढ़ा, नहीं पढ़ा 
उन्हें लिखना है - वे लिखते हैं 
इस बात से बेखबर कि किसकी क्या प्रतिक्रिया है 
वे लिखते भी चुपचाप हैं 
पढ़ते भी चुपचाप हैं 
यकीनन उन्हें अपने लिखने पर यकीन है 
और अपनी पसंद से पढ़ने के लिए वे आज़ाद हैं 
वे डरे नहीं रहते 
कि एक टिप्पणी के लिए उन्हें पढ़ना है 
या बिना पढ़े कुछ लिखना है !
मैं इन्हें पढ़ती हूँ 
कमाल की अभिव्यक्ति 
मन ही मन गुनना अच्छा लगता है 
दिल-दिमाग के हर तार में 
ये अभिव्यक्तियाँ चहलकदमी करती हैं 
काफी वक़्त तक असर रहता है  … 


kartikulations.wordpress.com/

रविवार, 14 सितंबर 2014

अच्छा हुआ, तुम मुक्त हुई शरीर से




आत्मा आत्मा से मिली 
पूछा क्यूँ तुम शरीर से निकली 
क्या  ऊब गई थी जीने से 
या उम्र हो गई थी पूरी ?

आत्मा ने थकी निगाहें उठाई 
कहा - अभी तो मेरी शादी हुई थी 
सपनों की दहलीज पर पायल की छनक  .... बजा नहीं सकी 
कोई कहानी सखी को सुना न सकी 
यह ऐसा,वह ऐसा 
अरे तुम बोलती क्यूँ नहीं 
ओह कितना बोलती है !!!! 
मेरे शरीर में सन्नाटा बिखर गया  … 
किससे कहूँ, कैसे कहूँ, कितना कहूँ का प्रश्न गहराता गया 
कुछ वक़्त की ओट में माँ से कहा 
पिता से कहा -
सीख और परेशानी मिली,
"अब तो वही घर है 
फिर समाज क्या कहेगा !"
कुछ चुप हुई 
फिर भाई-बहनों से कहा 
जवाब मिला -
"सब घर में ऐसा होता है 
निभाना पड़ता है 
दोस्तों को पता चलेगा तो मेरी हँसी उड़ाई जाएगी  ...."
मैं और चुप हुई !
एक दिन घबराकर पड़ोस का दरवाजा खटखटाया 
.... सुना,
"कारण क्या है ?
जो भी हो, हमें इस पचड़े से दूर रखो" .... 
खामोश हो गई !
खामोश शरीर ने कल बेटी को जन्म दिया 
इतने बड़े गुनाह की सजा मिली 
अब मैं आत्मा, वह रही वो आत्मा, जो मेरी बेटी बनी 
.... 

पहली आत्मा सिहरी 
बोली,
ओह, तो यह चीत्कार धरती से तुम्हारे माता-पिता की  है 
"मेरी बेटी, कुछ तो बताया होता !"
पडोसी भी बौद्धिक दिख रहे हैं 
"हमें पता होता तो देखते 
आह, बेचारी !"
अच्छा हुआ, तुम मुक्त हुई शरीर से  ………… 



शनिवार, 13 सितंबर 2014

फिर भी …




घर क्यूँ छोड़ दिया ?

कहानी सच्ची होगी, कैसे मानोगे ?

फिर भी  … 

बस - इतना जानो कि यही सबके हित में था 
आदतें उसकी नहीं बदलती 
आदतें मेरी नहीं बदलती 
और समझौते के वर्ष 
कम नहीं थे 
बच्चों की आदतें न बिगड़ जाएँ 
बेहतर था दो किनारों में घर को बाँट देना 
लहरों की तरह बच्चों के विकास के लिए 
.... 
अब देखो सौंदर्य भी है 
सीप भी, मोती भी 

यदि उनकी प्रकृति से खिलवाड़ किया 
तो सुनामी भी 



कम ही सही, यात्रा जारी रहे 

शुक्रवार, 12 सितंबर 2014

बस चलना है … तो चलते ही जाते हैं




एक रुलाई अंदर खलबली मचाये रहती है 
वजह,बेवजह उँगलियों पर दिन जोड़ती रहती हूँ 
चिड़िया बनकर अब मेरी आकृति 
अपनी चोंच से दरवाज़े को खुरचती है 
"माई रे खोल न दरवाज़ा"

दिन,महीने,साल गुजर जाते हैं, ये काम,वो काम, कर्तव्यों के मध्य आदमी चलता जाता है, किसी के न होने का दुःख, झंझावातों का दुःख,  … एक चुप क़दमों के साथ चलते हैं - शरीर नश्वर है, आत्मा अमर का मलहम कहाँ काम करता है, बस चलना है  … तो चलते ही जाते हैं 

चलते हुए कुछ विशेष लिंक्स - यादों के 


गुरुवार, 11 सितंबर 2014