ब्लॉग बुलेटिन का ख़ास संस्करण -
अवलोकन २०१३ ...
कई भागो में छपने वाली इस ख़ास बुलेटिन के अंतर्गत आपको सन २०१३ की कुछ चुनिन्दा पोस्टो को दोबारा पढने का मौका मिलेगा !
तो लीजिये पेश है अवलोकन २०१३ का चौथा भाग ...
ख्वाब बिल्कुल ख्वाब की तरह
हकीकत की ख्वाहिश लिए
जब आँखों की परिधि से
ठोस सतह पर पाँव रखते हैं
तो बंज़र ज़मीन का सच
काँच की तरह चुभता है ....
ख्वाब करते हैं समझौता
रिसते खून से बेपरवाह
ख़्वाबों को गुलदस्ते में सजाते हैं
रंगबिरंगे फूल
पानी में तैरते दीये
अपनी कहानी कहने का
समझाने का अथक प्रयास होता है
ख़्वाबों की नज़ाकत
पूरी काया
पूरी कायनात से जुड़ी होती है
!
हकीकत के सवाल ख़्वाबों को हतप्रभ करते हैं
करते जाते हैं
फिर एक दिन
ख्वाब धूल से उड़ने लगते हैं
हकीकत पानी के छींटे देता है
पर -
देर हो चुकी होती है !!
जब देर हो जाये .... तो कोई भी प्रश्न व्यर्थ है . प्रश्न कोई भी हो मन की रगें दुखती हैं,ख़्वाबों के मृत शरीर को ठेस लगती है = इसे यूँ समझने की कोशिश करें
चौराहा: क्योंकि पीड़ा की कोई भाषा नहीं होती
(चण्डीदत्त शुक्ल-8824696345)
तुम्हारा दोस्त दुखी है...
उससे न पूछना, उसकी कातरता की वज़ह,
दुख की गंध सूखी हुई आंख में पड़ी लाल लकीरों में होती है।
ये सवाल न करना, तुम क्यों रोए?
कोई, कभी, ठीक-ठीक नहीं बता सकता अपनी पीड़ा का कारण।
कहानियों के ब्योरों में नहीं बयान होते हताशा के अध्याय,
न ही दिल के जख्मों को बार-बार, ताज़ा चमड़ी उधेड़कर दिखाना मुमकिन होता है साथी।
कोई कैसे बताएगा कि वह क्यों रोया?
इतना ही क्यों, इस बार ही क्यों, इतनी छोटी-सी वज़ह पर?
ऐसे सवाल उसे चुभते हैं।
रो भी न पड़ना उसे हताश देखकर,
वह घिर जाएगा ग्लानि में और उम्र भर के लिए।
नैराश्य होगा ही उसकी ज़ुबान पर और लड़खड़ा जाएगी जीभ,
बहुत उदास और अधीर होगा, अगर उसे सुनानी पड़ी अपनी पीड़ा की कथा।
तब भी यकीन करो, शब्दों में नहीं बांध पाएगा वह अपनी कमज़ोरी।
हो सके तो उसे छूना भी नहीं।
तुम्हारी निगाह में एक भरोसे का भाव है उसका सबसे कारगर मरहम,
उसमें बस लिखा रहे ये कहना – तुम अकेले नहीं हो।
उसकी भीगी पलकों को सूखने का वक्त देना
और ये कभी संभव नहीं होगा, उसे यह समझाते हुए –
गलतियां ये की थीं, इसलिए ऐसा हुआ!
हर दुखी आदमी मन में बांचता है अपने अपराध।
वह जड़ नहीं होता, नहीं तो रोया ही न होता।
दुख नए फैशन का छींटदार बुशर्ट नहीं है कि वह बता सके उसे ओढ़ने की वज़ह,
कोई मौसम भी नहीं आता रुला देने में जो हो कारगर।
हर बार आंख भी नहीं भीग जाती दुख में।
जब कोई खिलखिलाता हुआ चुप हो जाए यकायक,
तब समझना, कहीं गहरे तक गड़ी है एक कील,
जिसे छूने से भी चटख जाएंगी दिल की नसें।
उसके चेहरे पर पीड़ा दिखनी भी जरूरी नहीं है।
एक आहत चुप्पी, रुदन और क्षोभ की त्रासदी की गवाही है।
उसे समझना और मौजूद रहना,
बिना कुछ कहे,
क्योंकि पीड़ा की कोई भाषा नहीं होती।
जिलाधीश
तुम एक पिछड़े हुए वक्ता हो
तुम एक ऐसे विरोध की भाषा में बोलते हो
जैसे राजाओं का विरोध कर रहे हो
एक ऐसे समय की भाषा जब संसद का जन्म नहीं हुआ था
तुम क्या सोचते हो
संसद ने विरोध की भाषा और सामग्री को वैसा ही रहने दिया है
जैसी वह राजाओं के ज़माने में थी
यह जो आदमी
मेज़ की दूसरी ओर सुन रहा है तुम्हें
कितने करीब और ध्यान से
यह राजा नहीं जिलाधीश है !
यह जिलाधीश है
जो राजाओं से आम तौर पर
बहुत ज़्यादा शिक्षित है
राजाओं से ज़्यादा तत्पर और संलग्न !
यह दूर किसी किले में — ऐश्वर्य की निर्जनता में नहीं
हमारी गलियों में पैदा हुआ एक लड़का है
यह हमारी असफलताओं और गलतियों के बीच पला है
यह जानता है हमारे साहस और लालच को
राजाओं से बहुत ज़्यादा धैर्य और चिन्ता है इसके पास
यह ज़्यादा भ्रम पैदा कर सकता है
यह ज़्यादा अच्छी तरह हमें आजादी से दूर रख सकता है
कड़ी
कड़ी निगरानी चाहिए
सरकार के इस बेहतरीन दिमाग पर !
कभी-कभी तो इससे सीखना भी पड़ सकता है !
नीरव: ईजाद...!
मुझे फूलों से प्यार है, तितलियों, रंगों, हरियाली और इन शॉर्ट उस सब से प्यार है
जिसे हम प्रकृति कहते हैं।
(डॉ. राजेश नीरव)
मैंने ईजाद कर ली है
एक कला
शोर-गुल के बीच
ध्यानस्थ रहने की
तुम भी चाहो तो
इसे आजमा सकते हो,
शांति के लिए...
शहर हो या गाँव
बढ़ती ही जा रही है
आवाज़ें, चिल्लपों, शोर
कहीं वाहनों का, कहीं मशीनों, कहीं मशीनी-इंसानों का
हर कहीं, हर वक्त एक शोर-सा
मचा रहता है
हम चाहें तो भी नहीं बच पाते शोर से
नीरव शांति अब एक दुर्लभ सपना है,
मैंने खोज लिया है
तरीका एक नायाब
भीड़ में शांति तो नहीं
ध्यान लग जाता है,
चिड़चिड़ाहट नहीं होती
जब भी फँसता हूँ ऐसे शोर-ओ-गुल में
बस एक- किसी एक- आवाज़ पर
लगा देता हूँ ध्यान
गौर से सुनता हूँ, सुनने की कोशिश करता हूँ
वही एक आवाज़...
और अचानक
सब आवाज़ें जैसे दब जाती है
सुनाई पड़ती है वही एक आवाज़
और अंतत संगीत में बदल जाती है
कर्कशता से संगीत का यह
कमाल
भरी-भीड़ में, ट्रेफिक जाम में
रैलियों, शादियों, पार्टियों
हर कहीं अपना जज़्बा दिखाता है
और मैं भीड़ में मुस्कुराता नहीं, शांत दीखता हूँ
प्यार न हो,दर्द न हो,सन्नाटा न हो,जुड़ने से टूटने तक की यात्रा न हो - तो भावों
की नदी नहीं बनती,नहीं उफनती …
नहीं दमकता फिर कोई ध्रुवतारा !!!:)
हर कहीं अपना जज़्बा दिखाता है
जवाब देंहटाएंऔर मैं भीड़ में मुस्कुराता नहीं, शांत दीखता हूँ
कमाल (*_*)
बहुत बढ़िया बुलेटिन व सुन्दर प्रस्तुति
जवाब देंहटाएंनया प्रकाशन --: जानिये क्या है "बमिताल"?
रंग अनेक पर सबकी अलग तासीर ..खोबसूरत अंदाज-इ-बयां
जवाब देंहटाएंसभी एक से बढकर एक ………शानदार प्रस्तुति।
जवाब देंहटाएंएक से बढ़कर एक बेहतरीन !
जवाब देंहटाएंबेहतरीन श्रृंखला!! बहुत अच्छे अच्छे रचनाकारों से परिचय हो रहा है!!
जवाब देंहटाएं- ख्वाब और हकीकत में दोस्ती हो कहाँ पाती है ....एक दिन तो दूजा रात है
जवाब देंहटाएं.....अपनी सी रचना
- ये सच है पीड़ा कि कोई भाषा नहीं होती ....शब्दों से परे जो समझ सके वही अपना हो जाता है
- सामजिक-राजनैतिक परिपेक्ष्य में उद्वेलित करती रचना
- भीड़ में ध्यान ....बात में दम है जी
'
रश्मि जी आपको शुक्रिया दिये बिना जाना मुमकिन नहीं है :)
बहुत बढ़िया ..एक से बढ़कर एक बेहतरीन प्रस्तुति। !
जवाब देंहटाएंसुंदर प्रस्तुति ..!
जवाब देंहटाएंरश्मी जी ..लगता है आपको अतुकांत रचनाए ही ज्यादा पसंद आती है,,
RECENT POST -: कामयाबी.
बिलकुल नहीं धीरेन्द्र जी,मुझे अर्थपूर्ण रचनाएं पसंद आती हैं - तुकांत हो या अतुकांत (बिल्कुल ज़िन्दगी की तरह) :)
जवाब देंहटाएंजय हो दीदी :)
जवाब देंहटाएंसभी रचनायें प्रभावित करती हैं ! यह अवलोकन अत्यंत विशिष्ट है कि इतनी सशक्त एवँ अर्थपूर्ण रचनायें पढ़ पाने का सुअवसर प्राप्त हो रहा है ! आभार आपका !
जवाब देंहटाएंसभी रचनायों में एक मुद्दा है जो कविता /रचना का केंद्र विन्दु है |
जवाब देंहटाएंनई पोस्ट काम अधुरा है
शानदार
जवाब देंहटाएंbahut sundar aur sarthak prastutikaran ke liye aap badhai ka patra hain.
जवाब देंहटाएंपीड़ा की कोई भाषा नहीं होती।
जवाब देंहटाएंसभी रचनाओं का चयन एवं प्रस्तुति उत्कृष्टता लिये हुये
आभार
वाह रश्मिजी ......अभिभूत हूँ यह लिंक्स पढ़कर .....चंडी दत्तजी का कहना
जवाब देंहटाएं"जब कोई खिलखिलाता हुआ चुप हो जाए यकायक,
तब समझना, कहीं गहरे तक गड़ी है एक कील,
जिसे छूने से भी चटख जाएंगी दिल की नसें।
उसके चेहरे पर पीड़ा दिखनी भी जरूरी नहीं है।
एक आहत चुप्पी, रुदन और क्षोभ की त्रासदी की गवाही है।
उसे समझना और मौजूद रहना,
बिना कुछ कहे,
क्योंकि पीड़ा की कोई भाषा नहीं होती।"
क्या कहूँ नि:शब्द हूँ.....
रश्मिजी ऐसे ध्रुव तारों से परिचय करने के लिए शत शत आभार ...!!!