एक रुलाई अंदर खलबली मचाये रहती है
वजह,बेवजह उँगलियों पर दिन जोड़ती रहती हूँ
चिड़िया बनकर अब मेरी आकृति
अपनी चोंच से दरवाज़े को खुरचती है
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"माई रे खोल न दरवाज़ा"
दिन,महीने,साल गुजर जाते हैं, ये काम,वो काम, कर्तव्यों के मध्य आदमी चलता जाता है, किसी के न होने का दुःख, झंझावातों का दुःख, … एक चुप क़दमों के साथ चलते हैं - शरीर नश्वर है, आत्मा अमर का मलहम कहाँ काम करता है, बस चलना है … तो चलते ही जाते हैं
चलते हुए कुछ विशेष लिंक्स - यादों के
सुंदर सूत्रो के साथ पेश किया गया आज का सुंदर बुलेटिन ।
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