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सोमवार, 11 नवंबर 2013

प्रतिभाओं की कमी नहीं 2013 (5)

ब्लॉग बुलेटिन का ख़ास संस्करण -

अवलोकन २०१३ ...

कई भागो में छपने वाली इस ख़ास बुलेटिन के अंतर्गत आपको सन २०१३ की कुछ चुनिन्दा पोस्टो को दोबारा पढने का मौका मिलेगा !

तो लीजिये पेश है अवलोकन २०१३ का पंचम भाग ...


महादेवी वर्मा रहस्यवाद और छायावाद की कवयित्री थीं, अतः उनके काव्य में आत्मा-परमात्मा के मिलन विरह तथा प्रकृति के व्यापारों की छाया स्पष्ट रूप से दृष्टिगोचर होती है। वेदना और पीड़ा महादेवी जी की कविता के प्राण रहे। उनका समस्त काव्य वेदनामय है। उन्हें निराशावाद अथवा पीड़ावाद की कवयित्री कहा गया है। वे स्वयं लिखती हैं, दुःख मेरे निकट जीवन का ऐसा काव्य है, जिसमें सारे संसार को एक सूत्र में बाँध रखने की क्षमता है। इनकी कविताओं में सीमा के बंधन में पड़ी असीम चेतना का क्रंदन है। यह वेदना लौकिक वेदना से भिन्न आध्यात्मिक जगत की है, जो उसी के लिए सहज संवेद्य हो सकती है, जिसने उस अनुभूति क्षेत्र में प्रवेश किया हो। वैसे महादेवी इस वेदना को उस दुःख की भी संज्ञा देती हैं, "जो सारे संसार को एक सूत्र में बाँधे रखने की क्षमता रखता है" ( किंतु विश्व को एक सूत्र में बाँधने वाला दुःख सामान्यतया लौकिक दुःख ही होता है, जो भारतीय साहित्य की परंपरा में करुण रस का स्थायी भाव होता है। महादेवी ने इस दुःख को नहीं अपनाया है। वे कहती हैं, "मुझे दुःख के दोनों ही रूप प्रिय हैं। एक वह, जो मनुष्य के संवेदनशील ह्रदय को सारे संसार से एक अविच्छिन्न बंधनों में बाँध देता है और दूसरा वह, जो काल और सीमा के बंधन में पड़े हुए असीम चेतना का क्रंदन है" किंतु, उनके काव्य में पहले प्रकार का नहीं, दूसरे प्रकार का 'क्रंदन' ही अभिव्यक्त हुआ है। यह वेदना सामान्य लोक ह्रदय की वस्तु नहीं है। संभवतः इसीलिए रामचंद्र शुक्ल ने उसकी सच्चाई में ही संदेह व्यक्त करते हुए लिखा है, "इस वेदना को लेकर उन्होंने ह्रदय की ऐसी अनुभूतियाँ सामने रखीं, जो लोकोत्तर हैं। कहाँ तक वे वास्तविक अनुभूतियाँ हैं और कहाँ तक अनुभूतियों की रमणीय कल्पना, यह नहीं कहा जा सकता" । इसी आध्यात्मिक वेदना की दिशा में प्रारंभ से अंत तक महादेवी के काव्य की सूक्ष्म और विवृत्त भावानुभूतियों का विकास और प्रसार दिखाई पड़ता है। डॉ. हज़ारी प्रसाद द्विवेदी तो उनके काव्य की पीड़ा को मीरा की काव्य-पीड़ा से भी बढ़कर मानते हैं।

कुछ ऐसी ही रचनाएँ चुनने की कोशिश है यह जाहिर करने के लिए कि प्रतिभाओं की कमी नहीं =

युग दृष्टि: भाव के पात्र

अभियांत्रिकी का स्नातक , भरण के लिए चाकरी ,साहित्य पढने की रूचि. और कुछ खास नहीं है अपने 

बारे में बताने को .

(आशीष राय)


उछ्ल  कर उच्च कभी सोल्लास
थिरक कर भर चांचल्य अपार
धीर सी  कभी ध्यान में मग्न
कुंठिता लज्जा सी साकार

मृदुल गुंजन सी गाती गान
बजाती कल कल  कर करताल
नृत्य बल खा खा करती, देख !
कभी भ्रू कुंचित कर कुछ भाल

वीचि -मालाओ में कर बद्ध
राशि के राशि अपरिमित भाव
पहुचती सरिता अचल समीप
चाहती अपना स्पर्श -प्रभाव

शैल से टक्कर खा खा किन्तु
बिखरती लहरें भाव समेत
ह्रदय के टुकड़े कर तत्काल
कठिन पीड़ा से बनी अचेत

नदी का सुनकर कातर नाद 

ह्रदय पिघलते  और विकम्पित गात्र !
कोई जाकर सरिता को समझाए
उपल भी कही भाव के पात्र ?

स्याही के बूटे .....: यात्रा ...भोर तक

कभी खुली किताब कभी बंद डायरी .....कभी विस्तृत आकाश समेटे और 
कभी नन्हीं सी बूंद ....शायद इसीलिए बूंदों से खेलना बहुत भाता है .....
गुब्बारों से भी ......मुस्कुराती बहुत हूँ ......
स्याही में हाथ रँगने में बड़ा आनंद मिलता है......शायद इसीलिए कलम से 
दोस्ताना हो गया .....जब वही स्याही कागज़ पर उभर आती है ...तो मेरा 
आनंद दुगना हो जाता है . (शिखा गुप्ता)


चन्द्र खींचता रात की बग्घी
तारे अपलक ताक रहे थे
ढली हुई पलकों में सज के
स्वप्न सलोने झाँक रहे थे.
मंद-मंद विहसित बयार थी
कुसुम सुगंधी टाँक रहे थे
चन्द्र-प्रभा के घिरते बादल
रजत-चदरिया ढांक रहे थे.
अर्ध-निद्रा में खोयी वसुधा
निशि-चक क्षिति लाँघ रहे थे
पार क्षितिज ऊषा के पंछी
उजला रस्ता नाप रहे थे.
आह ! पहुँच निकट भोर के द्वारे
रात के चक्के हाँफ रहे थे
मयंक स्वेद-कणों के मनके
पंखुरियों पे काँप रहे थे.
किरणें आरूढ़ काल के रथ पे
देव-सूर्य अश्व हांक रहे थे
अहा ! स्वागत में प्रभात के
अंबर रश्मियाँ तान रहे थे.
कुछ ही पल थे शेष विहान में
दिश पूरब खग आँक रहे थे
उजली किरणों के स्वागत में
पंकज पांख पसार रहे थे .

I am a software engineer, Pass out of Oriental Institute of Science and Technology, Bhopal.... 2006 batch... worked for techmahindra Ltd. till 2009.... mother of 2 lovely n lively kids... A housewife.... A thinker... A poem writer... प्रकाशित काव्य संग्रह "कस्तूरी" और "पगडंडियाँ"
(मिनाक्षी मिश्रा तिवारी)

न जाने कितने शब्द नृत्य करने लगते हैं मष्तिष्क में ,
जब देखती हूँ घने कोहरे के बाद फैली धूप चारों ओर।
आँगन में छिटकी ये धूप ,अनुभूति कराती है मुझे .....
तुम्हारे पास होने का ....

जब मैं उन्मुक्त पंछी सी,
तुम्हारे खुले और स्वच्छ आकाश की तरह,
फैले बाजुओं में आ छिप जाती थी ,
सुरक्षित महसूस करती थी अपने आप को वहां।

तुम्हारे उस निर्मल आकाश में फैली धूप के उजियार से,
चमक उठता था कण-कण मेरा,
विचार शून्य हो जाता था मस्तिष्क,
मानो सारी चिंताओं से मुक्त हूँ।

बस आज उस गुनगुनी धूप ने बरसों बाद,
मेरे स्मृति पटल पर अंकित,
जीवंत कर दिए वो प्रकाशमय क्षण,
जो बहते हैं प्रकाशवान एक नदी की तरह सदा ही मुझमे .....

एक तीव्र रौशनी - अकेलेपन को प्रकाशित कर अपने होने का एहसास देता है - स्पष्तः सोचो,तो हम अकेले लगते हैं  … होते नहीं 
:)

13 टिप्‍पणियां:

  1. हम अकेले लगते हैं … होते नहीं ....
    मेरे अकेलेपन का साथी सबके शब्द हैं ....

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  2. कभी कभी सोचता हूँ आप को याद कैसे रहता है साल भर मे आई हुई इतनी पोस्टों के बारे मे ... जय हो आपकी !

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  3. - "कोई जाकर सरिता को समझाए
    उपल भी कही भाव के पात्र ?"......भावों की सरिता इन दो पंक्तियों में प्रवाहित हो रही हैं ....बहुत सुंदर रचना
    - ओह ! रश्मि जी कब सोचा था कि आप से बिन माँगे भी इतना स्नेह मिलेगा ...मेरी रचना को इस अंक में स्थान देने के लिये कोटि-कोटि धन्यवाद
    - "सोचो,तो हम अकेले लगते हैं … होते नहीं ".......उजाला हमारे भीतर ही होता है जिसे ढूँढने में जीवन बिता देते हैं ...बहुत सुंदर

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  4. सभी रचनायें एक से बढ़कर एक .... अापका चयन एवं प्रस्‍तुति
    नि:शब्‍द कर जाते हैं
    आभार

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  5. Dr Rama Dwivedi..

    बहुत सुन्दर संकलन … बहुत-बहुत बधाई...

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