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मंगलवार, 12 नवंबर 2013

प्रतिभाओं की कमी नहीं 2013 (6)

ब्लॉग बुलेटिन का ख़ास संस्करण -

अवलोकन २०१३ ...

कई भागो में छपने वाली इस ख़ास बुलेटिन के अंतर्गत आपको सन २०१३ की कुछ चुनिन्दा पोस्टो को दोबारा पढने का मौका मिलेगा !

तो लीजिये पेश है अवलोकन २०१३ का छटा भाग ...


मैं एक अस्तित्व .... मैं से निकली हर शाखाओं पर अस्तित्व की रक्षा में दुआओं के धागे बंधे हैं .... शरीर का आवरण भले ही मिट जाये,मैं का अस्तित्व अमर है ! सलीब तुम्हारा हो सकता है,कीलों से तुम 'मैं' को टांग सकते हो,पर बाह्य मैं आंतरिक मैं को नहीं छू सकता,नहीं छू पाता है - यकीनन 'मैं' में अद्भुत क्षमता है ..... उसके अस्तित्व से ही तुम और हम हैं और रहेंगे .....

SADA का ब्लॉग एक आवाज़ है - जो दूर तक जाती है, जैसे मैं ...तक 


मैं ... : मेरा 'मैं' ... 


मेरा 'मैं' - मेरा अहंकार, 
मेरा 'मैं' - 
मुझसे भी श्रेष्‍ठ जब हो जाता है 
सच कहूँ 
कुछ जलने लगता है  मन में 
पर फिर भी नहीं पिघलता 
जाने क्‍यूँ मेरा 'मैं' 
... 
तर-ब-तर पसीने में भीगा 'मैं' 
शुष्क ज़ुबान
खोखली बातों का सिरा लिये 
सच की जड़ों तक जब पहुँचता है 
घुटनों के बल बैठ
अपने अमिट और अटल होने का अनुमान, 
जीवन का संज्ञान लिये 
अपने बुनियाद होने का दंभ भरता है
और इस तरह
खोखला हो जाता कहीं मेरा ही मैं
......
मेरा 'मैं' - मेरा शिखर,
फिर भी हो जाता मौन 
श्रेष्‍ठता की पहली पंक्ति पर बैठा
हर चेहरे पर अपना अक्‍स लिये 
अपनी भव्‍यता का पाठ  सुनाता 
अपना इतिहास गाता 
किसने उसकी उड़ाई हँसी
किसने परिहास किया
सब बातों से बेखबर मेरा 'मैं'
कितने सवालों को अनसुना कर 
सिर्फ कर्ता बनकर कर्तव्‍य करता 
एक दिन तपकर 
कुंदन हो जाता मेरा 'मैं' 

(सौरभ शर्मा)

88 की उम्र में टि्वट करते थे देवानंद
फिक्र को धुंए में उड़ाते जुट जाते थे नई फिल्म की शूटिंग के लिए
82 की उम्र में डायलिसिस करा सीधे सेट पर पहुँचते थे शम्मी
भारत के अगले रॉकस्टार को तैयार करने का जुनून
दिखता था उनके अंदर

82 में ही आडवाणी निकालते हैं लंबी रथयात्रा
घंटों खड़े स्वीकार करते हैं अभिवादन जनता का
पीएम बनने का सपना युवा जो है
100 की उम्र में मैराथन दौड़ते हैं फौजा सिंह
बढ़ती उम्र से पैदा होने वाली निराशा को पीछे छोड़ते हुए
और 82 की उम्र में ही मेरे बड़े पिता जी
मंदिर में गिरने से पैर टूटने के बाद
फिर जाने लगे हैं मंदिर
78 की मेरी बुआ
कमर टूटने के बाद फिर खड़ी हो गई है
 शहर छोड़कर वो जा रही है उसी गाँव में,
 जहाँ उसकी कमर टूटी थी।
  86 की मेरी बुआ
  हड्डियाँ टूटने के इतने समाचार सुनकर
  चिंतित होकर कहती हैं ये इतने अधीर क्यों हैं
शांति से बैठें तो जी लेंगे कुछ और दिन...
सबको जीना अच्छा लगता है
क्यों अच्छा नहीं लगेगा, ऐसे जीना..

उत्तर प्रदेश के फैज़ाबाद ज़िले के एक छोटे से गांव में पैदा हुआ। सरकारी वजीफे पर नैनीताल के एक आवासीय स्कूल में 12वीं तक पढ़ाई की। फिर इलाहाबाद यूनिवर्सिटी पहुंचा तो ऐसा ‘ज्ञान’ मिला कि दुखिया दास कबीर है जागै अरु रोवै की हालत में पहुंच गया। सालों बाद भी उसी अवस्था में हूं। मुझे लगता है कि हम एक साथ हजारों जिंदगियां जीते हैं, अलग-अलग अंश में अलग-अलग किरदार। मैं इनमे से हर अंश को अलग शरीर और आत्मा देना चाहता हूं। एक से अनेक होना चाहता हूं।
(अनिल रघुराज)

कोई आपकी धमनियों का सारा खून निकालकर उसमें सीसा पिघलाकर डाल दे तो कैसा लगेगा? लगेगा कि हाथ-पैर और अंतड़ियों का वजन इतना बढ़ गया है कि आप सीधे खड़े भी नहीं रह सकते। मोम की तरह पिघलकर गिर जाएंगे। अपने को संभाल पाने की सारी ताकत एकबारगी चुक जाती है। पूरा वजूद भंगुर हो जाता है। लगता है कि कभी भी भर-भराकर आप जमींदोज हो जाएंगे। ऐसे हो जाएंगे जैसे बुलडोजर के कुचलकर कोलतार की सड़क पर बनी कोई चिपटी हुई 2-dimensional आकृति या चॉक का चूरन।

दिमाग में ऑक्सीजन पहुंचने का स्रोत बंद कर दिया जाए तो कैसा लगेगा। बार-बार जम्हाई आएगी। लगेगा जैसे गर्दन से लेकर माथे के दोनों तरफ सूखे से तड़के खेतों से निकालकर मिट्टी के टुकड़े भर दिए गए हों। आंखों से आंसू नहीं, पानी की दो-चार बूंदें निकलेंगी। बैठे-बैठे लगेगा कि अब ढप हो जाएंगे। हाथों से सिर थामने की कोशिश करते हैं तो लगता है अब वह धम से सामने की मेज पर गिर जाएगा।

पूरा शरीर झनझनाने लगता है। अंग-अंग में झींगुर बोलने लगते हैं। आंखें बंद करो तो लगता है अब ये कभी खुलेंगी ही नहीं। बंद आखों के आगे अजीब-अजीब सी आकृतियां धमाचौकड़ी करती हैं। आप प्रकाश की गति से किसी अनंत सुरंग में घुसते चले जाते हैं जिसके अंतिम छोर पर परमाणु बम के विस्फोट से उभरे धुएं की आकृति की रौशनी आपका इंतज़ार कर रही होती है।

आपने कहा, ब्रह्म के एक नहीं दो रूप हैं और बता दिया गया कि ये तो कह रहा है कि मैं तुम्हारी दोनों आंखें फोड़ दूंगा। आपने तो भरसक ज़ोर से कहा था – नरो व कुंजरो व। लेकिन सेनापतियों ने शोर मचाकर आपको अपने सामरिक मकसद का मोहरा बना लिया। आपने कल के कामों में मीनमेख निकाली ताकि आज की देश-दुनिया को सुंदर बनाया जा सके, जीवन-स्थितियों को ज्यादा बेहतर व जीने लायक बनाया जा सके। लेकिन उन्होंने कहा – अरे लानत भेजो इस पर। ये तो हमारे गरिमामय अतीत की तौहीन कर रहा है, उसे डिनाउंस कर रहा है।

सूरत अगर ऐसी हो गई हो तो मन में यही आता है कि क्या लिखूं, कैसे लिखूं, कब लिखूं और क्यों लिखूं? फिर लिखना ही है तो सबको दिखाने के लिए ब्लॉग पर क्यों लिखूं, क्यों करूं आत्म-प्रदर्शन? मोर को नाचना ही है तो बंद कमरे में भी नाच सकता है। जंगल में नाचना कोई ज़रूरी तो नहीं?

अनलिखे शब्द,भाव भी अनहद नाद करते हैं 
एक पहचान देते हैं - समूह से परे 
और मन का कोना अहर्निश जलता है  … 

13 टिप्‍पणियां:

  1. बहुत सुंदर श्रंखला चल रही है ... अवलोकन २०१३ का भरपूर लाभ मिल रहा है सब को !

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  2. बढिया चल रही है श्रृंखला…………आभार

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  3. - 'मैं' की यात्रा सही-गलत मोड़ से होती हुई .....आत्म-विश्लेषण को विवश करती हुई
    - जीने की चाहत सब में भरपूर होती है ... इन उदाहरणों से तो और भी बढ़ जाती है ....
    - अतीत से सीखना ...उचित बात है परन्तु उस पर आँख मूँद कर अनुसरण करने या भक्ति की सीमा तक उसका विशवास कर लेना मूर्खता है ....

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  4. हर प्रस्तुति प्रभावित एवँ प्रेरित करती है ! बहुत सुंदर संकलन है रश्मिप्रभा जी ! आभार है आपका इन्हें सबसे शेयर करने के लिये !

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  5. .... उसके अस्तित्व से ही तुम और हम हैं और रहेंगे .....सच्‍ची बात, आभार आपका
    सादर

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  6. मैं की व्याख्या..उसका ज्ञान अपने आप में ही एक अद्भुत विषय है ....आपने इसपर बहुत से लोगों के विचार जाने ..वाकई बहुत ही रोचक पोस्ट है.....

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  7. Dr Rama Dwivedi..

    बहुत सुन्दर संकलन … बहुत-बहुत बधाई...

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